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जाहिर उद्घोषणा नं०३.
८५ ११-विहार में कभी तपस्वी आदि चलनेमें अशक्त होतो दंडों से कपडेकी झोली बनाकर उसमें उनको बैठाकर गांव में ले जा सकते हैं।
१२-बहुत साधुओंके लिये आहार लाते समय दंडाके अभावमें आहारके वजनसे हाथ दुखने लगताहै उस समय गृहस्थोंके घरों में या रास्तामें किसी जगह आहारके पात्रे जमीनपर रखना अनुचितहै और दंडा हाथमें होतो दंडाके सहारेसे हाथको तकलीफ नहीं पडती ऐसे समयमेंभी दंडा सहायता देताहै।
१३-छोटीदीक्षा वाले साधुको आहारादि करनेकेलिये बडी दीक्षा चाले साधुओंसे अलग बैठनेकी मांडली करनेके काममेभी दंडा आताहै।
१४-दंडामें मेरुका आकार तथा दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रयीकी व पंच महाव्रतकी सूचनारूप रेखा होनसे दंडा हर समय संयम धर्ममें अप्रमादी रहनेका स्मरण करानका हेतु है।
१५ दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी आराधना करनेसे मोक्ष प्राप्तिका कारण शरीरहै और शरीरकी रक्षा करने वाला दंडा है। इसलिये कारण कार्य भावसे दर्शन-शान-चारित्र तथा मोक्षका हेतुभी दंडाहीहै । ... इत्यादि अनेक गुण दंडा रखनेमें प्रत्यक्षहैं, मूल आगमोंमेंभी दंडा रखने संबंधी उपरमें बतलायहुये पाठ मौजूदहैं। इसालेये बारा वर्षाकालमें साधुओं ने अपने हाथमें दंडा रखना शुरू कियाहै ऐसा कहनेवाले सब टूढिये व तेरहापंथी लोगों को प्रत्यक्ष झूठ बोलकर उत्सूत्र प्ररूपणासे भोले जीवोंको व्यर्थ मिथ्याभ्रममें डालकर अपने कर्म बंधन करने योग्य नहीं हैं।
११५ फिरभी देखिये जिसप्रकार मध्यान समय सूर्यके सामने धुल फैककर अपने मस्तकपर डालने वाले अनसमझ बालजीव सूर्यकी हंसी करते हुये बडे खुशी होतेहैं । उसीप्रकार तीर्थकर भगवानके फरमाये हुये मूल आगमानुसार दंडा रखनेवाले संवेगी साधुओंको दंडी दँडी कहकर हंसी करते हुये बडेखुशी होनेवाले सबढूंढिये तीर्थकर भगवान्की, मूल आगमोंकी व पूर्वधरादि आचार्य,उपाध्याय और सर्व साधुओंकी अवज्ञा आशातना करनेके दोषी बनतेहुए अपनी आत्माको कमाँसे मलीन करते हैं । इसलिये ऐसे महान् पापसे डरनेवाले ढूंढिये- तेरहा पंथियोंको कभीभी किसीभी संवेगी साधुको दंडी दंडी कहना योग्य नहीं है और