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• जाहिर उद्घोषणा नं०३.
१ बंधनके झगडे व विरोध भावके कारणोंको मिटावें, यही मेरा हित बुद्धि का कथनहै।
७९. यदि कोई ऐसा समझेगा कि लोग निंदा करें तो हमारा क्या लेवें, उनके कर्म बंधेगे हमारे तो कर्म टूटेंगे, यहभी, बडी अनसमझ की बातहै, क्योंकि देखो जिसप्रकार कोई उत्तम साधु नाम धराकर मांस आदि अभक्ष वस्तु खाने लगे अथवा किसी अकेली स्त्रीके साथ एकांतमें गुप्त रीतिसे परिचय करे जिससे लोग उसकी निंदा करें उससे उसके कर्म टुटते नहीं किंतु निंदा करानेके निमित्त कारण होनस विशेष बंधते हैं। उसी प्रकार अज्ञान दशासे अनुचित निंदनीय व्यवहार करने पर लोक निंदाकरें उससे कर्म टुटते नहीं किंतु लोक विरुद्ध निंदनीय कर्तव्य करने से समाजकी, धर्मकी, साधु-श्रावक पदकी हिलना अवज्ञा करवानेके हेतु बननेसे दुलभ बोधिके महान् कर्माका बंध होकर उससे अंनत संसार बढताहै। जिससे तप-जप आदि द्रव्य क्रिया सब धूलमें मिलकर बडा अनर्थ होताहै, इसलिये 'लोक निंदा करें तो हमारा क्या लेवें' इत्यादि मिथ्यात्वका झूठा भ्रम दूर करके समाजकी शोभा बढे . वैसा शुद्ध व्यवहार वाले बननाही परम हितकारीहै।
८०. ढूंढिये कहतेहैं कि "ढूंढत ढूंढत ढूंढलिया सब, वेद पुराण कुराणमें जोई। ज्यों दही मांहीसु मक्खण ढूंढत, त्यों हम ढूंढियोंका मत होई ॥१॥” इस प्रकार हमने वेद, पुराण, कुराणमेसे ढूंढकर हमारा दया धर्म निकाला है, इसलिये हमारा ढूंढिया नाम पडाहै ढूंढियोंकी यहभी अनसमझकी बात है, क्योंकि पढनेवाला विद्यार्थी कहलाताहै परंतु पढेबाद विद्यार्थी नहीं कहा जाता और अटवी में रास्ता भूलनेवाला रास्ता ढूंढताहै जिससे ढूंढनेवाला ढूंढक कहलाताहै, परंतु सरल रास्ते चलने वाला कभी ढूंढक कहा नहीं जाता। वैसेही ढूंढियों को सर्वज्ञ भगवान्का सच्चा धर्म रूप सम्यग्दर्शनका रास्ता अभीतक नहीं मिला जिस से अभीतक भ्रममें पडेहुए अटवीमें रास्ता भूलने वालोंकी तरह ढूंढरहे हैं, उससे ढूंढिये कहलातेहैं । और दूसरी बात यह है कि तीर्थकर भगवान् को केवलज्ञान व केवलदर्शन उत्पन्न होनेसे जगतमें लोकालोकके सब भाव प्रत्यक्ष देखकर जानलेतेहैं फिर उपदेश देतेहैं ऐसे सर्वज्ञ भगवान्के शास्त्रोंमें सब तरह से संपूर्ण दयाका स्वरूप व उपदेश मौजूदहै इसलिये सर्वज्ञ भगवान् की आशा मुजब चलने वाले सब जैनियोंको दयाके