________________ आगमोद्धारककृतिसन्दोहे // 3 // तथा लेशान्नियन्त्रणा / ततः स्पष्टा कृता विज्ञैर्मङ्गलादेख्दाहृतिः // 35 // इष्टादिदेवनत्या यत्, शस्तवस्तुप्रणोदनात् / यच्चाशीर्वाक्यतश्चक्रुर्मङ्गलं तच्छुभाशयात् // 36 // पापानुबन्धिपुण्येन, नास्तिकानामघात्मनां / ग्रन्थनिष्ठा न | मङ्गलासा शुद्धमतीनामवलम्बनम् // 37 // पणाङ्गनाथुर्ति भोग-मधमणस्य पुष्टतां / श्वयथोः प्रेक्ष्य सद्बुद्धिः, को जह्यात् दिभावमुत्तमम् // 38 // हितं स्वस्मै परस्मै चायत्याँ तदनुबन्धवत् / परं यस्माद् बुधा बोधे, तादृशे सततं रताः | विचारः // 39 // अतो धर्मश्च मोक्षश्च, परमार्थविदां मतौ / उपदेश्यतया वाच्यौ, ततस्तावेव पण्डितैः॥४०॥ श्लाघार्थकामयोः क्वापि, या सङ्कीर्णकथादिषु / साऽऽक्षेपिण्या हितोद्देशान्नांशतोदोषभाजनम् // 41 // यथा बालं प्रसू—याद्यच्छन्त्यगदं गदापहं / पिबेदं मोदकं दास्ये, तद्वदेतन तात्त्विकम् // 42 // आविष्कृता गणाधीशैश्चतुणां पुरुषार्थता / अर्थकामौ हि धर्मात् स्त, इत्याख्यातुं न तत्त्वतः // 43 // अत एव समाचख्यु-हरिभद्रा मुनीश्वराः / देवमानुपवीयर्द्धवर्णनं देशनाकृताम् // 44 // विपाकविषमावर्थ-कामौ चेत्तौ कथं फलं? / धर्मस्येतस्था किं तौ पुरुषाथी न सम्मतौ? // 45 // विना धर्म न लाभादे-धिनस्य विलयो भवेत् / तदृतेऽर्थसुखे नैव, पुरुषार्थों न किं तकौ // 46 // सनिदानः कृताशंसः, सातिचारः शमं विना / कृतो धर्मो विना चाज्ञां, कामाौँ विरसौ सृजेत् // 47 // अकामनिर्जरा जन्तो-रर्थकामविधायिनी / देवायुषो यतो बन्धस्तन्नोत्तीर्णमिदं श्रुतात् // 48 // चन्दनादुत्थितो वह्विर्यथा भस्मीकरोत्यलम् / तथा धर्मोत्थितावर्थ-कामावायतिदुःखदौ // 49 // अनुकूलतया जन्तुं, यतो वेदयते सुखं / भवाभ्यासात्तदर्थ्यगी, कामाौँ तन् मतौ फलम् // 50 // विपाकविरसत्वादि. विरतरुपदेशनं / तयोस्ततो न विदुषां, सम्मता पुरुषार्थता // 51 // इत्थं चैतदिहेष्टव्यं, यद्बुधः परिणामहक् / सम्पूर्णार्थविनिश्चायी, श्रोता वक्ता च मोक्षगः // 52 // लब्ध्वा धर्ममशेषजन्तुकरुणाक्लिन्नोरसावेदितं. I. सद्योग विनियोजनेन कुरुते दृष्ट्वा जगद् दुःस्थितं / मत्वा विश्वजनीनधर्मकथनं स्वान्यात्मपावित्र्यकृत. | // 3 / / कुर्यान् मङ्गलमुख्यसन्धिचतुरो ग्रन्थं सदानन्ददम् // 53 // इति मङ्गलादिविचारः //