________________ विधा आगमोद्धारककृतिसन्दोहे नम्. // 28 // | व्याप्य संस्थितं / बाधं चानन्तगं त्यक्त्वा-ऽनन्तार्थं तत उच्यते // 8 // इत्यनन्तार्थाष्टकम् // पर्वविधानम् (13) प्रणम्य नतयोगीन्द्र, देवाच्यं त्रिजगद्गुरुं / जिनं मासाब्दविभिदो, वक्ष्ये पर्वोपलब्धये // 1 // उद्यम्यं सर्वदा धर्म, कर्मबन्धंभयान्वितैः / हित्वाश्रवान् संवरैक-साध्ये निःश्रेयसप्रदे // 2 // सम्यक्त्वेऽतो विनिर्दिष्टे, लक्षणे मुनिपुङ्गवैः / संवेगभवनिर्वेदौ सदृग् तद्धर्मलिप्सुकः // 3 // लक्षणं लिङ्गमित्युक्त्या, न भ्रान्तव्यं हितैषिणा / अग्नेरौष्ण्यस्य लिङ्गत्वे, किं नान्योन्यनियन्त्रणा ? // 4 // किंतु यत्र मनो नास्ति, सार्वेऽपर्याप्त / ऊर्ध्वगे / सहकार्यभावतस्तत्र, मनोजन्या न कल्पना // 5 // पर्याप्तेऽपि क्वचिजन्ती, कादाचित्को विपर्ययः।। स लेश्याद्यनुबन्धेन, लक्षण तु पुनः स्थिरम् // 6 // धर्मस्य विद्विषां विघ्न कारिणां गर्हणावतां / तत्क्रियामचि- M कीपणां, तन सम्यक्त्वमंशतः // 7 // शान्तेर्दर्शनमोहस्य, यथार्था जायते रुचिः / सत्तत्त्वगा पुनः पापा रतिः / संयोजनाक्षयात् // 8 // प्राग्भाविनोऽस्य लिङ्गत्वं, न विरुद्धं यतो मतः / पुष्योदयः पुनर्वखोरुदयस्यापि / बोधक: // 9 // एवं सत्यपि सर्वेषां, सदृशां न वृषोद्यमः / तदिच्छाभावतो नैष, किन्तु . चारित्रमोहजः / // 10 // अत एव च सार्वघ्या-धिष्ठिता भरतादयः / गृहस्थाः आददुर्दीक्षा, मोहाभावाजगद्गुरोः // 11 // गृहिलिङ्गेऽन्यलिङ्गे च, शास्त्र सिद्धिरुदाहृता / साऽऽन्तर्मुहूर्त्तजीवित्वे, नान्यथेति श्रुते मतम् // 12 // तेन चारित्रमोहस्योदयाद्धर्म चिकीर्षति / नापि व्रतं यतो रुद्धः, पमरे क्षुधितो वसेत् // 13 // अप्रत्याख्यानमोहस्य, शमात् स्याद्देशतो व्रतं / यथाऽभ्रकाणामल्पत्वे, ज्योतिर्देशाविस्पतेः // 14 // देशतो विरत: कुर्याद् वधादे- 4 विरतिं कथां / यावद्दिगादिनियम, कश्चिद्दिष्टमपि श्रयेत् // 15 // पौषधावश्यकतपो-देशावकाशिकानि तु / पर्वाण्यवेक्ष्य भवभीत्रस्तोऽवश्यं समाचरेत् // 16 // पर्वाणि पक्षमासाद्धभेदानुसरणानि तु / ततोत्र मासवर्षाणां, plac. Gunratnasuri M... // 28 // Jun Gun Aaradhak Trust