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जाहिर उद्घोषणा नं० ३.
मात्रसे लुंकाजीको धनाढ्य श्रावक मान लेना प्रत्यक्ष झूठ है ।
और लुकाजीने व लुकाजीकी परंपरावाले ढूंढियोंने अपनी पूजा मान्यता बढानेके लिये जैनसमाजमे कैसे २ अनर्थ फैलायें हैं इसबातका प्रत्यक्षप्रमाण इस ग्रंथ को पूरा २ पढनेवाले पाठक अच्छीतरहसे समझलेंगे ।
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६०. इस प्रकार ढूंढिये, बाईसटोले, स्थानकवासी, साधुमार्गी व लुकागच्छ यह ढूंढियोंके मतके पांचोंही नाम सर्वथा जिनाशा विरुद्ध और श्वेतांबर जैन समाज से भी अनुचित होनेसे अब ढूंढियोंको अपने मत का कोई अच्छा नया छठा नाम ढूंढकर निकालना चाहिये ।
९१. कितनेक ढूंढिये अपने स्थानकवासी नामकी तरह मंदिर मार्गियोंको देरा (मंदिर) वासी कहते हैं और उनकी देखादेखी कितनेक मंदिर मार्गी कच्छदेशादि वाले भोले लोग अपनेको देशवासी कहते हैं । स्थानक में ठहरनेसे स्थानकवासी नामपडा है परंतु मंदिर में तो जिनराज के दर्शन भक्तिके सिवाय अधिक ठहरनेमें बड़ा दोष बतलाया है इस लिये भूलसेभी मंदिर मार्गीयोंका देशवासी नाम कभी नहीं कहना चाहिये ।
( ढूंढियोंकी महान् बडी झूठी गप्पका नमूना देखो ) [ दंडा रखनेका निर्णय. ]
९२. ढूंढिये कहतह कि बारावर्षी दुष्कालमें रांक भीक्षुक लोग साधुओं की रोटी खोस कर लेनेलगे तब उसका बचाव करनेके लिये साधुओंने अपने हाथमें दंडा रखना शुरु किया है परंतु सूत्रोंमें साधुको दंडा रखने का नहीं लिखा, यहभी ढूंढियोंका कथन झूठ है, क्योंकि भगवती, निशीथ, आचारांग, प्रश्नव्याकरण, व्यवहार, दशवैकालिक आदि मूल आगमोंम जगह २ पर साधुओं को दंडा रखने को कहा है ।
९३. देखो ढूंढियोंका छपवाया हुआ 'भगवती' सूत्रका आठवां शतकका छट्टा उद्देश पृष्ठ १०९९ - ११०० में साधुको आहार, पात्र, गुच्छा, रजोहरण आदि उपकरणोंकी दान विधिमें दंडा संबंधी ऐसा पाठ:
" निग्गंथं च णं गाहावईकुलं जाव केई दोहिं पडिग्गहेहिं उवनिमंतेजा, एगं आउसो अपणो पडिभुंजाहि एगं थेराणं दलयाहि, सेय संपडिगाईज्जा तद्देव जाव तं नो अपणो परिभुंजेजा नो अण्णेर्सि -