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अहिंसा के अछूते पहलु शब्दों का कोष बन गया । अगर संयोगी शब्दों का संग्रह करें तो करोड़ों शब्दों का कोश बन जाए। एक ही भाषा का नहीं अपितु संस्कृत, प्राकृत, जर्मन, अंग्रेजी, रशियन आदि दुनिया की अनेक भाषाओं के बहुत विशाल शब्दकोश हैं। मनुष्य की वचन-शक्ति के कारण ये संभव बने हैं। उसने बोलने के तरीकों का विकास किया है। कैसे बोलना चाहिए? कैसे गाना चाहिए ! इन सब में मनुष्य ने अपनी विशिष्टता और दक्षता का परिचय दिया है। व्यवहार में निरन्तर परिष्कार
मनुष्य की तीसरी विशेषता है-व्यवहार । एक भैंसा हजार वर्ष पहले जैसा व्यवहार करता था आज भी वैसा ही व्यवहार करता है । हजारों वर्ष पहले भी वह गाड़ी से जुतता था, आज भी वह गाड़ी से जुतता है । व्यवहार में कोई अन्तर नहीं आया। गुस्सा आता है तो गुस्से का प्रदर्शन करता है और किसी को मार डालता है। सांप हजार वर्ष पहले भी फुफकारता था, आज भी फुफकारता है । हजार वर्ष पहले भी डंक मारता था; आज भी मारता है। व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं। मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जिसने अपने व्यवहार में परिवर्तन किया है, परिष्कार किया है । आज व्यवहार की कितनी शाखाएं बन गई, व्यवहार के कितने शास्त्र बन गए, व्यवहार का मनोविज्ञान बन गया। व्यवहार के आधार पर विधि-निषेधों का एक अंबार खड़ा हो गया। क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए- इन दो शब्दों-विधि और निषेध पर विशाल साहित्य रचा गया । विधिशास्त्र और निषेधशास्त्र का व्यापक विकास हुआ। व्यवहार होता है त्रयात्मक
सन्मति तर्क की टीका में एक सुन्दर प्रसंग आता है व्यवहार का । पूछा गया-- व्यवहार क्या है ? उत्तर दिया गया-व्यवहार त्रयात्मक होता है। उसके तीन अंग हैं-प्रवृत्ति, निवृत्ति और उपेक्षा । किसी कार्य में प्रवृत्ति, किसी कार्य से निवृत्ति और किसी कार्य की उपेक्षा- व्यवहार के ये तीन आधार हैं। मनुष्य ने अपने सारे व्यवहार को तीन भागों में विभक्त कर दिया । वह किसी कार्य में प्रवृत्त होता है, किसी कार्य से निवृत्त होता है और किसी कार्य की उपेक्षा करता है। जो अच्छा नहीं है, उसे छोड़ता है। जो उपादेय है, उसमें प्रवृत्ति करता है। जो उपेक्षणीय है, उसकी उपेक्षा करता है । प्रत्येक व्यवहार के ये तीन आधार बनते हैं। यदि सारे व्यवहार का समीकरण करें तो वह इन तीनों में समाहित हो जाएगा। चिन्तन का नया सन्दर्भ : अनेकान्त
व्यवहार अपने तक सीमित नहीं रहता । विचार स्वगत होता है।
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