Book Title: Agamoddharak Kruti Sandohasya Part 02
Author(s): Manikyasagarsuri
Publisher: Mithabhai Kalyanchandji Pedhi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P-417 Serving JinShasan Easoak .. श्री आगमोद्धारकग्रन्थमालाया दशमं रत्नम् णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स आगमोद्धारककृतिसन्दोहस्य द्वितीय - विभागः प्रतयः 375, मूल्यम रु. 1-87 परमपूज्य-गणिवर्यश्रीलब्धिसागरजीमहाराजनावीरसं० 2485 .. वि०सं. 2015 वर्षीतपनिमित्ते भेट प्रकाशकः- रमणलाल जयचन्द शाह परमपूज्य आगमोद्धारक-आचार्यपवरपाठे. शेठ मीठाभाई कल्याणचन्दनी पेढी श्रीआनन्दसागरसूरिपुङ्गवपट्टधर:२ कपडवंज (जि० खेडा) आचार्यश्रीमन्माणिक्यसागरसरिः / gyanmandir@kobatirth.org.." ___ संशोधकः PP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust 245 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. - श्री आगमोद्धारकग्रन्थमालाया दशमं रत्नम् णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स आगमोद्धारककृतिसन्दोहस्य द्वितीय - विभाग: प्रतयः 375, मूल्यम् रु. 1-87 वीरसं० 2485 परमपूज्य-गणिवर्यश्रीलब्धिसागरजीमहाराजना3 वि०सं. 2015 वर्षीतपनिमित्ते मेट प्रकाशकः संशोधकःरमणलाल जयचन्द्र शाह परमपूज्य आगमोद्धारक-आचार्यप्रवरपाठे. शेठ मीठाभाई कल्याणचन्दनी पेढी al श्रीआनन्दसागरसूरिपुङ्गवपट्टधरः- कपडवंज (जि० खेडा) आचार्यश्रीमन्माणिक्यसागरपरिः aa श्री केलामखागग्सुरि ज्ञाम वित जैन आराधना केन्द्र वाचा : श्री . - - aneml PP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' मद्रका मुद्रक:- . . . . धी पंड्या प्री. प्रेस पृष्ठ 1 थी 48 - सोमेश्वर मनसुखराम पंड्या / जम्बुसर (जि० भरुच) ... वसन्तलाल रामलाल शाह पृष्ठ ४९थी९६. प्रगति मुद्रणालय .. खपाटियाः चकला मरत W. R. . 6 ग्रन्थमालाना उदार सहायको 151) पू० गणिवर्यश्रीलब्धिसागरजीमहारांजना A.' उपदेशथी श्रीटींटोइश्रावकश्राविकासंघना ... ज्ञानखातेथी। 151) सु. श्राविका दीवालीव्हेन ते शेठश्रीजय तिलाल गणपतराम वखारीआनां मातुश्री.] सुरतवाला तरफथी कागल रीम सातना 51) पू० मुनिश्रीसौभाग्यसागरजी मं०ना 5 . उपदेशथी श्रीबोरसदश्रीमाली जैनसंघना ज्ञानखातेथी म सञ्चालक-रमणलाल जयचन्द शाह-2 -CGL, SSC -9 : caso90son .. 28RRBER प्राप्तिस्थानो१ श्रीजैनानन्दपुस्तकालय गोपीपरा सूरत W. R. 2 श्रीसरस्वतिपुस्तकभण्डार... हाथीखाना रतनपोल अमदावाद .... At . प्रकाशक:रमणलाल जयचन्द शाह कपडवंज (जि. खेडा) Jun Gun Aaradhak Trust Scorecar P.P. Ac. Gunrainasuri M.S. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 3 // प्रकाशकीय-निवेदन आ आगमोद्धारककृतिसन्दोहना द्वितीयविभागमा प० पू० स्वर्गस्थ-गुरुदेव-प्रातःस्मरणीय-आगमोद्धारक-आचार्यदेवश्रीआनन्दसागरसरिपुङ्गवनी कृतिओ छेतेओश्रीए पोतानुं सम्पूर्णजीवन शासनसेवामां अटु, जैनसाहित्यमा आगमशास्त्रो आदिने प्रकाशन कराववानुं अतिमहत्त्वचें कार्य तेओश्रीए कर्यु छे. जैनशास्त्रो आदिनुं उंडु ज्ञान होवाने लीधे 'बहुश्रुत' तरीकेनी ख्यातिने तेओश्री पाम्या हता. . आनी पहेलांना प्रथमविभागमा 38 कृतिओ अने आ द्वितीयविभागमां पण 38 कृतिओ आपेली छे. आ तथा 'तात्त्विक प्रश्नोत्तराणि'नो विशालकायग्रन्थ अने हवे पछी प्रकाशन थता भा० 3, भा०४; वगेरे तेओश्रीनी विद्वतानो पूरतो परिचय करावे छे, कृतिओना नामो ज पोताना विषयोने कही आपे तेवां छे.सदरहु प्रकाशनमां गच्छाधिपति-पू० आ० श्रीमन्माणिक्यसागरसूरीश्वरजीए मुख्यताए कृतिओर्नु संशोधन कर्यु छ, पू० गणिवर्य श्री. चन्दनसागरजीमहाराजे मूलहाथपोथी परथी प्रेसकोपीओ करवीमेळववी अने प्रूफो आदिसुधारवां वगेरेमां नोंधपात्र सेवाओ आपी छे आथी : तेओश्रीओनो आभारव्यक्त करूं छु.प० पू० आगमोद्धारक-आचार्यदेवश्रीनी जन्मभूमि कपडबंज छे, तेम संसारि अवस्थामां अमारा कुटुम्बना हता. तेम तेओश्रीनो उपकार पण म्हारा पर अवर्णनीय छे. वर्तमानकालना आ अजोडगीतार्थ पुरुषे रचेली कृतिओ प्रसिद्ध करवा माटेनो लाभ मने प्राप्त थतां अनहद आनन्द प्राप्त थयो छ. दृष्टिदोषथी अगर प्रेसदोषथी जे कोइ खामी देखाय ते. विद्वदर्योए शुद्ध करी लेवु / रमणलाल जयचन्द शाह 2015 भाद्रपद शुक्लाष्टमी कपडवंज // 3 // // 3 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhakast Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 4 // // 4 // पृष्ठम् आ०नं. 15 अनुक्रमणिका पृष्ठम् आ०नं. . 1 69/20 अनानुगामुकावधिः 21 प्रज्ञप्तपदद्वात्रिंशिका 7 27/ 22 अनुयोगपृथक्त्वम् 23 निषद्याविचारः 24 सम्यक्त्वषोडशिका | 25 सम्यक्त्वभेदविचारः 186 | 26 सम्यक्त्वमेदाः 21 27 सम्यक्त्वज्ञातानि 23 / 123 | 28 क्षायिकभवसङ्ख्याविचारः 23 195 | 29 शमनिर्णयः 25 103 | 30 प्रतिमापूजाद्वात्रिंशिका 27 28 |31 प्रतिमापूजा 28. 139 32 प्रतिमापूजासिद्धिः 30 97 33 प्रतिमाष्टकम् 34 जिनवरनुतिः 35 देवद्रव्यद्वात्रिंशिका 36 रात्रिचैत्यगमनम् 87 | 37 देवतास्तुतिनिर्णयः 35 | 38 गुरुस्थापनासिद्धिः 1 मङ्गलादिविचारः 2 नयविचारः 3 नयषोडशिका 4 निक्षेपशतकम् 5 लोकोत्तरतत्त्वद्वात्रिंशिका 6 व्यवहारसिद्धिषट्त्रिंशिका 7 कर्मफलविचारः 8 परमाणुपञ्चविंशतिका 9 भव्याभव्यप्रश्नः 10 अष्टकविन्दुः 11 स्याद्वादद्वात्रिंशिका 12 अनन्तार्थाष्टकम् 13 पर्वविधानम् 14 सूर्यादयसिद्धान्तः 15 सांवत्सरिकनिर्णयः 16 पर्युषणारूपम् 17 ज्ञातपर्युषणा // 4 // | 18 श्रुतस्तुतिः | 19 ज्ञानभेदषोडशिका 112 152 126 153 125 132 148 174 42 124 38 118 / // 4 // 37 95 102 Jun Gun Aaradhak Trist Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्धम् अ५ अशुद्धम् शुद्धम् ०व्या यचड. व्याधैर्यत्तेऽ० कमणां कर्मणां ह यते दृश्यते भि हि भिर्नहि निगच्छ० निर्गच्छ० आत्तरौद्रे आर्त्तरौद्रे शुद्धिपत्रकम् . पृष्ठम् पतिः शुद्धम् | पृष्ठम् पतिः कि गुरु० को गुरु०१८ 5 , 13 स्यात् स्याद् , 15 वात् त्वान् | 18 16 न्यून न्यूने| 18 17 तन्तुः जन्तुः | 19 5 वाये न . वायेन त्पादे न त्पादेन 12 प्राग, अणु० प्रा-गणुक 16 मूयान् भूयान् : विधातुमनधमना: विधातुमनघमनाः श्राद्धायोः श्राद्धायो ०यन 144 यित्यं यित्वं | 24 1 पापं . 2 मुनिर्धों मुनिधर्मों , सम्यक सम्यक् | , 17 छन्ताबिक तेमू० राहत्यू प्रान्त्य तर्काणु तदर्थ त् ०द्य द. विरहात मथुनं . छन्ताब्बि० तेर्मू० राहत्पू० प्रान्त्य तर्कानु० तदर्थकृत ०यनं पाप विरहान ] // 53; मैथुन I PP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 6 // 22021 राट् मैत्र्य विश्व - ०हक पृष्ठम पतिः अशुद्धम् शुद्धम् | पृष्ठम् पतिः सम. समं | 33 2 मूलं | 33 4 राडू | 35 5 मैच्यां | 39 13 चतकानू चैतकान् | 39 बिश्व ०९ग पापा रतिः पापारतिः गृहस्थाः गृहस्था चन्द्रावधितैः चन्द्राभिवधितैः षष्टयाः षष्टया वर्षिकैः वार्षिकैः 12 , 11 मासर्वा० ०मासैर्वा० घस्त्रो घस्रो 47 15 ममिम० . ०मभिम० 32 18 पूर्णेत पूर्णेति | , P.P.AC. Gunratnasuri M.S. अशुद्धम् केचिन्ने० . केचिन यथो तिमा० यथोक्तमा० ताग, तार ईर्ये० नकः नकैः सवषा० सर्वेषा० ०वस्थान ०वस्थानं भिन्न भिन्न व एहस्स ___०वयाजोण्हस्स सिद्ध ०चाय ०चा० निवृत्तं निर्वृत्तं रब्ध ०ब्धं ०दृश्य दर्य ०वत्त ०वत्त ०याम यामJun Gun Aaradhak Trust सिद्धे // 6 // // 6 // Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धम् // 7 // // 7 // भावेन ०श्रय उदयमगान् नैव किमु मुनयः 1, मतः पृष्ठम् पतिः अशुद्धम् / शुद्धम् | पृष्ठम् पतिः अशुद्धम् , 14 शंतो शतो. |81 . 5 भावे न 53 4 . चूर्णि . | 84 6 श्रय 54 11 स्व कां० स्वका 84 7 उदयमागत 54 17 वृत्त किमुन 55 - 1. श्रत .. श्रुत० , 8 मुनयः, सिद्धि सिद्ध० 14 मत ? 60 12 समुहो० ०समूहो 85 १३०धीर्षी प्राप्त्वापि प्राप्यापि 87 7 . प्रसा-रो० सुख सुखं | 87 15 च्छुट्टै 70 1 सुभैः . सुमैः 88 9 ०माप्त ०ऽभ्र oऽभ्रे 89 2 ०धानो महर्धिका महर्द्धिका | , 13 लापो 77 18. ईतां हतां | 90 12 ०वन्दम० 58.. 6. बैग्लानो- .. बैग्लानो-९१ 1 79 15 चहु० बहु० / 91 10 हिण्डयां धीर्ष प्रसारो० च्छुटे० माप्त '. धानः लापो ०वन्दनम० थाक. हिण्ड्यां Holl tron था कर | PP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mem '7-50 5-50 1-87 प्रेसमां नूतन प्रकाशनो 1 सर्वज्ञशतक उपा. श्रीधर्मसागरजीकृत पत्राकारे 2 ताविकप्रश्नोत्तराणि आगमोद्धारककृत 3 आगमोद्धारककृतिसन्दोह प्रथम विभाग द्वितीय विभाग तृतीय विभाग चतुर्थ विभाग 7 पोडशकजीपर आगमोद्धारकनां व्याख्यानो भाग बीजो गुजराती अने आगमोद्धारकश्रीनी वे कृतिओ सानुवाद बुकाकारे 8 कुलकसन्दोह पूर्वाचार्यकृत ' 9 सन्देहसमुच्चय श्रीज्ञानकलशसूरिनिमित्त 10 जैनस्तोत्रसञ्चय आमां सोमसुन्दरसूरिकृत मुनिसुन्दरमरिकृत तथा " पूर्वाचार्यकृत स्तोत्रो छ 11 अष्टादशस्तोत्री ( अवचूरिसमेता) - मुख्यप्राप्तिस्थान - जैनानन्द पुस्तकालय, सूरत 2-75 AD ...असमा " .P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गला ॐनमा जिनाय आगमोद्धारक-आचार्यप्रवरश्रीआनन्दसागरसरिवरनिर्मितः मङ्गलादिविचारः (1) आगमाद्धारककृतिसन्दाहे दि विचारः // 1 // शास्त्रादौ मङ्गलं योग, साध्यं वाच्यान्वितं बुधः। वक्ति प्रेक्षावतां यस्मा-तिविघ्नोज्झिता स्थिरा // 1 // प्रशस्तपरिणामात् स्याद्, विनानां द्रवर्ण क्षणात् / जिनाधालम्बनः शस्तः, सोपि तन्मङ्गलं वदेत् // 2 // विनोदकं लवं बहेविध्यातं वीक्ष्य कोविदैः। प्रदीपने न विश्वस्तैः, स्थेयं तद्वच्छ्ताहतौ // 3 // अल्पविघ्नो नयेनिष्ठां, प्रारब्धं मङ्गलं विना / विघ्नभोगेन विदुषां, ततोऽनास्था न मङ्गले // 4 // नोदकौघेन दावस्य, शान्तिदृष्टा तत न किं / प्रदीपनोपशमने, जलौघः क्षिप्यते जनैः // 5 // पापप्रणुत्तये प्रायः, शास्त्रारम्भः शुभात्मनां / सा शास्त्रानुसृतेः सिध्येत्, तत्कर्तुस्तन्नतिं व्रजेत् // 6 // श्रोतारः श्रवणात् शुद्धभावा भगवदादरात् / नयन्त्यविघ्नं निष्ठां तन-मनीपी म ले लगेत् // 7 // स्व विकल्पकृतं नेदं, दर्शितं सर्वदर्शिभिः / गुरुभिश्चीपादिष्टं त-ज्ज्ञायते मङ्गलादरात् // 8 // कृतज्ञाः कृतिनः कार्य-मुपकारकरान् नरान् / सदा स्मृत्वा सृजन्तीह, तत्कार्य IN मङ्गलं बुधैः // 9 // किं देवः कि गुरुवक्ता, धामास्तिक्यस्य वा न वा / इत्युदीरितसंदेह, श्रोतारं सान्त्वयेदतः | // 10 // कल्पितं कल्पवृक्षात् स्यात्, यद्वत्तद्वदिह क्रमात् / विनापहं स्थितिकरं, सन्तानाच्छित्तिकृत्परम् 11 // आदौ निर्विघ्ननिष्ठायां, कामना मध्यमे स्थितौ / अभ्यस्ते शिष्यसन्तान-दाने तत् (ता) मङ्गलत्रिकात् // 12 // त्रिधा मोदकवद्भागो, नान्तरा विपरीतता / श्रुते कर्मक्षयार्थत्वात् मङ्गले श्रोतयुद्धये // 16 // आमे घटे यथा पाथ-स्तथा पात्रे श्रुतं ततः / अधिकारी समुद्देश्यो, येन नान्यापकारिता // 14 // मुक्तये शासनारम्भः, सान खा. श्री केल्यानमाणपसुरि ज्ञामम पिर श्री महावीर गैम आराधना केन्द्र, काबा, 'जि गांधीनगर PIPAC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दि / / वाङ्मावतो भवेत् / श्लिष्टतामुभयो—यात्तयोगः सार्थको मुखे // 15 // अतीन्द्रियाणामर्थानां, शिष्टानां स्वल्प-11 आगमो- वेदिभिः / न प्रामाण्यं ततो वाच्यं, सर्व तिह्यमादितः // 16 // आनन्तर्येण परतो, द्विधा फलप्रदर्शनात् / मङ्गलाद्धारक- योगस्य वाच्यताऽऽयम्भे-ऽन्यथोत्कृष्टे फलेऽत्ययः // 17 // न चेत्साध्यमुदीर्येत, विभिन्नरुचयो जनाः / स्वेष्टसिकृति द्वयै क्षमं मत्वा, कुर्युः किं श्रुतियोजनाः ? // 18 // मते जैने प्यनेकानि, तत्त्वानि स्वेष्टसिद्धये / तद्वाच्यमादितो विचारः सन्दोहे वाच्यं, श्रोतृणां बुद्धिशुद्धये // 19 // शास्त्रकारा महात्मानो, भाषन्ते वितथं नहि / क्वचित्तदन्यथाभावे नाविश्रम्भो / महात्मसु // 20 // प्रतिशास्त्रमुदीर्यन्ते, चत्वार्येतानि सूरिभिः / कृतिक्रममपेक्षन्ते, श्रोतारो नापि देशकाः // 21 // मङ्गले विहिते ज्ञात्रा,सामर्थ्यात् शेषमूह्यते / तथापि स्पष्टबोधार्थ, शेषत्रयप्रसाधनम् // 22 // श्रोतृणां न समा M बुद्धिः, समेषां कर्मणां यतः / शमश्चित्रस्ततःसर्वे, नैवं चिन्तयितुं क्षमाः // 23 // कर्ता श्रोता च जैनोऽत्र, न च स्वच्छन्दवाक्पदं / भवानुवन्धं ब्रूयान्न, न चैकनयसंश्रितम् // 24 // क्वचिद् शास्त्रकृतो ग्रन्थे, लक्षीकृत्य बुधान् परान् / आचख्युर्मङ्गलं ह्येकं, शेपजिज्ञापयिषया // 25 // जिनेन्द्रा देशनारम्भे, कृतार्था अपि पर्षदि / लोकप्रवृत्तये ख्यान्ति, तीर्थाय नम इत्यपि // 26 // वक्ता जिनो गणाधाराः, श्रोतारो वीजबुद्धयः / शासनोदितये ब्रूते, वस्तु सर्वनयाश्रितम् // 27 // श्रुतं भगवता ख्यात-मित्यूचाना गणाधिपाः / मङ्गलं चक्रिरे स्पष्ट, I निष्ठास्थेमाव्ययप्रदम् // 28 // परमेष्ठिनमस्कार आद्यावश्यकदेशने / सुकर्तव्यतयाऽवश्यं, नियुक्तौ देशितस्ततः // 29 // शेषेष्वावश्यकेश्वेवं, सूत्रेषु क्रियते बुधैः / मङ्गलस्य कृतिः कार्या, ध्रुवं तन्नात्र संशयः // 30 // आद्याङ्गचूर्णिकृत्पाह, श्रुतं मे प्रमुखं वचः / अधिकारतया तस्मात्, शेषाङ्गादौ वचस्तकत् // 31 // यत्र स्पष्ट उपोद्धातो नुवृत्तिस्तस्य ना भवेत् / अपेक्षातोऽधिकारो यत्, सर्वन्यायविदां मत: // 32 // एतत्सूत्राण्यपेक्ष्योक्त-मर्थमाश्रित्य मङ्गलम् / उपोद्घातस्य नियुक्ती, ज्ञानपञ्चककीर्तनम् // 33 // तथापि प्रतिनियु- // // 2 // क्ति पार्थक्यात् मङ्गलादरः / तत्कृतां यद्विशेषेण, तद्वाच्यं तत्र कथ्यते // 34 // वाङ्मयेषु न शेषेषु, तथा / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Banाका servasanालिन कै.. था. ত্রা / Jun Gun Aaradhak Trust Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे // 3 // तथा लेशान्नियन्त्रणा / ततः स्पष्टा कृता विज्ञैर्मङ्गलादेख्दाहृतिः // 35 // इष्टादिदेवनत्या यत्, शस्तवस्तुप्रणोदनात् / यच्चाशीर्वाक्यतश्चक्रुर्मङ्गलं तच्छुभाशयात् // 36 // पापानुबन्धिपुण्येन, नास्तिकानामघात्मनां / ग्रन्थनिष्ठा न | मङ्गलासा शुद्धमतीनामवलम्बनम् // 37 // पणाङ्गनाथुर्ति भोग-मधमणस्य पुष्टतां / श्वयथोः प्रेक्ष्य सद्बुद्धिः, को जह्यात् दिभावमुत्तमम् // 38 // हितं स्वस्मै परस्मै चायत्याँ तदनुबन्धवत् / परं यस्माद् बुधा बोधे, तादृशे सततं रताः | विचारः // 39 // अतो धर्मश्च मोक्षश्च, परमार्थविदां मतौ / उपदेश्यतया वाच्यौ, ततस्तावेव पण्डितैः॥४०॥ श्लाघार्थकामयोः क्वापि, या सङ्कीर्णकथादिषु / साऽऽक्षेपिण्या हितोद्देशान्नांशतोदोषभाजनम् // 41 // यथा बालं प्रसू—याद्यच्छन्त्यगदं गदापहं / पिबेदं मोदकं दास्ये, तद्वदेतन तात्त्विकम् // 42 // आविष्कृता गणाधीशैश्चतुणां पुरुषार्थता / अर्थकामौ हि धर्मात् स्त, इत्याख्यातुं न तत्त्वतः // 43 // अत एव समाचख्यु-हरिभद्रा मुनीश्वराः / देवमानुपवीयर्द्धवर्णनं देशनाकृताम् // 44 // विपाकविषमावर्थ-कामौ चेत्तौ कथं फलं? / धर्मस्येतस्था किं तौ पुरुषाथी न सम्मतौ? // 45 // विना धर्म न लाभादे-धिनस्य विलयो भवेत् / तदृतेऽर्थसुखे नैव, पुरुषार्थों न किं तकौ // 46 // सनिदानः कृताशंसः, सातिचारः शमं विना / कृतो धर्मो विना चाज्ञां, कामाौँ विरसौ सृजेत् // 47 // अकामनिर्जरा जन्तो-रर्थकामविधायिनी / देवायुषो यतो बन्धस्तन्नोत्तीर्णमिदं श्रुतात् // 48 // चन्दनादुत्थितो वह्विर्यथा भस्मीकरोत्यलम् / तथा धर्मोत्थितावर्थ-कामावायतिदुःखदौ // 49 // अनुकूलतया जन्तुं, यतो वेदयते सुखं / भवाभ्यासात्तदर्थ्यगी, कामाौँ तन् मतौ फलम् // 50 // विपाकविरसत्वादि. विरतरुपदेशनं / तयोस्ततो न विदुषां, सम्मता पुरुषार्थता // 51 // इत्थं चैतदिहेष्टव्यं, यद्बुधः परिणामहक् / सम्पूर्णार्थविनिश्चायी, श्रोता वक्ता च मोक्षगः // 52 // लब्ध्वा धर्ममशेषजन्तुकरुणाक्लिन्नोरसावेदितं. I. सद्योग विनियोजनेन कुरुते दृष्ट्वा जगद् दुःस्थितं / मत्वा विश्वजनीनधर्मकथनं स्वान्यात्मपावित्र्यकृत. | // 3 / / कुर्यान् मङ्गलमुख्यसन्धिचतुरो ग्रन्थं सदानन्ददम् // 53 // इति मङ्गलादिविचारः // Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो नय द्धारक कृतिसन्दोहे // 4 // नयविचारः (2) कृतार्थो वाप्य कैवल्यं, तथाभव्यत्वमाविदन् / तीर्थ दिदेश भगवा-निश्चयव्यवहारयुक् // 1 // सामग्रीमा- MI विचारः प्य जीवः स्याद्, बहुधा. परिणामभाक् / परिणामितया योग्यो, न मृदस्तन्तुजोद्भवः // 2 // समवेतं परे प्राहुः, / कार्य तन्नैव युक्तिमत् / पटो जायेत तन्तुभ्यः, तन्तवश्व पटोद्भवाः // 3 // एकतन्तुविनाशे स्यात्, तेषां | पटविनाशनं / कृतिं विनेतरद् वस्त्र-मुत्पद्येत च तत् कथम् // 4 // परिणामी भवेद्धतुर्यावन्तस्तन्तवः पटे / परिणाममितास्तावन्माना पटमितिस्ततः // 5 // न्यूनं वृन्देऽथ. तन्तूनां, न्यूनो यथा पटो भवेत् / तथाऽपायेपि केषाञ्चित्पटात्तेषां मितिः परा // 6 // तन्तूनां नाशको तन्तुः, केषाञ्चित् घातको मितेः / प्राक्तनायाः पटस्यैष, नूनाया जनकोपि स // 7 // अवनामस्तुलादण्डे, यथोन्नामाविनाकृतः / प्रापर्यायविनाशेऽपि, तथान्योत्पत्तिरिष्यताम् // 8 // समवायोऽपि सम्बन्धः, कल्पितो नैव तात्त्विकः / न श्लेषादिरिवेक्ष्यन्ते, समवाया हि कुत्रचित् // 9 // असत्त्वे समवायस्य, का समवायिकार्यता ? / अभावे तस्य को हेतु-र्भवेदसमवायतः // 10 // शे च तन्तूना-माविर्भावात न हेतता / पटस्य समवाये न, तन्तूनां न्यायदृष्टितः // 12 // पटोत्पादे न तन्तूनां, नाशस्तत्समवायिता / वस्त्रात् तन्तुसमुत्पादे, न वस्त्रं तत्कथं सका ? // 12 // एवं वदन् समेतस्त्वं, शुभे स्याद्वादवम॑नि / वस्त्रस्योभयरूपत्वाङ्गीकारो नान्यथा तव // 13 // तथा तन्तौ पटांशे किं, सति युक्तिविहीनता / व्यूतौ जायेत नूनं नानुपादानं समीक्ष्यताम् // 14 // इष्येत चेत् परीणामो, स्ताद्वस्त्रं च तन्तवः / मृदः कपालौ कुम्भश्च, तत्ते परिणामिकारणे // 15 // तथा च खण्डयोवस्त्र-कुम्भयोरुद्भवे नहि / कर्त्तव्येश्वरकर्तृत्व-कल्पनाऽपि सचेतसाम् // 16 // यथा(तो) तनुः प्रभुः खण्डकार्योद्भूतौ समिष्यते / श्रद्धया युक्तया तां त- | // 4 // त्यक्त्वा परिणामितां श्रय // 17 // उपादानं शिवोत्पादे, जीवः कर्मच्युतिः पुनः / इतरत्कारणं सर्व, शेषं | P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust सा.. क. बा. .... सीधा Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो द्वारक कृति-- सन्दोहे ||5|| साधारणं मतम् // 18 // मनुते व्यवहारोऽत्र, कार्य सन्नैव कारणे / कार्योत्पादाय तद्यलः, क्रिया तन्नामला समा // 19 // ब्रूतेत्र निश्चयो हेतौ, सदा कार्य न यत्कृति: / मृदं विहाय कुम्भस्य, तन्त्वादौ सम्भवेत् नयक्वचित् // 20 // आविर्भावोत्र कार्यस्य, कृतिसाध्यो न यत्क्वचित् / एकस्मिन् सर्वकार्याणा-मुत्पत्ति: कारणे | विचारः मता // 21 // साधयेद् यत्र यत् सत् स्याद्, नान्यद् यतस्ततो नहि / असतः खरशृङ्गादेरुत्पत्त्यै यत्नवान्नरः // 22 // हेतुतां मन्यते हेतोः, सजातीनां नयः परः / समेषां निश्चयो नैव, किन्तु कार्यकृतां तकाम् // 23 // भव्यस्य मोक्षगामित्वं, व्यवहारोऽभिमन्यते / अयं तु सिद्धं भव्यत्व-भाजमाह न चापरम् // 24 / / पलालं नं दहत्यभिज्यते न घटः क्वचित् / नरका निर्गमो नास्ति, शून्यं न च प्रवेश्यते // 25 // प्रव्रजेन्नामुनि.व, मिथ्यादृक् शुद्धग भवेत् / अज्ञानी नाप्नुयात् ज्ञानं, संसारी नैव सिद्धथति // 26 / / निश्चयोऽत्र वदन्नेवं, प्राह धर्ममयोगजं / शेषं तदुपचारेण, यावदप्रमदं मुनिम् // 27 // कुर्वद्रूपं वदन् कार्य, वदत्याग् न साधुतां / / चरणोपहतौ ज्ञानं, दर्शनं केवलं न च // 28 // गुणधाम्नो मतेऽस्या याजन्तुव्रजति सप्तमम् / मौनं सम्यक्त्वमाहाऽतः, सम्यक्त्वं मौनमेव च // 29 // अस्यात्मा स्वगुणारामी, मोहं त्यक्त्वा भजन्निजं / चारित्रं दर्शनं ज्ञानं, कषायेन्द्रियनियात् // 30 // नास्याविरतसदृष्टिर्न देशविरतो न च / प्रमत्तसंयतश्चापि, व्यवहारात् समेप्यमी // 31 // न शङ्काद्या अतीचारा, न च बन्धक्धादयः / न चाप्रशस्तयोगाद्याः, किन्त्वेते भङ्गभाजनम् // 32 // ततो ये निश्चयं ख्यात, आत्मवेत्तृत्वमानिनः / ब्रुवन्तो मार्गशंसित्वं, सदारारम्भकिञ्चनाः / / // 33 // गुरुत्वं स्वेषु सर्वेषां, श्रोतणां रोपयन्ति च / श्राद्धसाधुपदस्थानी, जुगुप्सन्ते सदा क्रियाम् // 34 // सूत्रानुसारतस्तेषां, निश्चयाभासमग्नता / नाकल्पानां श्रियं राज्ञां, विन्देद्रीरिमयं क्वचित् // 35 // ज्ञानेनोद्योतिते मार्गे, भास्करण तमो नहि / तथाऽऽत्मरूपविज्ञाने, न लवो मोहसीधुजः // 36 // कलत्रेष्वादरं द्युम्ने, मनो- M // 5 // वृत्तिमघोचये / इन्द्रियेष्वभिरामित्वं, बालिशत्वं गतोपमम् // 37 // कषाये स्विन्नचित्तत्वं, धारयन्तो दिवानिशम् / P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || अध्यात्मब्रुवाः सुश्लाघां, न लभन्ते कदाचन // 38 // न क्षमा व्यवहारे ये, कथं ते निश्चये क्षमाः / / आगमो स्युनौतुराखुदष्टाक्ष आखुहा गन्धमात्रतः // 39 // रजःसङ्गो यथाऽक्लिन्न गात्रे नो नैव चाङ्करः / दग्धे बीजे, II नयद्धारक- मलाविद्धे जठरे न शमक्रिया // 40 // नाधौते वसने रङ्गो, भित्तौ चित्रं न चाशुचौ / चित्ते न निश्चयोल्लाघे विचारः कृति- व्यवहारापहा वृषः // 41 // अवाप्तकेवलाश्चात, एवारम्भपरिग्रहौ / तत्यजुर्यन्न रमणं, क्षीणमोहा दधुभवे // 42 // सन्दोहे निश्चयेन विहीनानां, व्यवहारव्रतायपि / न शिवाय ततोऽभव्या, व्यवहारपरा अपि // 43 // मिथ्यादृशो भवे भ्रान्ता, मोक्षश्रद्धानवर्जिताः / नाबीजे पुष्करावर्ते, वृष्टे प्यडुरसम्भवः // 44 // गोत्रे चिलातिपुत्राय, // 6 // पटवे नरकायुषः / चौर्यात् कन्यावधात् को न, निश्चयाय स्पृहां वहेत् // 45 // घातिनो भ्रूणगोब्राह्म-कलत्राणां खलात्मनः / दृढप्रहारिणस्त्रातुनिश्चयस्य यशोऽनघम् // 46 // निश्चयाद् भारतीमृद्धिं, लक्षाधिका वहन् वधूः / धारयन् भूषिताङ्गो यात्, केवलं भरतो नृपः // 47 // अनवाप्तं यया पूर्व, न कदापि सुदृग् व्रतम् / मरुदेवीभशीर्षस्था, निश्चयात् केवलं गता // 48 // व्यवहारः श्रियै नैवानिश्चयस्तेन भूपते: / उदायिनो निहन्तुन, श्रेयस्त्री मुनिता मता // 49 // अङ्गारान्मर्दयन् सूरिवी रजीवा अमी इति / ब्रुवन् गच्छाद् बहिश्चक्र, व्यवहारपरायणः // 50 // बोधाय निश्चयस्य प्राग, अणुसर्वव्रतादृतौ / प्राज्ञैरनुमता पृच्छा, न तत्को निश्चयं श्रयेत् // 51 // कर्मबीजं तृषापाथः-सिक्तं जन्माङ्करं सृजेत् / परिणामाच्च तजन्म, तन्मुक्त्यै निश्चयं भज // 52 // सद्दर्शने भवेद्धतर्यः सेषोऽन्यगुद्भवे / ज्ञाने ज्ञाने च चरणे, बकुशत्वे च मन्यते // 53 // आद्याङ्गतः स्मृतं सूत्र. गणधारिभिरभ्रमैः। आश्रवा ये परिश्रवाः, परिश्रवास्त आश्रवाः // 54 // ज्ञानं नादर्शने मौन-मात्मबोधमृते स्मृतम् / तान्यन्तरेण मोक्षो न, निश्चयाद्दर्शनं भज // 55 // आसादयेयुरनध-दर्शनाः शाश्वतं पदं / नादर्शना मुनिजना, निश्वयं तद्भजस्व भोः ! // 56 // मतं दर्शनज्ञानाभ्यां, तीर्थ कैश्चिन्मनीषिभिः / अतस्तदृष्टयश्चाप्ता, नतास्तात्त्वि- // 6 // कवित्तमैः // 57 // अप्रवृत्तान योगाः स्युरनगारपदप्रदाः। सर्वेऽन्यथा शिवे स्थास्यन्, सुप्ता मूञ्छितचेतसः॥५८ / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो-11 द्धारक कृति अप्रवृना यदा योगास्तदा ध्यानं शिवार्पकम् / इति बुध्यन्न विद्वन् किं, निश्चयं श्रयसे शिवम् // 59 // आत्मरूपमचारित्रं, बुध्यमानो बुधः किमु / व्यवहारफलं शुद्ध, निश्चयं श्रयते सदा // 60 // अवाप्य केवल- नयज्ञानं, लोकालोकावलोककं / व्यवहारप्रवृत्त्यर्थ, तीर्थ तीर्थाधिपोऽब्रवीत् // 61 // एवं शास्त्रसुधारस सुमनसः / षोडशिका कर्मामयोजासनं, श्रीमत्तीर्थकरोदितिं धृतधृति सम्पीय शुद्धाति / नित्यं गच्छत चिन्मयेन मनसा निश्चायक सद्गते-स्तीर्थ निश्चयसंश्रितं शिवपदानन्दप्रदं भाविनः // 62 // इति नयविचारः // सन्दोहे // 7|| नयषोडशिका (3) सूत्रेणानुगतार्थानां, व्याकृतानां तदाश्रितैः / नियुक्त्यादिभिः सदर्थानां, स्यानयद्वारयोजनम् // 1 // A परं ज्ञानक्रियाभिख्यौ, 'नयावावश्यके मतौ / तत्रास्ति कारणं तावद्यत्करणाश्रितं मतम् // 2 // आदावेव प्रति ज्ञातं, मोक्षो ज्ञानक्रियाद्वयात् / स्पष्ट कृतं नयद्वारे, साधुलक्षणनिश्रया // 3 // शुद्धं सर्वनयैरेतत. साधर्यचरणे गुणे / स्थित एवं च साध्योऽर्थ, उपसंहृत्य दर्शितः॥४॥ चरणं न विना ज्ञानं, दर्शनं च ततस्त्रिकम् / चरणस्य स्थिती मोक्ष-मार्गसिद्धिर्न दुष्करा // 5 // साधुप्रियागतं सर्वमावश्यकमुदीरितं / व्याख्या चापि कृतास्यवं, तन्नयाः साधुनिश्रिताः // 6 // आवश्यकेषु मुख्याङ्गं, प्रतिव्रमणमीरितं / हेयः कार्यश्च तत्रार्थो, | द्विधोवतोऽस्ति पदे पदे // 7 // ततो ज्ञाते ग्रहीतव्येऽर्थेऽग्रहीतव्य इत्यपि / द्विधा विचार्य यत्यं च, नयवादसुधाश्रितैः // 8 // सर्वत्र वा विध्यविध्योः, सत्त्वं विज्ञाय धीधनैः / विधि स्वीकृत्य यत्नेन, वर्तितव्यं नयैर्मतम् // 9 // एवं चारित्रसत्रषु, नयद्वारावधारणं / युक्तं परं परेष्वत्र, सूत्रेषु किन्तु युज्यते // 10 // सन्त्यत्र शासने जैने-नुयोगा इतरेपि च / द्रव्यकालकथाश्लिष्टाः, परं ते चरणाप्तये // 11 // स्वस्वस्थानेषु स्यात्तेषां, नयद्वारोदितिः पृथक् / तांस्तान् पदार्थानाश्रित्य, तथापि न विरुद्धता // 12 // लोके वाक्यानि कथ्यन्ते, यथा द्रव्याापेक्षया / / / // 7 // AC Gunrainasur Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृति / तदर्थ बुध्यते बोद्धास्तत्तद्रव्याद्यपेक्षया // 13 // सूत्रोक्तयोऽपि तन्त्रोक्ता द्रव्यादिसमाश्रिताः / नयद्वारे || आगमो विविच्यैतदाख्येयमिति युक्तिमत् // 14 // उपक्रमे नयद्वारं, प्रामाण्याय विवेचितं / नयद्वारेन तुर्ये तु, सर्व सूत्रं | निक्षेपध्यारक-मा विचार्यते // 15 // सर्वत्र नो जनाः सर्वेऽधिकार सेवितुं क्षमाः। तुर्ये ततो नयद्वारे, यथाश्रोत्रुपसंहृतिः // 16 // शतकम् इति नयषोडशिका // सन्दोहे निक्षेपशतकम् (4) चारित्रं नाज्ञातुर्दर्शनहीनस्य नैव सज्ज्ञानम् / एतत्रिकं विना न च मोक्षो भविनोऽपि जायेत // 1 // || निक्षेपैरर्थानां सर्वेषां स्यादधिगमात् जन्तोः / नयमानै निर्देशाधैः सदाद्यैश्च सदृष्टिः // 2 // भावा भुवने / द्वेधा, आराध्या इतरथा च चिद्वद्याः / समवसरणवत्ती जिन, आराध्यो भावदेवतया // 3 // यस्याराध्यो भावो || नामाद्यारतस्य वन्दनीयाः स्युः / तीर्थकरनामाचा निक्षेपास्त्रय इतो वन्द्याः // 4 // नन्वेवं चक्रथाद्याः सिद्धि- IN गतौ गामिनस्ततस्तेषां / नामादीन्याराध्यान्यतो हि नयात् किं न सर्वेषाम् ? // 5 // अथ भावानुसरणतो / नामाद्या वन्दनीयताधाम / तर्हि जिनाधिपतेर्न च्यवनाद्यनुमोदनीयतया ? // 6 // किंच शलाकापुरुषाश्चक्रथा / द्यास्तेन तत् त्रिकं वन्यं / नामादीनामेवं सति हर्याधर्चनं किं न ? // 7 // सत्य, द्रव्यत इष्टः शुद्धनयेनान्तिमो भवः सिद्धेः / पूज्यतया चक्रयाद्यास्तस्मिन् सिद्धा भवे नैव // 8 // सिद्धेर्वा याऽवस्था तां निक्षिप्यायेत् / सुधीस्तेषु / नैवांशतोऽस्ति दोषो यच्छेषं भावमनुसरति // 9 // अत एव जिनेन्द्राणां सिद्धत्वं प्रतिकृतौ / / समावेश्य / आरोप्यावस्थाद्वयमय॑ते विज्ञैः श्रुताधारात् // 10 // अर्हन्तोऽचिन्त्यपुण्यप्राग्भारास्तद्भवोऽखिलस्तेषां / आराध्यों विधिविद्भिस्तत् किश्चित् शङ्क नीयं न // 11 // च्यवने जिनस्य शक्रः स्तर्वाति शक्रस्तवेन तं // // 8 // तस्मात् / एवं जन्मनि नामान्वयोवहादिष्वपि ज्ञेयम् // 12 // कल्याणकानि पञ्च तु जिनस्य लोकानुभावतोऽानि / / P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || तत्तेषां नानय॑ किश्चिदंष्ट्र द्यापि श्रेष्ठम् // 13 // न घियते विनताऽङ्के यत्तन्मोहप्रभाववैषम्यात् / यद्धौतोऽपि / / आगमो- विकारो न तस्य नश्येत् श्रुतौधोक्त्या // 14 // आर्हन्त्यं कर्मोदयप्रभवमपि प्राज्यधर्मदेशनया। पूज्यतमं, निक्षेपद्धारक- म तद्वदेव हि जिनस्य सर्व बुधैज्ञेयम् // 15 // नातश्चक्री जिनपोऽष्टमादितप आतनोति देवार्थ / भरताद्यास्तु शतकम् कृति- वितेनु: पुण्यचयो यत्तथा नेषाम् // 16 // प्रतिमा जिनस्य वन्द्याः कथयति धर्म विभौ दश द्वे च / तिष्ठान्ति 'सन्दोहे / परिषदस्ताः समवसृतौ चतुर्मुखजिनाग्रे // 17 // प्राग्मुख उपविशति जिनः शेषदिशासु प्रतिकृतीस्तस्य। तनुते सुरस्ततोऽसावमरकृतः कथ्यतेऽतिशयः // 18 // . जिनजिनविम्बविशेषो यदि स्याल्लंशात् ततो न ता दिक्षु / संसद आयोजितकरकमलाः सुस्थाः स्थितिं कुर्युः // 19 // अर्हत्प्रतिमानां नतिपूजनसत्कारकारणाद् हेतोः / बोधेभिः शिवपदमुक्तं तत्साधकं न किम 1 // 20 // सुरलोकविमानेषु प्रभोरशेषेषु मूर्तयो नित्याः। धिकशतमाना: कल्याणायाचिंता देवैः // 21 // सम्यग्दृष्टिजीवो नाधर्म धर्मतापदं विद्यात् / तन्न सुराणां जिनबिम्बपूजनतो धर्मधीळा // 22 // प्रतिनगरं जिनचैत्यान्याद्योपाङ्गोपवर्णितानि किमु / नाद्राक्षीधुंध ! यचं . ब्रवीषि नूत्ना यतः प्रतिमाः // 23 // जङ्घाचारणविद्याचारणमुनयो नर्ति व्यधुः किं न ? / विम्बानां जिनराजां भगवत्यङ्ग स्फुटं विद्वन् ? // 24 // प्रतिषिद्धार्हत्प्रतिमानतिरानन्देन परमताश्रयणे / आद्योपाङ्गे चाम्बडमश्करिणोहस्व तन्मनसा // 25 // द्रौपद्या सूर्याभामरवन् महितानि जिनपबिम्बानि / श्रीज्ञातधर्मकथासु निमील्य नेत्रे तदृहख // 26 // दुग्धं न काष्ठघेनुर्दत्ते यद्वत्तथाऽहतो मूर्तिः। साधयति शिवं नैव, व्यर्था तन्मृत्तिरित्यज्ञः // 27 // जम्बूद्वीपाद्याकृतिमीक्षित्वा किं तद्धिय धत्से ? / किं च जरकादिचित्राण्युपदर्य ननोषि पापभियम् 1 // 28 // सत्यं वीरजिनं किमु निर्णयसि विनाऽऽकृति तदात्वेऽपि / शय्यम्भवार्द्रकुमरोद्रोधं किं नव चिन्तयसि ? // 29 // वनिताचित्रं मनसो विकारजनकं ततो भवांस्त्यजसि / तद्युतमालयमाप्तात् किं न 9 तथेशेक्षणात् शुद्धिः 1 // 30 // लोपित्वा जिनमूतीविधापयन् विम्बमात्मन: साक्षात् / भक्तानां दर्शनमुदे न लजसे Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप / धारयन् मौनम् ? // 31 // दुग्धं कि नामधेनुर्ददाति यजापमातनोषि सदा। भावविशुद्धथै चेत्सा द्विकेङ्ग जग्धा आगमो-|| यदेवं वाक् // 32 // दूरस्था किं धेनुर्ददाति दुग्धं न चेजिनादींस्त्वं / लभसे भव्यं स्मरयन् भावाच्चत् सोऽत्र द्वारक- HI किमु नष्टः 1 // 33 // जिनबिम्बानां पूजा मनःप्रसत्त्यै ततः समाधिश्च / तस्मादमलं शिवपदमतो हि तत्पूजनं न्याय्यम् / शतकम् कृति- // 34 // सामायिकसूत्रं स्त्र पठन भदन्तेति के समुद्दिशसि ? / गुर्वाकृति गुरुं वा विनाज्यथा तामृषा न किमु ? सन्दोहे // 35 // आवश्यकं तृतीयं तन्वन् चरणं स्पृशसि ननु कस्य ? / निजमस्तकेन गुर्वाकृतिं गुरुं वा विना साधो! // 36 // अनुयोगेष्वत इष्टं स्थाप्यतयाऽऽवश्यकं प्रतिक्रमणे / अक्षादि तद्विचिन्तय चेत्सूत्राराधनाकामः // 37 // // 10 // गुरुविरहे नियता तत्प्रतिमा कार्या समग्रधर्मकृतौ / नानापृच्छय गुरुन् यत् क्रियते कार्य मुनिपदस्थैः // 38 // किंचाविरहेऽपि गुरोः स्तुतौ जिनानां तदाकृर्तीनियमात् / स्थापय सत्यं विद्वन् ! स्थैर्य विशेषाय चोत्सर्गे // 39 // / नैवाचार्यस्य पुरतः परः शतानां तु वन्दनविधौ स्यात् / चरणे मस्तकलगनं तत्तच्चरणौ ध्रुवं स्थाप्यौ // 40 // || " मोक्षो जिनेन्द्रकथिताचाराचरणाद् भवेच्च तत्त्यागात् / स च दुष्करोऽथ लब्धे तस्मिन् ज्ञेयः स्तवो भावात् // 41 // मक्त्या वक्तरिमानस्तस्मात् प्रचुरा पुनर्भवेद्भक्तिः। एवमन्योऽन्यवृद्धौ गच्छेन्मानः परां काष्ठम् // 42 // वक्तु। माने प्रचुरे मानं वचनं भपेत् परं तस्मात् / वर्धेतांशांशेन हि त्यागो यो दुष्करोऽभिमतः // 43 // गृह्णानो || व्रतमन् सिद्धे सत्यपि गुणधिके नाख्यत् / अपरोपदेशबोधात् पदं भदन्तेति न परनराः॥४४॥ सिद्धसमक्षं / / | गृह्णन् व्रतं तदाकारमादधीतान्तः। सम्बोधनप्रभावाज़ ज्ञायत एतत् पुनर्विदुषा।।४५॥ न च सिद्धा आका। रैरहिता इति तत्त्रतिकृतिनैव / अवगाहना च संस्थानं तेषां गीतमहद्भिः // 46 // सत्यं पूजा हि तदा कृत कृत्यानां गुणार्थिनां पुंसां / परमस्तु भावतः सा यन्नारम्भादि दूरितपदम् // 47 // आरम्भे जिनपाज्ञा लुप्येतात: / / सदावधोत्रस्तः / स्नानकुसुमदीपादिभिरर्चनाधीयते नव // 48 // अपवादपदं चषा नाहित्प्रतिकृतेर्भवेद् द्रव्यैः। // 10 // // अच्युतपददं यस्माद् द्रव्यार्चनमिष्यते विज्ञः // 49 // ओरम्भस्य बिहासा भव्यानांशिवपदाप्तये गीता / / / Jun Gun Aaradhak Trust P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृति / अपवादात्त अयं वध इव नाकेच्छया यझे // 50 // किंचार्चाया उक्तं फलं जिनानां स्वयं परैर्वाऽऽद्य / पूजेप्सवो आगमो- जिनाः स्युन मानमन्त्ये विकल्पे च // 51 // अन्यच्चाचार्याद्या विरताः सावद्ययोगतस्त्रेधा / करणाद्यैः कायायैः / निक्षेपद्वारक- कथमारम्भं दिशेयुरमुम् // 52 // निरवद्या चेत्पूजा विदघति किं नैव सूरिराजाद्याः 1 / यन्नात्मनोऽस्ति हितदंशतकम् तत्कथमुपदिश्यतेऽन्यस्मै 1 // 53 // यद्वद् ग्रामविहारे नद्युत्तरणं वधान्वितं यतिनाम् / अपवादतो विधेयं कि सन्दोहे तद्वन्नार्हतः पूजा ? // 54 // कामं तथापि सर्वे भविनो निःश्रेयसापकं धर्म / साधो वार्चनमयलमाधातुं .. क्षमा नैव // 55 // भावार्चनेऽक्षमा ये ते कुर्युर्जिनराजपूजनं द्रव्यैः। हेतो: पूर्वीक्तात् खलु मलिनारम्भान्विता / गृहिणः // 56 // स्त्र्यादिकृते सारम्भा अपि ये जिनराजपूजनं द्रव्यैः। हिंसामीत्याऽत्याक्षुर्दुस्तर एषां महामोहो // 57 // आरम्मे चेजुगुप्सा कायारम्भे गृहे स्थिताः कि ते 1 / कुश्रुतकुतर्ककुमतेरतोचने वधभयं जनितम् // 58 / / / पुत्राद्यर्थ हिंसादण्डोऽर्थत आगमे समाख्यातः / पुष्पाद्यरचनायां जिनस्य किं नानर्थदण्डत्वम् ? // 59 // असदेतन् / नागादेरायानर्थदण्ड आख्यातः। आप्तरङ्गे द्वितीये नतु जिनचैत्यादिपूजायाम् // 60 // उष्णाम्बुभक्तदाने साधोस्तद्वन्दनाय निर्गमने / वर्षायामुपदिष्टय गमने मुनिदर्शनायापि // 6 // निष्क्रमणे निर्हरणे किं ते नानर्थदण्डमीरुत्वं / तत्त्वं देवविलोपी खपोषकोऽनृतवधादेशी // 62 // अत आगमानुसारी श्राद्धो नैवार्चन जिनेन्द्रस्य।।। स्वानुचितैः कन्दाद्यः कुर्याद्यत्तत्र वधभयं तत्त्वात् // 63 // ये संसारोद्विग्ना ग्रहीतुमनसो मुनित्वमारम्भम् / / / | न स्वकृते तन्वन्ति, प्रष्ठधियस्ते न तां कुर्युः // 64 // शुभपरिणामात्पूजां जिनस्य रचयन्ननुक्षणं कर्म / निर्जरयति दुर्जरं यन् नाशयति भवं शुभो भावः // 65 // एकान्तेनारम्भे चेदाज्ञा लुप्यते जिनेशस्य / स्याद्वादस्ते | नष्टः सिद्धा अब्ध्यादिषु कथं च 1 // 65 // दानादौ ते लाभो मूयान भूयसि नतौ गतौ दुरात् / सर्वेष्वन्येषु तथा | चेत्पूजया कि विराद्धं ते 1 // 67 // यद्वद्धर्मांशोज़ानुमोद्यते न च ततो वघानुमतिः / तद्वजिनपूजायां कि मति- 11 // / मन्नव चिन्तयसि ? // 68 // कर्ताऽपि यथा तत्रोद्यच्छति बहुशो विधातुमनधमनाः / नवद्भावविशुद्धधै / P.P. Ac Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो- द्वारककृतिसन्दोहे // 12 // जिनपूजाये यतेत बहु // 69 // अपवर्गाय वधोज्झनमर्चापि निशितुः शिवायेव / तन्नापवादपदताऽयुक्ता II सम्यग विचिन्तयतु // 70 // अपवादता न तत्त्वात् साधूनामन्यथा विधेय सा / परिहत्य यदपवादानुत्स- निक्षेपगर्गाणां भवेद् वृत्तिः // 71 // विरताविरते श्राद्धे साऽवश्यं भवति तदयमुत्सर्गः / तेषां नियमात्यक्त्वा कालं शतकम् पौषधगतं सर्वम् // 72 // चैत्यनतौ यतिनोऽषि हि विदधति जिनविम्बपूजनालभ्यं / लातुं लाभं श्राद्धायोप- / / दिशन्ति च विधानेन // 73 // अच्युतदेवत्वाप्तिः परिणामात्तस्य तथाविधादुक्ता / बोध्यै शिवाय सोक्ताऽऽश्यकसूत्रं यतः स्पष्टम् // 74 // सुदृशो वैमानिकता श्रुतकेवलिनां च लान्तकः स्वर्गः। अवमश्चरणात्सुधर्मा : श्राद्धानामच्युतस्तद्वत् // 75 // अपवादपदं सा वा विरताविरतानपेक्ष्य विज्ञेया। अपवादो यद्धतोस्तत्रैवासौ || प्रवत्तेत // 76 // अन्यस्मायुत्सृष्टं परेण नापोद्यते ततो मुक्त्यै / विरतिः पूजा च बुधज्ञैया न तु यज्ञशसनमिव 77 // सुजनो यथा परस्मै महिमानमनधमुशति सुजनसङ्गे / तद्वजिनो जिनार्चाफलं वदेद् योग्यजीवाय // 78 // केवलिनः सामान्याः परमावधयो मनोविदो मुनयः। पूर्व्याद्या व्याकुर्युः किं नार्चाया फलं विद्वन् ! // 79 // केवलिनो जिनपा अपि सरिदुत्तरणादि जगदुरिह सम्यक / तद्वत् सूर्याद्याः किं न गताधाः पूजनं ब्रूयुः // 8 // निरवद्याऽपि च पूजा बिभ्रद्भिः साधूतां न क्रियते यत् / हेतुस्तत्र विशेपाल्लाभो विरतौ न कोऽप्यन्यः // 81 // जिनराजः किं साघोर्वैयावृत्त्यं करोति सरिर्वा ? / अन्यस्माद्बहुलाभोच्चत्तद्वज़ जानीया अत्र // 82 // यद्वा ख-4 रूपसवधा परिणामफला यतो जिनेशार्चा / तन्न स्वरूपमावानवद्यवृत्तरिय कार्या // 83 // यद्वजिनचन्द्राणां च्यवने जन्मनि निर्वृतौ नृणां / कल्याणकेष्वनुमतौ न रतादेरनुमतिस्तथेहापि // 84 // श्राद्धः सामायिकवान् | | जले सचित्तङ्गिनं न पतितं द्राक / पञ्चाक्षमुद्धरेत्तल्लभमुशेत् किं न स परस्मै ? // 85 // अपवादपदे साधोरर्कोद्दिष्टा | | जिनस्य, यचक्रः। श्रींवज्रसूरिवर्याः पुष्पानयन हिमवदादेः॥८६॥ अर्चाकृते जिवेन्दोः स्नानं सिचयानि // 12 // | लेपनं द्रव्यं / उपकरणानि च मुनिनाधेयानि सदा, न तदस्येयम् / 87 // संयमिनामपवादः संयमपोषाय / Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे // 13 // न च जिनेन्द्रार्चा / साक्षात्संयमपुष्टयै वाधा च तदुपकृतेधरणे // 88 // संयमवाधाहतये स्यादपवादस्तपस्विनां I नियमात् / तन्न जिनेन्द्रार्चेषामपवादपदं भवेजातु // 89 // ज्ञानाद्यर्थ वर्षाकाले यमिनां विहरणं प्रोक्तं / / / निक्षेषयत्तत्संयमपो तस्य फलं मनसि निध्याय // 90 // पूजा जिनबिम्बानां संयमपुष्टथै न गण्यते क्वापि / शतकम् तत्सामान्येनोक्ता नैपा यमिना परपदेऽपि // 11 // न च वाच्यं बिम्बेषु ज्ञानादिगुणा न लेशतः सन्ति / तत्कथमेषामर्चा युक्ता तुर्यादिगुणगानाम् 1 // 92 // यस्मात्सर्वगुणाढ्या जिनास्तदारोपतोऽथ बिम्बेषु / तेषां पूजा नरसुरसुखाय मुक्त्यै च विज्ञेया // 93 // यद्वद् ब्राहम्ये लिप्य ज्ञानारोपेण गणधरसुधर्मा / व्याख्याप्रज्ञप्तौ नमतीह तथैषां न कि पूजा? // 94 // यद्वा यद्वदसाधः साधुपदेप्सुर्मदाऽर्च्यते भवतां / यद्वा यथा कलेवरमनगारस्या य॑ते विगुणम् // 95 // अज्ञान् सावधोक्त्या भीतिमुत्पादयन् जिनेन्द्रार्चा / परिहारयन् न किं त्वं परिहरसीज्यां स्वकीयां ताम् ? // 96 // आदिजिनेन्द्रोक्त्या किं मरकरिवेपों मरीचिरागत्य / न नतो भरतनृपेण ? सत्यं चेदत्र का शङ्का ? // 97 // न च वाच्यं नाभाद्या निक्षेपास्त्रय इहादृता द्रव्ये / पर्याये भावस्याऽभ्युपगमनं सैव तत्त्वपरः // 98 // उभयनयाश्रितमहन्म विबुध्येयमुक्तिरहीं न / आकण्ठामृतपीनो न विषोद्गार / नरो मुश्चेत् // 19 // तेनैकनयापेक्षं द्रव्यस्यावस्तुतां समुद्वीक्ष्य / मुह्येद् बुधो न यस्मात् स स्याद्वादश्रुतं वेत्ति // 100 / - इत्थं श्रीजिनराजरिवृषभादीनां जिनाज्ञारतः, सदृष्टिश्चतुरोऽपि शुद्धमनसा न्यासान् सदा मन्यते / सोत्रामुत्र जिनेन्द्रशासनमलं प्रोद्भाव्य लोकेऽखिले, निर्माश्याखिलकर्मबन्धनिचयं स्वानन्दमुग्रं भजेत् 101 // इति निक्षेपशतकम् // लोकोत्तरतत्त्वद्वात्रिंशिका (5) लोकोत्तरं जिन ! तवेदमुदीर्यते ज्ञैर्यच्छासनं प्रतिपदं निजशास्त्रराज्यां तित्सत्यमेव ग्रदमी परवादिनोऽत्र, II P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Guri Aaradhakrust Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारक कृति सन्दोहे |14|| धर्म दिशन्ति जनसिद्धवचः प्रतीत्य // 1 // ज्ञानमात्मगुणत्वेन, त्वमात्थात्मस्वभावभृत् / परैस्त्विन्द्रियपूगोत्थं, समवायेन संश्रितम् // 2 // देहपर्यन्तमात्मानं, त्वमात्थ तद्गुणाश्रयात् / अन्ये जगति सर्वेषामात्मनां व्यापितां लोकोत्तजगुः // 3 // ज्ञानमन्यत्र स्मृत्यादि, तेषां चान्यत्र सज्यते / वैचित्र्यं ज्ञानगं नैव, तेषां जीवसमाक्षतः // 4 // रतत्त्वद्वायायित्यं प्रेत्य तेषां स्यान्नात्मनां किन्तु चेतसः। जडं च तैर्मतं तत्तु, भिदा कैषां तु नास्तिकात् 1 // 5 // शरी- त्रिंशिका रमान आत्मा ते, प्रेक्ष्यते तद्गतो यतः। भवान्तरं समेतः संस्तद्भवीयां तनुं श्रयेत् // 6 // सिद्धत्वमपि सम्प्राप्तो, घनत्वात् पूर्वकायतः। त्रिभागोनावगाहनः साधनन्ततया स्थितः // 7 // परात्मस्थानि कर्माणि, परान् दानादिकर्मसु / प्रेरयन्तीति सिद्धं ते, लोकोत्तरमते किल // 8 // परेषां सिद्धिमाप्तानां, न ज्ञानं सुखमण्यपि / मते ते तु सदा सिद्धा, ज्ञानसौख्यसमन्विताः // 9 // किञ्च तेऽनन्तजीवानां, राशिर्लोके मतस्ततः। सिद्धानां न पुनर्जन्म, परेषां तु प्रवादिनाम् // 10 // अतीन्द्रियार्थबोधस्याभावान्न स्थावरागिनां / बोधस्ततो मितान् जीवा-नाहुर्मुक्तस्य / जन्म च // 11 // युग्मम् // परे पुण्यकृतेर्मार्ग-मभिषेकादि चक्षिरे / दानादिजिनपूजादि, दयादि त्वन्मते पुनः / / // 12 // कर्मणामणवो जीवे, बध्यन्ते ते मते ननु / तेन ते सुखदुःखस्य, विधातृत्वेन सम्मताः // 13 // गुणोऽदृष्टं परैरुक्तं, जीवस्य न परं भुवि / सर्वेषामङ्गिनां तुल्य-महों आत्मगुणे मतम् // 14 // पक्षपातग्रहग्रस्ता, निषेदु जैनसङ्गमम् / पुण्यनाशाम्बुसंसर्गा-नाशं पुण्यस्य चक्षिरे // 15 // सम्यक्त्वाद्या गुणा मुक्तिं, ददते ते मते किल / देष्टा वर्धयिता शास्त्रेस्तेषां तन्मोक्षदो भवान् // 16 // साजात्येतरबोधादीन् , हेतून मुक्तेः परे जगुः। तदेते तत्त्वतो वादे ज्ञानाद्येकान्तमाश्रिताः // 17 // आत्मनस्तादवस्थ्येऽपि, भवो मुक्तिश्च जायते / परस्परविरुद्धौ तन्मतेऽनैकान्तिके वरम् // 18 // किञ्च मत्वा गुणान् जीवे, तदाबृत्यै त्वयोदिता / ज्ञाननादितया कर्मा-चली नान्यैरबोधतः // 19 // आश्रवास्तन्मताः शाखे, चित्रा ज्ञानद्विडादयः। परेषु नैव लेशोऽस्त्या-श्रवसंवरतत्त्वगः॥२०॥ किञ्च त्वदीयशाखेषु, / // 14 // मता अष्टादशाश्रयाः। हिंसाद्यास्तजमेनस्तु, श्वभ्रादिष्वनुभूयते // 21 // परैस्तु लोकसम्बोध्यो, व्यवहारः समाP.P.AC.Gupratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रितः / ग्राह्यार्पणीयरूपेण, हिंसादानादिकर्मसु // 22 // हता मुक्तिं गताः स्वर्ग, श्वभ्रं वा निजकर्मतः। हिंसकाय न / आगमो- दातारः, किंचित्तत् किं धोऽफलः ? // 23 // दातारः प्रेत्य तेषां स्यु-र्याचका इतरे परे। एवं व्यवहृतेश्छेदो, लोकोत्तध्यारक ननव स्यात् परं पदम् // 24 // लोकोत्तरमते ते तु, हिंसाद्याश्रवराशितः / बद्धं पाप स्वयं जीवो, भुङ्क्ते योगात्त- रतत्त्वद्वाकृति त्रिंशिका थाविधात् // 25 // परमाधार्मिकाः श्वभ्रे, व्याधाद्याः पशुपक्षिषु / नरेषु दण्डिकाद्यास्तु, दत्त्वा दुःख व्यधुस्त्वधम् सन्दोहे // 26 // एवं परापरे जीवा, अजीवाश्चापि कर्मजं / फलं भोजयितुं नित्य, संसृति साधितुं क्षमाः॥२७॥ लोको त्तरमते जीवा:, श्वभ्रादिषु भवाः सदा / अनादिकालतस्तस्माजगत् शाश्वतमाश्रितम् // 28 // सर्वत्र जन्मिनः कर्म, // 15 // / कुर्वन्ति प्रेत्य तत्फलम् / भुञ्जन्त्येवं न यावत्स्या-दव्ययं तावदीक्ष्यताम् // 29 // तथाभव्यत्वभावेन, कर्मलाघवतां गताः / सद्दर्शनादि सम्प्राप्य, भव्या गच्छन्ति निर्वृतिम् // 30 // एतत्सर्व जिनेन्द्रोक्तागमाद् ज्ञेयं विवेकिभिः / नान्यस्माल्लेशतोऽप्येतज्ज्ञानं जीवैरवाप्यते // 31 // जीवाजीवादितत्त्वानां, यथार्थानां निदेशनात् / सत्यं लोकोत्तरं / जैनं, मतं विद्वद्भिरिष्यते // 32 // अज्ञानान्धितलोचने जगति मे सद्भारयोगाद्वरं, दृष्टेर्मार्गमुपागतं जिनवरेन्द्रोवतार्कभासान्वितं / शासनमार्हतमाप्तवर्यसुभगं शीघ्रं ततो हं गमी,शश्वत्सौख्यमयं महोदयपदं यन्नित्यमाभन्दभाग // 33 // इति लोकोत्तरतत्त्वद्वात्रिंशिका // . व्यवहारसिद्धिषट्त्रिंशिका (6) अनादिः संसृतिर्जन्तो-मिथ्यात्वादिजकर्मभिः / तज्ज्ञात्वा केवलविदा, भव्यायोपादिशजिनः // 1 // नाज्ञः प्रवर्तते शुद्धथै, नायत्नः शुद्धिकारकः / ज्ञानक्रिये ततोऽदिक्षत्, सन्मार्ग परमेश्वरः // 2 // व्यवहारं विना विद्वान्, कर्मसाधनकर्दमे / मजेत् स्वयं परान् जन्तून्, मजयेच्च वधादिभिः // 3 // अत एव समुत्पन्न केवला अप्यगारिणः / भरताद्या जहुः सङ्गं, द्रव्यतः संयमादृतेः // 4 // भगवान् श्रीमहावीरः, क्षुत्तृषाक्रान्तविग्रहान् / Jun Gun Aaradhak Trust P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिशिका || अम्भस्तिलानचित्ताना नुजज्ञे यमिनोऽप्यतः // 5 // कृतियथोक्ति देवस्य, लक्षणं द्रव्यतोन्तरा। संयमं तद् युता / / आगमो दारैः, शस्त्रैर्देवा जुगुप्सिताः // 6 // गुरवो मुक्तसङ्गाः स्युर्व्यवहारमृते कथं ? / ससंगाः सवधा: किं नान्यथा व्यवहारद्वारकगुरुपदोचिताः ? // 7 // धर्मः शुद्धः कषच्छेद-तापैः शुद्धौ कथं स्याताम् / आद्यौ न व्यवहारेण, विना सम्भवतः | सिद्धिषट, कृति क्वचित् // 8 // प्राणान हन्यात् मृषा ब्रूयात् , नासौ सर्वज्ञतापदम् / अनारम्भो मुनिर्धों, जन्तुबाधाविवर्जितः सन्दोहे | // 9 // व्यवहारे परित्यक्ते, नैपामेतानि लक्षणं / तथाच किं तनूभृद्भयः कथ्यं देवादिलक्षणम् ? // 10 // अर्वा ग्दृशां विबोधाय, तद् गम्यं लक्षणं वदेत् / वक्तृश्रोत्रोरितरथा, ध्यान्ध्यं स्यादनिवारितम् // 11 // किश्चात्मना // 16 // परित्यक्तारम्भसङ्गेन किं पुनः / प्रवृत्तिः क्रियते सङ्गवधयोर्येन यामो न बाह्यतः // 12 // अन्यच्चावृतवन्तः स्युः कषाया बाह्यसाधुतां / तृतीयास्तत्क्षये किं च, सा नोद्भवति निर्मला ? // 13 // संयोजनावियोगे कि, निर्वेदाद् भवतो विदः / संवेगाच भवेद्भाव-साधुतासम्भवो नहि // 14 // अत एवानुरक्तानां, संयमे देशतो व्रतं / भावना गृहिणां चाणुव्रतेषु संयमाश्रिताः // 15 // द्वितीयानां तृतीयानां, कषायाणां च बाह्यतः / देशसर्वव्रते वार्ये, तत्क्षये ते न किं तथा ? // 16 // सज्वलना ह्यतीचारापादकाः कोपनादिभिः / परेषूदयमाप्तेषु, मूलोच्छेदः कथं ननु ? // 17 // द्रव्ययोगानिरोधे ना-योगिता परमेशितुः / IM इति पश्यन् कथं लुम्पेद् ,व्यवहारं श्रियः पदम् ? // 18|| बुद्धवान् भरतश्चक्री, मुद्रिकायाः वियोगतः / मरुदेवी / जिनस्यर्द्धि वाणी वाऽऽलम्ब्य सिद्धिभाक् // 19 // अन्यलिङ्गो गृहस्थो वाऽवाप्नुयात् केवलं परम् / अधिके IM जीवितेऽवश्यं, चरणं बाह्यमाश्रयेत् // 20 // विचाऽत्यल्पान् स्वयम्बुद्धान् , प्रत्येकांश्च जिनागमात् / बहून् / सम्बोधितानन्यैन बुधो व्यवहारहा // 21 // जीवेकश्चिद्विषं पीत्वा, तथाभन्यतया पुमान् / सर्वे प्रियायुषो जीवाः, किं पित्रेयुर्विषं ननु ? // 22 // वधसङ्गो विषं घोरं, बाह्यतोऽपि न बुद्धिमान् / भवभीतस्ततस्तत्र, // // 16 // वर्तेतातोदितौ रतः // 23 // नालम्ब्यं मरुदेवादे तिं प्रत्येकबोधिनः / विदनिति बुधः किं स्याद्भवभीरुः / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिशिका .: / / क्रियाऽलसः // 24 // अनन्तैलेंभिरे बोधा,. निस्तीर्णश्च भवार्णवः / सङ्गत्यागान ते ज्ञानां व्यवहाराय किं / आगमो- क्षमाः ? // 25 // व्यवहारं समुच्छिन्दन् , तीर्थोच्छेदी मतो जिनः / इति मन्वान आतोक्ति-माश्रितस्तं त्यजेत् | लोकोत्तध्धारक कथम् ? // 26 // न चोद्यं यत् क्रिया गौणी, पस्था कथमुच्यते / समासे परतो द्वन्द्वे, वर्णाल्लघ्व्यन्यथा पुरः 1 रतत्त्वषदकृति // 27 // मोक्षो ज्ञानक्रियाभ्यां जैरुक्तस्तत्र लघुः क्रिया / नावाचि प्राक सति द्वन्द्वे, ज्ञानमभ्यचितं ततः सन्दोहे // 28 // आद्यं ज्ञानं क्रिया पश्चा-दित्युत्पत्तिकमाश्रितं / वच एतत् न 'यद् धर्मोऽखिलसंवरमन्तरा // 29 // करणे तृतीयाऽदिष्टा, मुख्यता तद् द्वयोरपि / उभयोः करणत्वेन, सम्यक चिन्तय चेतसा // 30 // परस्थं - // 17 // करणं ज्ञानं, सम्भवेन् मारुषादिवत् / अनुवृत्तेर्बुधस्यादौ, न क्रिया जातचिनथा // 31 // अगीतार्थोऽपि निश्राय, गीतार्थ मुनितापदं / नाव्रतः साधुताभाक स्याउ, जिनेन्द्रमपि संश्रितः // 32 // असंयतार्चनं विज्ञमतमाश्चर्यमन्तिमं / न क्वाप्यभ्यर्चना साधोरगीतार्थस्य गीयते // 33 // चरणे ज्ञानदृष्टयादेः, सङ्ग्रहायापवादता / पुष्टथै यमस्यं सा यन्नापोद्यतेऽधिकृतं विना // 34 // हीनो व्रतेन पूज्यः स्याद्, यत्प्रोक्तं तत्र कारणं / शुद्धप्ररूपणा भाव-साधुता ह्यपवादतः // 35 // श्रुतबोधेन चेत् पूजा-योग्यः स स्यात्तदा न किं / दशपूर्वी दधन्यूनां, स मिथ्यात्वे मुनिब्रुवः ? // 36 // द्रव्यपर्यायभावज्ञो, हिंसादेविरतो विभोः / आज्ञामनुसरन् शक्त्यो यच्छन् पूजापदं श्रुतात् // 37 // श्रीमजनेन्द्रवाणी प्रतिपदमनुयान् हापयनिन्द्रियाणा-मर्थेषु प्रेमरोषौ रतिमनुरचयन् / संवरेषु प्रकामं / गुप्त्या गुप्तं समित्या समितमरुहतां मार्गमुद्योतयन्तं, नत्वाऽचित्वा तदीये पदयुगकमले. लीन आनन्दमेतु // 38 // इति व्यवहारसिद्धिषट्त्रिंशिका // कर्मफलविचारः (7) नमत भव्यजना ? नतनाकिनं, विहितशुद्धपदाश्रितसंस्थितिम् / निहतजन्मजरामृतिकारणं, कृतसुधामP.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust G // 17 // Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम् द्धारककृति सन्दोहे // 18 // 334 निवासविवेचनम् // 1 // नह्याधेयं विनाधारमाधारः क्षेत्रमुच्यते / निश्चयेनावकाशोऽदो, मण्डलं व्यवहारतः | // 2 // परिणामिन उच्यन्ते, जीवास्तत्र द्विधा नतिः / स्वाभाविका परोत्पाद्या, चेत्याद्या न विविच्यते॥ 3 // पराव देशद्रव्याद्धाभावमुख्या नतिं प्रति / कारणं येन द्रव्याद्याः कर्मोदित्यादिकारकाः, // 4 // ये फलजीवा द्रव्यक्षेत्रादि-सहायस्यनपेक्षिणः / ते विचित्राः सुरवनि-शलाकचरमाङ्गिनः॥५॥ तेषामायुर्यतो नवोपक्र विचार म्येतापवर्तनं / क्रियेतास्य न द्रव्याधैर्यत्तऽनपवर्त्यजीविताः // 6 // तथापि सर्वथा ते न, द्रव्यादिकस्य कुर्वते / उपेक्षां निर्गतौ द्वारावत्या द्राग्रामकेशवौ // 7 // अपरेषां ततो युक्त-तम आत्महितैषिणां / सोपद्रवस्य धाम्नो हि, त्यागः शास्त्रविदोदितः // 8 // कर्मणां फलदातत्वमव्याहतमथेष्यते। किमपेक्ष्यास्तदा द्रव्यक्षेत्राचा विबु // 9 // द्रव्याद्या एव चेद् दद्युः, सुखदुःखे शरीरिणां / आत्मवैस्तिया वस्तं, समस् शुभदर्शनम् // 10 // उपप्लुतं ततः स्थानं, वर्जयेदिति वाचिकं / अदृष्टवादिनां वः किं, युज्यते मतघातकम् ? // 11 // सत्यं लोभान्धितात्मानः, कर्मणां फलवत्तनुः / न सा परं विना द्रव्याद्यतत्प्रागेव निर्णीतम् // 12 // कर्मणो वर्गणाः सूक्ष्मा, नोपभोगक्षमास्ततः / न बाह्यद्रव्यप्रभृति-निरपेक्षं फलन्त्यमी // 13 // इच्छाकृतं यथा शेषं, न विना बाह्यपुद्गलान् / विकारादि तनौ दृष्टं, न चेच्छाप्यणुवर्जिता // 14 // बोधिका न परा मध्या, नच ते अन्तरा वचः। वैखर्या नच सा बाह्येन्द्रियाण्यते भवेद्विदे // 15 // विद्युच्छक्तिर्यथा यन्त्रे, प्राप्तापि बाह्यपुद्गलान् / नाविचा-H ल्य जनं स्वार्थ, बोधनाय भवेदलम् // 16 // स्नायवोऽपि तनौ केचिद्, ये स्वविकारसम्भवे / बाह्याणुविकृतेः / / ख्यान्ति, स्वसद्भाव विचक्षणाः // 17 // कानिचित्स्थूलताभानि, साक्षाद् द्रव्याणि भूतले। औषधीभूतकायानि, / फलदायीनि बाह्यतः // 18 // दृष्टसाम्येपि न फलं, समं जगति दृश्यते / तत्रादृष्टो बुधैः कश्चिद्धेतुः कल्प्यो / ह्यतीन्द्रिय: // 19 // तदेवादृष्टमित्येवं, सूक्ष्पैः कर्माणुभिर्महि / विना बाह्यगताणूनां-मपेक्षा साध्यते फलम् / // 18 // // 20 // अत एवौषधेर्योगः, प्रशस्यो गदसंगमे / तीर्थादेरातिश्चात्म-कल्याणकरणे पटुः // 21 // विचित्रा Jun Gun Aaradhak Trust P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फल आगमोद्वारककृतिसन्दोहे // 19 // आमया विश्वे, दृश्यन्ते द्विविधा यतः। सङ्कमेगोद्भवाः केचित्, केचित्सकमवर्जिताः // 22 // आयेषु सत्सु / मनुजैस्त्याज्यं तद्धाम सर्वथा / न ते यद्यपि सर्वेषां, तत्रस्थानां तनौ नृणाम् // 23 // आमयास्तदपि त्याग, कर्मआख्यातोऽस्य महर्षिभिः / अपायशङ्कासद्भाव, आदितस्तस्य वर्जनम् // 24 // युग्मम् // न चान्यस्थान विचारः सङ्क्रान्त, आदितो गदसम्भवः / निरीक्ष्याग्निं वसेकोज्यो, बालिशात्तत्र धामनि // 25 // गेहेशूरतमाः केचिन्न निर्गच्छन्ति तादृशात् / आदावालयतो द्रङ्गात्किं शौचन्त्यामयोद्भवे? // 26 // उपप्लुतं त्यजेद्धीमान्, सुखावासे वसेत्सुखम् / तत्रापि कर्मसामर्थ्याचेद्भवेद् व्याधिसम्भवः // 27 // तदा निरुपमं धर्म-स्मरणं हृदि सन्दधेत् / तावद्विज्ञेन भेतव्यं, यावन्न भयसङ्गमः // 28 // कर्मणां मे विपाकोऽयं, तन्न तत्कृतिरायतौ / हितदेति निराबाधं, श्रयेद्धर्म सुखावहम् // 29 // आत्तरौद्रे यतों मूलं, भवस्य दुःखदायिनः। इष्टानिष्टाप्तिविरतेरिच्छा हेतुस्तयोर्मता // 30 // आयुश्च चञ्चल दर्भप्रान्ताबिन्दुरिवानिशं / यान्ते मतिरसौ प्रेत्यगतेमूलमनश्वरम् // 31 // शोकतापादयोऽसातवेदनीयस्य कारणम् / दुर्गतौ पतितो जन्तुर्नान्यत्किमपि चेतयेत् // 32 // सातं पुरा भवेद् बद्धं, तदप्येतेन तद्भवे / सङक्राम्यतेऽसुखतया, विषेण दुग्धवृन्दवत् // 33 // अत एव श्रुते प्रोक्ता, ज्ञानाधाराधनान्तिमे / भागे भवस्य धन्यानां, दुष्करा चन्द्रवेध्यवत् // 34 // न चान्त्ये ज्ञानदृष्ट्यादे, राधना संस्कृति विना / संस्कारेपि सति न साराधना चलचेतसः // 35 // न च चित्तं स्थिरं स्थाने, सोपप्लवेऽङ्गिनां भवेत् / सोपद्रवस्य तद्धाम्नो, वर्जनं हितकृन्ननु // 36 // भयान् सर्वान् परित्यज्य, निर्गत्य साधवोऽभवन् / तेऽपि सोपप्लवं क्षेत्रं, त्यजेयुर्दूरतो पि हि // 37 // अन्यदास्तां चतुर्मास्यामपि जन्तुसमाकुले / कुएं रोगपराभूतो, स्थानेऽन्यस्मिन् समाक्रमः // 38 // ज्ञानादिवृद्धये देहपालन क्षेत्रसौस्थ्यतः / ते निर्दिष्टे यतः सूत्रं, यथालाभं वहेद्वपुः // 39 // उपप्लुते वसन् स्थाने, ज्ञानादेः पोषकः कथं ? / स्यात्ततोऽनार्यसंस्थाने, विहारोऽपि || // 19 // निवारितः // 40 // अप्राप्तकाले योधत्ते, आत्मनोऽनशनक्रियां / स चात्महा न शस्य: स्याद्रौद्रध्यानपरायणः // 41 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म फल विचार: || विज्ञाताहन्मते पुंसि, न खान्यात्मविबाधने / विचारकणिकाभेद, आत्मत्वस्याविशेषत: // 42 // अत एव !" आगमो- | जिनाचख्युरेषणासमिति मुनेः / अन्यथारभ्य दीक्षायाः, प्रोच्येतानशनक्रिया // 43 // अपवादानपि प्राहुः, द्धारक निर्ममानां महात्मनां / सेवनीयतया कालमनतिवृत्य वाङ्मये // 44 // सर्वत्र संयम रक्षेदात्मानं तु ततोऽपि च / कृति मुच्येत सोऽतिपातादे', शुद्धेनैवात्महिंसनम् // 45 // तथाच ज्ञानवृद्धयादिमपवादाश्रितिहिता / अवलम्ब्य, न। सन्दोहे यद्भिन्नं तस्मादात्मविशोधनम् // 46 // गीतः कृतयोगीत्यादिस्मृतेर्ज्ञानादिसाधने / अपवादे न दोषोऽस्ति, // 20 // प्रमादस्य तु शोधनम् // 47 // ये त्वेनत्सूत्रमालम्ब्य, यथाछन्दतयाटति / न तैर्शाता श्रुताम्नातापवादस्था विशुद्धता // 48 // उत्सर्गरक्षणे दक्षोऽपवादो नान्यलक्षणः / विहाराहत्पूजनादिः, स न यज्ञेऽङ्गिनां हुतिः // 49 // उत्सगपालनाशक्ता-चपवादावलम्बनं / निस्त्रिंशानां ततो युक्तो, न द्वितीयाश्रयः क्वचित् // 50 // सोपद्रवं पुरं घाम, ग्रामो वा द्वादशाब्दतः / अर्वाक त्याज्यतया गीत-धुर्याणां गीयते श्रुते // 51 // निःस्पृहाणामियं वार्ता, त्यागेऽपाययुताश्रितः / चेत्कथं न भवेद्वर्गत्रयसाधनधारिणाम् ? // 52 // यथैव तपस: पाप-प्रचितिः क्षयमा-N प्नुयात् / तथैवोपक्रमादायुरेति किं न क्षयं बुधाः ? // 53 // न यथर्ते तपः पाप्म-क्षयो महामुनेपि / नार्वाक / तथानुपक्रान्तस्यायुषस्त्रुटिसम्भवः // 54 // जीविते श्वसनो जीवोऽस्य त्रुटेः श्वसनं कथं ? / पार्थक्यमायुषो / नाम्नोऽवधार्येदं विचिन्त्यताम् // 55 // आयुषोऽध्यवसायाद्याः, श्रुतिसिद्धा उपक्रमाः / युक्ताऽऽश्रिते: सविनाया, हानिरायूरिरक्षिषोः // 56 // एवं च वध्यकर्माली, पेलवायां वधो मतः / तेनायुषो यतोऽकारि, स्थितस्यापि / यदुत्क्रमः // 57 / / तादृशं तेन बद्धं चेन विनोपक्रमं तथा / तेनासौ प्रेरितश्चेन्नाकर्मणां सा भवेत्क्वचित् // 58 // नचास्ति नियमस्तादृग्, यत्तेनासौ तथाकृतः / यतोऽज्ञानप्रमादादि, स्वादृष्टोद्भवमेव तत् // 59 // न च तत्प्रेरको जन्तुः, कषायादिविनाकृतः / न. चावनाभिसन्धेश्वाभावो येन न हिंसनम् // 60 // वधकोऽसौ न निर्लेपो, येन वध्यनसां चयः / वधे हेतुर्भवेदेको, नाश्रवः स्याद्विहिंसकः // 61 // हिंसाऽभावेऽपे या हिंसा, P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust // 20 // Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फल विचार: || प्रमत्तस्य मताङ्गिनः / सा न कर्मोद्भवेति किं, कर्मबन्धविधायिनी ? // 62 // एकेन्द्रिया न कस्यापि, आगमो- | हिंसका: प्राणिनो यदि / तदा वनन्ति किं तेपि, कर्म भ्रमिनिबन्धनम् ? // 63 // आत्मनो बध्यता भावा-द्वैरं कर्मद्धारक तु द्रव्यतो वधात् / तन्नैकापीयमनृता, हितं तद् द्वयवर्जनम् // 64 // निरपेक्षा यदि श्रद्धा, निरपेक्षं तपो कृति यदि / चर्या यदि निरपेक्षा, तद्धिता निरपेक्षता // 65 // तादृशानां भवेत् किन्तु, न गार्हस्थ्योषितिर्वरा / सन्दोहे गार्हस्थ्यं नैरपेक्ष्यं च, तदार्धजरतीयता // 66 // चौरकण्ठीरवव्याघ्र-व्यालाद्यजनिता अपि / यत्रापाया वसेत्तत्र, // 21 // न गृहस्थोपि बुद्धिमान्, // 67 // अनपाये वसेद्धीमान् , धाम्न्यनपायतत्वविद् / अनपायं यतो ध्यानं, निरपाया च राधना // 68 // यतीनामपि सापेक्षो, धर्मश्चेद् गृहिणां कथं / निरपेक्षो भवेद्धर्मो, देशसंयमधारि- / णाम् ? // 69 // त्या त्या जननमरणव्याधिशोकोद्भवां गां, ध्यायं ध्यायं भवगतजनुर्ज्ञानदृष्टयादिप्राप्तिं / स्मारं स्मारं मनुजजनुषो दुर्लभा प्राप्यतान्त-र्धार धारं जिनगुणनिधिं भव्यलोका यतध्वम् // 70 // नवसारे वसुसारे स्मारितसुषमापुरद्धिसम्भारे / आनन्देनानन्दे प्रकरणमिदमात्ममतिततये // 71 // श्रीमत्पार्श्वजिनेशपादपवितं पूजादिकार्योद्यतं, यत्रैवामृतसागराख्ययतिनो दीक्षेष्टिसम्पूर्णता / शिष्टं यन्नृपपुङ्गवेन गुणिना शैवेयनाम्ना सदा, तस्मिन्वाञ्छितकल्पपादपचिते सारे पुरे ख्यापितम् // 72 // इति कर्मफलविचारः // . ___परमाणुपञ्चविंशतिका () कारिकेयं धृता भाष्ये, तत्त्वार्थीये पुरातना / उमास्वातिवरैः श्वेतां शुभिः सूक्ष्माणुसिद्धये // 1 // कारणमत्र तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः / एकरसगन्धवर्णो द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च // 2 // व्यवहाराः प्रधानानु-यायिन इति कारणम् / अत्रोपादानमादेयं, न परं तेन पौद्गलम् // 3 // भेदं पार्थक्यमन्त्यं यद्, / // 21 // द्वथणुके संस्थितं नहि / निमित्तं समवायं न, प्रान्त्यं कारणमाश्रयेत् // 4 // पारम्पर्यमुपादानेऽणुरन्त्यं कारणं परं / / P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो- द्धारक कृति सन्दोहे // 22 // छा. के. खा. जेषा अचितस्कन्धगोऽन्त्यो य:, संयोगः स न पुद्गलः // 5 // यथाप्रवृत्तकरणं, योगा मिथ्यात्वमक्षगं / ज्ञानमोघेन || सर्वेऽमी, हेतवोऽन्त्या न पौद्गलाः // 6 // अत एवैवशब्दोजासाम्प्रतस्त्विति सूरिभिः / वृत्तौ स्पष्टतयाऽऽ- परमाणुख्यात-मत्रेति च मतं पदम् // 7 // अत्रशब्देन तैरुक्ता पुद्गलानामधिश्रिति: / स्युरन्यत्रान्यथाऽन्त्यास्तेऽधिकृता | पञ्चविं. नात्र पौद्गले // 8 // तच्छब्दोऽपेक्षते शब्दं, यदितीत्थं प्रमीयते / यदन्त्यं कारणं स्कन्धे, तत्परमाणुरुच्यते शतिका // 9 // वादोज परिणामस्य, तेन द्वथणुकसंहरात् / उद्भवः परमागोः स्यान्, न कार्य कारणात्ययात् // 10 // महास्कन्धेऽपि सोऽस्त्येव, परिणामोऽपरस्तदा / भेदे द्वथणुक सङ्घादेरन्त्योऽणुः कारणं पृथक् // 11 // सामान्येनाधिकारोवा-जीवानां प्रथमः कृतः / पृथक्कर्तुमधीकार-मत्रेत्यावश्यकं पदम् // 12 // जगत्यसौ न कालोऽस्ति. यस्मिन सर्वेऽणवः प्रथक / अन्त्यावस्थां गताः स्यर्यदेवलक्षणविग्रहाः // 13 // आलोच्येत्याहराचार्या यत् सूक्ष्म पौद्गलं दलं / स सूक्ष्मः परमाणुः स्यात्, सम्बद्धोऽपि स्वरूपतः // 14 // सूक्ष्मो नापेक्षिको I ग्राह्य स्तस्य बादरभावतः / अन्त्यः सूक्ष्मः पुद्गलस्तु, कश्चिन्नाणोः पो भुवि // 15 / / यथाऽन्त्यं कारणं बद्धे, न गम्यं न पृथक् समे / अणवो न विभक्ताः स्युर्जातु सूक्ष्मत्वमाययुः // 16 // आशङ्कयेति तृतीयं, लक्षणं नित्य ईरितं / परिणामेषु सर्वेषु, पृथक्त्वे च सदा भवेत् // 17 // जैनो वादः परीणामेऽतोऽणुः स्कन्धेष्वपीष्यते / कथञ्चित्परिणामच, कार्य हेतुं च समन्वयेत् // 18 // नाशान्न कारणानां स्यान्न चानाशात्तु सर्वथा / वादेज परिणामस्य, नाशानाशावुभौ मतौ // 19 // यथा व्युतः पटस्तन्तु-समवायेन कारुभिः / करोति पट- 1 कार्याणि, तन्तुकार्य न रुध्यते // 20 // अन्त्यकारणता सौम्य, नित्यत्वं च श्रितं ह्यणून् / श्रद्धानुसारिणः श्रोतॄन् प्रतीदं लक्षणत्रयम् // 21 // तर्काणुसारिणः श्रित्वाऽऽचार्यास्तुर्य जगुः परं / लक्षगं कार्यलिङ्गेति, R परमाणोर्विनिश्चितम् // 22 // आन्वीक्षिकी श्रितो विज्ञोऽनुमायादृष्टमूहते / भूमिगृहाद् द्विजं क्रष्टुं, नेशा विद्या / // 22 // र्थिनः परे // 23 // नाणूनां साधनं तळं, कार्यलिङ्गात् परं याः / हेतुहेतुर्महद्रव्ये, तर्के प्रोच्याणुरुच्यते // 24 // | PP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारककृषि भव्याभव्यप्रश्नः सन्दोहे. - // 23 // याचकरसवर्णादि, न तल्लक्षणदेहभाक् / स्कन्धानामसौ सद्भावो, न नास्तीत्युच्यते बुधैः // 25 // व्यावृत्या च यदि बयुर्लक्षणत्वममुष्य चेत् / न कदाचित्क्वचिचात्र, रसाद्या द्वथादयो नहि // 26 // अयुक्तं तर्हि नो किश्चिद्यन्नाणौ नैकतोऽधिकाः / रसाद्याः स्पर्शयुग्माच्च, नान्यः स्पशेऽधिको भवेत् // 27 // परमाणागेदितं / / जिनेश्वरमते यल्लक्षणं व्यापकं, सततं यच्छिशुबुद्धबोधविधये वर्मुनीशैः श्रुते / जगदे तच्छुभकारिकापदगतं मोहापहाराय तु, समतामाप्य परां मया शृणुत तत्स दस्तुबुद्धय नराः // 28 // इति परमाणुपञ्चविंशतिका // भव्याभव्यप्रश्नः (9) . सनत्कुमारदेवेन्द्र-सूर्याभविबुधादिभिः / श्रीवीरं प्रति यत्पृष्टं, स्वकीयात्मविशेषितम् // 1 // भव्यो वाऽहमभव्योऽस्मीत्येवमादि जिनागमे / प्रोक्तं वीरेण त्वं भव्योऽसीत्यादि स्पष्टवाक्यतः // 2 // ततश्च ज्ञायते राशि-द्वयं सूत्रकृतां मते / किं चायस्थानके प्रोक्तं, तृतीयेऽङ्ग गणेशिभिः // 3 // द्वैविध्यं भव्यसिद्धिकाभव्यसिद्विकगोचरं / जीवाजीवाद्यभिगमोपाङ्ग राशिद्वयं तथा // 4 // अभव्याः सूक्ष्मपर्याप्त-निगोदेम्यो मताः श्रुते / प्रज्ञापनाख्येऽनन्तनाश्चतुःसप्ततिके पदे // 5 // आवश्यके तु सम्यक्त्व-लाभे भवसिद्धिका अपि / इत्याख्योदिताः स्पष्टमभव्या यत् श्रुते मताः // 6 // ज्ञेयं केवलिनामेवैतत्तेनार्हन् सुरोत्तमैः / पृष्टः स्वविषये तेन, स्वभावोऽयं यदात्मनः // 7 // अत एवावदन् सिद्धसेनपादास्तु सम्मतौ / भव्याभव्यत्ववादो यदहेतुक इतीयते // 8 // चेतनाधारकत्वेन, नैष राशिस्मृतीयकः / जीवाः सर्वेपि यन्नित्यं, चैतन्यं शुद्धमादधुः // 9 // इति भव्याभव्यप्रश्नः // अष्टकबिन्दुः (10) यो वीतरागः सर्वज्ञस्त्रिकोटिशुद्धशास्त्रवाक् / शिवदो ह्याज्ञयाराद्धो, नमस्तस्मै परात्मने // 1 // स्नात्वा Jun Gun Aaradhak Trust P.P.AC. Gunfatnasuri M.S. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टक बिन्दुः र्चयेन्महादेवं, द्रव्यभावभिदाशुचिः / शुद्धथत्यन्तेऽसुमान्ध्यानादाद्यपीष्टं तदर्थंकृत् // 2 // द्रव्यभावाष्टपुष्पीयं, आगमो- स्वर्गमोक्षपदा मता / जात्याद्याऽऽद्य दयाद्यन्त्ये, भावः कर्मक्षयङ्करः // 3 // एधांस्यपानि धर्माग्निः, प्रबला धारक- भावनाहुतिः / अकामा मोक्षदा साधो रनवेत्यग्निकारिका // 4 // आज्ञास्थितोऽनुकम्पावानुपकारी सदाशयः / ईप्सेत्सम्पत्करी वृत्ति, पौरुषघ्नीं च वर्जयन् // 5 // भिन्नं न कल्पितं पाके, न कृतं न च कारितं / यतिना सन्दोहे / गृह्यतेऽनादि, न पुण्ययावदर्थिकम् // 6 // दीनादेर्दयया दाने, पुण्यं पापमिहान्यथा / भवाङ्गमेते तत् साधोः, प्रच्छन्नं भोजनं मतम् // 7 // जिनाज्ञाभक्तिसंवेग-युतोऽविध्यादिवर्जितः / विरतो भावतो द्रव्याच्चोक्तमित्यपि | // 24 // शोभन: // 8 // शान्तो हेयादिनिश्चायी, स्वस्थो न्यायादिवृत्तिमान् / तत्त्वसंवेदनः पात नैरपेक्ष्याद्यसङ्गत्तः 9 | कष्टं भवाङ्गगमिच्छेयं, तत्त्यागो ज्ञानसङ्गतं / वैराग्यं, नेष्टविरहात्, न मिथ्यात्वाच्च साधुता // 10 // तपः संवेगशमयुग, यावन्नेन्द्रियहीनता / पीडा न हीष्टसिद्धथात्र, स्यात्क्षयोपशमाद्धितं // 11 // धीमता ज्ञातशास्त्रोण, धर्मवादो ह्यनाग्रहः। मृत्यन्तरायौ न जये, बोधोऽस्य विद्वदर्चितः // 12 // लक्षणं न प्रमाणादेः, किन्त्वहिंसादिपञ्चकं / चिन्त्यं धर्मार्थिभिश्चेष्ट-सिद्धयर्थ क्यास्य योग्यता // 13 // नित्यो न हन्यते हन्ति, निष्क्रियत्वान संसृतिः। तदभावे न सत्यादि, क्रियायोगे समं शुभम् // 14 // अनित्योऽहेतुकं नश्येद्, हिंसको जनकः क्षणः। स्याद्वा शास्त्र उपन्यासो, निष्फलो:स्या भवेत्पुनः // 15 // नित्यानित्यः स्मृतेर्देहाद्भिन्नाभिन्नो यमं ततः। कदिये पि संक्लेशाद्धिसाऽहिंसा च भावतः // 16 // अचित्तादोदनाद्यद्यं, न प्राण्यङ्गात् समं कथं / मांस, लोकं समीक्ष्याख्याः, सशास्त्रं शास्त्रवित्तम 1 // 17 // नियोगेऽभक्षणादोषोऽन्यदात्तिनहि दोषकृत् / महाफला निवृत्तिः किमविरक्तिर्हि दुष्टता // 18 // सञ्चित्तनाशनं मद्य, प्रत्यक्षेणैव भण्डनं / भ्रष्टशक्तिरषिर्धान्तोऽतस्तद्वयं विवेकिमिः / // 19 // प्रोक्तं हथधीत्य स्नायात्तन्नादोष मथुनं क्वचित् / सत्त्वान्तकमधर्मस्य, मल त्याज्यं विषान्नवत् // 20 // 1 // 24 धमर्हः सूक्ष्मधीलर्लानौषधदातेय नेतरः / श्रुतादृते प्रवज्यादिदाताप्येतद्विघातकः // 21 // मार्गानुसारिणी शुद्धिर्न P.P.AC. Gunratnasuri Ms. -... .... Jun Gun Aaradhak Trust Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो कृतिसन्दोहे . रागादेहात्मिका / श्रुतनिष्ठस्य गुर्वादि-मानिनः सा सुचेतसः // 22 // मालिन्यकृदनाभोगाद्, घोरं मिथ्यात्वमश्नुते / अवन्ध्यं सम्पदाम्बीजमुन्नति: वर्गसिद्धिदा // 23 // दयार्चाशीलवैराग्यं, पुण्यं तच्च सदागमात् / अष्टकवृद्धभ्यः स च संसारे, शोभनादधिकप्रदः // 24 // औचित्याद् गुरुशुश्रूषा, मङ्गलं धर्मिणां व्रते / गुरूद्धग बिन्दुः.. हृतो वीरस्येवेदमुपपद्यते // 25 // धर्मोद्यमात्तत्त्वदृष्टेः, सुखित्वाद् वृणुतोक्तितः / त्रिशतकोटथादिदानेपि, महादानं जगद्गुरोः // 26 // तीर्थंकृत्त्वोदयादानं, धर्माङ्गं स्वाशयकरं / दत्ते जिनो गुणार्येवं, न पापं दूष्य- 1 कार्पणे // 27 // राज्यं ददन विवाहं च, कुर्वन् शिल्पं निरूपयन् / अधिकापत्तिरक्षातोऽदोषः पुण्यं च पत्रिमम् IM // 28 // वासीचन्दनकल्पानां, जगदुरितहारिणाम् / साम्यमात्मम्भरीणां यज्ज्ञेयमेकान्तभद्रकम् // 29 // ज्ञानादेर्घातिनाशात्स्या दात्मस्थं केवलं मुखे / लोकालोकावभासीदं, न गमोऽस्य गुणो यतः // 30 // अचिन्त्यपुण्य- IH सम्भारात् सर्वभाषानुगामिनीम् / तीर्थकृत्वाद्भव्यहितां, देशनां जिनराट् ददौ // 31 // आबाधारहिता मुक्तिः, स्वस्थाऽमोहाऽममाऽचला / संवेद्या योगिनामेषा तद्गा जीवाः समे त्विमे // 32 // इति अष्टकबिन्दुः // स्याद्वादद्वात्रिंशिका (11) इन्द्राणां विंशतिं दीप्रां, नखमिषात्सदा दधत् / नरेन्द्रमौलिरहन स्ताद्, भव्यानां विनवृन्दहा (स्याद्वादे- | नाघनाशकः) // 1 // नयाः परस्परं मन्ति, मत्सराघातचेतसः / स्यात्पदे तान् समायोज्य, मैत्र्यां : युक्ताः समेहता // 2 // विशेषवादिनः साम्य-वादिनोऽन्योन्यमाहति / दधुर्विशेषसामान्य-मयं वस्तु जगौ जिनः // 3 // क्रियावादो मतेर्वाद, हन्ति वादो मतेः क्रियां / ज्ञानक्रियाभवं मोक्षं, जिन आहाविरोधतः // 4 // हिनस्ति सद्वचो विद्यमानवादी तकं च तत् / सदसदात्मकं कार्य-मुशन् मैत्र्यां न्यवीविशत् // 5 // कार्य कारणनाशेन, II तदेव तद्भवत्यलम् / आख्यान्तौ योजितौ भेदाभेदेन हेतुकार्ययोः // 6 // केचिनित्या अनित्याच, मतेर्थाः Jun Gun Aaradtak Trust P.P.AC.Gunratnasuri M.S.. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादद्वाकि कृतिसन्दोहे SEENESS शिका कस्यचित् पुनः। नित्यानित्यान् समानाख्याजिनः समपदार्थवित् // 7 // निश्चयं व्यवहारस्तं, व्यथते स च निर्भयम् आगमो / परस्परसमावेशं, तीर्थाधारं जिनोऽवदत् // 8 // आर्थान् नयान् नयाः शाब्दा, भन्ति ते प्रन्ति चैतकान् / उभयान् द्धारक सर्वगानाख्यझिनः स्याद्वाददेशकः // 9 // नैगमं सांग्रही नीतिस्तां हन्ति व्यवहारिणी / पारम्पर्येण, दृष्ट्वेति, मतं सर्वनयात्मकम् // 10 // अभिलाप्यं तथा नेति, जगुर्वस्तु परेऽबुधाः / उभयात्मकतार्थानां, जगदे जगदु त्तमैः // 11 // पर्याया नाम करणिर्द्रव्यं भावस्तथोचिरे / स्वतन्त्राः सव्यपेक्षांस्तु, तानाह जगदीश्वरः // 12 // // 26 // पर्यायान् सत आचष्टे, परेऽसत उदित्वरः / मुनिः स्वतः सतोज्यस्मा दसतः सर्ववस्तुषु // 13 // नैवोत्पादमयं विश्व, न पुनर्विशरारु च / ध्रुवं नोत्पादविगम-ध्रौव्यरूपं जगत्पुनः // 14 // न दुःखी न सुखी जीवः, सर्वथा सर्वधामसु / संसारिणां विचित्रे स्तः, सुखदुःखे स्वकर्मजे // 15 // सान्ताः समे न चानन्ता, अर्था भुवनगाः स्मृताः / अन्तानन्तमयं विश्वं, वस्तु जिनप ऊचिवान् // 16 // साद्याः समे न चानाद्या, अर्था भुवनगामिनः / आद्यनादिमयं सर्व, जगदीशो जजल्प तत् // 17 // एकात्मकं जगत्सर्व, मन्वते केचिदन्ततः / अनेकरूपं तच्चान्ये, जिन एकेतरात्मकम् // 18 // मुक्त्यै सर्व जगद्योग्य-अयोग्यं मन्वतेऽपरे / योग्यायोग्यमयाः सर्वे, भविनस्त्विति जैनवाक् // 19 // आत्मा ज्ञानमयः कैश्चित् , कैश्विदुक्तः क्रियामयः। अनन्तैः पर्ययराढ्य, सर्व वस्तु यथार्थवाक् // 20 // हिंसाधाय मता कैश्चित्, परैः स्वर्गाय काचन / यथाभावमधं पुण्यं, निर्जरेति जिनेशगीः // 21 // मृषाद्या नरकायैव, न तथेति च केचन / अनेकान्तेन वितता, देशना जगदी श्वरैः // 22 // क्रिया वन्धाय केषाश्चित् , परेषां घिषणैव च / यथायोगं युगं चैतन् , मन्यते मुनिकुञ्ज // // 23 // उत्क्रामन्तेऽङ्गिनः सर्वे, न तथेति परे पुनः / विचित्रा विश्वगा वृत्तिरनेकान्तमते पुनः // 24 // सूर्याचन्द्रमसौ स्थास्नू , केचित् केचिच्च चञ्चलौ / अवादिषुर्मत तथ्य, जगत्सर्वं चलाचलम् // 24 // असदुत्प- IN ||26 P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दोहे NI द्यते नैव, सन् नैवेति परे जगुः / सदसतोः समुत्पत्ति, मन्वते तत्त्ववेदिनः // 26 // साकारमीश्वरं केचित्, आगमो-NI केचिदाकारवर्जितं / स्वीकुर्वन्ति मते जैने, स. द्वयात्मकतामितः // 27 // भेदेनोपासनामेके, परेऽभेदेन तां अनद्धारक- | जगुः / यथाभूमिक्षमे ह्येते, मतं जैनेश्वरं पुनः // 28 // ईशो द्रव्यस्तवेनेज्यो, भावेनेति तथा परे। यथा- न्तार्थाकृति यथं समाराध्य, आराध्यो जैनगीः पुनः // 29 // द्रव्यात्मकं समं वस्तु, परे भावात्मकं परे / द्रव्यभावाव-नाष्टकम् भेदेन, भेदेन चेति तथ्यवाक् // 30 // स्वतो ज्ञेयाः समे भावा, इत्येके केचिदन्यथा / अन्वयव्यतिरेकेण, वस्तूनां ज्ञानमार्हताः // 31 // (आर्हता ज्ञानमूचिरे) जीवो वालाग्रपर्वादि-मानः सर्वगतस्तथा। प्रतिपन्नो विचित्रस्तु, शरीराश्रित आहेतैः // 32 // अर्थाः सर्वेऽपरनयमतः स्वीयसङ्कल्पजाल-माश्रित्योक्ता विविधवचनैः सर्ववोधनहीणैः / उन्मूल्याप्ता हतमतिचयं कर्मवृक्षं समस्तं, ज्ञात्वा ज्ञेयं समभुवनगं चख्युरानन्दसिद्धथै // 33 // इति स्याद्वादद्वात्रिंशिका // ... अनन्तार्थाष्टकम् (12) ननु सूत्रेषु वाक्यस्य, जिनोक्तस्य विवेचिता / अनन्तार्थयुतिः स्पष्टा, यत एतदुदाहृतम् // 1 // वालुकाः / / सर्वधुनीनां, सर्वाब्धीनां ग्रुषन्ति च / अर्थास्ततोऽप्यनन्ता: स्यु-जिनोक्ते वचसि ध्रुवम् // 2 // यदि सामान्यतः सर्वे, शब्दाः सर्वार्थवाचका / इति न्यायोत्र बोद्धव्यः, का जिने तर्हि वर्यता // 3 // विशेषतो न सन्त्यस्य, यत्सङ्ख्येयं नृजीवितं / शक्नोति नेयता वक्तु-मनन्ता जातुचिन्नरः // 4 // सत्यं, न केनचित्प्रोक्ता, अनन्ता जिनवाग्गताः / अर्थास्तथाप्यनन्तार्थ, वचो जैनं न चान्यथा // 5 // यावतोऑन्नरो वेत्ति, HI तावतां बाधमीक्षते / वचसि स्वे परित्यज्य, तं सर्व वदति प्रधीः // 6 // अर्थील्लोकगतान् सर्वान्, वीक्ष- // 27 // 11 माणो. जिनो वच: / सर्वांनुगं निराबाधं, वचो वदति निश्चितम् // 7 // एवं जैनं वचोऽनन्त पदार्थान || P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधा आगमोद्धारककृतिसन्दोहे नम्. // 28 // | व्याप्य संस्थितं / बाधं चानन्तगं त्यक्त्वा-ऽनन्तार्थं तत उच्यते // 8 // इत्यनन्तार्थाष्टकम् // पर्वविधानम् (13) प्रणम्य नतयोगीन्द्र, देवाच्यं त्रिजगद्गुरुं / जिनं मासाब्दविभिदो, वक्ष्ये पर्वोपलब्धये // 1 // उद्यम्यं सर्वदा धर्म, कर्मबन्धंभयान्वितैः / हित्वाश्रवान् संवरैक-साध्ये निःश्रेयसप्रदे // 2 // सम्यक्त्वेऽतो विनिर्दिष्टे, लक्षणे मुनिपुङ्गवैः / संवेगभवनिर्वेदौ सदृग् तद्धर्मलिप्सुकः // 3 // लक्षणं लिङ्गमित्युक्त्या, न भ्रान्तव्यं हितैषिणा / अग्नेरौष्ण्यस्य लिङ्गत्वे, किं नान्योन्यनियन्त्रणा ? // 4 // किंतु यत्र मनो नास्ति, सार्वेऽपर्याप्त / ऊर्ध्वगे / सहकार्यभावतस्तत्र, मनोजन्या न कल्पना // 5 // पर्याप्तेऽपि क्वचिजन्ती, कादाचित्को विपर्ययः।। स लेश्याद्यनुबन्धेन, लक्षण तु पुनः स्थिरम् // 6 // धर्मस्य विद्विषां विघ्न कारिणां गर्हणावतां / तत्क्रियामचि- M कीपणां, तन सम्यक्त्वमंशतः // 7 // शान्तेर्दर्शनमोहस्य, यथार्था जायते रुचिः / सत्तत्त्वगा पुनः पापा रतिः / संयोजनाक्षयात् // 8 // प्राग्भाविनोऽस्य लिङ्गत्वं, न विरुद्धं यतो मतः / पुष्योदयः पुनर्वखोरुदयस्यापि / बोधक: // 9 // एवं सत्यपि सर्वेषां, सदृशां न वृषोद्यमः / तदिच्छाभावतो नैष, किन्तु . चारित्रमोहजः / // 10 // अत एव च सार्वघ्या-धिष्ठिता भरतादयः / गृहस्थाः आददुर्दीक्षा, मोहाभावाजगद्गुरोः // 11 // गृहिलिङ्गेऽन्यलिङ्गे च, शास्त्र सिद्धिरुदाहृता / साऽऽन्तर्मुहूर्त्तजीवित्वे, नान्यथेति श्रुते मतम् // 12 // तेन चारित्रमोहस्योदयाद्धर्म चिकीर्षति / नापि व्रतं यतो रुद्धः, पमरे क्षुधितो वसेत् // 13 // अप्रत्याख्यानमोहस्य, शमात् स्याद्देशतो व्रतं / यथाऽभ्रकाणामल्पत्वे, ज्योतिर्देशाविस्पतेः // 14 // देशतो विरत: कुर्याद् वधादे- 4 विरतिं कथां / यावद्दिगादिनियम, कश्चिद्दिष्टमपि श्रयेत् // 15 // पौषधावश्यकतपो-देशावकाशिकानि तु / पर्वाण्यवेक्ष्य भवभीत्रस्तोऽवश्यं समाचरेत् // 16 // पर्वाणि पक्षमासाद्धभेदानुसरणानि तु / ततोत्र मासवर्षाणां, plac. Gunratnasuri M... // 28 // Jun Gun Aaradhak Trust Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारककतिसन्दोहे नम् - // 29 // भेदान् वक्तुमुपनमः // 17 // युग स्याचन्द्रचन्द्राभि-वृद्धचन्द्रावर्धितः / नैकं तत्र क्रियायोगि, कर्माब्दं तु / / क्रियाविधौ // 18 // विहाय कार्मण वर्ष, नकस्मिन्नपि सम्भवेत् / दशपञ्चदिनः पक्षो, मासस्त्रिंशदिनोन्मितः / पर्व // 19 // मासदिशभिवर्ष, षष्टया: शतत्रयैर्दिनैः / अत एवोदितं ज्योतिष्करण्डे कार्मणं तथा // 20 // वर्षाणि | विधापञ्चधा कर्मेन्द्वक्षसूर्याभिवधितैः / निरंश एक एवात्र, कर्मसंवत्सरो भवेत् // 21 // व्यवहारोपयोग्येष, नान्ये / / सांशदिनोद्भवाः / संवत्सरास्ततः स्पष्ट, क्रिया कार्मणवार्षिकी // 22 // अहोनिशोऽवसाने द्वे, मते आवश्यके बुधैः / ऋते कार्मणमन्याहो, न हि तत्रोपयुज्यते // 23 // अष्टमी पक्षमध्ये स्यात् , पक्षान्ते पञ्चदश्यपि / अर्वाक पक्षदिनात्कार्य, चतुर्दश्यां तु पाक्षिकम् // 24 // सर्वमेतत् कार्मणाब्द-कालमाश्रित्य साध्यते / न्यायेनैव (नानेन तत् ) ततः कार्ये चातुर्मासिकवपिके // 25 // न च वाच्यं कथं तर्हि, वर्षेऽभिवर्धितेपि च / / विंशत्या दिवसः कार्यादिता पर्युषणा श्रुते // 26 // एवं सति न कर्माब्द, युज्यते सर्वपर्वसु / न तत्र / वार्षिक पर्वो-दितं पर्युषणाभिधम् // 27 // किन्तु संयमसिद्धयर्थ, जलकायविराधनां / परिहतु स्थिति वक्तुं, मुनीनां तद्वचो मतम् // 28 // चन्द्रेऽन्यथा परे वर्षे, कथं भाद्रपदे भवेत् ? / त्रयोदशभिरायातं, मासर्वार्षिकमामतम् // 29 // न च चन्द्रादिवर्षाणामेकस्यावसानिता। भाद्रपद्यस्ति पञ्चम्यां, चतुर्थ्यां वा कथञ्चन // 30 // IN कामणाब्दं तु वक्तृणां, विवक्षामनुयाति तत् / चतुर्थी भाद्रमासस्य, भवेद्वार्षिकपर्व तु // 31 // न . च केनापि सर्वत्र, हायने वार्षिकं मतम् / अभिवृद्धे दिनैर्विशत्या, किन्त्वाषाढात्परेऽधिके // 32 // शास्त्रे पौषाषाढयोस्तु, वृद्धौ पर्युषणोदिता / विंशत्या यहिनैस्तत्किमधजरतीयमाश्रयेत् // 33 // यथा वृद्धौ तु मासस्य. पर्वधस्त्रोऽवष्वष्कति / यवनानां तथैषां स्थान चेद् भाद्रपदे ध्रुवम् // 34 // वृद्धौ यथाऽन्यमासानां, Hi चतुर्मासीत्रिकं मई / वार्षिकेणापराद्धं किं, न तभिंयतमामतम् // 35 // दिनेषु सप्ततौ शेषेषुक्तं वार्षिकपर्व // 29 // यत् / तत्किं विस्मृतमायुष्मन् !,. नच शास्त्रवच, न्यथा // 36 // चतुर्मासत्रिके मासो, वृद्धो न गणनामयेत् / .. P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आगमो - - - सन्दोहे - // 30 // | आषाढादिषु तत्कार्यात् नैवं किं वार्षिकं भवेत् // 37 // तिर्दानिश्चन्द्रमासोऽपेक्ष्योवृद्धियुक्तता / ततः I कार्मणमाश्रित्य, पर्व वर्षमिति ध्रुवम् // 38 // एवं न्यगादि शुभकृत्यसमूहहेतुः, पर्वाब्दिकं नियतधर्मविधा- || सूर्योदयनदक्षं / कर्माद्वमाप्य जिनराजमतानुसारि, कृत्वा भवन्तु भविनोद उदीर्णोधाः // 39 // इति पर्वविधानम् // सिद्धान्तः सूर्योदयसिद्धान्तः (14) . ! नत्वा नम्यं नराधीशैजिनेशं शुद्धिकाम्यया / ब्रुवे सिद्धान्तमुदयेऽर्कस्याराधनसिद्धये // 1 // अत्र हि 'चाउद्दसट्टमुट्ठिपुष्णमासिणीसु पडिपुष्णं पोसहं अणुपालेमाणे'त्ति सूत्रकृताङ्गादिवचनात् 'अट्ठमीचउघसीनाणपंचमीपजोसवणाचउमासीए चउत्थट्ठमछटुं न करेइ पच्छित्त'ति श्रीमहानिशीथभणितेः 'एएसु चेव चेइयाई साहुणो वा अण्णाए वसहीए ठिया ते न वंदंति पच्छित्त'ति व्यवहारपीठिकावूयुक्तेः 'एतेषु चाष्टम्यादिदिवसेषु चैत्यानामन्यवसतिगतसुसाधूनां वाऽवन्दने प्रत्येकं प्रायश्चित्त'मिति व्यवहारपीठिकावृत्तिविवरणात् 'अट्ठमी चउद्दसीसुं अरिहंता साहुणो य वंदेयव्वे त्यावश्यकचूर्युच्चारात् 'अट्ठमीचउद्दसीसु उववासकरण ति पाक्षिकचूर्णिनिरूपणात् 'अट्ठमछट्टचउत्यं संवच्छरचाउमासपक्खेसुत्ति निशीथादिनिगदितेश्च सर्वेणापि चतुर्वर्णचतुर्विधसङ्घन शुद्धये धर्माराधनाया अवश्यमादौ तिथिकालस्य निश्चयः कार्यः, अन्यथा प्रतिपदमुक्ततिथिविधानस्यानर्थक्यप्रसङ्गात् / तिथयश्च काश्रित् क्षीणा लौकिकाभिप्रायेण वृद्धा अपि भवन्ति, ततश्च का आराध्या इति संशयापनोदक्षमण 'क्षये पूर्वी तिथिः कार्ये तिवचनेनाराध्यतिथेः क्षये तत्पूर्वस्या अपर्वतिथेः क्षयं कृत्वा सेवापर्वतिथिः पर्वतिथित्वेन कार्या ग्राह्या व्यपदेश्येति यावत् / एवं च पर्वतिथेवृद्धौ / 'वृद्धौ कार्या तथोत्तरे तिवाक्येन द्वितीयैव टीप्पनगता पर्वतिथि: पर्वतिथिनाम्ना कार्या व्यवहार्या व्यपदें // 30 // PP. Ac Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 31 // श्येति यावत् / एवं च पूर्वा अपर्वतिथिनाम्ना व्यपदेश्येति फलितोऽर्थः। एवं पर्वानन्तरपतिथेः क्षयवृद्धयोआगमो वित्सम्भव इति न्यायेन पूर्वतरापर्वतिथ्योर्हानिवृद्धी कार्ये इति / एतादृशे सत्यपि सिद्धान्ते पारम्पर्ये च सूर्योदय द्धारक- केचित्तपोगच्छीया विप्रतिपद्यन्तेऽधुना, यदुत-'संवच्छरचाउम्मासे पक्खियअट्ठाहियासु य तिहीसु / ताओ H सिद्धान्तः कृति पमाणं भणिया जाओ सरो उदयमेड // 1 // तिवचनात 'उदयमिजा तिही सा पमाणमियरी कीरमाणीए / सन्दोहे आणाभंगऽणवत्थामिच्छत्तविराहणं पायें // 1 // त्ति वचनाचोदयवतीनां सप्तम्यादीनामनुदयवदष्टम्यादिकरणं सम्पूर्णोदयवतीनामष्टम्यादित्वे सत्यपि सप्तम्यादित्वकरणं च न कथञ्चनापि घटाकोटीमाटीकते, तस्माद्यथोदयं.मेव तिथयः कार्या इति / ननु पर्वतिथीनां हानी वृद्धौ चोदयस्याभावे द्विर्भावे च सति तैः किं पर्वतिथेस्नुष्ठानं क्षेप्यं वर्धनीयं चेति ? / नो तथा, किन्तु: पूर्वतिथौ क्षीणपर्वतिथेरनुष्ठानं, परं व्यपदेशोऽपर्वतिथिसत्कनाम्नेव, द्विर्भावे चोभयमपि पर्वतिथिनाम्नैव व्यपदेश्यं; परं पर्वतिथिसत्कमनुष्ठानं तु द्वितीयोदयस्पर्शिन्यां / कार्यमितिचेत् , सप्तम्यादित्वमभ्युपगम्य किंनिमित्तकमुपवासादिकरणं तदा प्रथमोदयस्पर्शिन्यां चाष्टम्यादौ / तिथौ किं न तदष्टम्यादिनिमित्तता स्वीक्रियते कथं च पाडित्यातिरेकदर्शिनी व्याख्याकुशलतां परिहत्यानुदयेष्टम्यादिक्रियाया आइतिः, सति चाष्टम्यादेख्दये व्यवहारे चाष्टम्यादिक्रियाया आधदिने / अनादतिश्चेत्युभयं क्रियते स्वीक्रियते च एवमनुदये करणादाराधनाया अष्टम्यादिनिमित्तायाः सति चोदये। तदकरणात् स्ववचसैव ते जाता मिथ्यात्वादिदोषचतुष्टयवन्त. इति / नवस्ति तेषामाराधनायास्तथाविधाया आलम्बनं ?, 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरे'त्युमास्वातिनाम्नाख्यातः प्रघोषः। सत्यं, विद्यते एष प्रघोषो मान्यश्च, परं तत्र पूर्वायाः पर्वत्वविधानमुत्तराया एव च पर्वतिथित्वविधानं समादिष्टं / विधान-H IR माराधनायास्तु तत्तद्विधिनियमयोरङ्गीकारेण व्यपदेशं तत्तत्तिथ्यादित्वेन कृत्वैव स्वीकारे च तथाविधे 'उदयं- - // 31 // Hi मी' त्यादि बाधितमेव तदा तवेति / 'ननु किं तर्हि 'ताओ'च्यादि 'उदयमी'त्यादि च वचो व्यर्थमेवेति ?:चेद्, / / P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun 'Gun Aaradhak Trust Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | हानिवृद्धयोः प्रसङ्गे तत्तथैव / ननु किमर्थकं तर्हि तद्वचः 1 इति चेद्धानिवृद्धिव्यतिरिक्तप्रसङ्ग एव तदुपयुक्तं, IAL आगमो हानिवृदयोस्त तद्वाधितमेव / ननु हानिप्रतिव्यतिरिक्त काले तदक्तेः किं प्रयोजनं 1, कथं च तत्र तदन- सूर्योदय द्धारक- ङ्गीकारे मिथ्यात्वादिचतुष्टयमिति ?, चेच्छृणु, अष्टम्यादयस्तिथयस्तावत् पौषधादिना सचित्तत्यागादिना सिद्धान्तः कृति चाराध्याः / सा चाराधनाऽपरसूर्योदयान्तं यावत् सम्पूर्णपोषधस्याहोरात्रमात्रत्वात् कार्या, तिथयश्च लोकोत्त-। सन्दोहे रमार्गेऽहोरात्रादूना एव / लौकिके तूना अधिका अपीति न पौषधकालं यावन्नियतावस्थाना इति / / कीदृश्यस्ता आराधनार्थमालम्ब्या इति संशयान्धकारविनाशाय 'ताउ तिहीउ पमाणं' त्यादि 'उदयंमि // // 32 // जा तिही सा पमाणं' त्यादि चोक्तं / तथा चोदयव्यापिनी तिथिरपरसुर्योदयान्तव्यापिनी ज्ञेया / पारासरोऽप्येतदेवाह: आदित्योदयवेलायां, या स्तोकापि तिथिर्भवेत् / सा सम्पूर्णेति मन्तव्येति / तथा च / प्रत्याख्यानग्रहणकाले. या सा तं समग्रं दिनं यावन्मन्तव्या / प्रत्याख्यानकालग्रहणकालश्च सूर्योदयादागेव, प्राक् सूर्योदयोदुपकरणदशकप्रतिलेखनोक्तेः / ततश्च निरस्ता मूलत एव ते ये सायं प्रतिक्रमणकालव्यापिनीममिमन्वते अहोरात्रिक्याराधनायां पर्वतिथिं / एवं चोदयस्पर्शात् प्राम्बहुतराया अपि पर्वतिथेस्तत्त्वेन व्यपदेशाभावो, द्वितीयाग्रेतनतिथिभोगकालेऽपि उदयस्पर्शिन्या एव तिळपदेशोऽपि न दुष्ट इति सर्वं सुस्थम् / एतेन च ये एकस्मिन्दिने तिथिद्वयस्य वाचका आराधका वा ते निरस्ता, उदयस्पर्शिन्या एकस्या एव भावात् / क्षये वृद्धौ च 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्या, वृद्धौ कार्या तथोत्तरे'त्यनेनैकस्या एव च प्रत्यवस्थापनात् / न च पर्वतिथौ, क्षीणायां विराधने तन्नियमानां पूर्वतिथौ न्यूनं प्रायश्चित्तं वृद्धौ वा प्रागुदयस्पर्शिन्यां तथाभाषे स्वल्पमपि प्रायश्चित्तं तैरुत्थापकैरपि गृह्यते दीयते / प्रातस्त्यप्रत्याख्यानकायोत्सर्गे त्वष्टम्यादिरिति क्षये पूर्वापर्वतिथौ IPI बदौ चोत्तरदिन एवोच्यते / एवं चायथाकारिवादित्वेनाज्ञाभानवस्थामिथ्यात्वविराधनारूपढोषचतष्टयाप- | // 32 // || तिदुर्वारा, तथा|हे सम्पूर्ण महारानं पर्वतिथीनामष्टम्यादीनामनङ्गीकाराद् द्विर्भावाङ्गीकाराच्च प्रतिपूर्णेति चतुष्पीति P.P.AC. Gunratnasuri M.S. HERE HI .. Jun Gun Aaradhak. Trust Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च याऽऽज्ञा तस्या भङ्गः, पर्वतिथीनां क्षीणत्वस्य स्वीकृतावनेके तदनुष्ठानं परित्यजेयुः, केचिदर्धपालनं तनिआगमो JA यमानां कुर्युरिति क्षये, वृद्धः स्वीकृतौ च केचिदिनद्वयं केचिदुत्तरं केचित्पूर्व संशयानाः केचिन्नेकमपि पर्व- सांवत्सद्वारक तिथिदिनमाराधयेयुरित्यनवस्था, 'उदयंमी'त्यादिकस्य 'क्षये पूर्वे ' त्यादिकस्य चाश्रद्धानादागमस्य मिथ्यात्वं, रिकनिकृति- यथो तमार्गस्य तदनुयायिनां च विरोधाद्रत्नत्रय्या विराधनेति चतुष्टयमाज्ञाभङ्गादीनामापद्यन्तेऽधुनातनोत्थापका य: सन्दोहे इति / यथार्थमार्गागमनं ह्यमुष्मात् , कुर्युः समुत्थापनमार्गलग्नाः / फलेपहिर्मेऽयमणुप्रमोऽपि, यत्नस्त्विति प्रार्थयते जिनेशम् // 1 // इति सूर्योदयसिद्धान्तः // // 33 // सांवत्सरिकनिर्णयः (15) नत्वाई सर्ववस्तुझं, कामदं कामवर्जितं / पर्युषणाया निर्णेत्रों, वक्ष्ये वाचं श्रुतानुगाम् // 1 // अति जातं यथा पापं, शुध्येत् दैवसिकाइतैः / रात्रिकादरणाद्रात्रो, जातं पापं शमं व्रजेत् // 2 // पाक्षिकं पक्षसम्भूतं, पापं क्षयति सङ्गतम् / पक्षश्चर्तुदशीप्रान्तो, वर्णितो विश्वलोचनैः // 3 // यतो दिनाद्विधीयेत, गणनां / गणगामिभिः / तदिनप्राप्तिमाश्रित्य, पक्षो गण्येत धीधनैः // 4 // अत एवोदितिः साधोः, पाक्षिकप्रतिक्रान्तिगा। चतुर्दश्यां ततोऽभक्तं, प्रोक्तं गणधरैः श्रुते // 5 // अत एवागमे श्राद्ध-व्रतालापेषु सञ्जितं / / / चतुर्दश्यष्टमीत्यादि, पाक्षिकं हृदि स्थापनात् // 6 // अन्यथा प्राग्भवाऽऽख्येया-ष्टमी पश्चाच्चतुर्दशी / आनुपूर्पण यद् द्वन्द्वः, कार्यों व्याकरणाश्रितैः // 7 // प्रतिपक्षमुझे शेषा, न तथेति न चिन्तनं / तत्रानुपूर्व्यभावस्य चिन्त्यो हेतुः परोज वा // 8 // यत्रोक्तं मुनिभिः शास्त्रे, पाक्षिकं, न चतुर्दशी। तत्र सा यत्र तत्तत्र, नेति / / सैव च पाक्षिकम् // 9 // चतुर्दश्यामभक्ते स्यात् , पौर्णमास्यां तु पाक्षिके / द्वयोः सङ्ग भवेत् षष्ठं, न च / वाक्यं तथा क्वचित् // 10 // ननु पक्षान्तगं युक्तं, पाक्षिकं स च. पर्वणि / तचोद्दिष्टापौर्णमास्यो-रिति युक्तं // 33 // तयोस्तकत् // 11 // सत्यं परं तज्ज्योतिष्कं, न प्रतिक्रान्तिगोचरम् / अन्यथा हायनस्यान्त, आषाढ्यां तत्र 3 P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IM वार्षिकम् // 12 // भवेन् , न चैव तत्तत्र, भवतापि विधीयते / अहोरात्रेश्च योऽन्तोऽपि, न तत्रैतत्प्रतिक्रमः | आगमो- // 13 // स पक्षो ननु किं सौरश्चान्द्रो वाऽन्योपि वा मतः 1 / नैकोऽपि युज्यते तत्र, चतुर्दश्यां तु पाक्षिके सांवत्सद्धारक- // 14 // पञ्चदश्यां यदीष्टं स्यात् , पाक्षिकं तर्हि चान्द्रकः / पक्षो युज्येत. नैतद्वः, सम्मतं यौक्तिकं रिकनिकृति- पुनः // 15 // अहो रात्रेश्च निधने, यथोभौ च प्रतिक्रमौ / तथा पक्षस्य निधने, पाक्षिकं युक्तिमन्ननु / र्णयः सन्दोहे // 16 // सौरे पक्षे तु सार्धानि, दिनानि दश पञ्च च / अधिकानि ततो नैव, युक्तं तेनापि पाक्षिकम् // 17 // युक्तमुक्तं परं तन्न, युक्तं यच्चान्द्रके दले। न्यूनान्यहानि ते पञ्च दशभ्यो न च युक्तिमत् // 18 // ऋतु।