Book Title: Agamoddharak Kruti Sandohasya Part 02
Author(s): Manikyasagarsuri
Publisher: Mithabhai Kalyanchandji Pedhi

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Page 23
________________ आगमोद्धारक कृति सन्दोहे |14|| धर्म दिशन्ति जनसिद्धवचः प्रतीत्य // 1 // ज्ञानमात्मगुणत्वेन, त्वमात्थात्मस्वभावभृत् / परैस्त्विन्द्रियपूगोत्थं, समवायेन संश्रितम् // 2 // देहपर्यन्तमात्मानं, त्वमात्थ तद्गुणाश्रयात् / अन्ये जगति सर्वेषामात्मनां व्यापितां लोकोत्तजगुः // 3 // ज्ञानमन्यत्र स्मृत्यादि, तेषां चान्यत्र सज्यते / वैचित्र्यं ज्ञानगं नैव, तेषां जीवसमाक्षतः // 4 // रतत्त्वद्वायायित्यं प्रेत्य तेषां स्यान्नात्मनां किन्तु चेतसः। जडं च तैर्मतं तत्तु, भिदा कैषां तु नास्तिकात् 1 // 5 // शरी- त्रिंशिका रमान आत्मा ते, प्रेक्ष्यते तद्गतो यतः। भवान्तरं समेतः संस्तद्भवीयां तनुं श्रयेत् // 6 // सिद्धत्वमपि सम्प्राप्तो, घनत्वात् पूर्वकायतः। त्रिभागोनावगाहनः साधनन्ततया स्थितः // 7 // परात्मस्थानि कर्माणि, परान् दानादिकर्मसु / प्रेरयन्तीति सिद्धं ते, लोकोत्तरमते किल // 8 // परेषां सिद्धिमाप्तानां, न ज्ञानं सुखमण्यपि / मते ते तु सदा सिद्धा, ज्ञानसौख्यसमन्विताः // 9 // किञ्च तेऽनन्तजीवानां, राशिर्लोके मतस्ततः। सिद्धानां न पुनर्जन्म, परेषां तु प्रवादिनाम् // 10 // अतीन्द्रियार्थबोधस्याभावान्न स्थावरागिनां / बोधस्ततो मितान् जीवा-नाहुर्मुक्तस्य / जन्म च // 11 // युग्मम् // परे पुण्यकृतेर्मार्ग-मभिषेकादि चक्षिरे / दानादिजिनपूजादि, दयादि त्वन्मते पुनः / / // 12 // कर्मणामणवो जीवे, बध्यन्ते ते मते ननु / तेन ते सुखदुःखस्य, विधातृत्वेन सम्मताः // 13 // गुणोऽदृष्टं परैरुक्तं, जीवस्य न परं भुवि / सर्वेषामङ्गिनां तुल्य-महों आत्मगुणे मतम् // 14 // पक्षपातग्रहग्रस्ता, निषेदु जैनसङ्गमम् / पुण्यनाशाम्बुसंसर्गा-नाशं पुण्यस्य चक्षिरे // 15 // सम्यक्त्वाद्या गुणा मुक्तिं, ददते ते मते किल / देष्टा वर्धयिता शास्त्रेस्तेषां तन्मोक्षदो भवान् // 16 // साजात्येतरबोधादीन् , हेतून मुक्तेः परे जगुः। तदेते तत्त्वतो वादे ज्ञानाद्येकान्तमाश्रिताः // 17 // आत्मनस्तादवस्थ्येऽपि, भवो मुक्तिश्च जायते / परस्परविरुद्धौ तन्मतेऽनैकान्तिके वरम् // 18 // किञ्च मत्वा गुणान् जीवे, तदाबृत्यै त्वयोदिता / ज्ञाननादितया कर्मा-चली नान्यैरबोधतः // 19 // आश्रवास्तन्मताः शाखे, चित्रा ज्ञानद्विडादयः। परेषु नैव लेशोऽस्त्या-श्रवसंवरतत्त्वगः॥२०॥ किञ्च त्वदीयशाखेषु, / // 14 // मता अष्टादशाश्रयाः। हिंसाद्यास्तजमेनस्तु, श्वभ्रादिष्वनुभूयते // 21 // परैस्तु लोकसम्बोध्यो, व्यवहारः समाP.P.AC.Gupratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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