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जाहिर उद्घोषण.
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क्रियाकी आलोयणा करलेता तो आराधक होकर वैमानिक देवलोकमें अवश्यही उत्पन्न होता. इसलिये सोमिल तापसके काष्टमुद्रासे मुंहबांधनेका दृष्टांत बतलाकर ढूंढियेलोग हमेशा मुंहपत्ति बांधनेका ठहराते हैं. सो प्रत्यक्ष ही श्रीजिनेश्वर भगवान् की आज्ञाकी विराधना करके मिथ्यात्वी बनते हैं |
७. फिरभी देखिये जैसे उस देवताने सोमिलको मिध्यात्वी क्रिया से छुड़वाकर सम्यग्धर्म में पीछा स्थापन किया. इसी तरहसे जिनेश्वर भगवान् के भक्त सर्व जैनियोंका यही कर्तव्य है कि - सोमिलकी तरह हमेशा मुंहपत्ति बांधने वाले ढूंढियोंकी इस मिथ्यात्वी क्रियाको किसी भी तरह छुड़वाकर उन्होंको जिनाशानुसार सम्यग्धर्ममें स्थापन करें, आराधक बनावें तो बड़ा लाभ होगा ।
८. ढूंढिये कहते हैं कि- “महा निशीथ” सूत्रके ७ वें अध्ययनमें लिखा है कि- मुंहपत्ति बांधेबिना प्रतिक्रमण करे, वाचना देवे-लेवे, वां दणा. देवे या इरियावही करे तो पुरिमका प्रायश्चित्त आवे. ऐसा कहकर हमेशा मुंहपत्ति बांधनेका ठहराते हैं सोभी प्रत्यक्ष झूठहै, क्योंकि 'महानिशीथ' सूत्र के ७ वें अध्ययनमें आलोयणाके अधिकारमें मुंहपत्तिको अपने मुंहके आगे रक्खे बिना साधु प्रतिक्रमणादि क्रिया करे तो उस को पुरिमका प्रायश्चित्त आवे मगर मुंहआगे रखकर उपयोगसे कार्य करे तो दोष नहीं. इससे हमेशा बांधना नहीं ठहर सकता. और "कन्नेहियाए वा मुहणंतगेण वा विणा इरियंपडिक्कमे मिच्छुक्कडं पुरिम च" इस वाक्य का भावार्थ ऐसा होता है कि- गौचरी जाकर पीछे उपाश्रय में आये बाद गमनागमन की आलोयणा करनेके लिये इरियावही करने चाला साधु प्रमादवश मुंहपत्तिको मुंह के आगे आड़ी डालकर कानोंपर रखकर इरियावही करे तो उस को मिच्छामिदुक्कडंका प्रायश्चित्त आवे और सर्वथा मुंहके आगे रक्खे बिना इरियावही करे तो उसको पुरिमहं का प्रायश्चित्त आवे . इसतरहसे दोनों बातोंके लिये दो तरहके अलग २ प्रायश्चित कहे हैं सो इसका भावार्थ समझे बिना और आगे पीछेके पूर्वापर संबंधवाले पाठको छोड़कर बिना संबंध का थोड़ासा अधूरा पाठ भोले लोगोंको बतलाकर 'कानों में मुंहपत्ति डाले बिना इरियावही करे तो मिच्छामि दुक्कडंका या पुरिमका प्रायश्चित आवे
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