:३४॥ पक्षं तदाश्रित्य, कार्मिकं वा विधीयते / पाक्षिकं तत् पश्चदशे, प्रायेणाति समाप्नुयात् // 19 // क्वापि पक्षे भवेन्यूना, रात्रिस्तत्रापि न त्रुटिः। तिथेभॊगो यतस्तत्र, न न जातो यतः क्षयेत् // 20 // अत एव तिथेः कार्य, प्राकृतिथौ क्रियते बुधैः / परस्यां क्रियमाणे तु, तद्गन्धोऽपि न लभ्यते // 21 // पञ्चदशाहानीत्यादि, अत एव च पाक्षिके / उच्यते तिथेः ख्यानं, समाश्रित्य बुधोत्तमैः // 22 // हानिश्च षष्टयाऽहोभिः स्यात् , पक्षे पक्षे तिथेव॒वम् / तेनैव पौरुषीमाने, सप्ताह्याऽऽङ्गालचालनम् // 23 // षण्णां चावमरात्राणां, श्रुतोक्तिः सङ्गता तथा। नन्वेवं वर्धने तिथ्याः, क्व कर्तव्या तिथिक्रिया ? // 24 // शृणु सौम्य ! न जैनानां. ज्योतिके वर्धनं तिथेः। यतो वृद्धौ तिथेस्तस्याः, क्रियायां प्रच्छनं भवेत् // 25 // लौकिके ज्योतिष सास्ति, मान्यते सा तदाश्रितैः। अस्माभिर्ननु तत्रान्त्या, तिथिर्मान्यात्र कारणम् // 26 // शास्त्रकृद्भिश्चतुर्मासी, द्वितीयाषाढमासि यत् / सम्मताऽऽषाढपूल् तद्, द्वितीया तिथिरादृता // 27 // न च लौकिकमार्गानुसरणं नैव यौक्तिकं / यतः श्रुतेऽपि विद्वद्भिः, कर्ममासादि साधितम् // 28 // मास दि च सूत्रपि, व्यवहाराश्रितं स्मृतम् / पौरुष्यादि च सूत्रेषु, तमेवाश्रित्य संस्मृतम् // 29 // पुरा जैनसमं राज्ञां, ज्योतिष | // 34|| समवर्तत / यतः प्राच्ये कौटिलीये, नीतिशास्त्र स्मृतं ह्यदः // 30 // आषाढ्यां वत्सरस्यान्तः, प्राडाद्या || P.P. Ac. Gunratnasuri.M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारक- कृतिसन्दोहे // 35 // रसोन्मिताः / ऋतवः षड् दिनैः षष्टथा, तिर्हानिः क्रमाद् भवेत् // 31 // युगमध्ये भवेत्पौषो, वृद्धः शुचिस्त- / / दन्तिमः / दिनरात्र्योर्मानमष्टा दश द्वादश नालिकाः // 32 // उत्कर्षेण जघन्येन, द्विधा मध्ये भ्रवतिको / पौरुण्यपि सांवत्सतथा तेषां, तुर्यांशी जैनवत् तयोः // 33 // नृपैयोतिषिकेऽन्यस्मिन्नादृते लौकिके वयम् / तदेवानुसरामो रिकनि-- यज्ज्योतिषं दुर्जर मुनेः // 34 // व्यवहारे हि जैनानां, नान्तरं लौकिकैहि तं / मुनेराधुनिकस्य स्यात् , तत्सं- र्णयः सर्गादिवर्धनम् // 35 // आम्नायोस्ति न च ताग, येन संवाद्यतेऽध्यक्षतः। तेनेदानींतनर्षीणां, ज्योतिष्कं / लौकिकं ननु // 36 // टीप्पणं लौकिकं जैनैश्चेदुरीक्रियतेऽधुना / पर्वाण्यपि च तन्मासतिथ्याद्याश्रित्य संगतम् / // 37 // प्रागासन् पूर्णिमास्वेव, तिसृषु तिस्र आमताः / . चतुर्मास्यो यदा पर्वोज्वले भाद्रे तु पञ्चमी. // 38 // आर्यकालकसूरीशैः, प्रभावकैर्यदा पुनः। चतुर्थ्यामादृतं पर्व, सर्वसङ्घपुरस्सरैः // 39 // ततः प्रभृति सर्वेण, / संघेनाहनि तत्र च / क्रियतेऽदो हेतुयुक्तं, नाग्रहो ननु धर्मिणाम् // 40 // पक्षान्ते पाक्षिकं शुद्धथै, सव- / लनकषायिणां / प्रत्याख्यानावृतां तद्वत्, चातुर्मासिकमीरितम् // 41 // वार्षिकं त्वप्रत्याख्यान-कषायवि- IN निवृत्तये / तदत्र तत्तिर्भद्रो, नातिक्रम इति श्रुतिः // 42 // स्वतन्त्रं पाक्षिकं तेन, चतुर्दश्यां तदादितः / न चतुर्मासिकं यत्तद्वार्षिकेण समं युतम् // 43 // अतिक्रान्ते चतुर्मास्याः , सविंशे मासि प्रावृषि। वार्षिक सप्ततौ घस्रेष्ववशेषेषु कार्तिकम् // 44 // न राव्यतिक्रमो यद्वद्वार्षिके हितसाधकः। तथैव च चतर्मास्यां व्यत्ययोऽतो द्वयोरपि // 45 // निशीथचूर्णिकाराणां, वचोऽपि तत्प्रदर्शकम् / यदाख्यातमथेदानी, किं चतुर्थी तु वार्षिकम् ? // 46 // समाहितं तत्र पूज्यैः, कालकार्यादतीरगात् / न च तत्रोदितं कैश्चिद्वार्षिकं पञ्चमीदिने. // 47 // चतुर्थ्याचरणे ख्यातं, सर्वसंधानुवर्तनम् / तेन श्रमणसंघेन, मतो वार्षिकव्यत्ययः // 48 // ज्ञायतेन च कोऽप्यध्वा, तदात्वो वृत्तिभाग यतः। केषाश्चिदमतो वर्ष-पर्वात्ययो विकल्पभाक् // 49 // हायनेऽन- // 35 // 3 न्तरे वर्ग, जग्मिवांसो गणाधिपाः / पाश्चात्यैरादृतं ख्यात्यै, वाक्यमेतन् न सदृशाम् // 50 // यतो न. LI P.P.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारककृति-. सन्दोहे // 36 // चूर्णिकाराया, वक्तुं शक्या ह्यसदृशः / तथोक्तौ न च पञ्चाङ्ग्याः , प्रामाण्यं न च शासनम् // 51 // पाक्षिकं 10 तच्चतुर्दश्यां, प्रतिपक्षं श्रुतोदितम् / आषाढथाद्याश्चतुर्मास्य-श्चतुर्दशीषु सङ्गताः // 52 // नन्वेवं न्यूनतामेति, सांवत्सपाक्षिकत्रितयं यतः। चतुर्मासीप्रतिक्रान्ती, क्रियते नहि पाक्षिकम् // 53 // वर्षस्यान्तस्ततो वो न, चतु- रिकनिविंशतिरुद्भवेत् / पाक्षिकाणां त्रये न्यूने, तच्च सिद्धान्तबाधितम् // 54 // न तावत् पाक्षिकाण्याहुर्नियतानि INर्णयः / मुनीश्वराः। तत एवाधिके मासे, पाक्षिकद्वयमेधते // 55 // चतुर्मासी यतो वृद्धौ, मासो न परिवर्तते। / / / ततो नियता विज्ञेया माभिराषाढमुख्यकैः // 56 // ससक्रान्तिको यदाषाढस्तस्य शुक्ला चतुर्दशी। यदा तदा / चतुर्मासी, तदीयामाहुः कोविदाः // 57 // अत एवागमे प्रोक्त-मभिवर्धितवत्सरे। अवस्थानादि विंशत्या, दिनानां / तु व्यतिक्रमे // 58 // चन्द्रेषु त्रिषु यस्मात् स्याद् , वर्षा श्रावणगाऽऽदिमा। अभिवर्धितवर्षे तु, भवेदाक् / ततस्तथा // 59 // अंत एवान्यथाकारे, तत्र, षटकायगोचराम् / विराधनां जगौ गीत-यशाः शास्त्रे प्रपञ्चत: // 60 // अन्यथा तत्र सम्यक्त्व-ज्ञानादिहतीर्वदेत् / संवत्सरप्रतिक्रान्तियंत आचारपश्चके // 61 // अत एव / जिनाचार, आश्रितः कल्प आगमे / यतोत्राख्यायते वीर-मादितस्तत्परम्परा // 62 // न च तीर्थेश्वराः कल्पा-तीताश्च कः प्रतिक्रमः / आराध्याभावतस्तेषां, का कथा वार्षिके तदा // 63 // यथा वर्षास्ववस्थानं, तेषां नियतमाश्रितं / तथाज्येषामपीष्टं तत् , सूरीणां कल्पवाङ्मये // 64 // हेतुपृच्छा कृता तत्र, यदा तत्राप्युदाहरत् / गृहस्थैः स्वगृहं स्वार्थसंस्कृतं स्याद्यथा तथा // 65 // न च सांवत्सरे हेतुः, स्यात् प्रतिक्रमणे सकः। तथा च वर्षावस्थान-ज्ञापकं तद्वचो मतं // 66 // अत एव च तुर्येङ्गे, वर्षावस्थानमाश्रितं / निश्रीकृत्य जिनं वीरं, सविंशे मासि सङ्गतम् // 67 // शेषेषु सप्ततौ तत्र, दिनानां पर्व वर्णितम् / वार्षिकं पर्व H यन्न स्याजिनानां कल्पितामृते // 68 // किश्च स्थानाङ्गस्त्रेऽपि, पञ्चमेऽध्ययने जगौ। गणभृताचमाश्रि- // 36 / / त्या-भयदेवसूरीश्वरः // 69 // न विहारो मुनीनां स्याद्युक्तः प्रथमप्रावृषि / परं स सापवादोऽस्ति, नापवादस्तु / / P.P. Ac, Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो द्धारककृतिसन्दोहे | // 37 // सप्ततौ // 70 // एवमेव च कल्पादौ, वर्षावस्थानमादिमं / गदितं मास आषाढे, पूर्णिमाया दिने पुनः // 71 // परमेव सविंशे हि मासे ख्यातं तकद् बुधैः / तथा च व्यक्तमेवेदं, द्वितीयं पदमाश्रितम् // 72 // नचावस्था- सांवत्सनविषयोऽपवादो वार्षिकं व्रजेत् / नान्यार्थोपोदितं यस्मान्नान्यदाश्रयते वच: // 73 // वार्षिकं नियतं भाद्रपदे रिकनिशुक्ले ले पुनः। चतुर्थी न च तत्रास्ति, द्वितीयं पदमाश्रितम् // 74 // अत एव च कल्पस्य, सामाचार्यों र्णय गणेश्वरः। जगौ पृथक् पृथक् सर्वाः, सामाचारीमुनीश्वरान् // 75 // अन्त्ये च क्षामणासूत्रं, गदितं गणभृद्वरैः।। अक्षामणे च निर्ग्रन्थ-सङ्घबाह्यकृतिः पुनः // 76 // न च मुनीनां सर्वेषां, सामग्री सर्वदा समा। इत्यवस्थानमर्यादा, सापवादा न चेतरा // 77 // वर्षास्थित्या अनियतत्वे, हानिन हायनेऽपरे। सांवत्सरस्य दिननियतत्वं न युज्यते // 78 // चन्द्रेऽब्दे मासदशकं, द्वघधिकं स्यात् परं मुधा / त्रयोदश भवेयुस्ते, मासास्तत्रैव हायने // 79 // द्वितीये श्रावणे भाद्र-पदे वाऽऽये प्रतिक्रमे / अभिवधितवर्षेऽन्य-वर्षे भाद्रे त्रयोदश // 8 // दिनानां विंशतौ सूत्रं. वर्षावस्थानगोचरं / सर्वाभिवर्धिते प्रोक्तं, न चतुर्मासगोचरम् // 8 // परं विधिः स प्रागासीदनित्यावस्थितौ मुनेः। अधुनाषाढशकस्य, चतर्दश्यां न तस्थुषः // 82 // सांवत्सरंतु प्राचीना. अपि नित्यं प्रतिक्रमं / व्यधुर्भाद्रपदे शुक्ले, नान्यत्र तत्र कारणम् / / 83 // प्रागुक्तमेव यत्तत्र, न युक्तस्तिथ्यतिक्रमः। या तिथिः प्राग्भवेद्वर्षे, सैवान्यस्मिन् विधीयते 84 // अत एव च सूरीशैर्वार्षिकं परिवर्तितं / न चेद् द्वितीयवर्षे किं, पर्व नैव च पूर्ववत् // 85 // उच्यते यच्च सप्तत्यां, शेषायामितिसूत्रगं / वचश्चन्द्राद्धविषय, 1 न पञ्चाशदिनी पुनः // 86 // तन्नभसि द्वितीयस्मिन् , प्रथमे वा वार्षिकक्रिया। कैश्चित्तद्युज्यते नैव, यतः 'सूत्रस्य भिन्नता // 87 // नैव चार्धजरतीयन्यायस्याश्रयणं शुभम् / न च सूत्रकृतां काले, वृद्धिः पौषशुची ऋते // 88 // मासां परेषां येन स्यात् त्वदुक्तेत्यर्थसम्भवः / // 89 // कल्पनाशिल्पिनिष्पन्नं, विकल्पं मनसा दधत् / / / 537 // . सूत्रोक्तमन्यथा कुर्वन, निर्लज: को भवादृशः // 90 // अनित्यं वार्षिकं चेत्स्यान् न. प्रत्याख्यानगोचरौ / / / 1 S IST Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धार ककृतिसन्दोहे | र्णयः // 38 // अतिकान्तोऽनागतश्चेति, भेदौ द्वौ श्रुतवर्णितौ // 91 // अतः कल्पान्त्यस्त्रेपि, सांवत्सरिकमीरितम् / भिन्नं || व्यवस्थितेः सूत्राद , फलं तूपहृतौ पुनः // 92 // अत एवोदितं कल्पनिरुक्तौ पूर्वसरिभिः। भिन्नगच्छभवै- सांवत्सर्यत् स्याद् , वार्षिकं भाद्रशुक्लगम् // 13 // अभिगृहीतवासः स्यान् , मुनीनां नियतेऽहनि / न परं वार्षिकं रिकनिः कार्य, नियत एव घस्रके // 14 // एवं च ये समाचख्यु भिगृहीतवासरात् / भिन्नो वार्षिककृत्यस्य, वासरस्ते | पराकृताः // 15 // सामग्रीसम्भवे यस्मा-दापाढे पूर्णिमादिने / गृहिज्ञातं परिवसेन् , न चेत् पश्चदिनी वदेत् // 16 // एवं त्वदुक्तनीत्या स्यादापाढ्यामेव वार्षिकम् / केषाश्चिदपरेषां तु, पर्वखन्येषु तद् भवेत् // 97 // कल्पस्य कर्षणं वार-द्वयमष्टमयोजनं / वर्षावासे वत्सरे च, तेन न भ्रमणं विदः // 98 // इत्थं भव्यजनावबोधविधये सिद्धान्तयुक्त्यन्वितं, श्रीसांवत्सरिकप्रतिक्रमगतं वाच्यं विविच्योदितम् / श्रुत्वा जैनमतानुगा विधिकृतौ बद्धादराः संततं, सन्तः सन्तु सदा प्रसभमनसः सांवत्सरिकोचताः // 19 // इति सांवत्सरिकनिर्णयः॥ पर्युषणारूपम् (16) नत्वा नरेन्द्रसंघातं, महावीरं जिनोत्तमं, ब्रुवे पर्युषणारूपं, भव्यानां हितकाम्यया // 1 // स्थानाङ्गे दशमे स्थानेऽष्टमं पर्युषणादिमं / कल्पाध्ययनमुक्तं तत् , पदयुग्माङ्किताभिधा // 2 // परं पदद्वये नाम्नि, प्रागुत्तरपदद्वयं / लुप्त्वाऽभिधीयते नाम, तदभिधाद्वयं भवेत् // 3 // जहा कप्पेत्ति तुर्येऽङ्गे, समवसरणे मतम् / परं पर्युषणाया नेतीत्थं पर्युषणाश्रुते // 4 // एवं च पश्चकल्पादौ, दशधाचारवर्णने / पर्युषणादिकल्पाला, या साऽखण्डाऽभिधा भवेत् // 5 // स्यात्तत्त्वभेदपर्यायैर्व्याख्या तत्रापि पर्ययान् / आश्रित्य तत्त्वमेदौ त-दादौ पर्यायवर्णनम् // 6 // पर्युषणायाः पर्यायाः, पर्यायस्थापनादिकाः / षट् साधूनां स्यात् पर्यायः, तत्र पर्युषणादिनात् // 7 // ग्रीष्महेमन्तिकाः सर्वे, त्यज्यन्ते पर्ययाः पुनः / वर्षीया अत्र गृह्यन्ते, प्रकृतिकाभिधा ततः / / 8 // षष्णामपि / // 3811 P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारक कृति सन्दोहे // 31 // दिशां माने, परिवसनाग्रहाद्भवेत् / द्रव्यादेः स्थापनां कृत्वा, स्थानात् पर्युषणाभिधा // 9 // प्रावृष्यनियमपि स्याद्वर्षामाभित्य निर्णयात् / वासस्य पञ्चमी सञ्चा, वर्षावासेति सार्थिका // 10 // शेषेवष्टसु कल्पेषु, परो- पर्युषणा-- ऽवग्रह उच्यते / मासिकोज चतुर्मासो, ज्येष्ठावग्रहता ततः॥११॥ एवं षट्स्वभिधानेषु, स्थापना समयाश्रिता। रूपम् या तां पर्युषणामाहू, रूढ्या व्याख्यानकोविदाः // 12 // न्यूनातिरिक्तमासोष्टौ (कार्तिक्या) भ्रान्त्वाऽऽषाढ्यां स्थिरो मुनिः। प्रावृड्वर्षोभयं मुख्यं, चतुर्मासी स्थिरो भवेत् // 13 // शाक्यास्त्रीनेव स्थित्वैकत्र मासो मेनिरे स्थिताः। कांश्चिद् वर्षाचतुर्मासी, वर्षावासोऽखिलैर्मतः // 14 // अध्वद्रव्यादिदुर्लभेऽवश्यं वर्षासु स्थास्नुता / वर्षावासोज तेनाह्वा, चतुर्मास्यत्र नो ऋतोः // 15 // ननु भाद्रात्परं वर्षा, सत्यं प्रावूड् ऋतुः पुरा / परं विभक्तः स द्वेधाऽद्यः प्रावृट् परस्तथा // 16 // अहोरात्रान् दश क्षिप्त्वा, वर्षाहेषु ततः श्रुते / जघन्योऽवग्रहो घस्र-सप्तत्योन्मित उच्यते // 17 // पकः प्राणाः स्थण्डिलोवी, वसति!रसो जनः। वैद्योषधसमूहेशाः, पाषण्डो भिक्षणं व्रजः // 18 // ताकस्थानाय पश्चाहैकादशान् वर्धयेत् पदे / सावनी रीतिमाश्रित्य, दिनैः पञ्चाशता सका // 19 // आद्योऽवग्रह आम्नातोऽधं सक्रोशयोजनम् / पूर्ण योजनमन्यः स्यात्, सक्रोशः क्षेत्रसंमितौ // 20 // आहारे विकृतौ संस्तारे मात्र लोचवस्तुषु / ग्रहो धृतिस्त्यजिर्योग्यो, द्रव्यपर्युषणा त्वियम् / // 21 // ईर्येषणावाक्समिती . मनोवाग्दुष्कृतौ कृते। विग्रहे च कषायेषु, भावे वार्षिकवर्जनम् // 22 // शैक्षः सचित्ते नो दीक्ष्यो, भावितो न परे पदे / अल्पवृष्टौ ततो याने, कुर्याद्धर्मावहेलनम् // 23 // शौचवादं पुरस्कृत्य, कुर्यान्मुनिजुगुप्सनं / श्रित्वा सकर्दमाङ्गं स, मुक्त्वा जीर्ण च भावितम् // 24 // परोजप राजाऽमात्यो वा-तिशय्यच्छित्तिकारकः / दीक्ष्यो धाम्नि विशाले पाशौचो धार्यों विवेकतः // 25 // भावे या स्थापना साा , तत्तद्रूपकथानकः / साधूनां वोधनं पर्यु-षणायास्तत्त्वमग्रिमम् // 26 // :पयुषणेयमाद्य- // 39 // न्त्यत्तीर्थयो: कल्पमाश्रिता। परमन्त्याहतस्तीर्थे, कर्षणं मङ्गलं मतम् // 27 // प्राक साऽऽषाढ्याः परं / / P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - 3 8 भाद्र शुक्लायां नियता कृता / पञ्चम्यां कालकार्यैः सा, चतुर्थी संघमानितैः // 28 // वाच्यं शासननेतुः / आगमो-II श्रीचीरस्य चरितं सह / गण्याल्या शेषजिनपपरिवारगणैस्तथा // 29 // सामाचार्यश्च विविधा, वाच्याः पर्युषणाद्धारक पर्युषणादिकाः। सांवत्सरिककल्पोक्ता, यावत्कल्पस्य देशनम् // 30 // ताश्चैवं क्रमशः कालस्तस्याः दिक्ष्व- रूपम् कृति वग्रहः / दानग्रहविधिस्त्यागो, विकृतीनां मुनीश्वरैः // 31 // कृतादिगृहभिक्षाया, विधिर्गोचरसम्मितिः। सन्दोहे पानभेदामितिर्दत्तेः, सङ्खडीवर्जने विधिः // 32 // अल्पवृष्टौ विहरणं, महावृष्टौ स्थितेः कृतिः। विधिर्वि-- // 40 // पक्षेणैकत्र, स्थाने सूक्ष्माष्टकोदितिः // 33 // आचार्याद्याज्ञया सर्व, गोचरादि विधित्सितं / वस्त्रातपाद्यन्य / / मुक्त्वा, शय्यासनाधभिग्रहः // 34 // स्थण्डिलोयौं विशेषेण, वर्षा स्वीक्ष्या जीवावनात् / लोचः पक्षादिविधिना, गोलोमा न तु वार्षिके // 35 // नानन्तसहितो धर्मस्तत् क्लेशं वार्षिकात्परं / धारयन् न भवेजैनो, निष्काश्योऽयं बहिर्गणात् // 36 // स्थानमेकं सदा माज्यं, त्रिः परे द्वे दिनत्रयात् / गम्यमुक्त्वा दिशो भाग, यतः स्यात्सुखमार्गणम् // 37 // सामान्यावग्रहाद्ग्लान-हेतोरेष विशिष्यते। योजनानां चतुष्पञ्च, यावत् तत्कायतों गतिः // 38 // प्रपाल्यैनमनेकेर्चा-मेकां धृत्वा ययुः शिवं / परे द्वित्रिर्जनित्वा न, जनिः सप्ताष्टतः परा // 39 // भगवान् श्रीमहावीरो, जगावं सभागतः। साथ सहेतुहितकृजनानन्दाय सिद्धिकृत् // 40 // इतिपर्युषणारूपम् // . ज्ञातपर्युषणा (17). नत्वा वीरं जिनाधीश, सुरासुरनमस्कृतं / तन्यते मुग्धबोधाय, सांवत्सरिकनिर्णयः॥१॥ // ननु यदा जैनलौकिकं प्राक्तन लौकिक लोकोत्तरपञ्चाङ्गभिन्नं तद्गणितं ज्योतिष्कगतमुत्सृज्य नूतनं प्रवर्त्तमान / पञ्चाङ्गमुरीकृतं नासीत्तदापि अधिकमासवत्तयाऽभिवर्धितनाम्नोच्यमाने तद्विपरीते तु चान्द्रसज्ञिते वर्षे च - 11 डोवा // 40 // P.P.AC.Gunratnasuri M.S. . Jun Gun Aaradhak Trust Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो- द्धारक कृतिसन्दोहे 14 // | गृहिज्ञातवर्षावस्थानस्वरूपः पर्युषणादिवसोऽनियत आसीत् / यतोऽभिवर्धिते आधे आषाढ्या द्वितीयाषाढ्याश्च 1 द्वितीयेऽभिवर्धिते तस्य कृतिरासीत् , आपल्या विंशतौ दिनेषु चान्द्रे तु वर्षे आषाढयाः पञ्चाशति दिव- ज्ञातसेष्वतिक्रान्तेष्वासीदिति शासनानुरागिणां सवषामविप्रतिपन्नं मतं, परं तदात्वेऽपि सांवत्सरिक पर्व नियत- पयुषणा मनियतं वाऽऽसीदितिशङ्काशडुनाऽऽधुनिकाः शासनरागिणोऽपि बाध्यन्ते / सम्प्रति च नवीनतरलौकिकपञ्चाङ्गस्यापि जैनः समस्तैः स्वीकारात् , तत्र च श्रावणभाद्रपदयोरपि वृद्धिसम्भवे सांवत्सरिकं कदा कार्यमिति बहवो मोमुह्यन्ते / केचिदशीत्या केचिच्च पञ्चाशता दिवसानामाषाढ्यास्तद्विदधते परस्परं विवदन्ते च कर्कशं / तत्र सांवत्सरिकं शास्त्रानुसारेण न्यायेन कदा कार्या ? इति / अत्रोच्यते-धीधनस्तावच्चिन्त्यमेतत् यदुत-प्राक्काले वर्षावस्थानस्य नियततायामस्ति हेतुविशेषो निर्दिष्टः शास्त्रकारर्यद्वा हेतुमन्तरा तथाऽऽज्ञप्तमिति ?, तथैवाभिवर्धिते आषाढ्या विंशतौ दिनेष्यतिक्रान्तेषु चान्द्रे च पश्चाशति आज्ञापयता वर्षावस्थानं तद्भदेऽपि तैहेतुविशेषो निर्दिष्टो न वेति ? / ननु श्रीपर्युषणाकल्पे एव पर्युषणायां वर्षावासावस्थानरूपायां निश्चितः प्रश्नपूर्वको हेतुः, तत्पाठश्चैवं- 'से केणट्ठणं भते ! एवं वुच्चइ - 'समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे विइकंते वासावासं पज्जोसवेइ, जओणं पाएणं अगारीणं अगाराई कडियाई उत्कंपियाइं छन्नाई लित्ताई गुत्ताइ घट्ठाइ मट्ठाई संपधूमियाई खायनिद्धमणाई अप्पणो अट्ठाए कडाइं परिभुत्ताई परिणामियाई भवंति, से तेण?णं एवं वुच्चइ - 'समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे विइकंते वासावासं पञ्जोसवेइ / अनेन प्रश्नोत्तरसूत्रवचनेनागाराणां परकृतपरिकारम्भनिष्ठार्थः स्पष्ट एव सविंशतिरात्रे मासि व्यतिक्रान्ते नियतावस्थाने हेतुविशेषः प्रतिपादितः। विशेषहेतुता चास्य सामान्येनाषाढपूर्णिमायां वर्षावासावस्थाने ये वर्षाविहरणे जायमानाः षट्कायविराधनादयो / दोषाः सविशेषिता अवगन्तव्या इति ज्ञापनाय / आषाढ्याः परतो वर्षासु विहरणे इमे दोषाः / // 41 // उक्तास्तद्यथा- 'छक्कायाण विराहण आवडण विसमखाणुकंटेसु। उज्झण अभिहण रुक्खोल्ल सावए तेण / P.P.AC.Gunratnasuri M.S Jun Gun Aaradhak Trust Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारक- कृतिसन्दोहे // 42 // उवयरए // 1 // निशीथभाष्ये / नन्वेते विहारदोषाः प्रावृष समाश्रित्योक्ताः, 'एते तु पाउसमित्तिवचनात् , / / | नित्यावस्थानरूपे वर्षावासे नेति चेत् / न, 'वासासुत्ति वचनेन वर्षाविहारेऽप्येतेषामेव दोषाणां सद्भावस्य ज्ञात सूचनात् / ननु तर्हि ग्रामानुग्रामविहारस्योभयोरपि प्रावृड्वर्षालक्षणयोः ऋत्वोनिषेधे समानेषु दोषेषु किमिति पयुषणा द्वयोभिन्न सूत्रमिति ? / सत्यं, 'वासासु णवरि लहुगति वचनात् प्रायश्चित्तभेदात् तदर्थं भिन्ने सूत्रे इति / एवं च पर्युषणाकल्पीयं सूत्रं प्रावृषि विहारमनुज्ञातुं प्रवृत्तमित्यर्थापतिं विकल्प्य नैव मन्तव्यं / ननु प्रकल्पोक्तरीत्या प्रावृषि विहर्तुश्चतुर्गुरुकाः, वर्षासु तु लघवः आपद्यन्ते / तथा चाषाढपूर्णिमात एव नियतावस्थानं प्रतिपाद्यं, केवलासु वर्षासु नियतावस्थानस्य प्रतिपादनेन तु प्रावृषि विहारस्यानुज्ञापत्तिः स्यात् , गुरुदोषकरणानुज्ञापूर्वकलघुदोषनिषेधेन प्रवचनार्थव्याघात इति / सत्यं, यदि प्रावृविहारस्य दोषाणां प्रतिपादनेन निषेधं नाकरिष्यत्तदा भवदुक्तः प्रवचनार्थव्याघातः स्यात् / ननु यद्युभयोरपि प्राइवर्षालक्षणयोः ऋत्वोर्विहारस्य निषेधो ग्रामानुग्रामविहारनिषेधेनेकत्रावस्थाननियमस्तहि किमर्थं पर्यषणाकल्पीयं सूत्रं वर्षाविहारस्य नियताव स्थानरूपायै पपुषणायै प्रावृतदिति ? / सत्य, 'सिद्धे सत्यारम्भो नियमायें'त्युक्तेनियतावस्थाननियमायेदं सूत्रं / ननु कृते नियमे नियमातिरिक्तनियतसदृशविषये पूर्वोक्तविधिसूत्रस्याप्रवृत्तेरागतैव प्रावृषि विहारस्यानुज्ञेति चेत् / II न, तत्रापि विहारस्य प्रतिपदेन दोषाणां प्रतिपादनात् / ननु तर्हि नियतावस्थानस्य वर्षासु नियमने कि फ-H लमिति ? चेत् / सत्यं, प्रावृविहारे यानि 'वासं न सुट्ट आरद्ध'मित्यादीनि गृहिणां पुरतोऽवस्थानसन्दिग्ध- / तोक्तौ कारणानि तेषामसम्भवं दर्शयित्वा नियतावस्थानं विधायात्र स्थिताः स्मेति गृहिणां पुरो नियतावस्थानकथनमाज्ञापयन्ति सूत्रकाराः / अत एवं गृहिज्ञाताज्ञातपयुषणाभेदः, नतु विहारावस्थानभेदेनेति / ननु गृहिणांत पुरतः अवस्थानस्योदितौ सन्दिग्धनिश्चयोक्तिरूप एव भेदः, प्रावूडवर्षाऋतू अधिकृत्य परोऽपि वाऽस्ति विशेष: ? | // 42 // इति चेदस्ति, कोऽसौ विशेष इति चेत् / योग्यक्षेत्रालाभे तृणडगलाद्यलाभेऽपि च ग्रामानुग्रामविहारस्यानुज्ञा प्रावृषि, / / P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दोहे BE // 43 // सान वर्षा , 'रुक्खहेट्ठावि पजोसवेयव्य'ति चूर्णिवचनात् / यद्यपि वर्षाऋतोरारम्भ आश्विनकृष्णप्रतिपदि, तथापि आगमो- 'ताहे भद्दवयः गोण्हस्स पंचमीए पन्जोसवेयव्य'ति 'अववाएवि सवीसतिरायमासाओ परेण अतिक्कमेउं न वट्टति'त्ति ज्ञातद्धारक- 'पविठेहि य भणियं-भद्दवयसुद्धपंचमीए पन्जोसविजति'त्ति च निशीथचूर्णिवचनादागेव प्रावूटपूर्तेर्भाद्रपदशु- पर्युषणा कृति- 0 क्लपञ्चम्यां तु वर्षाभावाभावादिष्वधिकरणापभ्राजनादिदोषाणां प्रावृडभाविनामभावात् पर्युषिता इति वक्तव्यं, वृक्षस्याधस्तादपि च पर्युषितव्यमेव / यद्यपि अशिवादीनि व्याबाधपश्चकान्तान्यपवादानि द्वयोरपि प्रावृड्वर्षापयुषितानां ग्रामानुग्रामविहारे तुल्यानि, तथापि वर्षासु ज्ञानादीन्यपवादपदान्यधिकानि ब्रुवद्भिर्भाष्यकारैः स्पष्टितमिदं यदुत-प्रावृषि षट्कायादिविराधनादिसम्भवात् क्षेत्रालाभादिभिर्विहारेऽनुज्ञायमानेऽपि ज्ञानाद्यर्थ न विहारस्यानुज्ञा, वर्षासु तदर्थमपि विराधनाया अल्पत्वादनुज्ञा, विराधनाया अल्पत्वादेव'वासासु णवरि लहुगे'त्युक्त्वा लाघवं दर्शितं / किंच-प्रावृषि वर्षाया मुख्यकालत्वात्तत्रैवागारिणामगारकर्म जातपूर्वमेव / एवं च निष्परिक गारलाभसम्भवमाश्रित्यैव पर्युषणाकल्पादिषु नियतावस्थानरूपपर्युषणानिरूपिते सन्दिग्धनियतवसनोक्त्यादिको हेतुविशेषो ज्ञातव्यः। एतेन च सन्दिग्धनियतावस्थानोक्त्योर्भेदो. विशेषहेतुस्तथैव / अभिवर्धिते वर्षे विंशतौ रात्रिषु चान्द्रे च सविंशतिरात्रे मासे व्यतिक्रान्तेषु नियतावस्थानोक्तिगृहिज्ञातपर्युषणारूपा कथं क्रियते ? इत्यारेकाया अपि सुखोन्नेयमेव / यतोऽभिवर्धिते वर्षे ग्रीष्मे हेमन्ते चाधिकमाससम्भवाद् गृहिणो गृहपरिकर्म वर्षणं / चारत एव भवति / एतेन समस्तेन नियतावस्थानेतरयोः विंशतिरात्रिसविंशतिरात्रमासलक्षणयोश्च षटकायविराधनाद्या आपतनाश्च दोषाः अधिकरणवजेनादिप्रयोजनं स्पष्टतयोक्तं। आषाढ्या अशीतिदिनातिक्रमे सांवत्सरिकपर्युषणाकरणस्य श्रावणशुक्लपञ्चम्यां वा तत्करणाकरणयोः किमायातमिति ? / यतः नियतावस्थानस्य गृहिज्ञातपर्युषणापरपर्यायस्य कृतिस्तु अभिवर्धिते विंशतौ रात्रिष्वतिक्रान्तासु श्रावण शुक्लपञ्चम्यां चान्द्रे च // 43 // / ' सविंशति रात्रे मासे आषाढ्या भाद्रशुक्लपञ्चम्यां चानुज्ञाता, तद् गृहिज्ञातपर्युषणासांवत्सरिकपर्युषणयोर्भेदाभावात्, / ' P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दोहे 1144 // / सापि तदैव कर्तव्येति ज्ञायते इति / सत्यमुक्तमयुक्तं तूक्तं, प्रथमं तावत् ज्ञाताज्ञातपर्युषणयोः समग्रेऽपि / आगमो- आचारप्रकल्पाद्युक्तेऽधिकारे सांवत्सरिकस्योल्लेखाभावेऽपि तथैकान्तप्रतिपादनपरस्य वक्त्रं न वक्रीभवति, तदुषमा- ज्ञातद्धारक वसर्पिणीखलायितमेव / न च तदा चूर्णिकृत्काले प्रतिक्रमणानि सांवत्सरिकं वा प्रतिक्रमणं नाभूदिति, आद्यन्तिम- पर्युषणा कृति तीर्थयोः सप्रतिक्रमणत्वात् देवसिकादिप्रतिक्रमणावत्त्वाच / किंच-भो नियतानियतपर्युषणयोरभिवधितचान्द्रवर्णीयपर्युषणयोश्च भेदेऽधिकरणादिरूपः षटकायविराधनादि च प्रयोजनतया हेतुविशेषतया चोच्येते, तत्सांवत्सरिकप्रतिक्रमणोपलक्षितपर्युषणायां मान्येते ते तत्रेति ?, नो चेत्, प्रयोजनहेतुवैषम्ये तथाविधाक्षराणां चानुपलम्भेऽपि यद् यद्वा तद्वा प्रज्ञाप्यते स्थाप्यते तत् कस्य हास्यास्पदं न भवति / ननु किं गृहिज्ञातपर्युषणोक्त्या सांवत्सरिकपर्युषणायाः प्रतिपादनं न जातं ? येनैवमाशिप्यते इति चेत् / नैव स्यात्तद्, यदि गृहिज्ञातपर्युषणासांवत्सरिकप्रतिक्रमणपर्युषणयोहेतुस्वरूपफलानि समानानि स्युस्तच्च नांशतोऽपि, यतो गृहिज्ञातपर्युषणायां हेतरधिकरणादिवर्जनं. स्वरूपं वर्णावासं स्थिताः स्मेत्यक्तिः. फलं च निष्परिकर्मवसतिलाभादि. त्रयमेतदनेकशास्त्रसिद्ध हेत्वादित्रयं कः खलु सकर्णः कथयत्तस्याः सांवत्सरिकपर्युषणया सहैक्यमनन्यदिनभावित्वनियम वा / ननु गृहिज्ञातपर्युषणायाः समानदिनभावित्वं केनापि शास्त्रकृतोक्तं ?, आममितिचेत् , किं न दर्श्यते ? भिन्नदिनभावित्वं क्वोक्तमिति ? सांवत्सरिकशब्देनैव, यतो नहि गृहिज्ञातपर्युषणयोभिन्नसंवत्सरयोभिन्नभिन्नमासयोरस्त्यन्तरालनियमः तृतीयपश्चमयोः श्रावणे गृहिज्ञातपर्युषणाकरणे पुरोवर्तिषु संवत्सरेषु भाद्रपद एव पर्युषणायास्तादृश्याः करणादेशस्य सिद्धत्वात् शास्त्रैरिति / नन्वधिकमासस्याविवक्षायां किं न भविष्यति समाहिति: 1, सत्यं भवेत् सा, परं चित्रमेतद्यदुताभिवर्धितेऽधिकमाससम्भवस्य प्रतिपादितत्वे सत्यपि भवद्भिस्तत्पुरोवर्तिनि / चान्द्रे वर्षे मासोऽधिको विवक्षार्थ गण्यते / तत्त्वतस्तु गृहिज्ञातपर्युषणाया आषाढयेवाऽवधिः, न प्राक् / / किञ्च गृहिज्ञातपर्युषणाया 'विधौ शास्त्रकृद्भिरभिवधितसम्बन्ध्यधिको मासो गणितो विवक्षितच, अन्यथा / / / // 44 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो-1 द्धारक कृतिसन्दोहे। // 45 // कथमवक्ष्यन्त ते यदुत - 'अभिवड्ढियवरिसे गिम्हे (हेमंते) चेव सो मासो वतिकतो'त्ति। परमवधेयमत्रदं-गृहि- / ज्ञातपर्युपणा कृषिगृहपरिकर्मादिसापेक्षा, कृष्यादि च वर्षावर्षणसापेक्षं, वर्षा चाभिवर्धिते पूर्वमेवाषाढ्या नियमतो ज्ञात-" वर्षति / तत एव गृहिज्ञातपर्युषणायामधिकं यं कश्चिदपि पौषाषाढ्योरन्यतरं विवक्षितत्वात् चान्द्रे सविंशतिरात्रे में पर्युषणा मासे, अभिवर्धिते च विंशतौ रात्रिष्वतिक्रान्तेषु अधिकरणांपभ्राजनादिवारणार्थ स्थिताः स्मोऽत्रेति निर्णीतोक्तिरूपा गृहिज्ञातपर्युषणाकृतिराम्नाय्याप्तैरिति सापेक्षः स विधिन सामर्थ्य सारयति / अन्यच्च साध्वाचारापेक्षिकविधौ नाम्नाय्याप्तरधिकमासस्य सङ्ख्यानं / तत एवात्रव पर्युषणाया व्यतिकरे ज्ञाताज्ञातविध्योरधिकमासं विवक्षित्वा मर्यादाभेदे कृते ऋतुबद्धकालीनविहारे अष्टावेव मासा अवधृताः, 'ऊणातिरित्त अट्ठये त्ति भाष्यकारवचनादसन्दिग्धं / न चोनातिरिक्तत्वमत्र यद्विवक्षितं तत्राधिकस्यापि मासस्य समावेशो नासम्भवीति वाच्यं, यानातिरिक्तानेहोभवनकारणानि भाष्यकृद्भिर्नोक्तान्यभविष्यन्त तदैवमुदितुं भवन्तोभारयिष्यन्नपि, परमत्रोनातिरिक्तभवनकारणानि पूर्वीयवर्षावासपूर्तरर्वाग् विहारसम्भवमेषमे च क्षेत्रालाभादिभिराषाढ्या अतिक्रमसम्भवं चाधिकृत्य ज्ञेये अष्टमास्या ऊनातिरिक्तते इति स्पष्टितत्वादुक्तान्येव तानीति न भवदीयविकल्पलेशस्यावकाशोपि। अन्यच्च भवदीयोऽभिप्रायश्चेह पर्युषणाकल्पादिशास्त्रेषु यानि जिनान्तरादीनि सार्धाष्टमासाद्यधिकानि तान्यन्यथा कुर्वनेवोन्मजेत्, सर्वत्र युगान्त्ये आषाढाधिक्यात् भगवतः श्रीमन्महावीरस्य कार्त्तिकामावास्यारूपनिर्वाणकालात् सार्धनवमासाधिक्यादिसम्भवात् / न च कुत्रापि शास्त्रे साधनवमासाद्युक्तिः। तथा च शास्त्रापेक्षिके मासकल्पविहारादिरूपे साध्वाचारे नाधिकमासस्याविवक्षा, तथैव जिनान्तरादिरूपे आनुवादिकेऽपि शास्त्रकृतामविवक्षेवाधिकमासस्य / किञ्चयद्यधिकमासस्य विवक्षा स्याच्छास्त्रकृतां तहिँ युगान्ते आषाढस्य नियमेनाधिक्यसम्भवाविंशतिराव्यादिवचनाद् / द्वितीयआषाढोऽधिकृतस्तत्र आषाढी चातुर्मासी मता च / न च शास्त्रकृद्भिस्तत्र प्रथमाषाढपूर्णिमा आषाढीतयाऽभि- // 45 // मता / न च द्वितीयाषाढपूर्णिमायां पञ्चमासी मता / पर्यालोच्यते चेद्भवद्भिरेतत् सर्व ध्रुवममृतेन विषवेगवदपस . P.P.AC.Gunratnasuri M.S Jun Gun Aaradhak Trust Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतिसन्दोहे। 