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जाहिर उद्घोषणा नं० ३
स्वरूपके लिये वेद, पुराण, कुराण ढूंढनेकी कुछभी जरूरत नहीं है । जिसपर भी सर्वज्ञ शास्त्ररूप अमृतके समुद्रमेंसे ढूंढियोंको दयाका पूरा २ स्वरूप न मिला उससे अज्ञानियोंके बनाये वेद, पुराण, कुराण आदि मिथ्यात्वरूप जहर के समुद्रमेंसे दया ढूंढने वालों की विवेक बुद्धि कैसी समझनी चाहिये । तत्त्वदृष्टिसे विचार किया जावे तो वेद, पुराण कुराण ढूंढ ( देख ) कर मत चलानेवाले जैनी कहलानेके योग्य ही नहीं हो सकते। जैसे 'मिथ्यात्वीकी विपरीत बुद्धि होती है' उसी तरह ढूंढियोंकी भी विपरीत बुद्धि होंगई है जिससे सर्वज्ञ शास्त्र मुजब द्रव्य और भाव दयाका पूरा २ स्वरूप ढूंढिये समझ सके नहीं इसलिये सर्वज्ञ शास्त्र छोड़कर वेद, पुराणके नामसे अपना दया धर्मका नयामत चलाया फिर सर्वज्ञ शासनके नामसे फैलाया यह भोले जीवोंको भ्रम मैं डालने की कैसी मायाचा रीहै । वेद, पुराणमें, यज्ञ होममें पशु बलिकी व कुरानमें बकरीदकी रौद्र हिंसाको धर्म मान लिया है, वैसेही ढूंढियों नेभी वासी, विदल, सहत, आचार, कंदमूल, मक्खण, जलेबी, आदि खाने में और जिन प्रतिमा की व पूर्वधरादि पूर्वाचार्योंकी निंदा करने में तथा जैन समाज में संपशांति का उच्छेद करके घर २ में भेद डाल कर कलेश फैलाने में व अशुद्ध व्यवहार करके समाजकी निंदा करवाने में दया धर्म मान लिया है, इन बातोंका विशेष विचार पाठक स्वयं कर सकते हैं ।
८२. ढूंढिये अपनेको २२ टोलोंके नाम से प्रसिद्ध करते हैं, इनके मतको फैलाने वाले २२ पुरुष हुए, इसलिये २२ टोले कहलाते हैं उसपर लोग हंसी उडाने लगे कि टोले पशुओंके होते हैं, जैन साधुओं के समुदायका नाम गच्छ, कुल, शाशा आदि परंतु टोले नहीं. इससे ढूंढियाँको टोलोंके नाम से शर्म आने लगी जिससे ढोले कहना छोडकर स्थानकवासी, साधुमार्गी नाम कहने लगे हैं, तोभी जो २२ टोलों के नामकी जगतमें छाप पडगईहै, वह अब नहीं मिट सकती ।
८२. ढूंढिये अपनेको स्थानक वाली कहलाना अच्छा समझते हैं, यहभी अज्ञान दशा है, देखो - मठमें रहने वाले उस मडके मालिक ममत्व रूप परिग्रह वाले मठवासी कहे जाते हैं और सर्वज्ञ शासनके साधु मकान आदिका ममत्वभाव रूप परिग्रहका त्याग करनेवाले हैं इसलिये अनगार कहलाते हैं जिससे सच्चे जैनियोंको स्थानक वासी कहलाना यहभी सर्वथा जिनाज्ञा विरुद्ध है |