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___ जाहिर उद्घोषणा न० ३.
५९ और जगतके व्यवहारकेभी प्रत्यक्ष विरुद्धहै. जैनशास्त्रों में मूत्रको किसी जगह पवित्र नहीं लिखा और शरीरकी शुचिके लिये लेनेकी आज्ञाभी नहीं लिखी इसलिये वृहत्कल्प आदि जैन शास्त्रों के नामसे ऐसा अनुचित व निंदनीय व्यवहार किसीभी समझदार को करना योग्य नहींहै।
६१. इसीतरहसे ढूंढिये व तेरहापंथी श्रावक-श्राविकाभी रात्रि के पौषध व्रतमें या दया पालन करने के रोज मीठाइये खाकरके अपने गुरुओंकी तरह संवरमें रात्रिको जल नहीं रखते और कभी किसीके दस्तका कारण बनजावे तो अनुचित व्यवहार करलेते हैं, यह धर्म नहीं है किंतु मलीन बुद्धिकी बडी अज्ञानतासे समाजकी निन्दारूप महान् अधर्म करतेहैं। ऐसे अधर्मको त्याग करनाही हितकारीहै।
६२. आगरे वाले ढूंढियोंकी 'साधुमार्गी जैन उद्योनिती सभा' ने "साधु गुण परीक्षा" नामक छोटीसी किताबमें दंढिये साधुओंको रात्रि में जल न रखने की पुष्टिके लिये पृष्ठ १९-२० में एक दृष्टांत लिखा है, वहभी पाठक गणको यहां बतलातेहैं :
__"एक ब्राह्मण एक जंगल में जा रहाहै उसके पास इस समय शास्त्र मूर्ति और भोजनकी सामग्रीहै साथमें परिवारि जन नहींहैं उस को उसी समय शौचकी इच्छा हुई, परंतु जलका प्रभाव और आगेको नहीं चल सकता ऐसे समय में उसका क्या कर्तव्य हो सकताहै ? केवल यही कि वह इस जंगल में बैठ शौच निवृत्ति करले, शौच होकर, बताइये वह मूर्ति शास्त्र और भोजन सामग्रीको साथ ले जायगा या नहीं !, नहीं२ वह अपने मूर्ति और शास्त्रको नहीं छोड सकताहै । बस हमारे साधुओंकोभी वह रात्रि उस जंगल तादृशहीहै। वे यदि ऐसे समय वस्त्र या रेत अथवा किसी अन्य प्रकार शुद्धि कर लें तो उसमें कोई निन्दास्पद बात नहींहै" यह ढूंढियों का लिखना कितना भारी अनुचित है।
६३. देखो उपर मुजब कभी किसी ब्राह्मणको वैसा कारण बन जावे तो गांवमें गये बाद शुचि होकर पूजा-प्रतिष्ठा दान-जप आदि करके उसका प्रायश्चित्त करले, इसी तरह द्वंदियों को रात्रिमें दस्त लगने पर कोईभी ढूंढिया उसका प्रायाश्चत्त नहीं लेता और उस प्रायश्चितकी विधिभी ढूंढियोंके शास्त्रोंमें नहींहै । तथा एक ब्राह्मणको ऐसा कारण