1146 // - रिष्यत्येव भवतामधिकमासस्य गणनायां विद्यमानः कदाग्रहः / निवृत्तं च तस्मिन्नैव भवान् श्रावणिकत्वाश्रयणेन आगमो- पर्युषणापर्वणो भेदविधौ तत्परतामाधास्यति / अन्यच्च भगवन्तो युगप्रधानाः श्रीकालकाचार्याः वर्तमानशासना ज्ञात-.. द्धारक-H धीश्वराः श्रीमलधारगच्छीयश्रीहेमचन्द्रसूर्यादिवचनात् श्रीवीरभगवतो निर्वाणात् त्रिपञ्चाशदधिकचतुःशत्यां, पर्युषणा तीर्थोद्वारनाम्ना प्रघोष्यमाणगाथामाश्रित्य तत एवाशीत्यधिकनवशत्यां, श्रीपर्युषणाकल्पगतं वाचनान्तरीयपुस्तकारूढिकालस्य पर्युषणातिथिपरावत्तहेतुत्वेनारोपितं वचनमाश्रित्य त्रिनवत्यधिकनवशत्यां पर्युषणातिथेः परावर्त चक्रुरिति गीयते / त्रिष्वपि मतेषु तद्वर्षमाभिवर्धितं, यतः संख्यासु पञ्चभिर्भक्तास्वेतासु शून्यं त्रयश्चावशिष्यन्ते / एवं च सिद्ध तस्मिन् परावर्त्तनवर्षे श्रीकालकाचाययुगप्रधानैर्यद्भाद्रपदशुक्ले पञ्चम्या सांवत्सरिकपर्युषणाकृतये श्रीसङ्घायादेशो दत्तः, परमश्रावकशातवाहनराज्ञोऽनुरोधेन च चतुर्थी सांवत्सरिकपर्युषणां चक्रुः। तत्सर्वमपि खरतराणां श्रावणिकानां मते नांशतोऽपि घटामटाट्यते / एवं चाधिकमासस्य गणनायामयुक्तत्वे सिद्धे यस्व कस्यापि मासस्य भवतु वृद्धिः, परं सा मासकल्पचातुर्मासिकसांवत्सरिकप्रमुखेषपेक्षितुमेव योग्या / योग्यं च सर्वेष्वपि समानरीत्या भाद्रपदशुक्ल पञ्चम्यां श्रीकालकाचार्यादेशाचतुर्थ्यामेव च सांवत्सरिकपर्युषणाकृत्यकरणं / न च श्रावणिकैः खरतरैरपि तिथिवृद्धिहान्योः पञ्चदशदिनात्मकपक्षनिर्वृत्तं पाक्षिकं चतुर्दशी विहायान्यदा क्रियते, इति किं शोभास्पदमार्हनशासनमङ्गीकुर्वाणानामिदमर्वजरतीयमनुष्ठानमिति ? / ननु भवद्भिरारब्ध गृहिज्ञातपर्युषणयोर्भिन्नकालकर्तव्यतामभिवर्धिते साधयितुं, तत्र गृहिज्ञातपर्युषणायामधिकमासस्य संख्यानं वृष्टथपेक्षितकृष्यादि क्रियाप्रत्ययिकमहं न तु पाक्षिकमासकल्पचातुर्मासिकसांवत्सरिकादिष्वित्यन्यान्यशास्त्रवचनैरनुमानप्रधानैः साधितं, परं गृहिज्ञातपर्युषणायाः सांवत्सरिकस्य साक्षाद्भदप्रतिपादनपरमनुमानहेतुकं किमिति शास्त्रवचनं न / दर्श्यते ? इति चेत् / सत्य, गृहिज्ञातपर्युपणाया हेत्वादिदर्शने सांवत्सरिकभिन्नतायाः स्वभावसिद्धेः, परं / // 46 // भवदाकाङ्क्षा चेत्तथाविधा, तर्हि तत्समाध्यर्थमपि क्रियते तत्र यत्नः। तत्र प्रथमं सांवत्सरिकं संवत्सरनिवृत्तं, / / Jun Gun Aaradhak Trust Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारककृति - सन्दोहे IN // 47 // संवत्सरनिर्वृत्तिः प्रथमादवधिभूतात् सांवत्सरिकात् , संवत्सरेण निवृत्तं सांवत्सरिकमिति व्युत्पत्तेः / नन्वादि- / / धार्मिकस्य धर्मप्रतिपत्तिकालस्य वैचित्र्यात् , सर्वेषां च शासनवर्तिनामसमकालं धर्मप्रतिपत्तेः, तीर्थकृतां च ज्ञाततीर्यप्रवर्तनकालस्य विविधत्वात् कथं सर्वेषां प्राक् संवत्सरस्यावधेर्भावः ? इति चेत् / सत्यं, शासनस्य प्रवा- पर्युषणा हेणानादित्वात् सदा सांवत्सरिकस्य नयत्यं, तथाभावत्वादेव च देवविद्याधरादीनां नन्दीश्वरद्वीपादौ सांवत्सस्किमुद्दिश्य महामहकरणं शाश्वतं सङ्गच्छते। केचित्तु पूर्णिमायां पाक्षिकं स्थापयितुमुद्यताः पक्षेण भवं . पाक्षिकमिति व्युत्पाद्य चतुर्मासीनां कार्तिक्यादिपूर्णिमासु भावाच्चतुर्दश्याः पाक्षिकत्वं शास्त्रोक्त्या युक्त्या च il. सिद्धमुत्थाप्य पक्षान्ते भवं पाक्षिकमिति व्युत्पत्तिमुत्पादयन्ति, तैस्त्रापि विचारणीयं / यतस्तन्मतेन यः संवत्सरस्यान्तः, स चातुर्मासिकपाक्षिकयोरप्यन्त एव / तथाच पाक्षिकादिषु शासनस्यानुसारः प्राग्दैवसिकं / प्रतिक्राम्यन्ति / अत आवश्यकचूर्णादिषु देवसिकस्य त्रयो गमाः प्रतिपादिताः। तत्सर्वमेतदुत्थाप्य सांवत्सरिके पाक्षिकचातुर्मासिकगमावपि दैवसिकगमदृष्टान्तेनादरणीयौ स्यातामिति / किञ्च-यद्येवं पक्षचतुर्मासीसंवत्सरानुद्दिश्य तत्तत्प्रतिक्रमणादिषु तत्तदन्तेन व्युत्पाद्यते, तर्हि रात्रिदिवसयोरेवमेव वाच्यं स्यात् / क्रियते / चामध्याह्नादानिशीथं देवसिकं, आनिशीथाच्चामध्याह्न रात्रिकं चेति / अत एव 'अंतो अहोनिसस्स येत्यनु- II योगद्वारेषु अन्तरव्ययप्रयोगः क्रियते, क्रियते च कारणजातप्रतिक्रमणपरैः पूर्वाह्लादिष्वपि देवसिकरात्रिके इति / / 'संवत्सरेण निवृत्तं सांवत्सरिकमित्येव व्युत्पादनं न्याय्यं / आचरणया चतुर्दश्यां चातुर्मासिकं प्रतिक्रामतां तु तत्र पाक्षिकस्याफरणं, तथाचरणाया एव भावादिति / ननु परावर्त्य पञ्चदशी चतुदश्यामाचीण चातुर्मासिकमिति चेत्, सांवत्सरिकस्य यथा व्युत्पत्तिमहिम्ना संवत्सरोऽवधिस्तथैव . 'सवीसइराए मासे इत्यादिवचनात् आषाढकार्तिक चातुर्मासिके अपि अवधिभते एव. ततो मध्यस्य सांवत्सरिकस्य तिथेराचीर्णा परावृत्तिस्ततस्तदशतोऽवधिभतयोगषाढकार्तिकचातुर्मासिकयोस्तिथेः परावृत्तिरावश्यक्येव, तद्वशेनैव च फाल्गुनचातुर्मासिकतिथेरपि परावृत्तिरिति / / / / त्याप्य सांव // 47 Jun Gun Aaradhak Trust Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृति सन्दोहे // 48 // ___ ननु युगप्रधानॆभगवद्भिः कालकाचा : राजविज्ञप्त्या पर्युषणा चतुर्थ्यां कृतेत्यस्याविवादास्पदत्वे न पाश्चात्यैः / / आगमो-IBI कथं सा परावर्तिता ?, न हि शासने जैने महाप्रभाववता केनापि किञ्चिदाचरितमेतावता सर्वैस्तत्कालीनैः ज्ञातद्धारक- पाश्चात्यैरपि तथा कार्यमिति नियमः, श्रीस्थूलभद्रवद्वेश्यावश्भावस्थानप्रसङ्गादिति चेत् / सत्यं, परं सांवत्सरिका पर्युषणा दीनां स्वरूपं तावत् कलहकषायनिवारणा / अत एवानुवर्तमानेऽपि पर्युषणाधिकारे भाष्यकृद्भिः 'अहिगरणकसायाणं संवच्छरिए विओसवणे'त्ति / न तावदधिकरणादित्यागः सांवत्सरिकस्वरूपतया निरूप्य विरता:, किन्तु पूर्वसंवत्सररात्रेरारभ्याक्षामितानां प्रायश्चित्तमपि निर्दिष्टं मूलरूपमद्य / किश्च संवत्सरदिनकृतानामधिकरणानामक्षामणे सांवत्सरिककायोत्सर्गेण मूलप्रायश्चित्तमादिष्टं, आदिष्टं च तस्य गणान्निष्काशनं, तत्कायोत्सर्गकालकृताक्षामितापराधे तु तत्कालमेव मूलप्रायश्चित्तमादिष्टं दाने / तथा च भाष्यकारा आहुः - 'संवच्छरमुस्सग्गे कयंमि मूलं न सेसाईति / एवं स्वरूपत्वाच्च सांवत्सरिकस्यानुक्तानां च पाक्षिकादीनां च व्यवस्थेयं व्यावहारिकी यदुतापराधादीनां पाक्षिकान्तमक्षामणं चेत् तद्वन्तः प्रत्याख्यानावरणोदयवन्तः चातुर्मासिकान्तमप्रत्याख्यानोदयवन्त: सांवत्सरिकान्तमनन्तानुबन्ध्युदयवन्तश्च / अनन्तानुबन्ध्युदयवतां 'अनन्तान्यनुबध्नन्ति, यतो जन्मानि भूतये' इतिवचनादनुक्षणमनन्तसंसारोपार्जकत्वनियमः। एतेन सांवत्सरिकस्याधिकरणक्षामणादिस्वरूपवदनन्तसंसारासाधारणहेत्वनन्तानुबन्ध्यभावप्रायश्चिचान्तापरिविगमौ फलतयोक्ताववसेयौ। न चेमौ गृहिज्ञातपर्युषणायामशंतोऽपि / एवं स्वरूपफलत्वाच सांवत्सरिकस्य शासनानुसारिभिः सहैव करणमनुष्ठेयमनुष्ठीयतेपि च / तथा च राज्ञो लोकानुवृत्त्या पञ्चम्यां सांवत्सरिककार्यस्यानुष्ठानमावश्यकं, ततः तिथिपरावर्ताय विज्ञप्तिः, अन्यथा युगप्रधानाचार्याणां तत्रैव क्षेत्रे विद्यमानेऽप्यसाहचर्यान्न सानिध्येन स्यादाराधना, नृपानुग्रहायाचार्यस्य तत्सान्निध्याथ तत्क्षेत्रीयस्य सकलसक्चत्य तत्समानकालीनाराधनातोरेव सकलशासनस्य चतुर्थी पर्युषणायाः / / // 48 // l करणमौचितिपदवीमध्यास्त / - ननु भवतु तद्वर्षे तथा, परं पाश्चात्यवर्षेषु तत्परम्परागतानामपरेषां च P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात पर्युषणा // 59 // . आगमो. परंतस्वथा. तिथिपरावृत्तिः कथमौचितिमश्चति ?'इति चेद् / .... ..... द्वारककृति ... सत्यम् , परं प्रागेव प्रतिपादितं, यत्संवत्सरदिनान्तमनन्तानुबन्धिनामभाव इति द्वितीयवर्षेऽन्यदा च. सन्दोहे तथा चतुर्थी सांवत्सरिकस्यापातो 'दुर्धरः स्यादिति / अत एव सा परावृत्तिराचरणारूपा नतु व्यक्तिकृतिरू पेति सुधियोह्यमिति / एतत्सर्वमपि खरतरसन्तानीयानां सम्मतमेवः / यतस्तेऽपि चतुर्थ्यादिष्वेव सांवत्सरिकादि. HI कुर्वन्ति / यतस्तेऽपि.स्वीकुर्वन्त्येव पाक्षिकादिदिनातिक्रमेऽपराधादिक्षामणायां प्रत्याख्यानावरणादीनामनन्तानुबISiध्यादीनामापत्तिमिति / तथा च सांवत्सरिककृतौ ज्ञानाद्याराधनासंचलितजिनाज्ञारूपो हेतुः, अपराधक्षामणा दिस्वरूपं, प्रत्याख्यानाद्युदयनिवारणादि फलमिति / किञ्च-गृहिज्ञावपर्युषणा कल्पकर्षणवर्षावाससामाचारीस्थापनादिसाध्या, सांवत्सरिकं तु चैत्यमहोत्सवसकलसाधुवन्दनलोचाष्टमतपाक्षामणादिसाध्यमिति / सत्स्वपि हेतुस्वरूपफलसाधनादिगतेषु भेदेषु न भेद्रो गृहिज्ञातपर्युषणासांवत्सरिकयोरिति कदाग्रहपूर्वकं ब्रुवतां वक्त्रं न वक्रीभवति तद् दुष्षमाकालखलायितात् किमपेरहेतुकं भवेत् 1 // अन्यच्च खरतरसन्तानीया अपि. पूर्वसांवत्सरिकदिनादैषमसांवत्सरिकदिनमेकदिनेनाधिकमपि स्यात्तर्हि अनन्तानुबन्ध्यापातमूलपायश्चित्तावलोकनेन युगप्रधानः श्रीकालकाचार्यैः पञ्चम्या एकदिनेनागिपर्वरूपायामपि चतुर्धामाचीर्ण सांवत्सरिक्रमनुमन्यमानो अपर्वरू: पायां भाद्रपदशुक्लचतुर्थ्यामेव कुर्वन्ति, न तु पर्वरूपायामपि भाद्रपदशुक्लपञ्चम्यां / ननु च यदि तेऽनन्तानुबन्ध्यायापातभयात् साम्पतमेकदिनोल्लङ्घनभयादपर्वचतुर्थी सांवत्सरिकं कुर्वन्ति, तर्हि अभिवर्धिते. वर्षे श्रावणामाः द्रपदयोवृद्धौ सत्यां द्वितीयश्रावणे. प्रथमे भाद्रपदे वा शुक्लचतुलं सांवत्सरिकं कुर्वन्ति, द्वितीयवर्षे चं: भाद्रपदशुक्लचतुर्थ्यामेव कुर्वन्तः सांवत्सरिकं. किं न शोचन्ति एकदिनाधिक्यांहीतानां. मासप्रमाणस्य महतः कालातिक्रमस्यावगणनात, किं तत्रानन्तानुबन्ध्यापातादि तेषां बाधाकर नेति / अत्रार्थे त. एव प्रष्टव्या। IMP.AC.Gunratnasuri M.S. -. e Jun Gun Aaradhak - Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात वयं तु सर्वदापि शुद्धभाद्रपदशुक्लचतुर्थ्यामेव सांवत्सरिकं कुर्म इति भवदीयप्रेरणायामनधिकारिणः, तद्वदेव / 'आगमो तदाक्षेपस्य प्रतिवचनेऽपीति / ननु भवन्तोपि साम्प्रतं नवीनतरलौकिकपञ्चाङ्गमनुवर्तमानाः भाद्रपदशुक्लपक्षीद्धारककृति यायाश्चतुर्थ्याः पञ्चम्या वा क्षये तत्पक्षीयायां तृतीयायां सांवत्सरिकं विधाय पुनर्द्वितीयवर्षे भाद्रपदशुक्लच- पर्युषणा सन्दोहे तुर्थी पर्युषणां कुर्वन्त एकदिनस्याधिक्यात् कथं नानन्तानुवन्ध्यापातादिदोषभाजनं भवतेति ? चेत् / सत्यम् , 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्ये'त्युमास्वातिप्रघोष युगान्त्याषाढ्याः क्षयस्य नियमेऽपि चतुर्दश्या॥५०॥ मेव चूर्णिकारैराषाढीतिकृतं व्यवहारं चानुरुध्य वयं तां तृतीयेति सञ्जयाम एव न, किन्तु चतुर्थीतयैव तां / सञ्जयामः / खरतरसन्तानीया अपि अष्टम्यादीनां पर्वणां क्षयस्यापाते तत्पूर्वापर्वतिथिं सप्तम्यादितया न व्यपदिशन्ति, किन्तु अष्टम्यादितयैव / विशेषतस्तु अपर्वपौषधापातेन स्वीयस्वतन्त्रमतव्याघातप्रसङ्गादिति / नन्वेक दिनातिक्रमभीतानां तेषां मासातिक्रमे किं नाश्चर्यमिति ? चेत् / नैकमेवैतत् , किन्त्वमिवर्धितस्य मासस्य IN/ शास्त्रकृद्भिर्मतमसङ्ख्यायते परतोऽनभिवर्धितेऽपि त्रयोदशमासानतिक्रम्य स्वेच्छया सांवत्सरिकस्य कृतिIN स्सापि तथैव / किञ्च-यवना अधिकमासं सङ्ख्यायन्ति परं ते यतोऽपि पूर्वकृतमेवाधिश्रयन्ते / इमे तु कालचू लारूपस्य मासस्यासङ्ख्येयस्य सङ्ख्यानं सङ्ख्येयानां च त्रयोदशानां मासानां सांवत्सरिकत्वेन व्यवहृति- II 1 मधिश्रयन्ति / किञ्च-प्रष्टव्यास्ते, यदुत-शास्त्रकारैरभिवर्धिते वर्षे आषाढ्या विंशत्या अहोरात्रैहिज्ञातपर्युषणां व यां तके सांवत्सरिकरूपतया कल्पयन्ति / सा कर्त्तव्यत्वेनादिष्टा तैस्तु तामेवोक्तिमनुश्रित्य गृहिज्ञातपर्युषणाभिन्न Pal सांवत्सरिकं परं दिनैः पञ्चाशता / तदिदं यदुक्तिमालम्ब्य प्रवृत्तिस्तामेवोक्ति विपर्यासन्तां (यतां) न किं ब्रीडा भवतां मुखं मलीमसीकरोति ? / चेत् तदुक्तिमभिवर्धितविधि ते समाश्रयेयुः तर्हि विंशत्या एव अहोरात्राणामतिक्रमे कार्य सांवत्सरिकमन्यथा स्वच्छन्दमवृत्तत्वं तेषां लोकेनावगीयमानं न पार्य // 50 // WEP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Shar Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञात आगमोद्धारककृति पर्युषणा सन्दोहे रोद्धमिति / किञ्च-विचारणीयमेतदपि तैः-यत् शास्त्रकाराः मासाधिक्यवतः सर्वानपि संवत्सरानुद्दिश्याषाढ्या विंशतिरात्रातिक्रमे भवता सांवत्सरिकरूपतयाभिप्रेतां गृहिज्ञातपर्युषणां कर्तुमादिशन्ति, तेषां तत्रभवतां शास्त्रकतामभिप्रायेण पौषस्याषाढस्य वा वृद्धौ वर्षमभिवधिताख्यं तत्र चापाढया विंशत्याहोरात्राणां गृहिज्ञातपर्युषणायाः कृतिश्च, भवद्भिस्तु सांवत्सरिकस्य कृतौ सोक्तिरुरीकृता, उरीकृत्यापि न सर्वेष्वमिवर्धितेपूक्तमपि आचर्यते, शेषेषु शेषमासाधिक्येनाभिवतिसञ्ज्ञां प्राप्तेषु वर्षेषु विंशत्या सांवत्स रिकस्याकरणात् / किश्वाषाढ्याः प्राग्जातयोर्मासयोर्व्यपेक्ष्य 'ग्रीष्मे गत' इति वर्षावासात् प्राग्जातम- KI त धिकं मासं समुद्दिश्य अग्विया भावाद् विंशत्या पर्युषणा आज्ञायि भगवद्भिरधिकरणादिवर्जनार्थ, 1 खरतरसन्तानीयैस्तु वर्षावासकाल एवाधिके तद्वाक्यमालम्बितं, तदेतत् तत्त्वज्ञस्य नाश्चर्यकरं स्यादिति ? / IM किञ्च-पर्युषणाया अवस्थानरूपायाः कृतिस्तूत्सर्गादापाढ्यामेव / भाद्रपदामान्तेषु शेषेषु क्रियमाणा सापवा- A दिकी, भाद्रपदशुक्लपञ्चम्यां तु क्रियमाणा सा परमापवादिकी। एवं पर्युषणायाः करणे भेदत्रयी, A सांवत्सरिके त्वेक एव भाद्रपदशुक्लपञ्चम्यां विधानलक्षणो मार्गः। किञ्च-पर्युषणायामवस्थानलक्षणायां निर्णयकालादुदितिकालभेदः, गृहिज्ञातपर्युषणायामुदितिमात्रं न तु कृतेनियमः, सांवत्सरिके तु न तादृशं / वैविध्य, तत्र क्रियोदित्योः समकमेव करणादिति / एवं सत्यपि महति भेदे गृहिज्ञातपर्युषणा सांवत्सरिकं वा गृहिज्ञातपर्युषणारूपं समदिनभवननियमवद्वा द्वयमेतदिति खरतरैः ख्यायमानं केषां मध्ये ख्यातिमाप्नुयात् ?, तत्तु सुज्ञानां विदितचरमेवेति / ननु पञ्चम्या आगमोक्तत्वाच्चतुर्थ्यां सांवत्सरिकमावयोरयुक्तमिति चेत् / न, जीतव्यवहारस्य 'वत्तणुवत्तपवत्तो' इत्यादिलक्षणस्यागमोक्तत्वादेव / ननु 'जीएणं ववहरइत्तिवचनात् प्रायश्चित्ते एव जीवव्यवहारस्योक्तिः, संहननधृत्यादिहानीनां तत्रैवालम्बनत्वादिति / सत्यम् , // 51 // IMP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Tru Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 52 // शुद्धिरुमलक्षणं विध्यादीनां, व्यवहारभाष्यादिषु तथा स्पष्टितत्वात् / अन्यच भगवद्भिः श्रीकालकाचार्यः आगमो. युगप्रधानैरपि 'अंतरावि से, कप्पईत्ति पर्युषणाकल्पवचनमाश्चित्य ततः परावर्तितं न तुः स्वातन्त्र्येणः। ननु च IST ज्ञातद्धारककृति तद्वचनं तु नियतावस्थानरूपपर्युषणाविषयं न तु सांवत्सरिकविषयं / न चान्यार्थमुत्सृष्टमन्यार्थेनापोद्यते पर्युषणा इति चेत् / सत्यम् , अवस्थानपर्युषणा हि पञ्चत्रकल्पकर्षणसाक्ष्यत्वेन पञ्चरात्रसाध्या, गृहस्थानां सन्दोहे पुरतो. निर्णीतोक्तिरूपा; तु षष्ठादिदिवससाध्येति / 'तं स्यणि'ति सांवत्सरिकमनुलक्षयति नान्यथा, युगमधानाः सांवत्सरिकपरावर्ते क्रियमाणे तदुदाहरिष्यनिति / ननु चतुर्थ्यो भगवद्भिः सांवत्सरिकं प्रवर्तितं, भगवद्भिशूर्णिकारैरपि तामुद्दिश्य. 'पवत्तिये'त्युक्तं, परं तस्या अपर्वत्वं, इयाणि कई अपव्वेत्ति वचनादुरीकृतमिति / सत्यम् , पञ्चम्यां स्थितिमत् तिथिपूरणीकरणरूपं पर्व आराधनाकालरूपं च पर्वत्वं न परावर्तितं / अत एव तस्या हानौ वृद्धौ वा 'क्षये पूर्वे' ति प्रघोषमाश्रित्य यावत्सम्भवेति न्यायेन पूर्णिमामावास्ययोहनौ वृद्धौ यथा भवति तथा पूर्वतन्यास्तृतीयाया एव क्ष्यो वृद्धि, क्रियते / ननु चतुर्दश्याः पर्वतिथित्वा द्भवतु पूर्वतन्या हानिर्वृद्धिर्वा, चतुर्थी तथा नेति किं तथाकृतिरिति ? , यथा कल्याणकदिनानां स्वयं IN पर्वतिथित्वाभावेऽपि पुण्यकृत्यसम्बन्धात् पर्वतिथित्वं तथा चतुर्थ्या अपि सांवत्सरिकपुण्यकृत्यसम्बन्धात् | पर्वत्वमबाधमेव, अन्यथा तच्चतुर्थ्या हानौ वृद्धौ वा न 'क्षये पूर्वा तिथिरितिप्रघोषोऽवलम्बनं भवेत् , तदनव- Ki I लम्बने तु तथाप्रसङ्गे सांवत्सरिकलोपादि दुर्गारमेव / पर्वतिथिपरिगणनादिषु पञ्चम्या भिन्नत्वेनः सांवत्सHरिकस्य पर्वत्वेन भणनमपि तस्याश्चतुर्थ्याः पर्वत्वमेव प्रतिपादयतीति / किश्चास्याश्चतुर्थ्या' अपर्वत्वे चातुर्मा // 52 // सिकस्यापि चतुर्दश्यां परावृत्तेस्तत्क्षये पूर्णिमाया वा त्रयोदश्यां चातुर्मासिककरणमयुक्ततरं स्यात् / ननु चतुर्दश्येच व्यपदिश्यते, न त्रयोदशीति, आराध्यतिथेळपदेशपूर्वमेव 'छण्हं तिहीणे तिवचनादाराधनादितिचेत् / | M P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Mil Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो श्रुतस्तुतिः द्वारककृति सन्दोहे सत्यम् , पर्वत्वेनैव सा तथा चतुर्थ्यांदावपि चेति / .. भव्यानां हितसिद्धये कृतिरियं ज्ञाता यकाऽगारिभिः, सैषा पर्युषणा न वत्सरभवा सांवत्सरीत्वं श्रिता। न न्याय्यं त्वमिवर्धितेपि तपसि प्रौढात्पदे नादिमे, युक्तं तन्विति युग्मसाधनकृते ह्येतां बुधः संश्रयेत् // 1 // खाद्या वदन्ति निजकल्पनयैव सूत्र, चूर्णि चं भाष्यसहितां समुपेक्ष्य नित्यम् / 'सांवत्सरे प्रतिविबुध्य समग्रमेतद् , भाद्रे सदा कुरुत तच्छिवशर्महेतोः // 2 // इतिश्रीज्ञातपर्युषणा // // 53 // श्रुतस्तुतिः (18) भरतैरवतविदेहाः सुकर्मभूमयोऽर्धतिसके द्वीपे। सर्वार्हद्भिः श्रुतावलिभिः पावितास्ताः सदा S/ नम्याः // 1 // पृथ्व्याद्या व्यवहार्याः सदा निगोदास्तथा व्यवहार्याः। यद्दधति तमस्तिमिरं Kil भिनत्ति पटलं तयोहि श्रुतम् // 2 // सुरगणनराः सदा यत् श्रयन्त आत्मावलम्बनं मत्वा। अवि गानेन नमन्ति च पुनः पुनः श्रुतमहोऽहन्ति // 3 // जिनास्तीर्थ नृपा नीति, प्रजाः पालिं नवां H नवां / सुवते तां परं धत्ते, श्रुतमेव चिरं ननु // 4 // जिनेशाः सुरेशा नरेशाः सदैव, तिमिस्रावलि स्फेटयन्तीद्धरूपाम् / हृदाप्तां .जमानां यदाप्यावलम्ब, श्रुतं सत्ततो नम्यमेवाप्तवः // 5 // जगजन्ममृत्यामयातिव्यथानां, व्रजैर्व्याधितं सारहीनं शरण्यं / ससारं सदाऽयं यदन्यन्न चैति, सदा तच्छ्रतं IN संश्रयन्ते सुबोधाः // 6 // सदा सौख्यख़ाने: समीहा जनानां, यका स्याद्गतान्ता गताबाधषार्ता / / यथेष्टा न चोना न चान्या श्रुतात् सा, बुधैः संश्रितं तत् स्तुयात्को न विज्ञः // 7 // क्षेत्रस्य कालस्य P. AcGunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 54 // LI भवस्य भाव-व्रजस्य तीर्थस्य जिनस्य चान्तरे / गणस्य जातेऽपि न चान्तरेच्छूतं, ततस्तदाप्नोति समग्रआगमो. S] पूज्यताम् // 8 // पयोविहीनं न सरो विभाति, सरोविहीनं नगरं न चापि / जनेन हीनो नगरो / श्रुतस्तुतिः / द्धारककृति- जगत्यां; वृत्तेन हीनं श्रुतमेवमिद्धम् // 9 // पर शतैर्वादिवजैरधृष्यं, तीर्थ जिनानां विजयाय जातं / सन्दोहे यच्छुद्धवृत्ताङ्कितमेकमाण्य, नरामरेशोऽपि तदाऽप्य मोघाः // 10 // प्रमेयवृन्देन मतान्तराणां, प्रामाण्यः स वृत्तिस्तु जिनेश्वराणां / प्रमेयवृन्दस्य विदा ततस्तां, सिद्धां नतोऽहं प्रयतो विदन्तु तत् // 11 // अध्यक्षमेतत् प्रतिपक्षिणां ब्रुवे, वचः सघण्टारवमुच्चकैर्ननु / श्रुतस्य साम्राज्यमिदं वरेण्यं, शिवस्य / / चारित्रमनंह उद्धतम् // 12 // जगत्यशेषाणि मतान्तराणि, स्वकीयराद्धान्तहताहतानि / द्रव्यादिसंयोग- | युजा जिनेश-वचोऽमृतेनोच्छ्वसनानि जग्मुः // 13 // त्रिकाले जिनेशा यतो लब्धभावाः, श्रुताद् द्वादशाङ्गात् क्रियोद्दिष्टरूपात् / श्रुतं सच्चरित्रं जगत्यां तदादि, मतं जैनमेतन्नतोऽहं प्रयत्नात् // 14 // अद्रोहबुद्धिजगतीतले या, सर्वासुमत्सौख्यनिधानमेषा / सत्यं श्रुतं तन् नियता समृद्धिः, सत्संयमाद् यत् स च जैनशास्त्रम् // 15 // नमन्ति देवा असुरां मनुष्याः, स्व कांस्स्वकान् देवमुखाभितान्तं / सद्भावनातस्तु श्रुतं सदा ते, चारित्रयुक्तं नमतादरात् तत् // 16 // पृथ्व्यादयो यत् समभावसंस्थास्तत्स्फूर्जितं धर्ममहीशतत्त्वम्। सत्संयमे तत समवेक्ष्य भव्याः, सदाहताः सञ्चरणे श्रुते तत् // 17 // अज्ञातभावा न समस्तभावाः, स्थिताः स्वरूपेऽपि हिताय पुंसां / युनक्ति तांस्तत्र श्रुतं सुवृत्तं, तत्सत्यमेतअगदत्र वृत्तम् // 18 // अज्ञानभावादपि पापंभावो, युतोऽपि पुण्येन भवाब्धिभावी / न निर्जरायुक् गतबन्धभावः, श्रुतात्तु तत्तद् ध्रुवमेवमेतत् // 19 // वृत्त श्रुतात् श्रुतं बोधाद् , बोधः सद्दर्शनाश्रितः। इष्टा वृद्धिरतो विज्ञैः, श्रुतवदर्शने सदा // 20 // यद्यपि शास्त्रे ज्ञानाभिधाभिधानं तथापि तन्नाम / / RAPARACET // 54 // IMPP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Tu Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमी द्धारककृतिसन्दोहे // 55 // श्रतस्य तत्तद्भगवत्तदर्चनाद्यादरो रूढः // 21 // अर्हन् पूज्यो ज्ञानात् स भववियोगाच्च सिद्धभगवन्तः। शानभेदआर्याद्याः सच्चरणात्तदत्र भगवच्छुतं लोके // 22 // शासनाधीश्वराः शक्रस्तवाद्यैः तद्विधाः परे / लोकोद्योतेन KI : षोडशिका तु स्तुत्याः, परमेतेन शासनम् // 23 // वर्धापकानां क्रियते समर्चा, वर्धाप्यमाहात्म्यमवेक्ष्य विज्ञैः। श्रुतस्य रक्षा विधिबद्धलक्षा, जैनैः सदाय॑न्त इतोऽमरेशाः // 24 // इदं शास्त्रं भव्यैः / / शिवगतिपथाबद्धहृदय-रनन्यत् संचिन्त्यं नहि सुलभमेतद्भवजले / कुतीराक्रान्ते विपुलतरपुण्यैरधिगतं समाराध्यैतद्भो! व्रजत सततानन्दपदवीम् // 25 // इतिश्रुतस्तुतिः।। ... ... .. ... " ज्ञानभेदषोडाशिका (19) भेदा ज्ञानस्य पञ्चामी. मत्याद्या ये श्रुते मताः / किमात्मानन्तरपरम्परागमविभेदतः // 1 // मत्यादीनां स्वरूपं यज्ज्ञायते केवलेन तत् / भेदोऽपरस्माद् व्यावृत्तिः, सा रूपं नहि वस्तुनः // 2 // न चासन् | ज्ञायते तस्मान् , नार्हा प्रज्ञाप्तताभिदि / आत्मागमस्याभावेन, नेतरौ सङ्गतौ पुनः॥३॥ सत्यं परं पदार्थाः. स्वस्वरूपेण समे भुवि / वर्तन्ते स्वस्वरूपं चानुवृत्तिव्यावृत्तिद्वयम् // 4 // यद्वद् घटो घटत्वेन, पराभावेन वर्तते / तथा न चेत्परत्वाप्तिदुर्वारा सर्ववस्तुषु // 5 // परवस्तुविनिवृत्तं, रूपं वस्तुनि तत्समं / भावाभावस्वरूपाढ्य, वस्तु प्राज्ञैर्मतं समम् // 6 // पटायभावरूपं चेन्न घटाद्यं तदा तकत् / अभावाभावरूपत्वात् , पररूपं समाश्रयेत् // 7 // भावाभावोभयात्मत्वात्, स्यात्सामान्यं विशेषयुक् / सर्वत्र गमभेदाद्या, बाधका नहि तत्त्वतः / 1 तखतः / // 55 // // 8 // विश्वकर्तृत्ववादेन, वस्त्वेकं कल्पभेदतः। अमिताश्च मताः कल्पा, मन्वन्तरादिवाक्यतः / / 9 / / प्रत्यंशं II IP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak T2 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्वारककृतिसन्दोहे वस्तुनि स्वांशे, स्वरूपमंशभेदतः / ततोऽनुवृत्तिः सर्वत्र, सामान्यस्य बुधैर्मता // 10 // सर्वगं वस्तुरूपं तत्सा- II मान्यं स विशेषकम् / ज्ञानदर्शनयुग्मं तत् , केवलं सर्वगोचरम् // 11 // ज्ञानेषु तु भिदः सर्वसंसायसुमतां I किल / इन्द्रियानिन्द्रियोत्थानं, ज्ञानं तन्मतिसज्ञितम् // 12 // श्रुतं सर्वज्ञवाक्याद्यदात्माद्यर्था अतीन्द्रियाः। अनुगाश्रुत्वा मता न तत्रान्यत् , प्रामाण्यस्य नियामकम् // 13 // जगद्व्यवहृतेर्येऽर्था, योग्या मूर्त्तत्वधारिणः / तान् मुकावधिः सर्वान् विषयीकुर्वस्तृतीयमवधिः पुनः // 14 // व्यवहारादहिस्साये, मोक्षमा कमानसाः। विदन्ति परचित्तानि, तन्मनोज्ञानमुच्यते // 15 // द्रव्यक्षेत्रकालभावान् , समस्तान् वेदितुं क्षमं / तत्पूर्ण केवलज्ञान, ज्ञानेऽतो भित्तदाश्रिता // 16 // तदेवं पञ्च ज्ञानानि, स्वरूपेण निमालयन् / सर्वज्ञः पञ्चधा ज्ञानमाख्यदानन्ददं नृणाम् // 17 // इतिज्ञानभेदषोडशिका॥ 330 अनानुगामुकावधिः (20) आदिष्टं कोविदैनि-मनानुगामुकं श्रुते / अवधेः षट्सु भेदेषु, तत्किं रूपं निवेद्यताम् 1 // 1 // | यतोऽत्र कल्पनायुग्मं, बुद्धिगम्यं नृणां भवेत् / बोधेल्पकाश्यक्षेत्रस्थ, उत्पत्तिक्षेत्रगोऽथवा // 2 // शृणु भव्य / यथा सूत्रे, निर्दिष्टं नन्दिनामके / अनानुगामुकाख्याने, देववाचकसरिभिः // 3 // अग्नेः स्थानाद्भमन् दिक्षु, परितो वीक्षते तकत् / यथा तथोद्भवेज्ज्ञानं, यत्र तत्र समीक्षते // 4 // अन्यत्र नेक्षते ज्ञात्ताऽनानुगामुकभेदवान् / एवं चोद्भासनीयस्थोऽवैति ज्ञेयमिति स्थितिः // 5 // ननु यत्रोद्भवेज्ज्ञानं, तंत्रावैति नरः सकः / इति वाक्याद्भवेत्क्षेत्रमुत्पत्तेज्ञप्तिकारणम् // 6 // नैवं प्रकाश्यक्षेत्रस्थो, लभतेऽवधिज्ञानतः / P. Ac Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak True I ! Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञप्तपदद्वात्रिंशिका आगमो | इति चेत्परितो भ्रम्यनित्युक्तं किं नु विस्मृतम् ॥७॥"