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वैचारिक जीवन और समन्वय
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वचन और व्यवहार प्रसरणशील हैं, बाहर जाते हैं। हमारा वचन दूसरे तक पहुंचता है । हमारा व्यवहार दूसरे को प्रभावित करता है, दूसरे को छूता है। वचन और व्यवहार दोनों दूसरे को प्रभावित करते हैं। इन तीनों पर एक नई दृष्टि से विचार करना है।
___ भगवान् महावीर ने अनेकान्त दृष्टि की प्रस्थापना की। इस विषय की विशद मीमांसा हुई कि हम अपने विचार, वचन और व्यवहार को पहले अनेकान्त दृष्टि से देखें फिर उसका प्रयोग करें। अनेकान्त दृष्टि से देखने पर तीन बातें प्रतिफलित होंगी
१. विचार का आग्रह न हो। २. वचन का विवाद न हो ।
३. व्यवहार का असंतुलन न हो । विचार का आग्रह : एक आदत
सामान्यत: प्रत्येक आदमी में अपने विचार को अंतिम मान लेने की मनोवृत्ति होती है। वह अपने प्रत्येक विचार को अंतिम मान लेता है। यह वृत्ति एक ही आदमी में नहीं है, दुनिया के सभी लोगों में उपलब्ध है । किसी में कुछ कम है, किसी में कुछ अधिक है। प्रत्येक आदमी सोचता है कि मैं जो सोचता हूं, वह बिलकुल ठीक है, सही है। जिनमें विचार करने की थोड़ी शक्ति है, वे सुलझे हुए व्यक्ति होते हैं। उनमें विचार का आग्रह नहीं होता। जिनमें विचार करने की क्षमता कम हैं, वे अल्पज्ञ हैं। प्रायः देखा जाता है--- जो व्यक्ति चिंतन से दरिद्र होते हैं, वे अपने विचार को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। वे सोचते हैं, उनका विचार किसी सर्वज्ञ से कम नहीं है। सर्वज्ञ भी शायद कहीं सोचने में भूल कर सकते हैं, किन्तु वे जो सोचते हैं, उसमें कहीं भूल नहीं हो सकती। विचार का आग्रह एक आदर्श बन गया। यह आदर्श आनुवंशिक भी हो सकता है, पारंपरिक भी हो सकता है। किन्तु विचार का आग्रह मनुष्य की एक आदत बन गई है, यह स्पष्ट तथ्य है। जहां विचार मनुष्य की मौलिक विशेषता है, वहां विचार का आग्रह मनुष्य की मौलिक समस्या भी बना हुआ है। विशेषता समस्या भी बन जाती है
वचन भी मनुष्य की विशेषता के साथ एक समस्या भी बना हुआ है। आदमी जल्दी ही विवाद खड़ा कर देता है। हर बात विवाद बन जाती है। सुजानगढ़ से लाडनूं कितनी दूर है ? एक व्यक्ति कहेगा-१२ किलोमीटर दूर है । दूसरा कहेगा-बारह नहीं, तेरह किलोमीटर दूर है । आसपास दस व्यक्ति खड़े हैं किन्तु सबका कथन भी अलग-अलग ही होगा। वचन एक जैसा निकल जाए-यह भाग्य से ही कहीं मिलता है। एक व्यक्ति
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