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जाहिर उद्घोषणा नं० २. तैसा शुद्ध आहार लेकर शरीरको भाडा देताहै, ऐसे शुद्ध साधुको यदि कभी कंदमूलका शाक आदि मिलजावे तो निर्ममत्व भावसे ले, उसमें कोई दोष नहीं है, इसलिये उन उग्रविहारी साधुओंके लिये दशवैकालिक सूत्र में लेनेका कहाहै परंतु ढूंढिये साधुतो प्रायः करके महेश्वरी, अग्रवाल, दिगंबर श्रावगी आदि उत्तम जातिके बहुत घरोंको बीचमें छोडकर अपने परिचयवाले रागी भक्तोंके घरोंमें गौचरी जाते - हैं और खास ममत्वभाव लोभवशासे अपने जीभके स्वाद के लिये, शरीरकी पुष्टिकेलिये, रोटी अधिक खाने के लिये और प्रत्यक्षही संयोजना नामक दोष सेवन करनेके लिये कंदमूलका साक व लसण, कांदे की चटनी आदि लेतेहैं, यह सर्वथा जिनामा विरुद्ध है। इसलिये दशवैकालिक सूत्रके नामसे कंदमूल की वस्तु लेकर खाने का ठहराना अनंत जीवोंकी घातका हेतुहै। देखो-बौद्धमतके साधु दियाहुआ मांस खाने लगगये तो सब बौद्ध समाज मांस भक्षण करनेवाला हिंसक बनगया. इसीतरह ढूंढिये साधुभी मिलेसो लेतेहैं, ऐसा कहकर कंदमूलकी वस्तु लेने लगगये उससे ढूंढियों के श्रावक समाजमें प्रायः सैंकडे ९५ टके लोग कंदमूल खाने वाले होंगे और संवेगी साधुओं ने वैसी वस्तु लेना छोड़ दिया तो संवेगी धावकोंमेभी प्रायः सैंकडे ९५ टका लोंगोंने कंदमूल खानेका छोड़दियाहै यह प्रत्यक्ष प्रमाणहै इसलिये अनंतजीवोंकी दयाके लिये ढूंढिये साधुओंको वैसी वस्तु लेकर खानेका त्याग करना योग्यहै।
३२. फिरभी देखिये 'धर्मरूचि' अनगार मास क्षमणके पारणे गौचरी गये वहां अकेला कडवा तुंबाका शाक मिला उसमेंही संतोष रखकर उसको राग द्वेष रहित होकर खा लिया. तथा 'धन्नाजी' अनगार गौचरी जातेथे तब उनको कभी अन्न मिलजाता परंतु पाणी नहीं मिलता तोभी संतोष रखतेथे, ऐसी २सैकडों बातें आचारांग, शाताजी, अनुत्तरोववाई आदि आगमोंमें बतलायीहैं, उस मुजवतो कोई भी ढूंढिया चलता नहीं और लोभसे अपने स्वाद के लिये कंदमूलकी वस्तु लेनेका सूत्रके नामसे पुष्ट करके निर्दोष बनते हैं यह कितना भारी अधर्म है। .
३३. फिरभी देखिये विचार करीये-यद्यपि कोई वस्तु निर्दोष होवे तोभी लोक शंका करें, और जीव हिंसाका हेतु होवे, अधर्म बढे तो वैसी वस्तु साधुको नहीं लेना चाहिये उसी तरहसे हरे कंदमूलकी