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७. अहिंसा और अभय
आदमी जीना चाहता है। उसमें जीविताशंसा है और वह मरने से भी डरता है। ये दो बातें अनेक समस्याओं को अपने में समेटे हुए हैं। भय का मूल स्वरूप समझा जाए तो मौलिक भय एक है। वह है मृत्यु का भय । और कोई भय नहीं है। सारे भय उसमें समाए हुए हैं। किन्तु मृत्यु का भय भी मौलिक भय नहीं है। मौलिक भय है आशंसा का यानी वह छूट न जाए। पदार्थ की मूर्छा है मौलिक भय ।
घर में डाक धुसे । एक प्रौढ़ आदमी बैठा था। उससे कहा, बोलो, क्या चाहते हो ? जीवन चाहते हो या धन चाहते हो ? अगर जीवन चाहते हो तो सारी चाबियां सौंप दो और मरना चाहते हो तो तैयार हो जाओ। तुम क्या चाहते हो ? वह बोला—मैं धन नहीं दे सकता। आप मार दें। डाकू बोला-क्या धन नहीं देगा? उसने कहा-धन तो बुढ़ापे के लिए रखा है। मौलिक भय है मूर्छा
हमारी मूल मूर्छा पदार्थ के प्रति है । मन में यह बात समायी हुई है कि पदार्थ छूट न जाए। यह नंबर एक का भय है । मृत्यु का भय दूसरे नंबर पर आ जाता है । पहला भय है पदार्थ के छूट जाने का। किसी व्यक्ति के साथ स्नेह है, प्रेम है । परिवार के साथ प्रेम है, आसक्ति है, मूर्छा है। मूर्छा टूट न जाए, परिवार छूट न जाए। यह सबसे बड़ा भय है । यह मौलिक भय है। यह भय जन्म देता है मृत्यु के भय को। मरने का मतलब है सब कुछ छोड़कर चले जाना। परिवार पीछे रह जाएगा, धन पीछे रह जाएगा और सब कुछ पीछे रह जाएगा। कुछ भी साथ नहीं जाएगा। वह इस सचाई से अनजान नहीं है। आदमी मौत से नहीं डरता
एक व्यक्ति धन का बड़ा लोभी था । धन का मोह छूटता नहीं था। लोगों ने बहुत समझाया पर लोभ छूटता ही नहीं था। लोगों ने एक संन्यासी से कहा-आप इसे समझाएं कि किसी प्रकार इसका मोह टूट जाए। संन्यासी गया उसके घर पर और कहा, सेठ साहब ! यह सूई मैं तुमको दे रहा हूं। सेठ ने कहा- इसका मैं क्या करूं ? उसने कहा--देखो, मैं यह सूई दे रहा हूं। मैं भी मरूंगा और तुम भी मरोगे। जब अगले जन्म में
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