Book Title: Agamanusar Muhpatti Ka Nirnay
Author(s): Manisagar
Publisher: Kota Jain Shwetambar Sangh

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Page 41
________________ • जाहिर उद्घोषणा नं० २. अन समझकी बातहै क्योंकि जैनसाधुको पूर्वकर्म और पश्चात्कर्म आदि बहुत बातोंका पूर्वापर उपयोग रखकर आहार आदि लेनेकी सर्वज्ञ भगवान्की आज्ञाहै जिस साधु को पूर्वापरका (आगे-पीछेका) इतनाही उपयोग नहीं होगा वह साधु आहार आदिके लिये गृहस्थोंके घरमें जानेके योग्यही नहीं है । देखो संवेगी साधु 'धर्मलाभ' का उच्चारण करके गृहस्थोंके घरमें प्रवेश करतेहैं और सब तरहसे उपयोग पूर्वक निदोष शुद्ध आहार लेतेहैं (धर्मलाभ कहना शास्त्रानुसार युक्तियुक्त प्राचीन नियमहै इसको नयी कल्पना कहने वाले ढूंढियोंकी बडी भूल है इसका विशेष खुलासा आगे लिखनेमें आवेगा) २५. फिरभी देखो-सास ढूंढियों का ही छपवाया हुआ निशीथ सूत्रके चौथे उद्देशमें पृष्ठ ४२-४३ में “जे मिक्खू निम्गथीणं उवस्सयंसि अविहाए अणुप्पविसई, अणुप्पविसंतं वा साइजइ ॥२५॥ अर्थ:जो साधु साध्वीके उपाश्रयमें अपना आगमन जानाये बिना [खांसी आदि किये बिना] प्रवेश करे, प्रवेश करते को अच्छा जाने ॥२५" तो प्रायश्चित्त आवे। इस लेखमें जब साध्वीके उपाश्रयमें भी किसीप्रकार की सूचना किये बिना जानेवाले साधुको प्रायश्चित्त बतलायाहै। इस बातपर विचार कियाजावे तोवहु, बैन, बैटी, दासीवाले गृहस्थोंके घरों में चौरकी तरह चुपचाप चले जाने वाले प्रत्यक्ष जिनाक्षाकी विराधना करके अनेक अनर्थका मूल और भावहिंसाका हेतु होनेसे त्याग करने योग्यहै । २६. ढूंढिये साधु नित्य पिंडका दोष टालनेके लिये एकातरे वारा बंधीसे गौचरी जातेहैं, यहभी अनर्थका हेतुहै क्योंकि देखो ढूंढियों के भक्त गृहस्थ लोग यह बात अच्छी तरहसे समझ लेते हैं कि साधु आज हमारे घर गौचरी आये हैं कल रोज न आवेंगे, परसों आवेंगे, जिससे वे लोग वाराके रोज जल्दीसे आहार आदि बना कर धर रखते हैं । ढूंढिये साधु उस आहार पानी आदिको ग्रहण करते हैं उससे आधाकर्मी आदि अनेक दोष लगते हैं, खास साधुके आनेके उद्देशसे जल्दी छ कायकी हिंसा होतीहै, ढूंढिये ऐसे आहारको निर्दोष समझतेहैं। परंतु तत्त्व दृष्टि से दोष वालाहीहै और नित्य पिंडभीहै । जैनसाधुकी अज्ञात और अनितय गौचरी कहीहै कभी लगोलग २-४ रोज एकघर में चले जावे और १.२ राज या ५-७ रोज न भी जावें परंतु आज आये,

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