Book Title: Agamoddharak Kruti Sandohasya Part 02
Author(s): Manikyasagarsuri
Publisher: Mithabhai Kalyanchandji Pedhi

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Page 21
________________ आगमो- द्वारककृतिसन्दोहे // 12 // जिनपूजाये यतेत बहु // 69 // अपवर्गाय वधोज्झनमर्चापि निशितुः शिवायेव / तन्नापवादपदताऽयुक्ता II सम्यग विचिन्तयतु // 70 // अपवादता न तत्त्वात् साधूनामन्यथा विधेय सा / परिहत्य यदपवादानुत्स- निक्षेपगर्गाणां भवेद् वृत्तिः // 71 // विरताविरते श्राद्धे साऽवश्यं भवति तदयमुत्सर्गः / तेषां नियमात्यक्त्वा कालं शतकम् पौषधगतं सर्वम् // 72 // चैत्यनतौ यतिनोऽषि हि विदधति जिनविम्बपूजनालभ्यं / लातुं लाभं श्राद्धायोप- / / दिशन्ति च विधानेन // 73 // अच्युतदेवत्वाप्तिः परिणामात्तस्य तथाविधादुक्ता / बोध्यै शिवाय सोक्ताऽऽश्यकसूत्रं यतः स्पष्टम् // 74 // सुदृशो वैमानिकता श्रुतकेवलिनां च लान्तकः स्वर्गः। अवमश्चरणात्सुधर्मा : श्राद्धानामच्युतस्तद्वत् // 75 // अपवादपदं सा वा विरताविरतानपेक्ष्य विज्ञेया। अपवादो यद्धतोस्तत्रैवासौ || प्रवत्तेत // 76 // अन्यस्मायुत्सृष्टं परेण नापोद्यते ततो मुक्त्यै / विरतिः पूजा च बुधज्ञैया न तु यज्ञशसनमिव 77 // सुजनो यथा परस्मै महिमानमनधमुशति सुजनसङ्गे / तद्वजिनो जिनार्चाफलं वदेद् योग्यजीवाय // 78 // केवलिनः सामान्याः परमावधयो मनोविदो मुनयः। पूर्व्याद्या व्याकुर्युः किं नार्चाया फलं विद्वन् ! // 79 // केवलिनो जिनपा अपि सरिदुत्तरणादि जगदुरिह सम्यक / तद्वत् सूर्याद्याः किं न गताधाः पूजनं ब्रूयुः // 8 // निरवद्याऽपि च पूजा बिभ्रद्भिः साधूतां न क्रियते यत् / हेतुस्तत्र विशेपाल्लाभो विरतौ न कोऽप्यन्यः // 81 // जिनराजः किं साघोर्वैयावृत्त्यं करोति सरिर्वा ? / अन्यस्माद्बहुलाभोच्चत्तद्वज़ जानीया अत्र // 82 // यद्वा ख-4 रूपसवधा परिणामफला यतो जिनेशार्चा / तन्न स्वरूपमावानवद्यवृत्तरिय कार्या // 83 // यद्वजिनचन्द्राणां च्यवने जन्मनि निर्वृतौ नृणां / कल्याणकेष्वनुमतौ न रतादेरनुमतिस्तथेहापि // 84 // श्राद्धः सामायिकवान् | | जले सचित्तङ्गिनं न पतितं द्राक / पञ्चाक्षमुद्धरेत्तल्लभमुशेत् किं न स परस्मै ? // 85 // अपवादपदे साधोरर्कोद्दिष्टा | | जिनस्य, यचक्रः। श्रींवज्रसूरिवर्याः पुष्पानयन हिमवदादेः॥८६॥ अर्चाकृते जिवेन्दोः स्नानं सिचयानि // 12 // | लेपनं द्रव्यं / उपकरणानि च मुनिनाधेयानि सदा, न तदस्येयम् / 87 // संयमिनामपवादः संयमपोषाय /

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