Book Title: Agamanusar Muhpatti Ka Nirnay
Author(s): Manisagar
Publisher: Kota Jain Shwetambar Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 40
________________ ३८ जाहिर उद्घोषणा नं० २.....------- २२. आषाढ महीनेमें आद्रा नक्षत्र बैठनेपर वर्षाऋतु गिनी जाती है, जिससे आंबके फलमें जीवोंकी उत्पत्ति होतीहै, स्वादभी बदल जाताहै इसलिये पूर्वाचार्योंने गुजरात, मारवाड, कच्छ, मालवा, मेवाड, दक्षिण वगैरह देशोंमें आद्रा नक्षत्र बैठेबाद धर्मी श्रावकोंको आंब खानेका त्याग करना बतलायाहै, जिससे आंबेका अचित्त रसकोभी संवेगी साधु नहीं लेते । ढूंढियोंको इस बातकाभी शान नहीं है, इसलिये आद्रा बैठेबाद आंबका रस लेतेहैं, यहभी त्रस जीवोंको भक्षण करनेका दोष होनेसे त्याग करने योग्यहै। २३. ढूंढिये साधु जब आहारादिके लिये गृहस्थोंके घरमें जातेहैं, तब चौरकी तरह चुपचाप चलेजाते हैं, यहभी अनेक अनौँका मूल है क्योंकि देखो- गृहस्थोंके घरमें चुपचाप चले जानेसे बहुत जगह बहु, बैटी आदि खुले शीर बैठी हो, शरीरकी शोभा करती हों, कभी स्नान करते समय, वस्त्र बदलते समय वस्त्र रहित हो या कभी कोई स्त्री-पुरुष आपसमें हास्य विनोद काम चेष्टा वगैरह करतहों ऐसे समय यदि चुपचाप साधु घरमें चला आवे तो लजा जातीहै, अप्रीति होतीहै, किसी को क्रोधभी आजावे, उलंभा मिलताहै, या कभी अकेली वस्त्र रहित स्त्री को देखकर साधु को विकार उत्पन्न होजावे अथवा ऐसे समय साधुको देखकर स्त्रीका चित्त विगड जावे तो बडा अनर्थ होजावे। कभी अन्य दर्श नीके घरमें चुपचाप चले जानेपर झगडा होजावे, गालिये खानी पड़े, शासनका उडाह होवे, इसलिये चौरकी तरह गृहस्थों के घरमें चुपचाप चलेजाना बहुत अनर्थका मूल होनेसे सर्वथा अनुचितहै। २४. फिरभी देखिये- अच्छी नीतिको जानने वाले विवेकी गृहस्थ लोग भी अपनी बहु बैन बैटी आदिकी बेशर्मी अवज्ञा न होने के लिये अपने या अन्य किसी के घरमें चुप चाप नहीं जाते, किन्तु खुखारा, कासी आदि चेष्टा करके या किसी तरहका आवाज करके पीछे घरमें प्रवेश करते हैं तो फिर सर्वज्ञ पुत्र कहलाने वाले जैनसाधु नाम धराने वाले होकर प्रत्यक्ष जगत्के व्यवहार विरुद्ध गृहस्थोंके घरमें चौरकी तरह चुपचाप चलेजाना, यह कैसी अज्ञानदशा कहीजावे । यदि कोई शंका करेगा कि किसी तरहकी आवाज करके जानेसे भक्तलोग अशुद्ध आहार को शुद्ध करके देंगे, जिससे साधुको चुपचापही जाना योग्य है, यहभी

Loading...

Page Navigation
1 ... 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92