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अहिंसा के अछूते पहलु तीसरा विरोध है-सहानवस्थान का । पानी और आग में सहानवस्थान विरोध है । ये दोनों एक साथ नहीं रह सकते ।
विरोध समाज की प्रकृति है, व्यक्ति की प्रकृति है। विरोध के वातावरण में व्यक्ति पलता चला आ रहा है। इन विरोधों के कारण आज काफी जटिलताएं पैदा हो रही हैं। सारा संसार अनेक समस्याओं का सामना कर रहा है । क्या इन विरोधों को मिटाया जा सकता है ? क्या समस्या का कोई समाधान है ? हमारे सामने यह एक प्रश्न है । विरोध परिहार का मार्ग : अनेकान्त
___ अनेकान्त में इस विरोध के परिहार का मार्ग उपलब्ध है। उसका एक सूत्र है-- सर्वथा विरोध और सर्वथा अविरोध जैसा दुनिया में कुछ भी नहीं है। सर्वथा भेद और सर्वथा अभेद जैसा दुनिया में कुछ भी नहीं है। जो भिन्न है वह अभिन्न भी है और जो अभिन्न है, वह भिन्न भी है । जो विरुद्ध है, वह अविरुद्ध भी है और जो अविरुद्ध है, वह विरुद्ध भी है । ऐसी लक्ष्मणरेखा नहीं खींची जा सकती कि मैं इससे सर्वथा भिन्न हूं या इससे सर्वथा अभिन्न हूं। इस आधार पर अनेकान्त का एक सिद्धांत फलित हुआसह-अस्तित्व । प्राचीन भाषा है-सहानवस्थान । वर्तमान में कहा जा सकता है-एक साथ रहना और एक साथ जीना सह-अस्तित्व है। यह कैसे संभव है ? अनेकान्त की व्याख्या की जाए तो निष्कर्ष होगा-सह-अस्तित्व का सिद्धांत अनेकान्त की मूल प्रकृति है। जैन दर्शन की मौलिक विशेषता
अनेकान्त का पहला बिन्दु है-दो विरोधी युगलों के अस्तित्व का स्वीकार । इस दुनियां में जितने पदार्थ हैं, वे सब विरोधी युगल हैं। यह अनेकान्त की प्रथम स्थापना है। दर्शन शास्त्र में वस्तु को अनन्तधर्मा माना जाता है। जैन दर्शन भी वस्तु को अनंतधर्मात्मक मानता है। दूसरे दर्शन भी उसे अनंतधर्मात्मक मानते हैं । वस्तु को अनंत धर्मात्मक मानना जैन दर्शन की कोई मौलिक विशेषता नहीं है। अनंत धर्म-इसका तात्पर्य है अनंत विरोधी युगलों का स्वीकार । यह जैन दर्शन की अपनी मौलिक विशेषता है। जो अनंत धर्म हैं, वे सब विरोधी जोड़े हैं, विरोधी युगल हैं। अनेकान्त का अभ्युपगम
प्रश्न होता है-जब सारा संसार विरोधी युगलों में समाया हुआ है तो संसार का काम कैसे चलेगा ? प्रत्येक पदार्थ नित्य भी है, अनित्य भी है, एक जैसा भी है, भिन्न भी है, भेदात्मक भी है अभेदात्मक भी है तो फिर विश्व की व्यवस्था कैसे चलेगी? अनेकान्त का यह स्पष्ट अभ्युपगम है-जो विरोधी युगल नहीं होता, उसका अस्तित्व ही नहीं होता। जिसका अस्तित्व
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