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अहिंसा के अछूते पहलू छोड़ दे किन्तु अन्तर से उपजने वाले भय में अभय रहना भी बहुत कठिन है। भय कोई बाहर से नहीं आता है। यह भी एक काल्पनिक बात है कि भय का वातावरण है। बाहर से हिंसा है, हत्या है, अपराध है, चोरी का भय, डकैती का भय- यह सारा भय काल्पनिक भय है। वास्तविक भय कोई नहीं है । वह तो घटना ही है, भय नहीं है । एक घटना घटी। भय तो हमने मान लिया। भय बन गया हमारे लिए। अगर हमारी अभय की साधना है तो मारने वालों के बीच में जाने पर भी आदमी में भय पैदा नहीं होता। अगर अभय की साधना नहीं है तो हर स्थान भयप्रद है । अभय का निदर्शन
___ महात्मा गांधी यात्रा कर रहे थे। उन्होंने देखा, गांव के लोगों के आगे-आगे एक बकरा चल रहा है और पीछे गाते बजाते लोग जा रहे हैं। उन्होंने पूछा, भाई ! क्या है ? लोगों ने बताया कि देवी के बलि चढ़ाई जाएगी। अब गांधीजी गए और मन्दिर के आगे जाकर बैठ गए। लोग आए और कहा कि रास्ता छोड़ो, बलि चढ़ाई जाएगी। गांधी ने कहा कि इस बकरे की बलि नहीं चढ़ेगी और यदि चढ़ेगी तो इस आदमी की चढेगी, नर-- बलि चढ़ेगी। देवी को बकरे की अपेक्षा मनुष्य का मांस ज्यादा अच्छा लगेगा। बलि बन्द हो गई और बकरा छोड़ दिया गया।
प्रसंग तो भय का था । बकरे को तो मरना था और एक आदमी जान बूझकर मरने को बैठ जाए बकरे के स्थान पर। क्या यह परिस्थिति भय की नहीं है ? परिस्थिति तो भय की है, पर भय उपजता है हमारे चित्त में, हमारे मन में। प्रश्न परिस्थिति का नहीं है, वातावरण का नहीं है। प्रश्न है हमारे मन का, हमारे संस्कार का। किस प्रकार की मानसिकता का हमने निर्माण किया है । हमने किस प्रकार के चित्त का और चेतना का निर्माण किया है । हमारी चेतना यदि भयमुक्त है तो परिस्थिति भयाकुल होते हुए भी भयभीत नहीं होंगे और यदि मानसिकता भयाक्रांत है तो भय की स्थिति न होते हुए भी मन में हजारों भय आते रहेंगे।
संस्कृत कवि ने बहुत सुन्दर लिखा है'शंकास्थानसहस्राणि. भयस्थानशतानि च । दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पंडितम् ॥
शंकाओं के हजारों स्थान हैं और भय के सैकड़ों स्थान हैं। ये प्रतिदिन पैदा होते हैं मूढ़ व्यक्ति में । जो मूच्छित हैं, उन्हें सैकड़ों भय रोज सताते हैं । जो पंडित बन गया, पंडित का मतलब पढ़ा लिखा नहीं, जिसने मूर्छा को तोड़ दिया, उसे न शंका सताती है और न भय सताता है,
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