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अहिंसा के अछूते पहलु मुक्त हों बंधनों से
काल एक बंधन है। बहुत बड़ा बंधन है काल का । आदमी जकड़ा हुआ है अतीत से । अतीत उसके पीछे भाग रहा है। आदमी अतीत से डरा हुआ है । वह भय से छुटकारा पाने के लिए तेज दौड़ रहा है। स्वयं के पदचाप ही उसे डरा रहे हैं । वह और अधिक तेजी से दौड़ता है। वह ठहरना नहीं जानता।
न ठहरना, न रुकना-यह सबसे बड़ी समस्या है। आदमी बहुत दौड़ता है, बहुत दौड़ता है। अतीत पीछा किए हुए है । अतीत से बड़ा कोई भूत क्या होगा? उसने आदमी को ऐसे पकड़ रखा है कि कोई अर्थ ही नहीं। इतनी अर्थहीन बातें आती है कि कभी आदमी नाराज़ हो जाता है, कभी राजी हो जाता है, कभी घबड़ा जाता है और कभी आकाशीय उड़ाने लगाने लग जाता है । यह अतीत की जकड़न है। भविष्य की कल्पना ने भी आदमी को जकड़ रखा है, बांध रखा है। वर्तमान के चिन्तन ने भी उसके चारों और बन्धन बिछा रखे हैं।
निर्विकल्प अवस्था में आदमी काल की पकड़ से मुक्त हो जाता है। वहां कालातीत हो जाता है। वह देशातीत अवस्था में पहुंच जाता है। देश का भी उसे भान नहीं रहता । जब निर्विकल्प अवस्था आती है तो यह पता ही नहीं रहता कि मैं कहांहूं। देशातीत स्थिति बन जाती है । निर्विकल्प अवस्था में व्यक्तित्व का भी भान नहीं रहता। यह भी पता नहीं रहता कि मैं कौन हूं। जब विचार ही नहीं तो फिर पता कैसे रहे। विचार से पहचान बनाई हुई है कि मेरा यह नाम है, यह जाति है। वास्तव में तो है नहीं। बच्चा जन्मा तब न नाम लेकर आया, न जाति लेकर आया, इच्छा भी लेकर नहीं आया। ये तो हमने आरोपित कर दिए। कायोत्सर्ग में यह पहचान भी समाप्त हो जाती है । केवल बचता है अस्तित्व और कुछ नहीं बचता। जरूरत है जागरूक प्रयत्न को
इस निर्विकल्प अवस्था का अभ्यास करना है। हम कुछ क्षण निर्विचार रहें, निर्विकल्प रहें। इस अभ्यास से एक प्रकार से मस्तिष्क की धुलाई शरू हो जाती है। ब्रेन वाशिग का क्रम शुरू हो जाता है । यह मस्तिष्कीय धलाई व्यक्ति को आगे बढ़ा देती है । जब पांच मिनट या दस मिनट तक इस अवस्था का अभ्यास कर लें, फिर नया मोड़ लें कि दस मिनट निर्विकल्प रहें। फिर दस मिनट प्रयोग करें निषेधात्मक विचारों को खोजने का कि दिमाग में कहां-कहां निषेधात्मक भाव और विचार भरे पड़े हैं, संचित हैं। उन्हें खोजने का प्रयास करें। उन्हें टटोलें, खोजें। यह क्रम दस मिनट तक चले । दस मिनट तक विधायक भावों, विधायक विचारों को दोहराते रहें। यह ४० मिनट
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