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' जाहिर उद्घोषणा. "मुखे मुंहपत्ती देई" इस लेखको बदलाकर "मुंहपत्ती मुखे बांधी" ऐसा झूठा छपवा दिया उसके बाद फिर भी संवत् १९५४ में भीमासिंह माणेकने भी भूलसे वैसाही छपवादिया, प्रूफ सुधारने वाला ढूंढक श्रावक नौकरथा उसने पुस्तक छपवाते समय ऐसा अदल बदल करने का अनर्थ करदिया, इतने वर्ष होगये हजारों पुस्तकें फैल गई परन्तु किसी भी साधु श्रावक ने इस बात का ध्यान न दिया और ढूंढिये ऐसे २ झूठे बनावटी लेख आगे करके भोले जीवों को बतला कर व्यर्थ उन्मार्ग स्थापन करके मिथ्यात्व बढाते हैं उनोंको अपनी भूल का शुद्ध भावसे मिच्छामि दुक्कडं देना चाहिये।
(ढूंढिये भ्रम में पडकर भूलते हैं) २०. प्रश्न व्याकरण, महानिशीथ ओघनियुक्ति आदि प्राचीन शास्त्रोंमें "मुहणंतगेण" शब्द आयाहै इसका अर्थ 'मुखानंतकं' मुखवत्रिका, मुंहपत्ति ऐसा होताहै, तोभी ढूंढियों की समझमें नहीं आया इस लिये "मुहणंतगेण" शद्व देखकर मुंहपत्तिका 'दोरा' ऐसा गमारी अर्थ करके महानिशीथ, ओघनियुक्ति की चूर्णि आदि शास्त्रोंके नामसे दोरा डालकर मुंहपत्ति बांधनेका समझ बैठे हैं सो निष्केवल भ्रममें पडकर भूलतेहैं । “मुहणंतगेण” का अर्थ मुखवस्त्रिका है इसलिये दोरा का अर्थ कभी नहीं होसकता और ओघनियुक्ति आदि शास्त्रकारोंने 'बोलनेका कामपडे तब मुंहआगे मुंहपत्ति रखकर बोलना' ऐसा अर्थ स्पष्ट खुलासा सहित लिखदियाहै जिसपर भी प्रत्यक्ष शास्त्रकारोंके विरुद्ध होकर अपनी अज्ञान कल्पनासे ओघनियुक्ति आदि के नाम से हमेशा मुंहपर बांधनेका ठहराने वाले व्यर्थ ही बालचेष्टा जैसा हठाग्रहसे उन्मार्ग बढातेहैं। (भुवनभानु केवलि आदि रासोंमें हमेशा मुंहपत्ति
' बांधना नहीं लिखा) २१. ढूंढिये कहतेहैं कि भुवनभानु केवलि के रासमें हमेशा मुंहपत्ति बांधना लिखाहै यहभी झूठहै, क्योंकि इस रासमें रोहिणी नामा एक सार्थवाहकी लडकी को निंदा विकथा करनेका स्वभाव पड़गया था सो अच्छी हित शिक्षा देने वालोंको भी उल्टा जवाब देती थी, जिन मंदिरमें देवदर्शन करनेको और उपाश्रयमें व्याख्यान सुननेको जावे