भाष्यकारोऽप्युवाचैव-मनानुगामिकोदितौ / परद्वारककृति शान्वेति तद्वन्तं, न यथा स्थितदीपकः // 8 // तथा च गत्यभावे तदेवमुत्पत्तिपक्षगं / सूत्रं चेत्तन्न पूर्वोक्तसन्दोहे त वैपरीत्यं यतो नहि // 9 // पूर्व युद्भास्यभूभागाच्च्युतौ ज्ञानक्षतिर्नहि / आनुगामुकरूपोक्ती, निर्णीतमित्यदो नैवम् / किन्तु व्याख्यानुगं तथा // 10 // वाचकास्तु यदाचख्युः. प्रश्नादेशपुरुषगं / ज्ञानं तथा नानुगामि, ज्ञानं ज्ञेयं विपश्चिता // 11 // तथा चोत्पत्तिक्षेत्रस्थो, यावज्ज्ञानगुणान्वितः / तावदेव ततः क्षेत्राच्च्युतस्य तन्न सम्भवेत् / / 12 // पुनस्तत्रागतो वेत्ति, तावद् द्रव्यादिकं नरः। तथा चावरणीयानां, कर्मणां क्षेत्रतः 'क्षितिः // 13 // तदेवमुभयं सम्यक् , प्रधार्य धीधनैर्मतं / यतोऽय॑तमवाण्या, न धार्या वितथता मनाक् // 14 // इति अनानुगामुकावधिः / / - - -- -- प्रज्ञप्तपदद्वात्रिंशिका (21) - सूत्रेष्वाम्नायते विज्ञैः, प्रज्ञसं पदमादितः। तस्यार्थो विविधैर्विद्भिः, किं भिन्नत्वेन कथ्यते // 15 // लौकिकेषु पदार्थासां, चतुर्धा :साधनं मतं / प्रत्यक्षेणानुमानेनोपमानेनागमेन च // 2 // यदा तवागमज्ञाता, साध्यन्तेऽस्तिदा पुरः / श्रोतृणां ख्यायते प्राज्ञैः, कथ्यन्ते ये प्ररूपिताः // 3 // आप्तोषज्ञत्वसूचाय, प्रशसेत्यब्रवीद् गुरुः। आगमा हि पराधीनवाक्यव्याख्यार्थगाः समे // 4 // आगमो ह्याप्तक्चनमित्येतद् ध्वन्यतेमुना। प्रेज्ञप्तेन विकल्पोत्यं, नैतद् व्याख्यानमीयते // 5 // निशामनेपि हस्वः स्याद्', निशाने णिति प्रत्यये। तथा | यथा ज्ञपेस्तेन, प्रज्ञप्तं कथितार्थकम् / / 6 / आगमानग्रतः कृत्य, लोके।ये स्युः प्रकस्थकाः / नातीन्द्रियार्थ 2.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I प्रक्षप्तपद आगमोद्धारककृतिसन्दोहे // 58 // वेत्तारः, प्रज्ञप्तमित्यवादिषुः // 7 // अतथ्यानाममूलानामर्थानां प्रतिपादने / असत्यश्रम्भसंसृत्यै, प्रज्ञप्तेति वचो I धृतम् // 8 // अप्रज्ञप्ते स्वयं क्लुप्तेऽप्यर्थे लोकमतीतये। प्रज्ञप्तमित्यवादिषुस्ते, भवभ्रान्तेरभीलुकाः // 9 // जैन मतं न कोप्यस्तीश्वरो विश्वविधायकः। न चैक एव सर्वज्ञस्तत्प्रज्ञप्तं न तत्परम् // 10 // विश्वस्यानादितोऽनन्ता, अतीते ईश्वराः पुनः / अनागतेप्यनन्तास्ते, विश्वस्यानाशिता यतः // 11 // विश्वे जीवादयो नित्या, येा आगमनोदिताः / जीवाजीवाश्रवबन्धसंवरा निर्जराऽव्ययम् ॥१२॥ज्ञानरूपोऽयमात्मा तत्क्षिप्त्वा' कर्माणि संवृतेः। प्राप्य केवलमर्थांस्तान् , सर्वज्ञो देशयेजनान् // 13 // पारम्पर्येण तीर्थेशा, आगमांश्च परस्परं / हेतुकार्यत्वमाश्रित्यानादितो भुवि जज्ञिरे // 14 // यदा ते गणभृद्भर्यानाश्रित्योचुर्विभावने / 'पनत्त'मिति तत्रेषोऽर्थों बधैरवधार्यते // 15 // ज्ञानं पञ्चविध तत्र. प्रकां केवलं मतं / सत्र प्रज्ञा तयेमेऽर्था. ज्ञाता IN युष्मान् ब्रवीम्यहम् // 16 // अत एवोच्यते शास्त्रेऽखिलानर्थान् जिनो विदन् / प्रज्ञापनीयान् गणिनोऑन , यतो वदति तच्छ्रतम् // 17 // आत्मागमत्वसूचायै, जिनः प्रज्ञाप्तमित्यवक् / अनन्ताः कालभेदेन, तथाप्येका प्ररूपणा // 18 // यतो ज्ञानं समस्तार्थ, जीवाद्याः शाश्वताः पुनः। न कालजीवभेदेन, द्वादशाङ्गयां विभिन्नता // 19 // स्वयम्बुद्धादिभिश्चात्र, प्राक् तीर्थे जिनभाषितं / उच्यते लब्धमित्येते, प्रज्ञप्तं प्राग जिनैर्जगुः // 20 // जातिस्मृत्यादिका प्रज्ञा, तयाप्तमिति कथ्यते / तैस्ततोऽतीततीर्थेशाख्यातमित्यवधार्यते // 21 // जिनोक्तानखिलानर्थान् , ज्ञात्वा ज्ञानचतुष्टयीं। दधानाः परमां शिष्यानूचुर्गणभृतस्त्विदम // 22 // गणभृनामकर्मोत्थामर्हद्वाण्युद्भवां पुनः। प्रकृष्टामाप यां प्रज्ञां, तयाऽऽप्तं जिनसाधितम् // 23 // अनन्तरागमार्थोऽयमागमो गणभृद्वजे / ततस्तत्सूचनायै तत् , प्रज्ञाऽऽसमिति कथ्यते // 24 // छद्मस्था वा समे जीवा, ज्ञानमन्वहमाश्रिताः। आन्तर्मुहूर्तिकं यस्मानोपयोगों लघुस्ततः // 25 // अईन्नेवानुसमयं, ज्ञानं दर्शनसंयुतं / दधाति सर्वदा प्राज्ञस्ततोऽर्हनेव नापरः // 26 // - - -- : // 58 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोतस्मात्माशाच्च जीवाद्या, अर्था आप्ता मया इमे / तान प्राज्ञाप्तान हुवे युष्मानित्यनन्तर आगमः // 27 // अनुयोगद्वारककृति प्रतिसत्रमतः प्रोक्तं, श्रुतमायुष्मता मया। भगवताऽऽख्यातमित्येतदादौ स्पष्टतमं वचः // 28 // मयोक्तमेत- 1 पृथक्त्वम् सन्दोहे दखिल-महंदुक्तं न चान्यथा / इति ज्ञापयितुं प्रान्त्य, 'इति बेमी' त्युवाच सः // 29 // ज्ञापयत्येवमाख्यान् , सोऽनन्तरागमसंविदम् / अनुवादपरः शेषः, स्यात्परम्पर आगमः // 30 // यावत्तीथं तृतीयोऽसौ, यन्त्र तीर्थ विनाऽऽगमान् / न सर्वज्ञान गणेशांश्च, विना जैनागमाः पुनः // 31 // तदागमानां त्रितयमेवमाश्रित्य धीधनैः। प्रजप्तपदतात्पर्य, ध्येयमानन्दसिद्धये, // 32 // इति प्रज्ञप्तपदद्वात्रिंशिका // अनुयोगपृथक्त्वम् (22) ननु इतरदर्शनेभ्यो जिनदर्शनस्य को विशेषो व्यापक ? इति / . इतराणि दर्शनान्येकैकनयानुगतानि, जैनं तु दर्शनं सर्वनयसमूहात्मकस्याद्वादानुगतमिति / अत एव 'अन्याऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावादिति श्रीहेमचन्द्राः, 'सुनिश्चितं नः परतन्त्रयुक्तिष्वि'त्यादि श्रीसिद्धसेनदिवाकरपादाः, - 'सव्वष्पवायमूलं-तो सव्वं सुंदरं तंमित्ति श्रीहरिभद्रसूरिपादाश्चख्युः। ननु. सर्वनयसमूहात्मकस्याद्वादमयं जैनं शासनं, : एककनयप्रधानानि चेतरशासनानीत्यत्र किमितरदर्शन: साधितान् पृथग्नयानेकीकृत्य स्याद्वादो निरूपित ? उत सर्वनयात्मकात् स्याद्वादात्तानि पृथग्भूतानीतिः / . PS आधे, उदधाविव सर्वसिन्धवः, समुदीर्णास्त्वयि नाथ ! दृष्टय'इति श्रीसिद्धसेनदिवाकरवाक्यस्यानुकूल्ये- // 59 // | ऽपि 'सव्वसुयाणं पभवो'च्यादिनन्दीवाक्यस्य 'सव्वापवायमूल'मित्याद्युपदेशपदीयवाक्यस्य 'कुधर्मादिनिमित्तत्वा P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R अनुयोग आगमाद्वारककृति पृथक्त्वम् सन्दोहे - zट दि'त्याद्यष्टकवाक्यस्य च का गतिः, परस्मिन् नन्यादिवाक्यानुकूल्येऽपि श्रीसिद्धसेनवाक्यस्य का गतिरिति / .. जैन हि. दर्शनं सर्ववित्प्रणीतं, 'सर्वविदेव चात्माद्यतीन्द्रियपदार्थानां साक्षात्कर्ता, सर्वविच्चावश्यः क्षीणदोषः, तत एव स यथाज्ञातानेवात्मादिपदार्थान् देशयेत् , अनन्तधर्मात्मकाच ते इति . सर्वनयसमूहात्मकस्य स्याद्वादस्यैवादितो देशना / परदर्शनकारास्तु वीतरागसर्वज्ञत्वाभावादनुकरणेनात्मादिपदार्थान् ब्रयः, साक्षात्काराभावादनुकरणेनापि निरूपणेन मिथ्यात्वोदयेनैकधर्ममाश्रित्य निरूपणात पराण्ये| ककनयप्रधानानि / प्रतिविम्बानां समाहारो न देवदत्तः किन्तु देवदत्तपृथक्पृथगवस्थादि, दर्शनानि प्रतिबिम्बानीति। श्रीसिद्धिसेनदिवाकरास्तु स्वस्वदर्शनानुरक्तपरीक्षकपरिषदमुद्दिश्यैवमाहुः / यदुत:पृथक् पृथग्मतमन्तव्यानि सर्वाणि “सन्त्येव जिनशासने, परं जिनशासनमन्तव्यं अनन्तधर्मात्मकपदार्थप्रतीतिरूपं तु न क्वाप्यन्यत्रेति. विहायेतराणि जैनमेवाश्रयणीयमिति विक्षेपणीकथावन्नेयमिति / बौद्धा A हि पर्यायवादमाश्रिताः, न च पर्यायज्ञानं पर्यायिज्ञानाभावे, धर्मिज्ञानाभावे धर्मज्ञानस्य निराश्रयत्वात् / न च धर्मसमुदायों धर्मी, गुगगुणिनोः सर्वथैक्याभावात् शिविकावहनवत् / अवयवसमुहोऽपि पृथक् चेन्नावयविकार्यकृत् , तहि धर्मसमुदायोऽपि कार्यकृत् न स्यात् / तथा अवस्थामन्तरेणावस्था (वा) पदार्य इति न साङ्ख्यानां द्रव्यैकान्ततापि कान्ता, उभये च द्रव्यपर्यायपदार्थाश्रिताः, तथावादी चादित एव सर्वविद्। | नैयायिकास्तु 'इंन्द्रियार्थसन्निकर्षे'त्यादि वदन्तः प्ररूपणीयानेवाङ्गीचक्रुः, न सर्वविदं वीतराग तत्वतः प्ररूपकं, 'न चात्मादीनि तमन्तरा साक्षाद्वानि, न च तेषामन्तराऽध्यक्षमनुमानं / वैशेषिकास्तु तद्विशेषा इति | "तन्मतमेव संश्चक्रुः / मीमांसका अपि' स्वर्गफलकानुष्ठानपरायणाः। अतीन्द्रियार्थद्रष्ट्रमांवे च कथमंतीन्द्रि| “यस्वर्गस्वर्गिज्ञानं 1, कथं चोत्पाद्योत्पादकभावज्ञानमित्यवश्यं तन्मतमपि सर्वशशाब्दमूलं / किञ्च-ऋषभमेरी Jun Gun Aaradhak DPP.AC.Gunratnasuri M.S. KI Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमीद्वारककृतिसन्दोहे // 61 // चिकपिलासुरिसाङ्ख्ययोगाः पूर्वपूर्वमूला इति विदितचरं विदुषां / नास्तिकस्त्वात्मपरलोकायपलापमूलः, अनुयोगअपलापश्च प्रसिद्धिपूर्वकः, सा चैतेषां सर्ववित्प्ररूपणामूलेत्यपरेषां दर्शनानां जिनोक्तद्वादशाङ्गमूलत्वं प्रतिप- HI पृथक्त्वम् द्यमाना अपि स्याद्वादं तत्प्ररूपकांश्चैकैकार्थापलापिनो देशनिवाः। .. सत्यपि तीर्थे सूत्रोच्छेदवादिनः सर्वनिह्नवाश्च द्वादशाङ्गार्थप्रभवा इति सुगममेवावसातुमिति / ननु नामादिद्रव्यादिज्ञानादिनैगमादिविविधनयवरूपं स्याद्वादात्मकं च जैनशास्त्रं चेन्नयानां क्वावकाश ? इति / / ... जैनो हि धर्मो द्वथात्मकः, श्रुतं चारित्रं च / श्रुते व्याख्येयं व्याख्यानं च, व्याख्येयं व्याख्यानतात्पर्यकं, तत एव विवक्षाया अवगमात् / व्याख्यानं च परैः केवलसंहितादिभेदमिष्टं। जैनः / अनुगमे तत्तथेष्टमपि सूत्रानुकूलार्थयोजनात्मकेऽनुयोगे तु उपक्रमनिक्षेपानुगमनयरूपमिष्टमिति प्रतिशास्त्रश्रुतस्कन्धाध्ययनोद्देशालापकसूत्राणि नयानां विचारणापदवीयोग्यत्वं / अत एव 'नत्थि नएहि विहूणं, सूत्तं अत्यो य जिणमए किंचि'त्यविसंवायेव प्रवचनवचनम् / नन्वेवं नयानां प्रतिसूत्रार्थ व्यापकत्वे किमिति / पृथगनुयोगद्वारत्वमिति 1 / यद्यपि व्याख्यानाङ्गपरिगणनाय तव्याख्यानं पृथग्द्वारतया निर्दिष्टं तथापि व्याख्याने तु नयाः सूत्रादिना सहैव व्याख्यया भवन्ति / अत एव भाष्यकाराः-सुत्तं सुत्ताणुगमो, सुत्तालावगकओ य निक्खेवो / सुत्तष्फासियनिजुत्ति नया य संमगं तु वच्चंती'त्याहुः। . . ननु प्रतिसूत्रार्थ नयास्तहि कथमनुयोगद्वारादिषु पृथग्नयद्वारं तुर्यद्वारतया व्याख्यायते / भगवद्भ्य आर्यरक्षितेभ्यः परतः प्रतिसूत्रं तद्वयाख्यानस्यावरोधात्तथोच्यते व्याख्यायते प्रत्यध्ययन ज्ञानक्रियोभयनयव्याख्यानेन, परं सूत्राथौँ न कावपि तद्धीनी स्त इति प्रमाणद्वारे उपक्रमान्तर्गते तेषां व्याख्यानमादृतं / ततश्च सर्वेषां सूत्राणां प्रमाणपदमाप्तत्वनिर्णयस्तु तद्विचाराधीन एवं, परं दुष्षमाजीविनां Jun Gun Aaradhak Tu // 61 // SIP.AC. Gunratnasuri M.S. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेधादिहानिमवलोक्य प्रतिसूत्रं तदभिधेयं च : प्रति प्रमाणनयसिद्धयोरेव सूत्रार्थयोाख्यानमाचीर्णआगमो- मिति / न हि द्रव्यस्य निधानीकरणेऽपलापकलङ्कः, व्यवहारस्तु तत्र मुत्कलेन / अत्रापि प्रतिसूत्रं तद्वया अनुयोगद्वारककृतिख्यान निधानीकृतं, नत्वपलप्तं न वा निह्नवैरिव विपर्यासितमिति / तथा च विद्वान् कश्चित्तथाविश्वस्तथा पृथक्त्वम् सन्दोहे विधान् विदुषः श्रोतृन् प्राप्य जिनप्रवचनाव्याघातकं प्रतिसूत्रार्थ पदार्थान् वा कतिचिदाश्रित्य कुर्या बयानां व्याख्यानं, न स्युस्ते उभयेऽप्याचरणोत्थापकाः सूत्रोत्तीर्णवादिन इति / ननु अतिसूत्रार्थ नयव्याख्यानं // 62 // कुर्वद्भिर्भगवद्भिरार्यरक्षितैः पाश्चात्यानां मेधादिहानि भगवन्तं तथाविधानुपमधृतिसम्पन्नमपि मोमुद्यमान दुर्बलिकापुष्पमित्रं दृष्ट्वा प्रमाणद्वारे नयव्याख्यानं निधानीकुर्वद्भिः सर्वभाषापरिणामिजिनपतिवचनरूपस्यात्मा- 7 गमस्य भगवद्भिर्गणधरैः सूत्रीकृतस्य धर्मकथागणितचरणकरणद्रव्यार्थमयस्यार्थाधिकाराः कथं पृथक्कृता इति / यथा नयगता प्रतिसूत्रार्थ विद्यमाना वक्तव्यता न्यासीकृता तथैव मेधादिहानिमपेक्ष्यानुयोगापरपर्याया अर्थाधिकारा अपि पृथकृत्वैकैक : सरलमार्गः प्रवृत्तिपदवीमासादितः, शेषास्त्रयस्तु निधानीD कृताः,। प्रतिसूत्रार्थ नयवक्तव्यतावत् प्रतिसूत्रार्थमनुयोगचतुष्टयवक्तव्यताया अपि मन्दमेधोभिर्धारयितुं दुष्क रत्वात नयवक्तव्यतानिरूपणेन विनाऽनुयोगसमुदायस्य निरूपयितमशक्यत्वाच्च / तत एव सूरीन्द्रैः प्रतिसूत्रार्थ नयानां वक्तव्यता शेषानुयोगत्रयस्य च वक्तव्यता इत्युभयमपि न्यासीकृतमिति / सर्वमिदमावश्यकनियुक्त्यायनुसारेणोहितुं सुशकमिति / ननु नियुक्तिरावश्यकस्य कैः कदा च कृता ?, आचार्या आर्यरक्षिताः कदा जाताः ? इति / THI आवश्यकादिदशसूत्र्या नियुक्तिर्भगवद्भिः भद्रबाहुस्वामिभिः श्रुतकेवलिभिः कृता / तेषां च II 62 // सत्तासमयो वीरभगवतो द्वितीयशताब्दीरूपः। भगवन्त आर्यरक्षिताच श्रीवीरप्रभोः षष्ठयां शताब्यांव TOPP.AC.'Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak True Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमी द्धारककृति सन्दोहे // 63 // जाताः / न च वाच्यमाश्चर्यमिदं यद्-द्वितीयशताब्दीजाताः षष्ठशताब्दीजातानामितिहोल्लेखका इति / न च KI श्रुतकेवलित्वेनातीन्द्रियार्थद्रष्टुत्वान्नासम्भवीदमिति. यतो नियुक्तिषु पाश्चात्यश्रुतधराणां स्वस्य श्रीभद्रबाहोरपि 1 अनुयोग च नमस्कारो दृश्यते इति / शृणु, काचन नियुक्तयो भाष्यमिश्रिता अपि नियुक्तित्वेन व्यवहि- पृथक्त्वम् यन्ते, काश्चन भाष्यबाहुल्यात् भाष्यत्वेन। अत्र क्रमेणावश्यकाचारप्रकल्पभाष्ये उदाहर्तुं शक्यते / भाष्याणि च पाश्चात्यानीति निर्विवादं / वस्तुतस्तु वर्तमानोऽनुयोगः श्रीस्कन्दिलाचार्यपादैः प्रवर्तित इति नन्दीसूत्रगतावलिकावाक्यं शरणं / तथा च सूत्रनियुक्तिभाव्यपाठेषु सुकरं समाधानमिति / भगवतां श्रीआर्यरक्षितानामिति बहुन्यद्धृतानि-प्रथममतिलघुवयस्कस्य चर्तुदशविद्यास्थानपारगामित्वं. ताहकत्वेन राजमान्यकुलत्वेन च महा राजकृतो नगरप्रवेशः, प्राभृतप्रचर्यगृहपूतिः, मातुः सन्तोषायैव चिराय गृहागतेनापि प्रस्थानं, तदादिष्टाध्ययनायाज्ञातश्रावकाचारेण ढड्ढरश्रावकाचीर्णश्रावकाचारस्यानुकरणं प्रव्रजनं च शैक्षनिष्फेटिकयाऽपि, पूर्वाण्यधिजिगमिषुणापि निर्यामणार्थ विलम्बन, विद्यां जिघृ- I क्षुणाऽपि आचार्योपाश्रयात् पृथगुपाश्रयेऽवस्थानं, आह्वानायागतस्यापि भ्रातुः प्रजाजन, समस्तकुटुम्ब- II दीक्षणं, सच्छत्रकसकच्छधौतिकस्यापि वृद्धपितुर्दीक्षणं, कलया तन्मोचनमपि, वृद्धस्याऽपि पितुः भिक्षाचयायै अवतारणं, कालिकादिश्रुतमूढनयत्वकरणं, अनुयोगविभागेन सूत्राणामवस्थापनं क्रमशो विहितानि। खयं परलोकमलकुर्वाणेष्वपि भगवत्सु भगवद्वज्रस्वामिनि दशानां पूर्वाणां तुर्यसंहननस्य यथा व्युच्छेदस्तथा / किश्चिन्न व्युच्छिन्नं / परं तत्रभवच्छिष्येण गोष्ठामाहिलेन निवायितमिति / ननु त एवैते आयरक्षिता ये कल्पकिरणावलीकारेणार्यरक्षतयाख्याता अन्ये वेति / तदुदितचरित्रा एवामी, केवलमार्यरक्षत्वेनाख्याता इति तु मुग्धमोहनमेव, तत्रैव त्रिषु आर्यरक्षित WAP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trusha Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो द्वारककृतिसन्दोहे // 64 // Parama नाम्नैव व्यवहारात् , सत्यपि आर्यरथशिष्यत्वप्रसङ्गे तोसलिपुत्राचार्य शिष्यतयैव भणनात् भद्रगुप्ताचार्य- ASI निर्यामणायाः श्रीवज्रस्वामिनः पार्श्वेऽध्ययनस्य च भणनात् श्रीभद्रगुप्तवज्रस्वामिभ्यां समानकालभावित्वस्य निषद्या स्पष्टं ज्ञापनात् , केवलं वज्रस्वामिवृत्तान्तस्यासन्नत्वात् श्रीवज्रस्वाम्यार्यरक्षितानां सम्बन्धस्य दृढरूढत्वात् l विचार: | तदनन्तरं तद्वृत्तमाख्यातं स्मारितं बहुसमाभिधानेमार्यरक्षनाम्ना / अनाभोगविलसितं तदाख्यानं चेदभविष्यत् निरदेक्ष्यदायरक्षनाम्ना आर्यस्थशिष्यत्वेन चेति / .... - किञ्च-तत्रोपसंहारोऽपि इत्यार्यरक्षितस्वरूपमित्येव कृतः, न तु इत्यार्यरक्षस्वरूपमिति। कल्पान्तर्वाच्ये 53 श्रीवज्रस्वामिनि दशमं पूर्व तूर्य संहननं च व्युच्छिन्नं / 46 इतिश्रीवज्रस्वामिसम्बन्धः। आर्यरक्षितसम्बन्धश्चायम् ॥अपूर्ण / इति अनुयोगपृथक्त्वम् // . निषद्याविचारः (23) / निषद्याया विचारोऽथ, क्रियते बालबुद्धिना / प्रसिद्धिर्यनिषद्याया, जैने सार्वत्रिकी खलु // 2 // का शब्दार्थोन चेढ्या, प्रच्छनं प्रणिपत्य यत् / सर्वेषां गणधारिणां, तत् त्रिकं जिनराट पुरः॥२॥ जिनाश्च क्रमशः सर्वे, तान् वदन्तिस्म शासने / उत्पन्नं विगमं ध्रौव्यं, ततः सा त्रिपदी मता // 3 // कोट्याचार्या अतः पाहुः, स्वीयावश्यकवार्तिके / अङ्गप्रविष्टं तद्यत्स्यात्ः, त्रिपृच्छोत्थं श्रुतं समम् // 4 // एष एव च रूढोऽयः, शासने वर्ततेऽधुना / त्रिपद्युत्था ततः सर्वा, द्वादशाङ्गी प्रकीर्त्यते // 5 // आवश्यकस्य चूर्णौ तु, द्वादशाङ्गया / विधौ गणी। निषद्यात्रिक्रमादास्तायोऽन्यथा ताः परेषु तु // 6 // नन्याश्रूणौँ तु सूरीशैर्मतं भिन्नं ततो बुधैः / आसनं तु निषद्यार्थां, ज्ञायते तद्वचोगणात् // 7 // आहुस्ते गणिनः पूर्व, निषद्यामाश्रिता जगुः / / // 64 // MP.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो. द्वारककृति सन्दोहे // 5 // in एकामेकादशाङ्गानि, ततोऽर्थोज भवेत् पृथक् // 7 // चतुर्दश च पूर्वाणि, सर्वेऽपि गणधारिणः। चक्रुश्चतुर्दशैतास्तु, नित्वा शासनसम्पदे // 9 // क्रियास्त्रे च सर्वत्र, निषद्याऽऽसनवाचिका / साधुदेहं जगुः सूत्र-कारात सम्वक्त्व नैषद्यगं पुनः // 10 // निषद्याद्योतिनी चक्रे, पद्धतिमर्थसाहाम् / आनन्ददां सुसाधूनां, मोक्षमार्गकचेतसाम् षोडशिका // 11 // इति निषद्याविचारः॥ .. सम्यक्त्वषोडशिका (24) नम्यो जिनेशो यदि तत्त्वबोधो. निर्ग्रन्थ आप्यो यदि मोक्षवाञ्छा। कृपा वितीर्या यदि कर्मभीतिस्तत्त्वत्रयं धार्यमिदं सुधीभिः // 1 // शास्त्रेषु सम्यक्त्वमुदीरितं ज्ञैर्भूतार्थतत्त्वेषु रुचिनिरीहा / जीवादिषु मोज्झितसर्वदोषा, निक्षेपमानैः सनयैः प्रबन्धात् // 2 // तुर्ये घुपाङ्गे प्रथमे पदेऽदो, जगाद सल्लक्षणमाप्तवर्यः / तथोत्तराध्यायवचोऽपि मोक्ष-मार्गे स्थितं भव्यविलोकनीयम् // 3 // सत्यप्यमुष्मिन् वचने गताघे, श्रीयोगशास्त्रे प्रभुहेमसरिः / जगाद देवे सुगुरौ सुधर्मे, श्रद्धानमुग्रं किमु सदृशां तु ? // 4 // सत्यं त्वयावादि विनेयवर्य !, परं विरोधो नहि कोप्यमुष्योः / यतो भवेजीवमुखानि सम्यक्, मन्वान आईन्त्यमुखेषु मन्ता // 5 // विलोकयन्नाश्रवभारभुग्नं, देवं गुरुं धर्ममुशेन तत्वम् / चेत्संवरे निर्जरणे च मग्नं, पश्येत्कथं नैव स मन्यतेऽहम् // 6 // श्रद्धा ततो जीवमुखेषु यस्य, जायेत र तत्त्वेषु जिनोदितेषु / कथं स कुर्यात् भववापिसेतो, श्रद्धां न देवे सुगुरौ सुधर्मे 1 // 7 // ज्ञाता न चिन्तामणिंसद्गुणानां, रमेत पाषाणचयें कदापि / न षट्पदधृतरसेन पीनो, निम्ब निलीयेत. गतात्मभावः // 8 // अवेत्व जीवादिपदार्थसाथै, श्राद्धस्ततो मुश्चति दुष्टदेवान् / गुरुश्च धर्मान् भवदावली IN AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradha Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो. द्धारककृतिसन्दोहे ढान्, कूटे न कार्षापण 'आदरो विदः // 9 // आस्थाय माध्यस्थ्यमुशन् सभायां, चिन्तामणि सम्यक्त्वकाचसमानभावं / विद्वानपि प्रेक्ष्यत आदरेण, किं भाववेत्त्रोभययोर्यथाहम् 1 // 10 // जगाद वीरौं व्रत- DA धारणाया, अनुक्रमात्पञ्चकमाप्तमुख्यः / अतिक्रमाणां सुदृशस्तदादौ. शङ्कादिकान् पश्च समुदकीर्त्तयत् // 11 // |भेदविचारः विद्वजुगुप्सा विचिकित्सता वा, वज्योदिता या न सका गुरुं तु / धर्म च सत्यं निरचैषुरहे, तेषां परेषां न तु लेशतोऽपि // 12 // तथा परीहारमुदाजहार, वीरोऽन्यपाखण्डिकसंस्तवस्यः / न चाविनिश्चित्य गुरुं यथार्थ, जह्यात् सुदृष्टिस्तकमाप्तशुद्धिः // 13 // श्राद्धोऽपि चानन्द उपासकेऽङ्गे, तथा परिवाद / प्रभुरम्मडोऽपि / तत्याज मुक्त्वाहतचैत्यसाधू-नाये छुपाङ्गे परतीथिकाान् // 14 // ततश्च निश्चयमिदं सुधीभिर्जीवादितत्त्वेषु रुचिर्हि हेतुः / कार्या सुदेवव्रतिधर्मसेवा, यथार्थमेतद् द्वितयं जिनोक्तम् // 15 // सम्यक् सम्यक्त्वमालक्ष्य, शुद्ध देवे गुरौ वृषे / श्रद्धानं कार्यमानन्द-मयं येन पदं भवेत् // 16 // इतिसम्यक्त्वषोडशिका / / . सम्यक्त्वभेदविचारः (25) गुणो यथाऽऽत्मनो ज्ञानं, स्वरूपेण ततः शिवे / स्थितो भङ्गेन साधनन्ततया नित्यरूपभाक् // 1 // न तज्ज्ञेयाश्रितं ज्ञानं, ज्ञेयानां हानिवृद्धितः / विपर्यासान्न तस्य स्यात् . स्वरूपपरिवर्तनम् // 2 // नाज्ञातं तेन विश्वेऽस्ति, वस्तु किञ्चित् समन्ततः / ज्ञातं समं ततस्तेन, नेतरेतराश्रयता ततः॥३॥ अन्यथा तस्य सार्वइये, // 66 // ज्ञेयं वस्तु समं भवेत् / सिद्धे समाविस्तारे, ज्ञाते सार्वज्यमस्य तु // 4 // आत्मनी ज्ञानवन्नित्यं, गुणः सम्यक्त्वमिष्यते / चारित्रस्येव नाशोऽस्य, सिद्धत्वाप्तौ मतो नहि // // परं यथाऽऽत्मनो ज्ञानं, छामस्थ्ये वस्तुनिश्रितं / Ac Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust AR Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो. द्वारककृतिसन्दोहे // 67 // अतो निबन्ध इत्युक्तं, तत्वार्थे विषयोदितौ // 6 // तथेदमपि जीवानां, जायमानं विनाशतः। सम्यक्त्वरोध- सम्यक्त्वकानां तु, रूचिरित्यभिधां धरेत् // 7 // अत एव हि सूत्रेषु, सम्यक्त्वानां विभेदने / दशधा रुचिशब्देन भेदाः INभेदविचारः शिष्टा दशापि च // 8 // ये जिनेनाभिधीयन्ते, भावा जीवादयो नव / यथा तथैव ते सम्यग्दृशोऽमन्यन्त नान्यथा // 9 // आद्या रुचिनिसर्गाख्या, सा द्विधा यद् भवोदधौ / मरुदेव्यादिवत्केचिदन्तकृत्त्वं गता इह // 10 // केचिद्वल्कलंचीर्यादिश्राद्धबालादिसन्निभाः। पूर्व प्राप्त्वापि सम्यक्त्वं नवं प्रापुर्विना कथाम् // 11 // दीपादर्शादयो धर्था, यथा नान्यानपेक्षतेः। स्वरूपान् परं सवे, द्योतनादि व्यधुः पुनः॥१२॥ निसर्गोऽयं - तथा जीव-गुणो तो यदि सङ्गताः। जीवादयस्तदा तेषां, रुचिरत्र शुभा भवेत् // 13 // पर्याप्तिरागकायादिहीने यदर्शनं भवेत / रूपं तज्जीवगं नित्यं, परत्र रुचिरीयते ॥१४॥सरागाणां यथा धर्मः, श्रोतृणां श्रुतसंश्रितः। न धर्मः श्रुतबाधायां, तेषां तत्ते श्रुतं श्रिताः // 15 // असङ्गं यदनुष्ठानं, चारित्रं यदरागजं। न तत्राज्ञानिबन्धोऽस्ति, पश्यतां नास्ति देशकः // 16 // उपदेशरुचिमुख्याः , शेषा भेदा नवाब ये / ते सर्वे नियमात् तत्ववृन्दे. श्रद्धां दधुर्बुवम् // 17 // श्रीपुण्डरीकगण्याद्या, जिनोक्तेषु रुचिं दधुः / जीवादिषु तथाभूता, उपदेशरुचौ मताः / // 18 // श्रीश्रेणिकमुखाः श्राद्धा, वचः श्रुत्वाऽऽहंतं पुनः / अविचार्यैव मन्यन्त, आज्ञायां ते रुचिं व्यधुः // 19 // दाहायाभय आदिष्टो, येनाशक्य शीलव्ययं / चेल्लनीया वचो मत्वाऽऽर्हतं तं यन्यवारयत् // 20 // अधीयानाः श्रतान्येके, सदृशं त्वनुलेभिरे। अतः शस्त्रपरिज्ञायामुत्क्रमः कायगो मतः // 21 // स्पृष्टं श्रृंत मतं सर्वैन च सर्वेऽपि सदृशः। मिथ्यादृशां ततो दत्ते, व्रतं मार्गप्रवेशकृत् / / 22 / / अतः कन्याविवाहस्यातिचारोऽणुव्रते मतः। परःसहस्रसाधूनां, सूत्रात् सम्यक्त्वसम्भवः // 23 // उत्पत्तिव्ययनित्यात्म-पदत्रयमुदाहृतं / सर्वज्ञेन समाक`शेषं विरचितं श्रुतम् // 24 // गणधारिभिः समग्रै-स्तत्ते सर्वे न कि मताः / वीजरुचय IRAc. Gunratnasuri M.S. ! Jun Gun Aaradhak Trust Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो | सम्यक्त्व. भेदाः द्वारककृतिसन्दोहे आतैस्तद्वदन्येपि भवाश्रिताः // 25 // युग्मम् // श्रीगौतमगणेशोऽग्रे, जिनस्यागाद् बुभुत्सया / जाते चाभिगमे बुद्धः, प्राब्राजीच क्षणान पुनः॥२६॥ परेऽपि तादृशा जीवा. रुचिं ये दधुराहतीं / अभिगम्य परं नत्वं, तेऽपि च स्युस्तथाविधाः // 27 // आचार्येण नवाः श्राद्धाः, सुबुद्ध्यायाः कृताः पुरा। सुहस्तिना समाख्याय, विस्तराजिनशासनम् // 28 // परे तथाविधा ये स्युः, श्राद्धाद्यास्तेज सम्मताः / विस्ताररुचयो येन, बुद्धाः श्रुत्वा बहुश्रुतम् // 29 // श्राद्धः पतिः सुभद्राया, यथाऽचर्य व्रतोचयं / क्रियया प्रतिबुद्धः सन् , प्राप्तः सदृष्टिमुतमाम् // 30 // शान्ति विवेकसहितां, संवरं च यथाऽबुधत् / चिलातिः स्वातिदत्तश्च, सूक्ष्मादिश्रवणात् पुनः // 31 // एक इत्यादिवाक्यानां, विप्रो बुद्धस्तु सोमिलः / श्रुतेस्तद्वत्परे जीवाः, भवेयुः सूक्ष्मरुचयः // 32 // गोविन्दवाचकाद्या ये. पराजित्य व्रतं ललुः / पश्चादधीत्य षट्काय-धर्मदर्शकमागमम् // 33 // आर्हन्तं सत्यमाश्रित्य, ततः सम्यग्दृशोऽभवन् / तादृशा धर्मरुचयो, जीवा अत्र समीरिताः॥३४॥ यथा काचादिसंसर्गात, प्रकाशस्य भिदा भवेत् / दृष्टृणां ज्योतिषो नैव, स्थानाच्चात्र गुणे भिदा // 35 // एते भेदा निसर्गाद्या, दशोक्ता रुचिभेदतः। प्रतिबन्धविनाशस्य वैचित्र्यं नात्र लेशतः // 36 // प्रतिबन्धविनाशस्य, वैचित्र्यात् त्रिविधं मतं / क्षायिकादिविभेदं तु, सम्यक्त्वं श्रुतसागरे // 37 // कारकाद्या मेदा, विशेषावश्यके श्रुते / अनुष्ठ अनपातभिदैते स्युः, न परं तुचभेदतः // 38 // नि // 38 // निश्चयव्यवहाराभ्यां, द्रव्यतो भावतोपि च / ये भेदास्ते ज्ञेयकर्तृ-वैशिष्टथमेक्ष्य सम्मताः // 39 // इति सम्यक्त्वभेदविचारः / / - सम्यक्त्वभेदाः (26) अभिनम्य जिनेशाळि, भवाब्धौ पोतवद्धितम् / सम्यक्त्वे निर्णयं वक्ष्ये, मेदेषु स्वान्यबुद्धये // 1 // // 68 // Jun Gun Aaradhak Trust HIAC.Gunratnasuri M.S. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व भेदाः यस्मिन् लब्धे भवोऽपार्ध-पुद्गलावर्त्ततोऽधिकः / नियतं न भवेत्तस्मै, को न श्लाघेत धीधनः // 2 // अनन्तशोऽधिआगमी जग्मेऽयं, जीवश्वास्त्रिपालनम् , / ज्ञानं च दशपूर्वान्तं, न च ती! भवार्णवात् // 3 // व्यवहारगतान् जीवानाद्धारककृति- श्रित्योक्तो जिनागमे / ग्रैवेयकेधूपपातो, न तज्ज्ञानव्रते विना // 4 // निरुद्धा दुर्गतिर्दत्तं, ताभ्यां पौद्गलिकं सन्दोहे सुखम् / यद्यपीह परं लब्धं, नर्ते सम्यक्त्वमव्ययम् // 5 // व्रतं ज्ञानं च किं नेषां, मा ब्रवीर्मोक्षसाधकम् ? / मोक्ष | बीज तु सम्यक्त्वं, न वृक्षो बीजमन्तरा // 6 // आसन्नं ग्रन्थिदेशस्यानन्तकृत्वः समागताः। भवसिद्धिकजीवा न, परं सम्यक्त्वमाश्रिताः // 7 // पुरोऽभ्यर्णे समायातो-ऽनन्तशोपि नरो ध्रुवम् / लभते न नराधीशा-स्थानसंसत्सुखं पुनः // 8 // तस्याभूत्कर्मणो हासो, ग्रन्थिकस्येभधूलिवत् / ततोऽव्याघक्षयप्राप्यं, नापत् सम्यक्त्वसनिधिम् // 9 // अनूनोच्छलितात्मीय-वीर्यो ग्रन्थिविभेदनं / कृत्वा कश्चित् लभतेदं. सम्यक्त्वं मोक्षसौं- 1 ख्यदम् // 10 // कोऽसौ ग्रन्थिः ? कथं चायं, भिन्नो ज्ञायेत पण्डितः / बहौ स्थितौ प्रहीणायां, कि सम्यक्त्वादेः प्रयोजनम् ? // 11 // ग्रन्थिः संयोजनान्त्यांश-स्तद्भेदो दुष्करः पुनः। सुख पौगलिकं काङ्घनेतं. यावत्समीयिवान् // 12 // न धर्म नाप्यधर्म स, विविक्ते मुग्धबुद्धिकः / पाषाणघोलयुक्त्या तु, बह्वबध्ननघं | जरन् // 13 // आयातोऽत्र परं नाग्रे, याति पौगलिके सुखे / दुःखबुद्धिं सौख्यबुद्धि-मनाधाय महोदये // 14 // H| आत्मपुद्गलयो दं, यथावदधिगम्य यः। करोति लीनमात्मानं, सगात्मोद्भवे सुखे // 15 // एवं च पुद्गला शंसा-रहितोऽव्ययमीप्सुकः / ज्ञायते भिन्नग्रन्थिर्ना सच्छास्त्रं दृशमाश्रितैः // 16 // लब्धे सम्यक्त्व एतस्मिन् , 9 मन्यते नार्थकृत्पदम् / विहाय शासनं तेन, दीक्षयत्यात्मसंश्रितान् // 17 // यथाभ्रपटले क्षीणे, तेजोऽर्कस्य / प्रसर्पति / कौघे क्षपिते तद्वदर्शनादि त्रयं स्वतः // 18 // यथा तापोऽम्बुसंशोषं, विदधाति तथा त्रयम् / अग्रतः शोषयेत्कर्म-स्थिति तस्माद् गुणावलिः / / 19 // दर्शनस्येत्थमाप्तस्य, सप्तषष्टिमिता मताः। भेदा वृक्षे ) P. Ac Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak True JAR // 69 / / Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बागमो सम्यक्त्त्व शातानि Ka यथा स्कन्ध-पत्रशाखासुमानि च // 20 // साधनानामानुकूल्ये, न वृक्षः स्वाङ्गवर्जितः। तथात्र दर्शनस्यामी, पाप्यन्ते साधनाश्रयात् // 21 // नियमात्तत्र श्रद्धान-चतुष्कं दर्शने भवेत् / लिङ्गत्रयं त्रिकं शुद्ध-लक्षणानां च द्धारककृति-K पञ्चकम् // 22 // स्थानानां भावनानां च, षट्कं शेषाः प्रसङ्गतः। दशधा विनयः पञ्च-दोषत्यागः प्रभावकाः सन्दोहे // 23 // अष्टागध्या भूषणानि, पञ्च-सेव्यानि शुद्धये / आकारा यतनाः षट् षट् , स्युरापत्तिगतस्य च // 24 // क्षायिके दर्शने क्षायो-पशमिकेऽपि तत्त्वतः। व्यवहारनिश्चयाभ्यां, स्युर्लब्धेऽमी गुणाकराः॥२५॥ यथा साधोर्यथायोग्यमेते साधनसम्भवे / तथा साधनसामग्र्या, अभावेऽणुव्रतेशिनाम् // 26 // केचिदत्राभेदभाजः, केचिचितरथा पुनः। अङ्गाङ्गिनां मते जैने, भेदाभेदौ न बाधकौ // 27 // व्रतेषु भावनाः पञ्च, यथा न व्रतभेदकाः / तथा विज्ञेयमत्रापि, भेदबाहुल्यमात्मना // 28 // स्कन्धेन शाखया पत्रैः, सुभैः शाख्युपलक्ष्यते। न च भिन्नानि तान्येभ्यस्तद्वदत्रापि भाव्यताम् // 29 // इत्येवं भववार्धिपारगमने सामर्थ्यभाग् दर्शनं, शास्त्रोक्त्या- नुगुणं भवी हितपदप्राप्त्यै सदानन्ददं। भेदैः साधुरसोन्मितैरनुगतं सदृष्टिनां श्रेयस, आनन्दोदधिना KI व्यचार्यमृतवार्धावुत्सुकेनात्मना // 30 // इति सम्यक्त्वभेदाः॥ सम्यक्त्वज्ञातानि (27) पल्यादीनि प्रसिद्धानि, प्रोच्यन्ते सूरिसत्तमैः / आद्यसम्यक्त्वलाभे तु, ज्ञातानि श्रुतसन्ततौ // 1 // सामायिकानि चत्वारि, निर्युक्तौ विवृतानि तु / आद्य सम्यक्त्वमुक्तं तज्ज्ञातानां तत्र योजनम् // 2 // तत्त्वतस्तानि सर्वाणि, चतुर्ध्वपि मुनीश्वराः // सामायिकेषु युञ्जन्ति, नियुक्तौ यदुदीरितम् // 3 // सामान्येनान्तिमे भाग, आप्तौ ज्ञातानि सन्ति च / सामायिकानां तद्युक्तं, ननो (न तु) सर्वत्र योजनम् // 4 // लोवा lloan Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus - --.JA Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N सम्यक्त्व आगमो सामान्येन नव प्रोक्ता, दृष्टान्ताः सद्गुद्गमे / परं तेषु विशेषोऽयं, कथ्यमानस्तु युज्यते // 5 // सामाद्वारककृति न्येन हि जीवानां, चतुर्धाघक्षितौ स्थितिः। पल्यदृष्टान्तनिर्धार्या, सतां धर्मोद्यमस्ततः॥६॥ लोकानुभावनियति, तथाभव्यत्वसाधितं / बलं जीवे क्वचियेनातिक्रमो नित्यसंस्थिते. // 7 // किञ्च प्राचुर्य ज्ञातानि - सन्दोहे ID माश्रित्य, दृष्टान्तः पल्य उच्यते / अन्यथा नो गुणावाप्तिः, कर्माणूनां च शून्यता // 8 // तत्वतो बह॥७१॥ वन्धित्वं सज्ञिपञ्चाक्षजन्मिनां / मिथ्यादृशां ततो हेयं, मिथ्यात्वं सर्वथा बुधैः // 9 // द्वितीयेऽत्र निगोदानां, दृष्टान्ते गिरितुल्यता / सरित्तुल्यो जगद्भावोऽश्मानः सदृग्युजोऽङ्गिनः // 10 // क्रियाऽत्र घर्षणं साऽणुबन्धबहुनाशसज्ञिता / सद्दृग्योग्यत्वमाकारो, न सम्यक्त्वं क्रियां विना // 11 // ततोऽत्र योग्यतावाप्त्य, या सामग्री त्रसादिका / आप्यते सोपमेया स्याद्यावत्करणमादिमम् // 12 // ज्ञानायाङ्गिप्रवृत्तीनां, कीटिकाज्ञातमुत्तमं / परं तदाद्यकरणे, परे द्वे सत्मयत्नजे // 13 // अभिप्रायात् क्रिया तस्याः, फलंन सा फलाथिनी / अत्राङ्गिनां तपो बाल्याङ्कितं चित्रं प्रजायते // 14 // सहेतैतादृशं कष्टं, मिथ्याक् तप आदि / येन सम्यग्दृशोऽनेके, मुक्तिमापुः सकामकाः॥१५॥ यथा पुरुषज्ञातेऽत्र, यत्नेऽपि चौरसङ्गमः। तथागिषु प्रवृत्तेषु, रागादीनां समुद्भवः // 16 // अनेके तेन सदृष्टिमप्राप्यागुः परां स्थितिं / परिपक्वस्थितिभन्योऽत्र कुर्यात् करणत्रयीम् // 17 // सम्यक्त्वमीप्सवोऽनेके, जीवा मिथ्यात्वमोहिताः / स्वयमेव गता मोहे, परमां तु पुनः स्थितिम् // 18 // यथा ज्वरस्तनौ तापं, समग्रे कुरुते द्रुतं / तथानन्तानुबन्धित्वात् , JAI कषाया अपि जन्मिनाम् // 19 // केषाञ्चिदेव जन्तूनां, निसर्गायां तु सद्देशि / स्वयं नश्यति तापः स, परेषां गुरुवाक्यतः // 20 // परोपकारिणो वैद्याश्चिकित्सन्ते ज्वरार्दितान् / तथाज साधवो जीवान् , नयंते सत्पथेऽपरान् // 21 // कोद्रवाणां यथारूपं, त्रिधा तद्वदिहागिनां / प्राप्तेऽन्तरे त्रिविधं च, मिथ्यात्वं II RSO4 // 71 // ili Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust -- ----- - Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 72 // कुरुतेऽसुमान् // 22 // यथा शुद्ध जलं जातं, परेषां शुद्धये भवेत् / तथा सम्यक्त्वमाप्यान्या-नगिनोआगमोमार्गमानयेत् / // 23 // यद्यप्यभव्यतोऽनन्ता, बुद्ध्वा सिद्धिं गता नराः। तथापि ते तदुद्देशा न, भव्या नित्य क्षायिकभ. द्वारककृति- तदर्थिकाः // 24 // वस्त्रं यथोपभोगार्ह, चिरं कालं तथाङ्गिनां। सम्यक्त्वं येन तत्साधनन्तमपि प्रजायते वसङ्ख्यासन्दोहे // 25 // पृथक् पृथग् मया भावः, पल्यादीनामुदीरितः / ज्ञातानामात्ममोदायोशन्तु सम्यग् बुधाः परम् // 26 // इतिसम्यक्त्वज्ञातानि // विचारः क्षायिकभवसङ्ख्याविचारः (28). . नत्वा मोहमहाराति-मानमर्दनमालिनं / जिनं निर्जरसन्तान-ततकीर्ति जगत्मभुम् // 1 // सम्यक्त्वे A क्षायिके लब्धे, शेषां भवभ्रमावलीं। शास्त्रदृष्टया विनिर्णीय, वच्मि स्वान्यावबुद्धये // 2 // क्षीणे निश्शेषतो ISI दृष्टि-मोहसप्तक आप्यते / दर्शनं क्षायिकं यत्तन्निर्मलं व्यभ्रचन्द्रवत् // 3 // न सम्यग्दर्शनाणूनामुदयादर्शनाहतिः। K/ चेत्तदैषां क्षये किं न सम्यग्दर्शननास्तिता ? // 4 // भेदं दर्शनदृष्टयोर्ये, मन्यन्ते साणुदर्शनं / साच्छादं विगमे दय्या, दृष्टिरिष्टा बुधैस्तकैः // 5 // निर्मलेऽभ्र यथा नार्क-तापो भुवि निहन्यते / अभ्रापगमभावे तु, स प्राचुल र्येण भासते // 6 // तथा दर्शनाणूना-मुदयात् शङ्कित्तादयः / तेषां क्षये विलीयेत, शङ्काकासादि दूषणम् // 7 // क्षायिके दर्शने लब्धे, नायुर्वद्धं तदा नरः। समाप्य क्षपकश्रेणिं, लभते पदमव्ययम् // 8 // बद्धायुविरमेतात्र, A स्वर्गे श्वभ्रेऽमितायुषि / नरे तिरश्चि यात्येष, नापरत्रेति शास्त्रगीः // 9 // अनन्तरे भवे स्वर्गी, नारको वा शिवं व्रजेत् / अमितायुनरस्तिर्यग् , देवीभूय पुमान् पुनः // 10 // जातो महोदयं याया-देवं क्षायिकदर्शने। लब्धे भवानां त्रितयं, चतुष्कं वावशिष्यते // 11 // कथं कृष्णनरेन्द्रस्य क्षायिके दर्शने स्थितं / भवपञ्चक // 72 // ऊपर MP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शमनिर्णयः // 73 // आगमी TH मन्यच्च, प्रान्त्ये दुष्प्रसभेऽपि किम् // 12 // नासौ यदमितायुष्को, न चानन्तरजन्मनि / शिवभाक् , क्षायिकं / द्वारककृति चास्य, सम्यक्त्वमुपवर्ण्यते // 13 // श्रीप्रभस्यापि गणिनो, निशीथे महति श्रुते / दुष्षमामध्यमे भागे, सम्यसन्दोहे क्त्वं क्षायिकं मतम् // 14 // सत्यं त्रयो नैकजन्म-भाविमोक्षाः परं त्वमी / दधतेऽव्याहतं शुद्ध, दर्शनं क्षायिका | मताः // 16 // क्षायोपशमिके शुद्ध, व्यपदेशः कृतो भवेत् / क्षायिकस्यान्यथा किं नु, भवादिव्यत्ययो भवेत् ? / // 16 // विनान्त्यजन्म सङख्याब्दायुष्कस्तजन्म चान्तरा। सार्वदिष्ट विनाऽन्यस्मिन्न चस्यात्क्षायिकाकः॥१७॥ किं च कृष्णेन रामाय, प्रेतेनापि रिपोः शुचे। दर्शयित्वा निजां मूर्ति, सृष्टिकृत्त्वादि चोदितम् // 18 // रामोपि तच्चकाराशु, भ्रातृस्नेहवशंवदः / स्नेहः सन्मार्गपाथोऽर्को, मिथ्यात्वाम्बुधिचन्द्रमाः॥१९॥ कार्मग्रन्थिकसूरीणां, तथा सिद्धान्तदेशिनां / आचार्याणां मतं नात्र भवादिनियमे पृथक् // 20 // तदेषा मतिरस्माकं, क्षायोपशमदर्शने / शुद्धे, श्रुतधरैन्यस्त, आरोपः क्षायिकस्य तु // 21 // अन्यस्त्वितरथा ख्यातं, मान्यं सत्यान्वितं मम / अत्रार्थेऽतीन्द्रिये यन्न, प्रमाणं मुग्धकल्पना // 22 // श्रोतृणां मा विपर्यासः, शङ्कया भूजिनागमे / परस्परविरुद्धार्थ-माकर्ण्य मतिमोहतः // 23 // ततो मनीषयाऽस्माभिः, शास्त्रीयोक्तिदृढीकृता / अन्यथा वस्तुतत्वं चेन् , मिथ्यादुष्कृतमस्तु नः // 24 // सर्वे सम्यक्त्ववन्तः स्युः, श्रोतारः श्रीजिनागमे / याचनां प्रविधायेति, विरमे श्लोकदृम्भणात् // 25 // इत्यं क्षायिकदर्शनाप्तिरितरग्रन्थो- A दिता केशवा-येषु प्राप न सङ्गतिं न च विधिस्तत्रौचितीमञ्चति / सम्यक्त्वस्य तथाविधस्य गदितः शास्त्रोचयेऽतस्त्विमं, कृत्वा ग्रन्थमणुं समाधिविधये याचेऽमृतानन्दिताम् // 26 // इति क्षायिकभवसङ्ख्याविचारः॥ . शमनिर्णयः (29) नत्वा वीरं जगद्वन्धं, मोक्षमार्गस्य देशकं / शमस्वरूपशङ्काया, निर्णयं वच्मि वाङ्मयात् // 1 // चारि // 73 // DIAC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 74 // त्रेण विहीनानां, महोदयसुखं नहि। न च तज्ज्ञानहीनानां, ज्ञानं सम्यग्दृशां ननु // 2 // सम्यग्दृक् च शुभो / जीव-परिणामस्तु तत्त्वतः। स च मिथ्यात्वकर्माणु-शमनादेः शमादिभिद् // 3 // ज्ञायते स्वान्यगोऽप्येष, लिङ्गै- || शमनिर्णयः भागमो रुपशमादिभिः। तेषामुत्पत्तिराप्तेनो-दिता पश्चानुपूर्वीतः // ४॥न्यासस्तेषां यथामुख्य-मित्यूचे हरिभद्रराट् / व द्वारककृति विशिकायां, यतो नैवा-नुकम्पायुग हि नास्तिकः / / 5 / / जीवं भवान्तरं पापं, दुःखं च मनुते यदा / तदाऽऽः | सन्दोहे तेष्वनुकम्पेत. नास्तिकस्तु ततो बहिः // 6 // युक्तोऽनुकम्पया सत्त्वों, बिभेति दुःखसञ्चयात् / भवं च तन्मयं A ज्ञात्वा, निर्विन्देन कथं भवात ? // 7 // निर्विष्णश्च भवाज जन्तु-रपवर्ग विमार्गयेत् / परा संविग्नता चैवं, तदर्थी श्रयते शमम् // 8 // चिन्तयित्वेदमाप्तोक्तं, धार्य हृदयगं सदा / येन मिथ्योक्तिगरलं, न जातु दुःखदं भवेत् // 9 // अत्र केचिदनन्तानु-बन्धिनां शमनं शमं / लिङ्गमाद्य जगुर्यस्मान्नाभित्वेमान् यतः सुदृक् // 10 // विरुद्धकारणाभावो, हिनीत्येव विरोधिनं / जन्मव्याध्यादिरहितं, यथा सिद्धे सुखबजम् // 11 // अत्रान्ये प्रवदंन्त्येवं, चतुर्विंशतिसद्युतः / शमं पुमाननन्तानु-बन्धिनां कुरुते न किम् ? // 12 // किञ्च सास्वादनो जन्तु-रायो दयवान्न हि 1 / अन्वयव्यतिरेकाभ्यां, न तत् तद् गमकं भवेत् // 13 // किश्च चारित्रमोहस्य, भिदोऽनन्तानुबन्धिनः / तन्न तद्गमकं तेषां, शमनं जातु सम्भवेत् // 14 // लिङ्गं स्याद् व्यवहारार्थ, शमश्च न तथा भवेत् / अनन्तानां तथासौ चेत् , किं नान्येषां परेषु सः 1 // 15 // न चान्येभ्यो विशेषत्व-मनन्तानां समक्षतः / पक्षादिस्थितिमत्त्वं हि, न लिङ्गं स्थूरनीतितः // 16 // अन्यथाऽविरताः श्राद्धाः, तिर्यग्नरभवायुषोः। भवेयुबन्धकास्तस्मा-द्वेतुर्नास्य शमा भवेत् // 17 // सम्यक्त्वस्याग्रहाभावो, लिङ्ग स च श्रुतोदितं / स्पष्टमाचरतां सस्य, विरुद्ध सर्वथोज्झताम् // 18 // अत्र मेधाविनः केचित् , तशास्त्रपरिश्रमाः / जगुर्य आग्रहाभावः स कथं सदृशां भवेत् / / 19 // कथं च किंकृतो वा स्या-दाग्रहोऽसत्यवस्तुनि / मिथ्यात्वाचेत् न किं स्यात्स, सर्वेष्वेकेन्द्रिया // 74 // DHP.AC.GunratnasuriM.S. Jin Curr Aaradhak Trust In Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . आगमो | दिषु ? // 20 // चतुर्विंशतिसत्ताको, नाभन्यो नामनुष्यकः (समस्तखः)। ततोऽनन्तानुबन्धिनां, शमः सम्य- शमनिर्णयः द्वारककृति क्त्वहेतुकः // 21 // एतावता न सम्यक्त्व-हेतुता शमभावने / सम्यक्त्वप्राप्तये यस्मात् , करणत्रितयं मतम् / सन्दोहे // 22 // चारित्रमोहनीयस्यैते, भेदाश्चेत् तदपागमे / किं चारित्रं भवेत् साक्षाद् , न चेदपगमात् किमु ? // 23 // H सर्वशास्त्रेषु सप्तानां, क्षयादेः क्षायिकादिकं / सम्यक्त्वं सम्मतं तच्च, विरुध्येत कथं नहि ? // 24 // आद्यादिषु गुणस्थानेष्वव्रतं न भवेद् ध्रुवं / पाते एवौपशमिकादास्वादस्तत्र कारणम् // 25 / / नापरं तेभ्य इत्यत्र, शम एषां तु लिङ्गता // पक्षादिनियमश्चन, कषायाणां मतो भवेत् / पाक्षिकादिप्रतिक्रान्ति-नियमोऽपि वृथा भवेत् // 26 // lil तत्तत्कषायगे चित्ते, भवेत्तेषां तथा गतिः। सदृशामत एवास्ति, नानुबद्धाऽशुभा मतिः॥२७॥ कार्मग्रन्थिकसूरीणां. IN Kal मते सैद्धान्तिकेऽपि च / घातकाः सदृशोऽनन्ता-नुबन्धिन उदीरिताः // 28 // तदेषां शमनं सग्-भावस्य H गमकं भवेत् / चेत्तदा न विरोधोऽस्ति, प्राप्तिरस्यास्तदुच्छिदः // 29 // प्रीतिस्तत्त्वेषु शान्त्यैषां, प्रतीतिस्तत्त्वगा | पुनः। मिथ्यात्वादिशमाञ्चेत्स्यात् स्याद् दृक् चारित्रमोहमिद् // 30 // गुणौ वैराग्यसंवेगौ, सम्यक्त्वस्य सहानुगौ। किं न चारित्ररूपे स्तोऽविवक्षाऽसज्ञिचित्तवत् // 31 // विज्ञा अन्ये त्वाहुरत्र, शुश्रूषा धर्मरागिता / वैयावृत्त्यं गुरौ देवे, श्रावकत्वनिबन्धनम् // 32 // केचित्तु कोविदा आहु-चैतृष्ण्यं विषये पुनः, न दृग्मोहोऽरुचिधर्म, क्रोधकण्डूश्च सदृशः // 33 // परे दाक्षिण्यमौदार्य, पापकुत्साऽमला मतिः / लोकप्रियत्वमेतानि, लिङ्गान्याहुविचक्षणाः॥३४॥ एवं सम्यक्त्वलिङ्गेषु. दृष्ट्वा चित्रमतानि न / व्यामोहो विदुषा कार्यो, यतः सर्वाणि सन्मतेः // 35 // यतः II सम्यग्दृशां देवे, गुरौ धर्मे च न क्वचिद् / क्रोधादेः सम्भवस्तेन, शमो लक्षणमुच्यते // .36 // सामान्यमतिजीवानात्मेतत्स्यादनपं यदि / तदाऽमीषां तु सम्यक्त्वं, यथाई लक्ष्यते बुधैः // 37 // गीतार्था यतयो में I तु, धर्मशास्त्रतरूपका / तेषामनाग्रहो लिङ्गे, नान्तरा तत्सुदृष्टिता // 38 // क्रियाभेदेऽपि नैतेषां, कदाग्रह Ac. Gunratnasuri M.S. . Jun Gun Aaradhak Trus Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S/ समुद्भवः / चेन सिद्धान्तबाधा स्यात् , तेषां तस्यापि लिङ्गता // 39 // शास्त्रोत्तीर्णी क्रियां कुर्वन् , स्वयं शास्त्राआगमो- श्रितां पुनः / निन्दन् कदाग्रहग्रस्तो, मिथ्यात्वी निश्चयान किं 1 // 40 // व्रतार्थी श्रावको धर्म, श्रयन् लिङ्गै प्रतिमापूजाद्वारककृति- भैवेद्युतः / शुश्रूषादिभिरभ्यच्यरित्येषां लिङ्गताऽनघा में // 41 // श्रुतधर्म श्रयन् श्राद्धश्चन्न वैतृष्ण्यभाग्भवेत् / द्वात्रिंशिका सन्दोहे भवेन्मुग्धो वृषेऽनिच्छः, क्रुद्धश्चासौ न शुद्धदृक् // 42 // ततः सिद्धमिदं हन्त, श्रोतारं शास्त्रवर्मनः / समाश्रित्य वितृष्णत्व-मुखं लिङ्गं यथोदितम् // 43 // ये च दानादिधर्मेषु, प्रवर्त्तन्ते नरोत्तमाः। तेषामौदार्यदाक्षिण्य-मुखं HI // 76|| लिङ्ग सुदृग्भवम् // 44 // एवं लिङ्गानि पश्चापि, सम्यक्त्वगमकानीति / न लेशतो विरोधोऽस्ति, स्याद्वादन यमिच्छताम् // 45 // कश्चिदेकमकारं तु, निश्राय निश्चयं घदन / निराक्रियेत विद्वद्भिर्नैकान्तो यत् श्रुतानुगः | // 46 // व्यवहार्याणि लिङ्गानि, नैकान्ताद् वीतरागता / सर्वज्ञतायाश्चिद्धं यन् , नाध्यक्षोहथा तु लिङ्गतः // 47 // वीतरागत्वसाधुत्व-श्राद्धत्वानां च कानि वै / सज्वलनप्रत्याख्याना-प्रत्याख्यानशमान् विना // 48 // लिङ्गानि | IDI व्यवहारेण, यतोऽथाख्यातमुख्यकाः। गुणाः प्रादुर्भवेयुस्तदत्रापीदं निभाल्यताम // 49 // शिवार्थी निश्शेषो यतिगृहिगणः सन्मतरुचिः, प्रयत्नं कुर्वाणो निजहितकृते सदृशि सदा / यतेतात्मार्थी सन् जिनपगदितं लक्षणचयं, शमाद्यं बुद्ध्वा यत् शिवपदकरी सैव सुधियाम् // 50 // इतिशमनिर्णयः॥ प्रतिमापूजाद्वात्रिंशिका (30) नत्वा नगेन्द्रराजालिं, जिनं सत्तत्त्वदेशकं / तत्पूषायामघोन्मादं, चिकित्सामि ययागमम् // 1 // ISI श्रीमजिनेन्द्रमूर्तीना-मर्चने यो वदेदघं / प्रष्टव्यः स पुमानेवं, कथं बन्धोत्र पाप्मनः 1 // 2 // मिथ्यात्वमRI ब्रतं योगाः, कषायाच यताऽहसः / बन्धस्य हेतवस्तत्र, किमर्चायां विभोरिह ? // 3 // जिनेन्द्र देवताबुद्धेन // 76 // DHP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो द्वारककृतिसन्दोहे // 7 // मिथ्यात्वं जिनार्चने / न चोय स्थापनायां न, गुणास्तत्तत्र किं न तत् 1 // 4 // यथा नाम्नि गुणाभावे, प्रतिमापूजा नमोऽर्हद्भ्य इतीरणे / गुणाभावगताः नम्यास्तथात्र करणौ न किम् 1 // 5 // किश्चान्ययूथिकाऱ्यांना, त्यागोऽर्चायाः कृतो न वा ? / कृतश्चेत् किं न तद्देव-बुद्धया स्यान तदन्यथा // 6 // शास्त्रेषु बहुषु प्रोक्ताः, सप्रभावा हि द्वात्रिंशिका मूर्तयः / अन्ययूथिकदेवानां, सत्यं तच्चेन किं गुणः 1 // 7 // सम्यक्त्वे त्याज्यता सूत्र, चैत्याना परतीथिकैः। स्वीकृतानां जिनानां तन् , न बिम्बे जिनधीवृथा // 8 // श्रीऔपपातिके सूत्रे, तदतिदेशयुतेषु च / सर्वत्र वर्णने पुर्या, बाहुल्यं चैत्यगोचरम् // 9 // अत एव गता यस्मा-चारणाश्चैत्यवन्दकाः / तत्रैत्य वन्दनं कुर्युश्चैत्यानामिति गीयते // 10 // उत्सर्गे साधवस्तासां, मूर्तीनां वन्दनादिगं / फलमाप्तुं पठन्ति स्राक्, सूत्रमावश्यकोदितम् // 11 // अव्रतं च न तद्धतुः, कषायोदयजं हि तत् / अन्यथा मुनयः किं स्वगुरोरभिमुखं ययुः // 12 // कथं महधिकाः सर्व-सामग्र्या जिनवन्दकाः / निर्ययुः ? किञ्च वर्षासु, व्याख्यानश्रुतिरिष्यते // 13 // तदारम्भात्प्रमादाङ्गा-दनिवृत्तिर्भवेत्तकत् / न चात्र तत्कथं बन्धो-हसां सस्यग्विचिन्त्यताम् // 14 // कषायाश्च न पूनाया, हेतवो येन बन्धनं / पापानामत्र सम्भाव्यं, योगेभ्यस्त्वल्पकालगः॥ 15 // यथा साधुनंदी क्राम्यन् , प्रमादाद्वन्धभाजनं / तथात्र तेन देवानां, पूजयाईन्त्यसहति // 16 // न चोय सर्वथा पापा - भावे किं मुनयो नहि / आद्रियन्तेऽहतां द्रव्य - पूजायां मोक्षकाक्षिणः 1 // 17 // तत्र तेषामनाचारो, नैव पापनिबन्धनः / अन्यथा कि नदीः काम्येत् ; सर्वपामनिवारकः 1 // 18 // किन्तु हेतुरुपा- | देयो, यावत्साध्यं न सिद्धिभाग / साध्यसिद्धौ न मूोपि, साधनं प्रति सोद्यमः // 19 // भावस्तवो हि . साधूना, सिद्धो दीक्षादिनाद् ध्रुवं / नैषां ततस्तद्धेतोहि द्रव्यस्तवस्य सेक्नम् // 20 // अत एवोदिता हेम-सूरि- ISI // 7 // भियोगवाङ्मये / निरवद्यार्चना श्रादै-ईया सामायिकाहतौ // 21 // न सपापाऽ तां पूजा ततः सामायिका Ac. Gunratnasuri M.S Jun Gun Aaradhak Trust Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो द्वारककृति I पूजा सन्दोहे // 78 // हतौ / तस्याः प्रसङ्गसम्प्राप्ति-रन्यथा ध्यान्ध्यजृम्भितम् // 22 // हारिभद्रं वचः स्वस्ति-करमावश्यके स्फुटं। पूर्वपापेन सहितं, सर्व पूजा दहेदघम् // 23 // अर्थदण्डेऽपि नाङ्गेऽतो, द्वितीये अँचिवान् जिनः। जिनपूजाभवां I प्रतिमा हिंसां, यथा नागादिपूजने // 24 // अष्टकेऽपि स्वरूपेण, साङ्कीर्ण्य पुष्पपूजने / न्यगादि हरिभद्रेणानूदितं च जिनेश्वरैः // 25 // स्वल्पस्याप्येनसस्तत्र, चेद्भवेत् सम्भवस्तदा / तन्मुनीन्दैन कार्य स्यान्नानुमोद्यं च कहिचित् / // 26 // उदाहृतं च यत्पूज्यैरल्पाघे बहुनि रे / कार्येऽर्हत्पूजनं तत्र स, मृषाऽदत्तादिहेतुता // 27 // अत एवोदिता तत्र, जिनेन्द्रपक्षपातिता। अर्हद्भक्त्या कृतौ त्वस्य, विषयो नात्र युज्यते // 28 // अशुद्धैरन्नपानाद्यैग्न्लानोपचरणे यथा। तथात्र ज्ञापितो किं स्यात्, शुद्धैरिव नयार्चने // 29 // साधूनामर्हतां भक्तेः, शंसायां यः शुभोदयः / सोऽपि पापविनाभूतौ, पूजायां नान्यथा क्वचित् // 30 // न ह्याधाकर्मणो दान-मल्पपापं मुनिः क्वचित् / प्रशंसेदनुमन्येच, सुबहुनिर्जरान्वितम् // 31 // तदेवं जिनपूजायां, द्रव्यतोऽपि न पाप्मनः / बन्धस्ततः सदा श्राद्धास्तां कुर्वन्तु यथागमम् // 32 // सदा पूजा भव्यैर्जिनगुणगणालीढहृदयैः, शिवाप्त्यै स्वान्येषां सततसुदृगाद्यर्थमनिशम् / विधेया चेत्सिद्धौ परमसुखमय्यां यदि मनो, जिनोक्तं संस्मृत्योदितमिदमनन्तार्थकलितम् // 33 // इतिप्रतिमापूजाद्वात्रिंशिका // प्रतिमापूजा (31) अर्चा जिनेश्वरार्चानां, कथं सम्यक्त्ववर्धिनी?। यतोऽध्यक्षं समीक्ष्यन्ते, बढ्यो जीवविराधनाः॥१॥ न राज्यदेशग्रामेश-त्वेनार्हत्पूजनं मतं / त्यक्ताष्टादशदोषत्वं, हेतुरव्ययदेशनम् // 2 // ततस्त्यागस्य सन्मानोऽहंदर्चानां समर्चने / अप्यष्टभिः प्रातिहार्यैरानचुरमरा अपि // 3 // च्यवनादिषु सत्कल्याणकेषु सुरराजयः / IN // 78. // IM .. M .' Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा आगमो जीवतोऽर्हत आनषुः, समवसरणादिभिः // 4 // गुणानामसतां प्राप्तिः, प्राप्तानां चाभिवर्धनं / गुणश्लाघार्चनासाध्यमहदर्चार्चनं ततः // 5 // प्रत्याख्येयो गृहस्थानां, प्रसानां वध इष्यते / नातो हत्वा साना, पशुभि- HI प्रतिमा द्वारककृति A यज्ञवन्मता // 6 // ये च श्राद्धा न कुर्वन्ति, स्थिराणां वधमात्मना / कुर्युर्भावस्तवं ह्येकं, यथा सप्तमवाहिनः सन्दोहे // 7 // सर्वस्थिराङ्गिहिंसां ये, कुर्युः स्वार्थान्धिता नराः / हिंसाधीः पूजने तेषां, लोपकोद्धमितात्मनाम् // यथा गुरूणां नत्याद्याः, श्राद्धैवर्षति वारिदै / क्रियन्ते सन्मुखं गत्वा, लाभाय गुणमानिभिः // 9 // त्रसेतरा. गिरक्षाय, वस्त्रपात्रप्रमार्जनं / हृद्याधाय दयां तच्च, साधुकृत्यं गुणान्वितम् // 10 // दयानाम्ना यदा श्राद्धो, नाभ्येति गुरुसन्मुखं / विराधकस्तदा तद्वजिनार्चायां दयाब्रुवः // 11 // अशुद्धमपि भक्तं चेदास्तिकः साधवे- / ऽर्पयेत् / तत्र चेन्निर्जरा वह्वी, किं नार्चायां जिनेशितुः // 12 // जिनो निष्किञ्चनछत्रा-दिषु चेद्रागहानितः। कुतो भोगित्वमायात-मजीवप्रतिमार्चने? // 13 // जिनकर्मप्रभावेणार्च्यते देवैर्जिनः सदा। सम्यक्त्वोत्थं च तत्कर्म, तच्च कर्मक्षयादिजम् // 14 // वन्दनाद्यर्थमुत्सर्गोऽईदर्चानां मुनेरपि / बोधिमोक्षफलः किं न ?, श्रावके तह KI का कथा ? // 15 // महितेति पदं स्तुत्यै, महनं किमु आश्रवे ? / सम्यग्दृष्टेर्गुणो नैवाश्रवस्तुत्या कथञ्चन // 16 // अपेक्ष्य स्थापनां सामा-यिके भंते' त्ति शब्दनं / नतौ कायादिस्पर्शस्यार्चायां का विमतिस्तदा // 17 // HI अवग्रहो गुरोर्याच्यो, वन्दनादौ मुने ! त्वया। विनार्यों कस्य मार्येतावग्रहस्तत्स्थिराऽऽकृतिः॥१८॥ हिंसा धर्माय | नैषा यत् , तारतम्यं न हिंसया / धर्मस्य, वहुमानेन धर्मस्यास्ति विशेषिता // 19 // याज्ञिकानां यथा सख्या, वृद्धिधर्मस्य वृद्धये / अजादीनां. तथा नात्र, किन्तु भक्त्यतिशायिता // 20 // दूरमाराद् गुरोर्यात, सन्मुखं लाभकृत्पुनः / गन्तुरात्मगतो भावस्तथाघ्राकृतिपूजने // 21 // यथा हिंसाप्रमत्तस्य, निर्जरैकफला KI IN // 79 // मता / सम्यक्त्वादिगुणोन्नत्य, तथाऽर्चायां शुचेर्हृदः // 22 // स्वरूपेणैव हिंसा चेद्, भवभावनिबन्धनं / नदी Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ~ IN सिद्धादयः किं स्युरमासुकजले स्थिताः 1 // 23 // नद्युत्तारे सुसाधूनां, न प्रतिज्ञाविराधनं, / त्राणं वेद्यतना . भागमो- सा किं, नष्टा पूजाक्षणेऽर्हताम् ? // 24 // अर्हतामर्चनीयाऽस्ति, निक्षेपाणां चतुष्टयी / परमेष्टिनमस्कारोऽ तोऽहं- II प्रतिमापू.. द्धारककृति- द्भ्यो नम आदृतिः // 25 // प्रातिहार्याष्टकोपेतो-ऽतिशयैश्चतुस्त्रिंशता / पञ्चकल्याणकमहै, र्युक्तोऽर्हन्नान्यथा- I जासिद्धिः विधः॥२६॥ अहंन्नामस्मृतिविम्बात्, सिद्धत्वादस्ति. द्रव्यता / कर्तुर्भावोऽस्ति तत्सिद्धथेन्निक्षेपाणां चतुष्टयी || सन्दोहे // 27 // स्थाप्योवाहन चेन्यक्षं, कथं नैपातिकं नमः / न चेत्पूजार्थता का नु, निपातक्रिययोभिदा // 28 // // 8 // | धर्म यस्य मनो नित्य, तं महन्त्यमरा यदि / धर्माकरं जिनं. नित्यं, किं न देवा महन्ति नु ? // 29 // ततायो गोलकल्पानां, सावद्याश्चेत् समाः क्रियाः। तीर्चने वन्दने च, का भिदा विदुषां भवेत् 1 // 30 // अव्रतेषु ध्रुवो हिंसादोषश्चेत्किम्बगारिणां / हिंसाभीतेनिरुध्यन्ते, जिनेन्द्रार्चार्चनादयः // 31 // योगः पङ्गरघागत्यां, चेन्नार्चा सकषायिणी / मनसा मोक्षमाधाय, सा स्यान्मुक्तात्मनां शुभा // 32 // इत्येवं प्रतिमारिपोहितकृते पद्यैरगहैंः कृता, द्वात्रिंशद्गणितैरिहार्हतमुदे श्रीसूर्यपुरे श्रुते,। आनन्दादिगणेशिना स्थितिमता वीर जिनं स्थापितुं, सचाम्रागमन्दिरे नवकृते ऋदैः परैः श्रावकैः // 33 // इति प्रतिमापूजा / प्रतिमापूजासिद्धिः (32) गणिनेड्यं: जिनेशार्क, ध्वस्तमोहान्धतामसं / शीतांशुमकुरगाढ्यं, विरहे सुखदं स्तुवे॥१॥ ये स्थापनां न मन्यन्ते, सूत्रोक्तामपि साहसात् / वदन्ति च न कल्याण-मजीवात्प्राप्यते. कथम् 1 // 2 // पृच्छामि ते कथं / साधो- तस्य कुरुसे महः / कथं चाजीवतासाम्ये, गुरोरासनवर्जनम् 1 ॥३॥अज़ीवा निहताः काल-सौकरेणाIN/ वढे यके / महीषाः दुर्गतेस्ते. तु, कारकाः किं त्वयेप्सिताः // 6 // कथं च वन्द्यते काष्ठा, प्रत्यहं तीर्थकृच्छूिता ? PLAc. Gunratnasuri M.S. 11 Coll Jun Gun Aaradhak Trust IEL Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CRA आगमा- H यन्त्रेण वन्द्यते किञ्च, प्रत्यह। ID कथं न वनितालेख्यान्वितायां वसतौ स्थितिः // 5 // कथं वा यमिनां मूर्तिः, क्रियते पत्रगामिनी / यन्त्रेण वन्द्यते किञ्च, प्रत्यहं मार्गसंश्रितैः // 6 // न चानाचार एषोऽस्ति, चारित्रस्य बकुशिता / स्याद्यतः किन्तु प्रतिमाद्धारककृनि- सम्यक्त्व-हीनता श्रद्धया विना // 7 // न चाजीवस्य हिंसापि, क्रियते बन्धहेतुतः / अत एव न खण्डाश्वगवादेसन्दोहे | भक्षणक्रिया // 8 // ख्यातं च ख्यातसुश्लोकः, स्थानाङ्गेऽजीवहिंसनं / दोषद्विविधां हिंसां, दर्यमानै- हम पूजासिद्धिः गणोत्तमैः // 1 // नामापि जीवरूपं नो, तत्स्मृत्यास्तहि किं फलं ? / भावे न चेन्न सो वास्ति, किं काको / // 81 // वाऽस्यभक्षकः // 10 // भावतीर्थकरो लक्ष्य, आकृतेर्यदि सा प्रमा / किं प्रतिच्छन्दसत्यागः, कायोत्सर्गे न वक्तृता // 11 // द्वादश स्युः पर्षदो याः, सांमुखीनो जिनस्तदा / सर्वासामाकृतिभ्यस्तन्न भावादाकृतेभिदा // 12 // न लेप्यगोः पयःप्रादुर्भावश्चेकिं नु नामतः ? / अज्ञाताया दवीयस्याः, किं तर्हि भावतो भवेत् ? // 13 // भवान्तरे जिनाकार-ज्ञप्तिः स्याद्विम्बसंस्कृतेः। अन्यथाऽसंस्कृतेर्भावगोः पार्थे मृतिवन्न किम् ? // 14 // मिथ्यादृशां परित्याज्या, न वास्तिर्मुखे कथं / अर्चा नाा अजीवत्वादन्तिमेऽनर्थदण्डिता // 15 // द्वितीयेऽङ्गे श्रुतस्कन्धे, द्वितीये नागभूतयोः। कृतेऽर्चायाः कृता हिंसाऽनर्थदण्डो जिनैर्मतः // 16 // यदि च श्रीजिनेशानां, प्रतिमाकरणे वधः। स्यादनिष्टः स तत्रैव, निर्दिशेजिनपुङ्गवः // 17 // न च कुत्रापि म दण्डेऽसौ, न्यगादि पुरुषोत्तमैः / तनैषामर्चया हिंसा, फलोद्भदाद् भवाब्धिदा // 18 // चतुर्विधान समान्भावा- IN श्रद्दधानः सुदृष्टिकः। चेदाकारं न मन्यन्ते, कथं स्युस्ते नु तादृशाः ? // 19 // आवश्यकं प्रकुर्वाणा, धूरीणं के I वदन्त्वमी / भदन्तशब्दमाख्यान्तो, विहरन्तं जिनं यदि // 20 // न स साक्षान्न चामुष्य, तीर्थे यूयं यतोऽन्तिमं / .DI शासनं समतिकान्ति, पश्चव्रतसमन्वितम् // 21 // यदि च न प्रतिमाः स्युञ्छिापूत्य महादिना / किं दूरस्थ ISI // 1 // कल्पितेऽस्मिन्मनसि क्वचिदीक्षिता? // 22 // तथा चाऽजां निनीपोर्न, किं क्रमेलकवेशनं ? / भवेद्यत्संवरे II परमर I P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Tu Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा मिथ्या-वाद आवश्यके मुखे // 23 // शिष्याणां गुरवो वाच्या-स्तेषां तेन कके पुनः / ध्यान्ध्यापत्तिविनाकाराआगमो ISI ङ्गीकारं नैव शाम्यति ॥२४॥किञ्च वन्दनकेऽपि स्यात्संबुद्धयामन्यमाकृतेः। विना सा यद्विना साक्षात्कारं नार्हति .. द्धारककृति- कुत्रचित् // 25 // मह्यं त्वमनुजानीहि, मितावग्रहमित्यपि। कथं शिष्यस्य शोभेत, वाचा यद्याकृतिर्नहि 1 // 26 // सन्दोहे गुरुं स्वकं समुद्दिश्य, चेन सर्वे तथा मताः / स्युस्तथापि गुरोरुक्तिः पूजासिद्धिः , न कथं वितथा भवेत् ? // 27 // प्रमाणयुक्तो नैवास्ति, विहरज्जिनसङ्गतः / अवग्रहः, क्व यात्रा क्य, प्राप्तिः स्वमेपि स्यात्किमु ? // 28 // अधाकायं प्रतिक्षाम्यन् , कथं स्पर्शो विधीयते ? / कथं च स्याद् गुरोः क्लान्ति-येन तत्क्षमणं श्रुते // 29 // तथा च यदि नोपेया, ह्यजीवत्वात् प्रतिक्रिया। नावश्यकं विधातव्यं, तथाचेद्वितथोदितिः // 30 // गर्दा पि स्यात्कथं चार्वी, यतः सा गुरुसाक्षिकी / नाङ्गीकाराद्विनाकृत्या, तत्तथेति विमृश्यताम् // 31 // कक्षीकाराद्विना मूर्तेः, कं पृच्छन्ति सुहृत्तमाः। इच्छया सन्दिशत भो, ईयायाः प्रतिक्रम्यते // 32 // | के चोशन्ति प्रतिक्रान्तु-मिच्छा मेऽस्तीति साधवः। प्रत्याख्यानं कथं साधोः, स्यात्ससाक्षिकमाईतम् ? KI // 33 // प्रतिक्रमणकाले किं, स्थाप्यते इति संस्मृतं / सूत्रेऽनुयोगसझे तद् , ध्रुवं स्थाप्या प्रतिक्रिया // 34 // अक्षो वराटको वेत्यादिरूपेण सूरीश्वरैः / सद्भावेतरभेदेन, स्थापनैवं तु युज्यते // 35 // दशकालिकशास्त्रार्थगङ्गाहिमवदाकृतिः। श्रीमान् शय्यम्भवः प्रापन्न-किं विम्बात्सुदृष्टिताम् ? // 36 // आर्द्राय प्रेषि जिनराड्-बिम्बं यवनदेशिने। धीसखेनाभयेनाई, दृष्ट्वा सद्दशमाप च // 37 // वृषादि प्रेक्ष्य किं बोधि जनि प्रतिमादिवत् ? / तत्किं स्यात् पूज्यता तेषां, न चेत्काऽत्र नवा मतिः // 38 // सत्यं परं न तत्तत्स्था-कृत्यादेः किन्तु चिन्तया। तद्रूपेण समं विश्व-भावानामत्र नैव तत् // 39 // देवत्वोल्लेखतस्तेन, प्रोक्ततत्ववजस्य च / अन्वीक्षणात्सुदृष्टित्वं, तत्पूज्येयं न चेतरत् // 40 // अभव्यस्येव IBP.P.AC. Gunratnasuri M.S.. Jun Gun Aaradhak Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा आगमोद्वारककृतिसन्दोहे // 83 // भव्यस्य, साधोईष्टेः सुदर्शनं। प्रादुर्भवेत्तथाप्यन्त्ये, पूज्यता सद्गुणत्वतः // 41 // गुरूणामुपदेशेन, स्याद्यथा सद्गुणार्जनं / दुष्प्रतीकारताऽऽम्नाता, ततश्चैषां तथेह तु // 42 // यथोपकरणं साधोश्चारित्रोत्पादकं ततः। पादादिना न संस्पृश्य, तथात्वे तु विराधना // 43 // तथैषा सदृशो हेतु-स्तदाशातनवर्जनं / यथा तीर्थकृतां शक्रा, दंष्ट्राणां सुरसद्मनि // 44 // न वृक्षादिर्धियां हेतुः, समेषां तत्त्वसंश्रितां / यथार्चादि ततः सिद्धो, भेदः स्पष्टोऽनयोयोः // 45 // स्त्रीत्वसाम्ये प्रसूवध्वो-यथा स्पष्टा भिदा मता / तथा चेतनतासाम्ये, हेतोः पूज्यत्वसङ्गतिः // 46 // पञ्चमेऽङ्गे नतिविद्या-जङ्घाचारणसाधुभिः / चैत्यानां विहिता पूज्यै- स्तत्किं विस्मरणं गतम् 1 // 47 // नच ज्ञानं यतस्तत्र, तत्रत्यानीति भाषितं / ज्ञानं त्वे न तत्रत्यं, नचाश्रद्धानको मुनी // 48 // ज्ञानस्य वन्दनं व्योम्नि,स्थितेनाधातुमीश्यते / अवतारात्तु चैत्यानां, नतिविम्बाद्यपेक्षया // 49 // अपि चात्य वन्दन्त, इत्युक्तौ प्रतिमानतिः। स्पष्टात्रैवात्र चैत्यानां, सद्भावश्च ध्रुवस्ततः॥