Book Title: Agamoddharak Kruti Sandohasya Part 02
Author(s): Manikyasagarsuri
Publisher: Mithabhai Kalyanchandji Pedhi

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Page 63
________________ // 54 // LI भवस्य भाव-व्रजस्य तीर्थस्य जिनस्य चान्तरे / गणस्य जातेऽपि न चान्तरेच्छूतं, ततस्तदाप्नोति समग्रआगमो. S] पूज्यताम् // 8 // पयोविहीनं न सरो विभाति, सरोविहीनं नगरं न चापि / जनेन हीनो नगरो / श्रुतस्तुतिः / द्धारककृति- जगत्यां; वृत्तेन हीनं श्रुतमेवमिद्धम् // 9 // पर शतैर्वादिवजैरधृष्यं, तीर्थ जिनानां विजयाय जातं / सन्दोहे यच्छुद्धवृत्ताङ्कितमेकमाण्य, नरामरेशोऽपि तदाऽप्य मोघाः // 10 // प्रमेयवृन्देन मतान्तराणां, प्रामाण्यः स वृत्तिस्तु जिनेश्वराणां / प्रमेयवृन्दस्य विदा ततस्तां, सिद्धां नतोऽहं प्रयतो विदन्तु तत् // 11 // अध्यक्षमेतत् प्रतिपक्षिणां ब्रुवे, वचः सघण्टारवमुच्चकैर्ननु / श्रुतस्य साम्राज्यमिदं वरेण्यं, शिवस्य / / चारित्रमनंह उद्धतम् // 12 // जगत्यशेषाणि मतान्तराणि, स्वकीयराद्धान्तहताहतानि / द्रव्यादिसंयोग- | युजा जिनेश-वचोऽमृतेनोच्छ्वसनानि जग्मुः // 13 // त्रिकाले जिनेशा यतो लब्धभावाः, श्रुताद् द्वादशाङ्गात् क्रियोद्दिष्टरूपात् / श्रुतं सच्चरित्रं जगत्यां तदादि, मतं जैनमेतन्नतोऽहं प्रयत्नात् // 14 // अद्रोहबुद्धिजगतीतले या, सर्वासुमत्सौख्यनिधानमेषा / सत्यं श्रुतं तन् नियता समृद्धिः, सत्संयमाद् यत् स च जैनशास्त्रम् // 15 // नमन्ति देवा असुरां मनुष्याः, स्व कांस्स्वकान् देवमुखाभितान्तं / सद्भावनातस्तु श्रुतं सदा ते, चारित्रयुक्तं नमतादरात् तत् // 16 // पृथ्व्यादयो यत् समभावसंस्थास्तत्स्फूर्जितं धर्ममहीशतत्त्वम्। सत्संयमे तत समवेक्ष्य भव्याः, सदाहताः सञ्चरणे श्रुते तत् // 17 // अज्ञातभावा न समस्तभावाः, स्थिताः स्वरूपेऽपि हिताय पुंसां / युनक्ति तांस्तत्र श्रुतं सुवृत्तं, तत्सत्यमेतअगदत्र वृत्तम् // 18 // अज्ञानभावादपि पापंभावो, युतोऽपि पुण्येन भवाब्धिभावी / न निर्जरायुक् गतबन्धभावः, श्रुतात्तु तत्तद् ध्रुवमेवमेतत् // 19 // वृत्त श्रुतात् श्रुतं बोधाद् , बोधः सद्दर्शनाश्रितः। इष्टा वृद्धिरतो विज्ञैः, श्रुतवदर्शने सदा // 20 // यद्यपि शास्त्रे ज्ञानाभिधाभिधानं तथापि तन्नाम / / RAPARACET // 54 // IMPP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Tu

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