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__. जाहिर उद्घोषणा नं०३.
५३ माहारमें संतोष रखने वाले और जंगलमें हमेशा खडे रहने वाले होवें तो ढूंढिये साधुओंकोभी रात्रिमें जल रखनेकी कोई जरूरत नहीं परन्तु शहरमें गृहस्थोंके पासमें नजदीक रहकर स्वादके लोभसे दिन भरमें २३ वार अच्छे २ पक्यान और दूध-दही-घृत-क्षीर-बडे-पकोडी-रायता आदि गरीष्टं पदार्थ अधिक खाकर १०-५ वार खूब गहरा जल पीते हुए शरीरको पुष्ट करते हैं उससे मंदाग्नि होकर बुढ्ढी भैसकी तरह गुदा द्वार सब भरजावे वैसे लेप वाली पतली दस्त होतीहै और कभी अकस्मात रात्रिकोभी दस्त लगजाताहै तथा शीतकालमें ५-७ वार रात्रि पेशाब करना पडताहै, ऐसी दशामें हूंढिये साधु अपने शरीरकी शुचिकेलिये रात्रिको जल नहींरखते, फिर पहिलेके तपस्वी साधुओंका दृप्रान्त बतलाकर अपनी अनुचित बातको पुष्ट करके निर्दोष बनतेहैं, यह कैसी भारी अज्ञानताहै। जब पहिलेके साधुओंकी तरह चलनेका दृष्टान्त बतलातेहै तब तो उसी मुजब आचरणभी अंगीकार करने चाहिये । जिस प्रकार रांक आदमी अपने पूर्वजोंके राजऋद्धिका अभिमान करे तो उससे उसका पेट नहीं भर सकता. उसी प्रकार पहिलेके तपस्वी साधुओंका दृष्टान्त बतलाकर अभी रोजीना२-३ बारखाने वाले उन महात्माओंकी बराबरी कभी नहीं कर सकते, इसलिये पहिलेके साधुओकी तरह रात्रिको जल न रखनेका मानलेना, हठ करना बडी भारी भूलहै ।
५०. दंढिये कहतेहैं कि रात्रिमें जल रखनेसे कभी गर्मीके दिनोंमे तृषा लगने पर साधु पी लेवे, इसलिये रखना योग्य नहींहै, यहभी अनसमझकी बातहै क्योंकि देखो जिसप्रकार गर्मीके दिनोंमें विहार करके दूसरे गांव जाने वाले साधुओंको बहुत तृषा लगी होवे रास्ता नदी तलाब आदिमें जल देखने में आवे तोभी साधु अपना व्रत भंगकरके कघा जल कभी नहीं पीता. उसी तरह निर्दोष आहार व प्रतिक्रमण आदि क्रिया करके भावसे शुद्ध चारित्र पालन करनेवाला साधु प्राण जावे तो भी अपना व्रत रखनेके लिये रात्रिको जल कभी नहीं पीता। दूसरी बात यहभी है कि रात्रिके जल में चूना डालकर छाछकी आछकी तरह जलको सफेद कर दिया जाताहै, जिससे जीवोंकी उत्पत्ति नहीं होती और चूमेका खाराजल पीनेसे जबान, कंठ, कलेजा फट जाताहै इसलिये ऐसा अल कोईभी नहीं पी सकत ।
५१. ढूंढिये कहते कि किसी साधुको रात्रिमें कमी उल्टी (व. मन) होजावे तो जलसे मुंहकी शुद्धिकर ले, इसलिये रात्रिको नल र