५०॥ ज्ञातधर्मकथायां न, किं द्रौपद्यार्चिता प्रभोः ? / अर्चा, तथा च खाद्यानां, किम्वुत्सूत्रमजल्पितः // 51 // आनन्देनान्तिमाईन्त्यान्वितस्य पुरतः कृता / सन्धाऽन्यस्वीकृतार्चानां, नत्यादावर्हता सका // 52 // न स्याद्विनाहतामर्चा-मेवं तस्य प्रजल्पनं / अम्बडोप्याख्यदाद्याङ्गोपाङ्गेऽनूनमिदं खलु // 53 // तथाचाजीवताहेतोर्न न नम्या जिनाकृतिः। भावना तत्त्वगा सिद्धिं, ददाति भविनां द्रुतम् // 54 // यथा लिपिर्नता ब्राह्म्याः , सूत्रादौ गणधारिणा / ज्ञानाङ्गत्वात्तथा नेयं, किं नव्या सदृगं गतः 1 // 55 // यथाऽजीवं शबं साधो-नम्यते धार्मिकैर्ऋतं / संस्मृत्य, कं तथा स्तुत्या, जिनार्चा न गुणेक्षिभिः // 56 // यथोत्सर्ग प्रपन्ने स्यात् , साधौ फलोदयो ध्रुवः। शुभाभिसन्धेर्नमनात् , तथैवात्र विभाव्यताम् // 17 // यथोपकरणे साधो शिते तद्गुणाश्रितः। तीवो मन्दः कर्मबन्ध-स्तथात्र प्रतियोगिनः // 58 // यथा' काये- समेऽप्यर्ह-दुपसर्गे भवोदधिः / अनन्त इतरत्राल्पस्तद्वद् / . IN // 83 // K P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak ! Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा एकम् 20D गुणगणेक्षया // 59 // यथादानं यथापात्रं, "फलत्यत्यन्तसम्पदः। अशनादेरजीवस्य, गुणभृत्पात्रकाशिणाम् आगमो // 60 // यथाद्रव्यं यथा श्राद्ध-गणस्य फलसम्भवः / अजीवस्य गुणाङ्गत्वमाश्रित्यायं न चान्यथा // 61 // द्वारककृति-8] इति प्रतिमापूजासिद्धिः अपूर्णा // सन्दोहे प्रतिमाष्टकम् (33) // 84 // विकारं स्त्रीचित्रात् पुनरघभयं नारकगता-कृतेः पापं चाङ्गोद्भवमललुलायाहतिभवं / जिनेन्द्रैः सदृक्षाः समवसरणेऽर्चाः सुरकृताः, नतिं ब्राह्मयाः शास्त्रे सुदृगभिसमीक्ष्याश्रयंकृतिम् // 1 // कुमारः श्रीआर्दोऽधिगत उदयं बिम्बकलनात्, तथा विगै शय्यम्भव उदयमागात् किमु न हकू / न नेमुश्चैत्यानि प्रवचनधरा अत्र मुनयः, न देवैद्रौपद्यार्चनमघभिदेऽकारि किमु वा ? // 2 // उपाङ्गे आये कि सकलनगराख्याननिगमे (कषे) बहून्याख्यच्चैत्यान्यनघमतिकस्तत्पतिपुरं / न बुद्धया शेषं किं विदसि भुवनं चैत्यनिभृतं, न चास्तिक्यं धृत्वा भवति सुजनो वक्तृविमुखः // 3 // यदारम्भं ब्रूते जिनपतिसमार्चासु न तदा, स्वयं दानं यानाभिसरणनमस्योपवसनं / सुवर्षायां श्राद्धैः कृतमनुमतिं किं नयसि भोः, शुभो भावश्चेत्तेऽवनमभिसरस्यत्र नहि किम् ? // 4 // न निष्क्रान्तौ मृत्यौ विविधविधिना सत्कृतिकृती, वधो जीवानां किं भवगतिविधिश्चेत्किमु कृतः ? / मुनि निश्चित्यैतत्क्षणमभिनयन् सर्वविरतिं (०प क्षण उदयवान् सर्वविरतं) श्रुताल्लाभश्चत्ते किमु जिनवरार्चासु न मतः 1 // 6 // वितन्वन् सामायं वदसि च भदन्तेतिवचनं, मृषेदं / किं ते न किमु गुरुपदस्पर्शनवचः / नमस्यायां सूरेवितरणमवग्राहविषयं, स्वयं वाञ्छन् विद्वन् | ~ ~ // 8 // IDP. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Tu KI Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो. द्वारककृतिमहनमभवे नेच्छसि किमु ? // 6 // विना श्रौती वाणी प्रतिगृहममत्राम्बुजघनं, समाकर्षन वेषं श्रुतशतविरुद्धं / जिनवरनिविशसि। गुदादेर्मोकेनाशुचिमपनयनार्त्तवदिनान, पवित्रानाख्यंस्त्वं किमु न भविता म्लेच्छसदृशः? सन्दोहे // 7 // समुत्तीर्ण श्रौतात् पथ उदितमिथ्यात्वगरलं, समाशास्तुं प्रीत्या जिनवचनलुम्पाकयमिनं / इदं सजियो नुतिः क्तं विपुलमतिना पुण्यविमल-सुविज्ञप्तेनालं. भवभयहृदानन्दगणिना ? // 8 // इतिप्रतिमाष्टकम् / जिनवरनुतिः (34) भगवन्नपूर्ववस्तूनि, तानि यानि स्मराम्यहं / त्वां स्तुवेऽतः परो हर्षोऽन्येषां मे स्तवनात्तव (था) // 1 // तव H भाग्यभराक्रान्तं, तथाभव्यत्वमादितः। कृतं न यत्वयाऽन्यैश्च, त्वय्यपूर्वमजायत // 2 // ततो जिनभवे शत्रैः, A पुरुषोत्तमता तव / स्तुताऽऽदौ येन सा मूलं, तवैश्वर्यस्य नापरम् // 3 // न तत्त्वयाऽन्यतो लब्धं, तदर्थं न च ते / / क्रिया। तव स्वभाव एवायं, नैवान्येषां तु जन्मिनाम् // 4 // भ्रान्त्वाऽऽवर्तान् स्वयं सद्ग, जातो गुरुनिमित्ततः। ISI अतः शकैः स्वयंबुद्ध-तयाऽस्तावि च्युतिक्षणे // 5 // अन्येषामिव भगवंस्ते, सदृष्टिगुरुयोगतः। गौणस्तत्र गुरुर्येन, तस्यास्त्वं जिनराड् यतः॥६॥ अतस्त्वङ्गीयसे स्वामिनादौ बोधे हरिव्रजे। स्वयम्बुद्धतया नैवं,परेषां सोऽभिजायते / // 7 // आदौ क्रमेण वा तेऽभूत् , वरखोधिः स्वभावतः / यत्तदा ते गुरुन स्यानियमाद्वरबोधिमान् // 8 // आश्चर्य जिना ते बोधौ, वरे यत् स्वयमुद्धृतिम् / अप्राप्तोपि परान् जीवान-भवाब्धेरुद्दिधीर्षीसि // 9 // यथा यानाधिपो A यान-मारूढान् पारयत्यलं / स्वपारं तु न चैच्छत्सः, स हि तस्यानुषङ्गिकः // 10 // तथा भन्यान् समस्तांस्त्वं, HI // // | निनीधुर्मोक्षमव्ययं / स्वस्य मोक्षमनीप्सुः सन् , विदधासि प्रसङ्गतः // 11 // युग्मम् // असम्भवीदं ते वस्तु, Jun Gun Aaradhak Trus ! I P.AC.Gunratnasuri M.S. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - नुतिः // 86 // | जगदुद्धरणात्मक दत्वा जिनपदं जातं;तक भाग्यात् फलेग्रहिः॥१२॥ ततो हुंदादिति त्वं; सर्वाङ्गिवारणेच्छया / आगमो विदधत बद्धवान् तीर्थ करनाम गुणालयम् // 13 // तदा त्वं भगवान, सर्व-संसारक्षपकोपि सन् / जन्मत्रयं च- 1 जिनपर द्धारककृति- कर्थान्त्यं शेष जीवोपकृत्या // 14 // परेऽव्ययपदं गत्वा धर्माद्धाराय संमृति / आगच्छन्तीति यद्वायं मृषा.ते. सन्दोहे वृत्ततः कृतम् // 15 // संसृतेः क्षय आरब्धे, शेषं जन्मत्रयं जवानासम्भावि परेषां तु, सम्भवी न भवः शिवात् / / // 16 // सुरलोकोद्भवामृद्धि, त्यक्त्वा गर्भाशयं विशनः। अशुचि न शुशोच त्वं, महत्त्वं ते कियद् ब्रुवे // 17 // KI यथा रत्लवणिक् ताप-श्रमादिखेमाप्नुवन् / लाभार्थी ग़णयेचैव तं तथाः त्वं भवव्यथामः॥१८॥ यतस्तीथेKI को भूत्वा जगदुद्धारहेतवे। तीर्थस्थापनवाञ्छस्त्वं, न व्यथां तामजीराणः // 19 // अपूर्व ते जगत्यहन, गर्भागमनमात्रतः / कल्याणकमहं सर्व सदसौख्याय तेनिवान // 25 // सिंहासनानि शक्राणां, निश्चलान्य चलस्तदा। पेछुः शक्रस्तवं तेपि, स्तोतुं त्वां भाग्यनिर्भरातः॥२.१॥ लोकानुभावतो जाव-स्तदोद्योतो ज़गल्लये। PA अपूर्व जिन ! तेनेदं, सदाऽपूर्व परं किमु. 1 // 22 // स्वप्नांश्चतुर्दशोद्दीप्रांस्त्वत्प्रभावात. च्युतिक्षपो / माताऽप श्यन्न द्रष्टुं यान्, चक्रिमातापि शक्तिभाक् // 23 // अबाह्यस्तेऽवधिः पाच्याद्भवादत्रागतावपि / शुद्धान्यप्रतिISI पातीनि, गर्भे ज्ञानानि त्रीण्यपि // 24 // वृद्धिस्ते जठरे मातु-गर्भगे त्वयि नाभवत् / अकृताकारितं चित्रं, OL. महतां लोकभावजम् // 35 // गर्भगस्यापि कायस्ते, न रुधिरादिकल्मषैः। लिप्यते महता चित्रं, चरित्रं केन चिन्त्यते // 26 // कुलं ते गर्भगे स्वामिस्त्वयि राज्यादिऋद्धिमन् / नियमात्स्यात्-सुरा चाऽपि, तथा तद्विदधल्यपि // 27 // लघुः कायोपि-ते स्वामिन् , स्नापितो देवनायकैः / स सुराचले कोटया, कलशैः या सुमहत्तमैः // 28 // त्वयिभाग्यभराऽचिन्त्यो, यजन्माहनि सोढवान्। भक्त्योदस्ताम्बुसम्भारं, मेरौ सः / सुरेश्वरी // 29 // जगत्यस्ति प्रभो! बाल-स्त्वां विहायापरो नहि। यो विना स्तन्यपानेनै धते पुष्टाङ्गवान् भवान् | // 86 // 3 OLP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Tru Ti Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो // 87 // PATH . IS // 30 // सञ्ज्ञाकालेपि दुःखं नो, जनन्या दत्तवान् विभुः। अवागपि व्यधात्सा ; बोधो मातुर्यथा भवेत् देवगव्यार द्धारककृति-K // 31 // आजन्मातिशयास्तेऽहं-श्चत्वारो देहजा न ये / परैराप्यास्ततस्ते स्यु-र्भावा अतिशयाह्वयाः // 32 // KI द्वात्रिंशिका सन्दोहे कल्याणकानि पञ्चापि चतुस्त्रिंशच ते जिन ! / अतिशया जगल्यां न, प्राप्या अन्येन केनचित् // 32 // एवं जिनस्व नुतवान् जगतो. ह्यपूर्व-वस्तुमदर्शनपरेण नवेत भक्त्या। माहात्म्यमात्यमपुनर्भवजैः परैन, वाञ्छा / जिनस्य नुतये सततं ममास्तु // 34 // इतिजिनवरनुतिः।। देवद्रव्य-द्वात्रिंशिका (35), - नत्वा नतं. देवगणैजिनेशं, ज्योतिप्रसा-रोन्मथितान्धमोह। यदीयभक्त्या चिरसञ्चितैनः, विलीयतेऽर्केण तमस्ततीव // 1 // परिग्रहो यद्यपि शास्त्रकार-रुक्तः सदा; सावविधातहेतुः / तथापि त्वद्भक्तिवशान्मुनीश,स | सश्चितस्तीर्थकरत्वहेतुः // 2 // अर्थो यदा स्याद्विषयेप्सयाऽऽत्ता, संरक्षितो वधिता एव वा स्यात् / तदाऽऽध्यानं. IN प्रवदन्ति विज्ञा, भक्त्या : जिनेशस्य तु धर्मवृद्धिः // 3 // : जिनेशितनों तनुवारमनांसि तथापिः भकल्याऽभिधाया युताऽऽकृतिः। तथैव निष्किञ्चनमाईतानां; देवं विनिश्राय शुभाय सोऽर्थः // 4 // पृथ्व्यादिहिंसापि जिनालयादौ कृता न भक्त्या भववर्धिनी स्यात् / यथा सुभावेन तथाऽर्थवृद्धिः सद्धर्मवृद्धथै विहिता वृषायः।। 5 / / अर्थेन / पूजा जिनबिम्बराजेर्वद्धनः भव्यालिविबुद्धये स्यात् / विध्याति संसारदलानलोऽतो, मुक्तश्च भव्यतनमक्तिहेतु . P // 6 // एवं समीक्ष्योग्राफलं सुबुद्धया, चैत्यस्वरक्षाकृतमामनन्ति / परीतसंसारजिनाधिपल मुख्यं त्वासोति AI) 49s D विवर्धकोऽस्य // 7 // चैत्यस्त्रविघ्नापहृतौ मुनीता, पाराश्चिके कोषमापि छुद्देद्यत् / आतापनायाः कृतिरस्युपेया-01 - TEP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak TEDY Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस सन्दोह राजादितुष्टथै मुनिभिस्तदर्थम् // 8 // शक्तौ हि कुर्यादमिचारमाप्तचैत्यार्थमाश्रित्य न तत्र पापं / कल्पं आगमो. | जिनानामधिगत्य साधुः, कुर्यादुपेक्षां भवभाजनं सः // 9 // प्रोवाच शास्त्रे हरिभद्रसरिश्चैत्यार्थरक्षादिविधौ / देवष्यबारककृति- फलं महत् / यचैत्यद्रव्यं जिनशासनस्य, प्रभावकं ज्ञानदृशोर्विवृद्धथै // 10 // केचिद् वदन्त्यत्र जिनागमानां, वार्षिशिका रहस्यमज्ञाय मुनीन्द्रवृन्दम् / मुख्यं यतो ग्रामतयोदितं तचैत्यात्ततोऽस्य द्रविणं तदर्थम् // 11 // न तेऽवबुध्यन्त / इहास्ति न क्रमो, ग्रामप्रकारे विदुषां प्रशस्तौ। यचैत्यरिक्यांशकृता मुनीनां, शय्या न कल्प्या गदिताऽऽगमेषु / // 88 // // 12 // प्रभावना या जिनशासनस्य. प्रोक्ताऽस्ति चैत्यद्रविणस्य वृद्धौ / न सा मुनीनां कृत आश्रयादेस्तद्वन्दनार्थ तु मुनीन्द्रसङ्गमात् // 12 // आप्तोपदेशाज् जिनशासनस्य,प्रभावना ज्ञानदृशोश्च वृद्धिः / शस्ता मुनीन्द्रर्हरिभद्रवर्यैः, INI पञ्चाशकादिष्ववलोक्यतां तत् // 14 // न तेन चैत्यार्थमुपाहितं स्वं, ज्ञानादिकार्ये सुधीभिनियोज्यं / यदाहुरा TM जिनरिक्थमाप्त, तत्रैव योज्यं न परत्र विज्ञैः // 15 // . दत्तं भवेद्वा. मनसा वितीर्ण, विनिश्चितं वा जिनभक्तिकार्ये / यद् द्रव्यमेतज्जिनद्रव्यमाहुर्विज्ञा जिनोक्तिप्रतिबद्धरागाः // 16 // मूर्तीश्च जैनीर्मनसा निधाय, जिनेश्वरं वा गुणरत्नवाड़ि / कृतं हि भक्तादि मुनीन् प्रतीत्य, कर्मेदमाप्ता न समामनन्ति // 17 // Si युज्येत लातुं यमिनां तदेतत्,सूत्रोदितं किं न मतं भवद्भिः। देवस्वभोगो नहि सूत्रकृद्भि-रुक्तो भवेन्मोक्षसुखैकतानैः / / // 18 // पूजां जिनानां हृदये निधाय, भक्तं विदध्यात् कथनाभुवं वा / औदेशिकं तन्न मतं यदत्र, तदत्र Ki सूत्रस्य महाशयत्वम् // 19 // आज्ञां प्रमाणीकुरुते सुबुद्धिर्यस्तस्य नास्त्यत्र कदापि दोषः / न निश्चितं तत्र यतो l ह्यधिक, सर्व स्वभोगे गृहिणामुपैति // 20 // व्याख्यानभूमि जिनमार्गवृद्धथै, कुर्वन्ति देवा भगवत्संभक्त्या। H .. महद्धिको यत्र समैति नो वा, जाता जिनानां समवात्सतिर्वा // 2 // ततो न तद्भोगभबं मनीना-मंहो न શા માટતા चात्रातिचरेन्मुनीशः। भिन्नोऽस्ति वा कल्प इहाकृतीनां, भावात् यतस्तद्दशि भक्ष्यमन्त्रम् // 22 // | DIP. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak True Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रिचैत्यगमनम् भागमो द्वारककृतिसन्दोहे जिनेश्वरे नाङ्गनया क्रियेत, स्पर्शस्तथा कि जिनविम्बवृन्दे ? / भक्त्यर्थमत्रोद्यमनं विशेषात् , पार्श्वे स्थिति तद्विबुधास्त्यजन्ति // 23 // धर्माभिधानो श्रमणो यथेच्छं, जगाद यद्देवगृहान्तराः। उत्सर्पणादि क्रियते न तत्कं, चैत्यस्वमेतन्न विदां विधेयम् // 24 // जिनेन्द्रचैत्यान्तरुपासकानां, वाचंयमानां च निषि- A द्धमेव / स्वकार्यमुग्राघनिबन्धनत्वाद्विहाय चैत्याऽऽकृतिकार्यमग्र्यम् // 25 // किश्चाऽऽयमेनं जिनराजविम्ब- IN पूजार्थमार्याः कथयन्ति शास्त्रे / उत्सर्पणायाः स्वमुशन्ति श्राद्ध-विधौ गणेशा जिनद्रव्यमेव // 26 // तदन्य- K थाकारकृतौ कथं न, देवायनाशो ? न ततश्च दुर्गतिः। भवेद्दरन्ता किमु ? तत्समग्रैधर्मो मुनीशैरखिलैर्निरस्तः // 27 // तेनोदितं यज्जिनराजमूर्ते-रुत्सर्पणेन क्रियतेऽर्चनादि / साधारणं तद् द्रविणं समेषु, श्राद्धानगारादिषु तन्नियोज्यम् // 28 // एवं वदन् सोऽखिलसाधुवृन्दै-जैनाध्वनो द्राग् विहितो बहिस्तात् / स आलजालं बहु लप्सवांश्च, निन्दामवापाखिललोकमध्ये // 29 // आदौ जगौ सोन न वाङ्मयोक्तं, समाहितेऽस्मिन् परथा व्यलापीत् / आरात्रिकादौ न विधेयमेतत् , शास्त्रेण तत्रापि निदेशितेऽवाक् // 30 // यथा पराधीनमतियदृच्छा-माश्रित्य जल्पेनहि सत्यसीम्ना। तथाच यः कश्चिदुवाच चैत्य-निवासिभिव्यमिदं प्रवृत्तम् // 31 // तथाच तद्यद्धरिभद्रमुख्यैः, संवेगिधुपैंजिनचैत्यहेतोः / प्रोक्तं जिनस्वं तु विवर्धनीय-मिति प्रबुदैः श्रुतमर्चनीयम् // 32 // इत्थं तत्त्वावगमविधिनाऽऽस्थेयमाप्तोक्तमात्मन् !, चेत् स्वम्मार्गे नयितुमभिलापोऽस्ति / स्वस्याधभीतेः। नह्यन्धानां भवति सुखकृद्यानमाश्रित्य दुर्ग, तत्सूत्रोक्तं मुनिगण ! सदा मन्यतामुच्यतां / च // 32 // इति देवद्रव्यद्वात्रिंशिका // रात्रिचैत्यगमनम् (36) , ननु जाते सूर्यास्ते चैत्यालये देवान वन्दितुं कल्पते नवेति ? चेत् / विहाय खरतरोत्पत्तिकालं न INIP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागमो केनापि तनिषिद्धं, प्रत्युत मूलानुयोगरूपायां वसुदेव हिण्ड्यां बहुशः पूजाप्रदीपारात्रिकादिविधान प्रतिपादितं / म रात्रिचत्यभगवतां श्रीमदर्हतामभिषेकस्तु जन्ममहे रात्रावेव भवति / ननु च श्रीमति महानिशीथे श्रावकाणामभिग्रहे II द्वारककृति- प्रतिपादितमेवं-'तत्थ तुमे पुव्वण्हे पाणंपि न चेव ताव पायव्यं / नो जाव चेइयाई साहवि अवंदिआ विहिणा // ISI गमनम् सन्दोहे मज्झण्हे पुणरवि वंदिऊण निअमेण कपए भुत्तुं। अवरण्हे पुणरवि वंदिऊण निअमेण सुअणंति // , IA एप पाठः स्पष्टतया ज्ञापयति यद्त - शयनकालो जायेत श्रावकाणां यावत्तावत्कालं जिनचैत्याना मुद्धाटत्वं श्रावकश्राविकाणां जिनवन्दनादि चानिवार्यसेव / आरेकतेच खरतरसन्तानीयो यदुत-'अजाण सावियाण अकालचारित्तदोसभावाओ / ओसरणंमि न गमणं दिवसतिजामे णिसि कहं ता' ? // 1 // इतिशास्त्रवचनात् स्पष्ट एव श्राविकाणां जिनचैत्यगमननिषेध इति चेद् / नैषा गाथा पूर्वाचार्यग्रन्थीया, किन्तु खाद्यैरेव स्वमतततये तता / किञ्च-भगवतां श्रीमतामहतां प्रथमचस्मप्रहरयोर्देशनाप्रत्तिरागमप्रसिद्धाप्यनेन | साध्वीश्राविकारूपद्विविधसङ्घगमनेनावरुध्यते / किञ्च- स्वविमानेन सूर्यचन्द्रमसोः कौशाम्ब्यां श्रीमतो भगवतो महावीरस्य वन्दनार्थं यदाऽऽगमनं जातं तदा नक्तकाले मृगाक्तीचन्द्रनवालयोरागमनादिजातो वृत्तान्तोऽप्यपलप्यते अनया गाथया। भगवन्तोऽभयदेवसूरयोऽप्याहुः पश्चाशकष्टत्तौ- अभिग्रहः-चैत्यवन्दमकृत्वा मया / न भोक्तव्यं न वा स्वप्तव्य'मिति / सिद्धमनेनापि रात्रिशयनकालं चैत्यानां वन्दनं श्रावकश्राविकावर्गस्य, न च चैत्यप्रवेशेन विना भावि तदिति / 'सूरत्थमणे तित्थयरो धम्मं कहेउमुडिओ थेरी गय'त्ति श्रीआवश्यकादिपाठोऽपि श्रीमदर्हता चतुर्थप्रहरे द्वादशानां पर्षदामग्ने धर्मदेशना, तत्र रूयागमश्चेति सष्ठं ध्वनयति / किञ्चन // 9 // चैषा गाथा खरतरसन्तानीयग्रन्थेभ्योऽन्यत्र क्यापि ग्रन्थे, न च तद्भागो भावार्थों कोपलभ्यतेऽस्याः। खर iDPP.AC.Gunrainasuri M.S. Jun Gun Aaradhak True ...... Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारककृति रात्रिचैत्य भागमो तरसन्तानीयाश्च श्रीउमास्वातिवाचकश्रीहरिभद्रमुरिप्रभृतिकर्तृकत्वेनाचारवल्लभतरङ्गिणीप्रभृतिकल्पितनाम्ना / कल्पितगाथानां सामाचारीशतकादिषुल्लेखानैव ग्रन्थमाथा कल्पनाशिल्परहिता इति स्वमेऽपि सज्जनाः प्रतीसन्दोहे यन्ते / श्रीअभयदेवसूरिसन्तानीयश्रीगुणचन्द्रसरिकृतश्रीमहावीरचारित्रस्य प्रशस्तौ ‘सुविहिये त्यस्य स्थाने // 91 // ID खरयस्येित्ति परावर्तकरणात् पाठपरावृत्तिकुशलास्ते। आदर्शवैष वनपदीयराजकीयपुस्तकालये तथा परावर्तितपाठसाक्षिको नेतुं दृष्टिपथं सज्जनानां सुगम एव / प्रतिवेयं जेसलमेरुख़स्तरमाचीनभाण्डागारसत्का / विल्हनविकृतगुर्वावस्यां च 'सरवरवरलद्धे'त्येवंविनं. पाठं परावृत्त्याप्रस्तुतस्यानधिकृतस्य 'खस्यरबरलद्धेति- परावृत्तेः पाठपरावृत्तिपटुताप्रवीशा एते खरतराः। श्रीअर्थदीपिकावीतरागस्तोत्रवृत्तिप्रभृतिषु श्रीअभयदेवसूरीणामुपद्रे खस्तरेशति शब्दस्य नूत्नस्य करणात् सप्तदशशतीयशटितसत्यव्रतजिन| चन्द्रेणारोहितानां (तेषु) प्रत्ततरग्रन्थेषु कल्पितपरम्पराद्यालेखाङ्कितपुष्पिकादिदर्शनाच पाठप्रक्षेपप्रयत्नपटिष्ठाः | खरतरा इति कः खलु न मतुले 1 माध्यस्थमा दृशश दर्शक इति / किञ्च-श्रीवसुदेवहिण्डयां प्रियदर्शनालम्भेऽधिकृते / सीमणापर्वते हीमन्ताधराभिधाते नगे श्रीवासुदेवादिभिर्निशायामेव श्रीजिनमतिमानां पुस्तः प्रदीपादिपूजा विहितेति स्पष्टं दर्शनात् + सकाः सूनोत्तीर्ण श्रोतुमुत्सहेत ? / श्रीभाचारोपदेशे तु स्पष्टमादिष्टं. दैव सिक| प्रतिक्रमणगुरुविश्रामणाद्यनन्तरं शयतार्थ.स्वगृहगमनावसरे यत्-'ग्रामचैत्यं ततो पाया दिति / कतिचिदर्वाग्भाविनः D सुनिहितास्तदनुकुर्वन्त्यर्थापत्त्याऽशतश्च तत्तेषां सूक्ष्मेक्षिकाराहित्यं मुग्धजनप्रियत्नापेक्षा वा द्योतयति, न ) bl त्वेतादृशेस प्रत्नप्रस्थप्रतिपादितानां मुलिहितोपदेशानां व्यवच्छेदः अकर्तव्यता वाऽऽसादयेत् सिद्धि, बाधां | वानिध्यात्तत्तत्सुविहिनोदितीनामिति। खरतरसन्तानीयमान्यानां जिनवालभानामुल्सुनाममन्दितता श्रीमलयगिरि Jun Gun Aaradhak Trust गमनम् लाट ANI Ac. Gunratnasuri M.S. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे // 92 // सरिभिः श्रीजीवाभिगमप्रज्ञापनावृत्योः संहननमाश्रित्य स्पष्टं सूत्रिता। 'अट्ठमीचउद्दसीसु प्रभावइदेवी मत्तिराएण | सयमेव राओ णट्टोवहारं करेई', त्ति दृष्ट्वापि निशीथोल्लेखं कः खलु न श्रद्दध्याच्छाद्धो रात्रावपि जिनमन्दिरे रात्रिचैत्यललनानां निःसंशयं प्रवेश ? / किञ्च-तावय दिवसावसाणे सूरो अत्थं समल्लीणो // 1 // णयरीए मज्झयारे I गमनम् दिट्ठ चिय जिणहरं मणभिरामं / हरिसिय रोमंचइया तत्थ पविट्ठा परमतुट्ठा // 2 // थोऊण अचिऊण य जिणपडिमाओ परेण भावेण / इति विमलाचार्यकृतपद्मचरित्रे प्राचीनतरमेनं पाठं दृष्ट्वापि खरः शर्करामिव मक्षिका चन्दनमिव च खरतरमोहमदिरामत्ता जिनालयप्रवेशं वैष्गवमन्दिरमिव नियतदर्शनपूजायोग्यमिति मन्वानाः सर्वकालदर्शनपूजायोग्यं जिनमन्दिरंन श्रद्दधते। 'तत्थेव जिणहरे ते रत्तिं गमिऊण अरुणवेलाए'।त्ति। एवं ज्ञात्वाऽपि सिद्धान्तचरित्रयुक्तिभिः सिद्धं रात्रौ चैत्यं गत्वा वन्दनं सपूज कः खल्वागमानुसारिमतिकः खरवचनानां खरतराणां जिनदत्तोपझं रात्रौ चैत्यगमननिषेधरूपं कर्णकटु भवव्रततिवृद्धि वारिदायमानं श्रोतुमप्युत्सहेत ? / ननु साध्वालये रात्रौ गम्यते स्थीयते च न वेति ?, गम्यते स्थीयते च, साधुसमीपे सामायिकावश्यकपौषधक्रियाणां समादरोक्तरिति चेत् / चैत्यगृहेऽपि ता उक्ता एव / ननु तत्राशातनाप्रसङ्ग इतिचेत् / सत्यं, वर्जने विधिः। 'दुभिगंधमलस्सावी तणूरप्पेसऽण्हाणि' तिवचनात स्पष्टो निषेधः अवस्थानस्य चेत् / सत्यं, साधव एवंविधा, न गृहिणः, ते च नैव तथा, प्रत्युत निश्रितचैत्यसमवसरणविध्युक्तिप्रतिपादकः सिद्धान्तः। किंचाधिवासनादिष्ववनामनार्थमनेकसधवनारीणां निशायामागमनं श्रीहरिभद्रसूर्यादिभिरुक्तं / भवताऽपि तत्कार्यत एव // इति रात्रिचैत्यगमनम् // NOR // 92 // I I.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो. द्वारककृति सन्दोहे 93 // देवतास्तुतिनिर्णयः (37) देवतास्तुतिकश्चिदाहात्र सूरीणां, प्रातिकूल्यं चिकीर्नरः। किं नतिं तनुथाऽऽचार्याः!, सुराणां चैत्यवन्दने ? // 1 // देवा निर्णयः अविरता ययं. विरता सर्वपापतः / मुनयोऽपि तथा श्राद्धाः, श्राद्धयश्चांशाद व्रतोद्यताः ॥२॥हीनेषु न गणाय स्याद्, नतिः स्यादोषवृद्धये / अन्यथा दोषयुक्ताः किं, त्यज्यन्तेऽपरदेवताः 1 // 3 // असदेतद्यतो वैया-वृत्त्यादिकारिणः सुरान् / शासनस्य स्मरन्तो न, दोषलेशं समीयति // 4 // ना दिनुतिवत्तत्र, वन्दनेत्यादि कथ्यते / प्राक् सूत्रे नैव चोत्सर्गे, कथं ब्रूषे वितथ्यकम् ? // 5 // त्वं च सर्वाः स्तुतीर्दैवी-नतियुक्ताः / किमीक्षसे ? / येन सर्व श्रुतं त्यक्त्वा, त्यजस्यमरसंस्तुतिम् // 6 // नमोऽव्ययं तु प्रकटं, ख्यात्युत्कर्ष / सुरावधिम् / का हानिस्तत्र यद्देवाः, सन्ति शासनसेवकाः // 8 // शय्यम्भवा जगुस्तस्माद् , देवा धर्मवतो / नरान् / नमस्यन्तीति प्रकटं, बुद्ध्वा मार्गमनुव्रज // 9 // जिनेन्द्राणां समस्तानां, कल्याणकमहोत्सवान् / देशनाभुवमेकोनविशति हयतिशायिनां // 10 // उत्कर्षमेवं देवानां, विदन् को न नतिक्रियाम् / उचितां: ASI शुद्धधीः कुर्यात, सम्यग्लाभविधित्सया // 11 // जिनोऽपि देशनारम्भे, त्रयोदशगुणस्थितः। सङ्घ किं तीर्थशब्देन, नमत्यर्वाग्गुणस्थितम् ? // 12 // तीव्रधर्मानुरागेण, रक्तोऽयमिति कोणिकं / कथं शशंस भगवान्, कामदेवादिकं च किम् ? // 13 // अधोगुणस्थितस्यापि, गुणः स्तुत्यो न किं भवेत् ? / श्रेणिकादेर्न किं स्ताव्यं, सम्यक्त्वं क्षायिकं पुनः१ // 14 // गणाधीशा न किं मरीन, वाचकान साधुसञ्चयान् / परमेष्ठिस्तुतौ // 93 // नित्यं, स्तुवन्तीद्धगुणा अपि 1 // 15 // सर्वज्ञा अपि नत्वा किं, गणिनः पृष्ठतो भुवि / न निषीदन्ति INI P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak T ? Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बागमो. IN द्धारककृतिसन्दोहे समव-सरणे ? हृदि चिन्तय // 16 // मार्गस्थोऽधःस्थितः स्तुत्यो, न मार्गाद् बहिरास्थितः। अत एव सुरा मिथ्या-दृशस्त्यज़्यन्त आहेतैः // 17 // हीनोऽपि मुनिमार्गेण, शासनस्य प्रभावनां / कुर्वन् सत्यं ब्रुवन् देवतास्तुतिशस्तो-ऽनेकशः शास्त्रकारिभिः // 18 // गुणैः समोऽधिको वाऽपि, यदा नैवापरो मुनिः। सहभावी H निर्णयः भवेत्साधो-स्तदा तैरपि सङ्गतिः // 19 // देशनाभुवि देवीनां, पृष्ठतोऽस्थुः किमार्यिकाः ? / श्राद्धश्राद्धी- | व्रजाग्रे च, किं सुराः कल्पसंस्थिताः ? // 20 // गुणस्तुतेस्तु देवानां, करणारोधिराप्यते / निषेधात्किं न तस्यास्ते, बोधेः प्रत्यूहकारिता ? // 21 // निषेधयंश्च देवानां, स्तुतिं किं त्वं न शास्त्रतः। प्रत्यनीको भवेऽमुत्र, भविता बोधितोज्झित:१ // 22 // वलिं पूर्व सुरा भूमौ, देशनाया न कि ललुः / नरेभ्यस्तर्हि किं नैते, नरेभ्यः श्रेष्ठतायुताः 1 // 23 // चक्रुः प्राक् साम्प्रतं तीर्थो-दयं कुर्वन्ति भाविनि / करिष्यन्ति सुरास्तत्किं, कृतज्ञः तत्स्तुति त्यजेत् // 24 // सुदृग्देवस्तुतिं श्राद्धाः, कुर्वन्तस्ते न सम्मताः। अन्यदेवार्चकाः केऽपि, मतास्ते मतमध्यगाः // 25 // अपराद्धं तव श्राद्ध-वर्गस्य च सुदृक्सुरैः। सन्तोषमापिता यूयं, नूनमन्यमतामरैः ? // 26 // अन्यदा देवनुत्या चेन्मिथ्यात्वं न तदा किमु / प्रतिष्ठादिविधौ ? यूयं, तत्र तत्र रता यतः // 27 // परः शतानि शास्त्राणां, वचनानि सुरस्तुतेः / ज्ञापकानि विधातृणि, न कि बुद्धया समीक्षसे ? // 28 // 'असहिजेत्यादिसूत्र-मन्यथाकारमाग्रही। माकार्षीः शासनात्कम्नं मनस्ते नैव कुर्वते // 29 // न तदीयसहायेन, मार्गोऽसौ साध्यते परं / जिनेशाधनि वृत्तानां, विघ्नन्दापहाः सुराः // 30 // सहायास्तु श्रुते मोक्ता, मुनीनामपि संयमे / नृपाद्या अपि तत्किं न, हीनोऽपि स्यात् सहायकृत् 1 // 31 // इत्थं शास्त्रवचः सयुक्तिकमलं नेत्रे निमील्याचिरं, धृत्वा हृत्कमले निराग्रहमतिर्भूत्वा तनु प्रत्यहम् / सुदृगदेवनुतिं सदादरवतीं प्रेत्याय्यबोधिप्रदां, चैत्यानां नमने शिवामरनरानन्दाय प्रोत्साहितः // 32 // इति देवतास्तुतिनिर्णयः॥ Pic. Gunratnasuri M.S. // 94 Jun Gun Aaradhak Trust iti v e.in... dadi.............. . .......... ..... Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमो. द्वारककृतिसन्दोहे वा गुरुस्थापनासिद्धिः (38) गुरुस्थापना कश्चिदाहात्र सूत्रार्थ, न्यायतोऽनवधारयन् / विरहे एव सूरीन्दोः, क्रियायां स्थापना मता // 1 // अत एव यदाऽऽचार्याः, साक्षात् स्युस्तत्र नाकृतिः। प्रतिक्रान्त्याद्यनुष्ठाने, कार्या सूत्रोक्त्यनुश्रितैः // 2 // ये च सूरी- HI सिद्धिः श्वरे साक्षात् , स्थापनां सति कुर्वते / आग्रहाधीनचेतस्का, ज्ञेया मार्गविराधकाः // 3 // अमीषां वचनं सूत्रोत्तीर्ण, यद् भाष्यकारकाः। सामायिके भदन्तेति, शब्दस्यान्वर्थतां जगुः // 4 // तथा च विरहे सूरे-रवश्यं स्थापनाक्रिया / विरहे एव न तु, यत्, भावाकृत्योर्भिदा नहि // 5 // अन्यथा देशनाभूमौ, जिने साक्षात् प्रभावति / किं सुराः प्रतिमाश्चक्रु-स्त्रिदिक्षु प्रभुसेवकाः? // 6 // किञ्च-कायोत्सर्गे चतुर्विश-त्यागमस्तोत्रादिके स्थापनाया अभावे कः, स्थाप्यो जिनतया ननु ? // 7 // वन्दने च कथं काय-स्पर्शः सूरेस्तपस्विनां / भवेत् परः सहस्राणां ?, मन्यस्व श्रुतगं वचः // 8 // चूर्णिकारा अतो व्याख्यां, कुर्वन्तो वन्दनस्य तु / रजोहृतौ गुरोः पादौ, स्थाप्याविति जगुः स्फुटम् // 9 // आभिमुख्ये च सम्बुद्धिर्भदन्तेति पदं तथा। ततो ब्रुवन् भदन्तेति, सूरिं यद्वाऽऽकृतिं वदेत् // 10 // अभिमानग्रहास्तं, मनस्ते तेन जल्पसि / श्राद्धान् साधूंश्च न स्थाप्या, स्थापनेति क्रियाक्षणे // 11 // विनाऽक्षस्थापनां सूरे-ाख्याने पापभागिता / शिष्येऽपि श्रोतरि प्रायश्चित्तं सूत्रकृतो जगुः // 12 // योगक्रियाक्षणे शिष्यः, त्रिःप्रदक्षिणयन् गुरून् / त्रिः प्रदक्षिणयेदक्षा-निति शास्त्रगिरं स्मर // 13 // कायोत्सर्गे च निष्कम्पा, दृष्टी रक्ष्या कथं त्वयि / न च निश्चलता भाव-स्तवो येन त्वयीक्षणम् // 14 // गुरोरक्षस्यान्तराले, आत्मनश्च यदा पुनः। पुरतो गमनं कर्तु-विधेः किमूदितं श्रुते ? // 15 // आचार्योऽपि गणानुज्ञा-काले शिष्याय मन्त्रयन् / अक्षान् दद्यात्सभामध्ये, कथं तेऽमुष्मिन् प्रभावति ? // 16 // इति स्थापनासिद्धिः। डा. *. चोखा AV // 95 // IDAc. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ అంగాంగాని శాంత आगमोद्धारककृतिसन्दोहस्य / द्वितीयो विभागः समाप्तः॥ com988BCCORT SANILORRECANSnok DECIAL-SECSPHERECIATION P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust