________________ - - नुतिः // 86 // | जगदुद्धरणात्मक दत्वा जिनपदं जातं;तक भाग्यात् फलेग्रहिः॥१२॥ ततो हुंदादिति त्वं; सर्वाङ्गिवारणेच्छया / आगमो विदधत बद्धवान् तीर्थ करनाम गुणालयम् // 13 // तदा त्वं भगवान, सर्व-संसारक्षपकोपि सन् / जन्मत्रयं च- 1 जिनपर द्धारककृति- कर्थान्त्यं शेष जीवोपकृत्या // 14 // परेऽव्ययपदं गत्वा धर्माद्धाराय संमृति / आगच्छन्तीति यद्वायं मृषा.ते. सन्दोहे वृत्ततः कृतम् // 15 // संसृतेः क्षय आरब्धे, शेषं जन्मत्रयं जवानासम्भावि परेषां तु, सम्भवी न भवः शिवात् / / // 16 // सुरलोकोद्भवामृद्धि, त्यक्त्वा गर्भाशयं विशनः। अशुचि न शुशोच त्वं, महत्त्वं ते कियद् ब्रुवे // 17 // KI यथा रत्लवणिक् ताप-श्रमादिखेमाप्नुवन् / लाभार्थी ग़णयेचैव तं तथाः त्वं भवव्यथामः॥१८॥ यतस्तीथेKI को भूत्वा जगदुद्धारहेतवे। तीर्थस्थापनवाञ्छस्त्वं, न व्यथां तामजीराणः // 19 // अपूर्व ते जगत्यहन, गर्भागमनमात्रतः / कल्याणकमहं सर्व सदसौख्याय तेनिवान // 25 // सिंहासनानि शक्राणां, निश्चलान्य चलस्तदा। पेछुः शक्रस्तवं तेपि, स्तोतुं त्वां भाग्यनिर्भरातः॥२.१॥ लोकानुभावतो जाव-स्तदोद्योतो ज़गल्लये। PA अपूर्व जिन ! तेनेदं, सदाऽपूर्व परं किमु. 1 // 22 // स्वप्नांश्चतुर्दशोद्दीप्रांस्त्वत्प्रभावात. च्युतिक्षपो / माताऽप श्यन्न द्रष्टुं यान्, चक्रिमातापि शक्तिभाक् // 23 // अबाह्यस्तेऽवधिः पाच्याद्भवादत्रागतावपि / शुद्धान्यप्रतिISI पातीनि, गर्भे ज्ञानानि त्रीण्यपि // 24 // वृद्धिस्ते जठरे मातु-गर्भगे त्वयि नाभवत् / अकृताकारितं चित्रं, OL. महतां लोकभावजम् // 35 // गर्भगस्यापि कायस्ते, न रुधिरादिकल्मषैः। लिप्यते महता चित्रं, चरित्रं केन चिन्त्यते // 26 // कुलं ते गर्भगे स्वामिस्त्वयि राज्यादिऋद्धिमन् / नियमात्स्यात्-सुरा चाऽपि, तथा तद्विदधल्यपि // 27 // लघुः कायोपि-ते स्वामिन् , स्नापितो देवनायकैः / स सुराचले कोटया, कलशैः या सुमहत्तमैः // 28 // त्वयिभाग्यभराऽचिन्त्यो, यजन्माहनि सोढवान्। भक्त्योदस्ताम्बुसम्भारं, मेरौ सः / सुरेश्वरी // 29 // जगत्यस्ति प्रभो! बाल-स्त्वां विहायापरो नहि। यो विना स्तन्यपानेनै धते पुष्टाङ्गवान् भवान् | // 86 // 3 OLP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Tru Ti