Book Title: Agamanusar Muhpatti Ka Nirnay
Author(s): Manisagar
Publisher: Kota Jain Shwetambar Sangh

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Page 54
________________ जाहिर उद्घोषणा नं जगहसे बहुत दूर जाकर शुचि करनेसे गुदाके उपर विष्टा लेपकी तरह फैल जावे, जिससे बहुत जलकी जरूरत पडे अथवा लोगोंको शंका पडजावे कि यह साधु-साध्वी जंगल जाकर शुचि नहीं करते अशुचि रहते हैं इत्यादि दोष आतेहैं जिससे उस जगहसे उठकर दूर जाकर शुचि करनेकीभी मानहे की; व थोडासा हटकर शुचिकरनेका बतलाया, इस लिये शरीर की शुचिके लिये दिनमेंभी जल रखना पडता है। अब विवेक बुद्धिसे विचार करना चाहिये कि जब दिनके लियेभी ऐसी मर्यादाहै .तब यदि रात्रिभी शरीरकी शुचिके लिये जल न रखे तो जंगल जाने पर शुचि नहीं कर सकते और शुचि न करें, अशुचि रहें तो सूत्र में उसका दोष बतलाया है तथा प्रत्यक्ष व्यवहार विरुद्धहै इसलिये ऊपरके मूल सूत्रपाठकी आशा मुजब शरीर शुचिके लिये रात्रिमें जल रखने में कोई दोष नहीं है। ४९. यदि ढूंढिये कहें कि पहिलेके साधु शरीर शुचिके लिये रात्रिम जल नहीं रखतेथे इसलिये अवभी रखना उचित नहीं है, यहभी अनसमझकी बातहै क्योंकि पहिलेके साधु जंगलमें रहनेवाले निर्भय, निममत्वी, तपस्वी, ध्यानी होतेथे, २-४ रोजमें या महीना पन्दरह रोजमें वा जब तपस्याका पारणा होता तब तीसरे प्रहर सिर्फ एकबार गांवमें आहारके लिये आतेथे और धर्म साधनका हेतुभूत शरीरको थोडासा भाडा देने रूप अल्प आहार लेकर पीछे वन-पर्वत आदि जंगलमें चले जाते, तप और ध्यानसे उनकी जटराग्नि बहुत तीव्र होने से आहारके पुद्गल जल्दी पाचन होकर उसका बहुतसा भाग रोमव श्वासोश्वास द्वारा उड जाताथा, और आसन व योग क्रियासे उनके शरीरका वायु शुद्ध रहता उससे ऊंट बकरीकी मीगणी (लीडी)की तरह या बन्दुककी गोलीकी तरह उन महात्माओंका निर्लेप निहार कभी २ बहुत दिनोंमें होताथा, सोभी प्रथम प्रहरमें स्वाध्याय करते, दूसरे प्रहरमें ध्यान करते और जब तीसरे प्रहरमें आहार-पानी करते तब जंगल व पैशाबके कायेसे भी निपटकर शचि होकरके पीछे फिरभी स्वाध्याय ध्यानादिधर्मकायौंमें, कायोत्सर्गमें लग जाते, जिससे रात्रिमें जंगल पैशाबका कभी काम नहीं पडता, जिससे ऐसे तपस्वी साधुओंको रात्रिको जल रखनेकी कुछभी जरूरत नहींथी । इसी तरहसे यदि ढूंढिये साधुभी जंगलमें रहने वाले वैसेही तपस्वी, निर्भय, निर्ममत्वी, आसन व ध्यान करने वाले, अल्प

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