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जाहिर उद्घषणानं० ३. छनकी लकडीके बांसके खपाटिये ) इनको अन्य तीर्थक तथा गृहस्थके पास सुधरावे समरावे यावत् सब उक्त प्रमाने कहना यावत् मच्छा जाने " तो प्रायश्चित्त आवे।
९८. फिरभी इसी निशीथ सूत्रके पांचवें उद्देशके पृष्ठ ५८-५९वें में ऐसा पाठहैः- “जे भिक्खू दंडगं जाव वेणुसुयणं वा पलिब्भिदियं २ परिठावेई, परिवंतं वा साइजई॥६७॥" ___६६. अर्थ:- "जो साधु दंडेको यावत्वांसकी खपाटी पूर्ण स्थिरच. लने योग्यहै उसको भांग तोड परिठावे परिठातेको अच्छा जाने ॥६७॥" तो प्रायश्चितआवे
१००. फिरभी देखो ढूंढियोंकेही छपवाये प्रश्नव्याकरण सूत्रके पृष्ठ १६६ में " पीटफलग, सिज्जा, संस्थारंग वत्थं, पाय, कंबल, दंडक, रयहरणं, निसज्ज,चोलपट्टग, मुहपोत्तिय, पादपुंछणादि भायण भंडी. वहि उवगरणं"
१०१. अर्थः-- " बाजोट, पाटपाटला, शय्या, संत्थारा, वस्त्र, पात्रं, कंबल रजोहरण, चोलपट्टा, मुखवस्त्रिका, पादपुंछन,मात्राआदिकका भाजन भंड तुंबादि उपधि वस्त्रादि होवे"
१०२. देखिये ऊपरके प्रश्नव्याकरण सूत्रके मूलपाठमें "दंडक" पाठ मौजूद है तोभी ढूंढियोंने अपने बनाये अर्थमें दंडाका अर्थ उडा दिया यही कपट सहित प्रत्यक्ष उत्सूत्र प्ररूपणाहै ।
१०३. आचारांग सूत्रके सोलहवें अध्ययनके प्रथम उद्देशके दसरे सूत्रमें सर्वसाधुओंको दंडा रखनेका बतलायाहै तथाहि:_ से अणुपविसित्ताणं गामं वा जाव रायहाण वा णेव संयं अदिनं गिण्हेजा; णेव पणेणं अदिन्नं गिण्हावेज्जा, णेव-पणेणं अदिण्णं गिण्हतं समगुंजाणेजा । जेहिं विसद्धिं संपव्वइए, तेसिपि याई भिक्खू छत्तयं वा मत्तयं वा दंडगं वा चम्मच्छेदगणं वा तेसिं पुवामेव उग्गह अणुण्णविय अपडिलहिय अपमज्जिय णोगिण्हेज्ज वा पगिण्हेजवातेसिं पुवामेव अणुपविय पडिलेहिय पमाजय गिण्हेज वा पगिण्हेज वा ॥"
१०४. इसपाठमें साधुको गांवमें नगरमें यावत् राजधानी में अपने को किसी तरहकी कोई भी वस्तु मालिक के बिनादिये लेना नहीं, दूसरोंके पासले लेखाना नहीं, व लेतेहो उनकी अनुमोदना भी करनीनहीं ( अच्छा समझना नहीं) और विशेष तो क्या कहना जिसके साथमें दीक्षाली