Book Title: Agamanusar Muhpatti Ka Nirnay
Author(s): Manisagar
Publisher: Kota Jain Shwetambar Sangh

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Page 42
________________ , जाहिर उद्घोषणा नं०२............ कल न आवे, परसों आवेंगे; इत्यादि किसी तरहका नियम न होना चाहिये । एक रोजकी बातहै हमारे गुरु महाराज नागोर शहर में एक ढूंढियोंके बडे श्रावकके घरमें गौचरी गयेथे, उसघरमें सिर्फ १-२ मनुष्य चौकेमें भोजन करने वालेथे, परंतु आहार, पानी, मीठाई वगैरह बहुत वस्तुओका योग देखनेमें आया. किसीको पूछनेपर मालूम हुआ कि आज अमुक ढुंढिये साधुओंके गौचरी आनेका वाराहै, जिससे यह सामग्रीकी तैयारीहै. फिर दूसरे सेज खास परीक्षा करनेके इरादेसे उसी घरमें गुरु महाराज गौचरी चलेगये, परंतु कुछभी नया आहार आदि सामग्री न देखनेमें आयी परंतु पहिले रोज का बचा हुआ ठंढा भोजन करते देखनेमें आये और तीसरे रोज किसी नोकरसे फिर मालूम हुआ कि आजभी पूज्यजी का वारा होनेसे सामग्री तैयारहै. इस प्रकार वारा बंधासे गौचरी जानेसे छ कायकी हिंसा, आधाकर्मी और स्थापनादोष आदि अनेकदोष आतेहैं यहभी त्याग करने योग्यहै। २७. चने, उडद, मुंग, तुयर वगैरह दोफाड वाले धानको कचे दही, छाछ, दूधमें मिलानेसे उसको विदल कहा जाताहै। जैसे बडे, पकोडी, चीलरी, पीतोड आदिमें कचा दही या छाछ डालकर रायता बनातेहैं, खीचडीमें दही-छाछ डालकरवातेहैं और बेशणमें कचा दही छाछ मिलाकर कढी करते हैं उसमें तत्काल सुक्ष्म प्रसजीवोंकी उत्पत्ति होतीहै, ऐसा आहार खानेसे त्रस जावोंकी हानि होतीहै, बुद्धिमंद होतीहै, कभी किसी प्रकारका रोगभी हो जाताहै इत्यादि कारण होने से ऐसी वस्तु जानकार संवेगी श्रावक कभी नहीं खाते और संवेगी साधुभी नहीं लेते। ढूंढियोंको इस बातकाभी शाननहीहै जिससे ढूंढिये श्रावक ऐसा विदल बनातेहैं, खातेहैं, ढूंढिये साधुभी लेकर खातेहैं उसमें असंख्य प्रसजीवोंकी हिंसा होनेसे विदल वस्तु खानेका त्याग करना योग्यहै। २८. अमोलकऋषी वगैरह कितनेही ढूंढिये विलदमें जीवोंकी उत्पत्ति मानतेहैं, 'जैनतत्त्वसार' में बाईस अभक्षके अधिकारमें पृष्ठ ५९३ वें में लिखतेभी हैं, परंतु व्यवहारमें नहीं लाते, खानेका त्याग नहीं करते, ढूंढिये श्रावकोंको उपदेश भी नहीं देते, यहभी स्वादका लोभही है। बहुत ढूंढिये विदलमें जीवोंकी उत्पत्ति नहीं मानते और कहते हैं कि विदलमें हमको प्रत्यक्ष जीव बतलावो, ऐसे अनसमझ

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