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जाहर उदघोषणा नं० ३. खाने-पीनेवाले कभी नहीं ठहरा सकते, किंतु जैसा जिसके योग्य होके वो वैसा भोजन करे, इसी तरह से अनाहार की वस्तुओंके सामान्य नाम देखकर 'जैसी जिसके लेने योग्य होवे वो वैसी वस्तु ले सकताहै' ऐसे स्पष्ट भावार्थको समझे बिना द्वेषबुद्धिसे संवेगी साधुओं पर पैशाब पीनेका प्रत्यक्ष झूठा कलंक लगाना यही बडा भारी पाप है। (ढूंढियोंका कपट और द्वेषबुद्धिका प्रत्यक्ष नमूना देखो) ___७०: प्रिय ! पाठक गण देखो ऊपर मुजब आहार पानी आदि आगे पीछेके संबंध वाली सब बातोंको प्रत्यक्ष कपट से छोडकर पेशाब की अधूरी बातका उल्टा भावार्थ लाकर भोले लोगोंको कैसे भ्रममें डालेहैं । आज तक किसीभी संवेगी साधुने रात में व दिन में कभी पैशाब पीया नहीं और पीनेका किसी ग्रंथमें लिखा भी नहीं परंतु ढूंढिये लोग गुरुका मुर्दा जलाकर स्नान करते नहीं तथा हमेशा गरीष्ट वस्तु खाने वाले साधु-साध्वी और दयापालन करने के रोज माल उडाने वाले श्रावक-श्राविका अपने शरीरकी शुचिके लिये रात्रिमें जल रखते नहीं, रजस्वला, और सूतक की पूरी मर्यादा साचवते नहीं इत्यादि अनेक लोक विरुद्ध अनुचित कार्य करके ढूंढिये अपने सामाजकी बडी निंदा करवाते हैं , लोगोंके कर्म बंधनका हेतु करतेहैं जिससे संवेगी लोग हूंढियों को समझाते हैं कि ऐसे अनुचित कार्य मत करो उसपर ढूंढिये लोग अपनी भूलोको सुधारते नहीं और अपने दोषोंको छुपाने के लिये संवेगी साधुओंके ऊपर प्रत्यक्ष झूठा पैशाब पीनेका कलंक लगाकर जैन समाज का द्रोह करते हैं, बड़ी निंदा करवाते हैं, राग द्वेष के झगडे फैलातेहैं, यह कितनी बडी द्वेष बुद्धि व प्रबल मिथ्यात्वहै इस बातका विशेष विचार पाठक गण स्वयं कर सकते हैं।
७१. फिरभी देखिये- किसी एक ब्राह्मणने अपने बनाये वैद्यक ग्रंथमें मूत्रके गुण लिखकर किसी रोगमें मूत्र लेनेका लिख दिया होवे तो उससे वह ब्राह्मण या उनकी वंश परंपरावाले मूत्र पीनेवाले कभी नहीं माने जा सकते, जिसपरभी उनको मूत्रपीनेका दोष लगाने वाला मिथ्याभाषी ठहरताहै। उसी प्रकार 'पञ्चक्खाण भाष्य' में अनाहार वस्तु के स्वरूपमें गौमूत्रादि पैशाब को भी अनाहार में लिख दिया है, उससे ग्रंथ बनाने वाले या उनकी परंपरावाले साधु पैशाब पीने वाले कभी नहीं ठहर सकते जिसपरभी ढूंढिये लोग उपर मुजब अपने दोष छुपाने