________________ सन्दोहे NI द्यते नैव, सन् नैवेति परे जगुः / सदसतोः समुत्पत्ति, मन्वते तत्त्ववेदिनः // 26 // साकारमीश्वरं केचित्, आगमो-NI केचिदाकारवर्जितं / स्वीकुर्वन्ति मते जैने, स. द्वयात्मकतामितः // 27 // भेदेनोपासनामेके, परेऽभेदेन तां अनद्धारक- | जगुः / यथाभूमिक्षमे ह्येते, मतं जैनेश्वरं पुनः // 28 // ईशो द्रव्यस्तवेनेज्यो, भावेनेति तथा परे। यथा- न्तार्थाकृति यथं समाराध्य, आराध्यो जैनगीः पुनः // 29 // द्रव्यात्मकं समं वस्तु, परे भावात्मकं परे / द्रव्यभावाव-नाष्टकम् भेदेन, भेदेन चेति तथ्यवाक् // 30 // स्वतो ज्ञेयाः समे भावा, इत्येके केचिदन्यथा / अन्वयव्यतिरेकेण, वस्तूनां ज्ञानमार्हताः // 31 // (आर्हता ज्ञानमूचिरे) जीवो वालाग्रपर्वादि-मानः सर्वगतस्तथा। प्रतिपन्नो विचित्रस्तु, शरीराश्रित आहेतैः // 32 // अर्थाः सर्वेऽपरनयमतः स्वीयसङ्कल्पजाल-माश्रित्योक्ता विविधवचनैः सर्ववोधनहीणैः / उन्मूल्याप्ता हतमतिचयं कर्मवृक्षं समस्तं, ज्ञात्वा ज्ञेयं समभुवनगं चख्युरानन्दसिद्धथै // 33 // इति स्याद्वादद्वात्रिंशिका // ... अनन्तार्थाष्टकम् (12) ननु सूत्रेषु वाक्यस्य, जिनोक्तस्य विवेचिता / अनन्तार्थयुतिः स्पष्टा, यत एतदुदाहृतम् // 1 // वालुकाः / / सर्वधुनीनां, सर्वाब्धीनां ग्रुषन्ति च / अर्थास्ततोऽप्यनन्ता: स्यु-जिनोक्ते वचसि ध्रुवम् // 2 // यदि सामान्यतः सर्वे, शब्दाः सर्वार्थवाचका / इति न्यायोत्र बोद्धव्यः, का जिने तर्हि वर्यता // 3 // विशेषतो न सन्त्यस्य, यत्सङ्ख्येयं नृजीवितं / शक्नोति नेयता वक्तु-मनन्ता जातुचिन्नरः // 4 // सत्यं, न केनचित्प्रोक्ता, अनन्ता जिनवाग्गताः / अर्थास्तथाप्यनन्तार्थ, वचो जैनं न चान्यथा // 5 // यावतोऑन्नरो वेत्ति, HI तावतां बाधमीक्षते / वचसि स्वे परित्यज्य, तं सर्व वदति प्रधीः // 6 // अर्थील्लोकगतान् सर्वान्, वीक्ष- // 27 // 11 माणो. जिनो वच: / सर्वांनुगं निराबाधं, वचो वदति निश्चितम् // 7 // एवं जैनं वचोऽनन्त पदार्थान || P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust