________________
૪૬
जाहिर उद्घोषणा नं० २.
तीर्थकर परमात्माकी निर्वाण भूमि समेत शिखर, गिरनार, शत्रुंजय, चंपा- पुरी, पावापुरी आदिमें जानेकी व दर्शन भक्ति करनेकी निंदाकरके त्याग करवातेहैं और दर्शन-भक्ति (जिनराजके अनंत गुणोंका स्मरण ध्यान) आदि आत्महितके शुभकार्यों की अंतराय देते हैं. यही ढूंढियों का प्रत्यक्ष हठाग्रहका मिथ्यात्व है ।
३९. पन्नवणा सूत्र में लिखा है कि मनुष्य के मुर्दे में दो घडी बाद अंगुलके असंख्य भाग प्रमाण छोटे शरीर वाले संमूर्चिछम मनुष्य पंचद्रीय असंख्य जीव उत्पन्न होते हैं । ढूंढियोंके कोई साधु-साध्वी जब कभी दुमहरको २-३ बजे काल कर जाते हैं तब ढूंढिये श्रावक शामतक और रात्रिभर गेश आदिकी रोशनी करके चकडोल बनानेमें लगा देते हैं फिर दूसरे रोज दुप्रहरको सब लोगोंको इकट्ठे करके जलानेको ले जाते हैं वहां बडे २ लकडोंकी पोलार में सर्प, विच्छु, चुद्दा, कीडी नगरे आदि अनेक जीवोंका नाश करते हैं । यह असंख्य पंचेंद्रीय जीवोंकी बडी हिंसा करने का ढूंढिये साधु अपने भक्तोंको त्याग करवाते नहीं और दया भगवतीके नामसे स्नान करनेका त्याग करवाते हैं, जिससे ढूंढिये साधु-साध्वीका मुर्दा जलाकर बहुत ढूंढिये श्रावक स्नान नहीं करते, यह उत्तम हिंदु जातिको व ढूंढिये समाज को अपवाद रूप कैसी बडी भारी अज्ञानता है । यदि ढूंढिये कहें कि भगवान् के शरीरका अग्निसंस्कारकर के इन्द्रादि देव भी स्नान नहीं करते; यहभी ढूंढियों का कह ना झूठ, इन्द्रादि देव स्नान नहीं करते ऐसा किसी जैनशास्त्रमें नहीं लिखा, जिसपर भी यदि मान लिया जावे तोभी विचार करने की बात है कि इन्द्रादि देवोंका शरीर कपूरके ढेरकी तरह दिव्य सुगंधवाला हाड मांसादिरहित बेक्रिय है, इसलिये जिस प्रकार हवाको किसी तरहका सुतक नहीं लगता, उसी प्रकार हवारूप देवताओंके शरीरकोभी किसी प्रकार का सुतक नहीं लग सकता । और मनुष्योंका शरीर हाड मांस आदि अशुचि पुगलोंका बना हुआ उदारिक है, जैनशास्त्र व हिंदुधर्म मुजब जन्म मरण मुर्दाका सुतक अवश्य लगता है, इसलिये देवताओं की तरह स्नान नहीं करनेका ले बैठना बडी अज्ञानता है । हां इतनी बात जरूरत है कि विवेकवाले धर्मी श्रावकको नदी, तालाव, वावडी आदिमें अनछाना जलमें स्नान करनेसे नदी आदि सबकी क्रिया लगती है. फुंआरे आदि त्रसजीवोंकी व नीलण - फुलण वगैरह अनंत