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जाहिर उद्घोषणा नं० २.. पणीयारेके मटकोंकायावासी और झूठे लोटे, गलास आदि धोनेका जल तीन प्रहर तक रखनेकी आशा नहींहै लोटे व गलासका धोवण पूरा अचित्त नहीं होता, फुआरे आदि उत्पन्न होतेहैं और गृहस्थोंके पणीयारे के मटकोंके अदमें व उपरमें नीचे सूक्ष्म मट्टी लगी रहतीहै उसमें अनंत काय उत्पन्न होतीहै, उसका घोवण अनंतकायकी उत्पत्ति व हानि का हेतु होनेसे साधुको लेना तो दूर रहा परंतु संघट्टा करना भी कल्पता नहींहैं जिस परभी भगवती सूत्रके नामसे ऐसा जीवाकुल सचित्त धावणको लेनेका व तीन प्रहर तक रखनेका ठहराने वाले जिनाबाकी विराधना करतेहैं। तथा ढूंढिये गृहस्थ लोगभी ऐसा धोवण चार प्रहर तक रखकर पीते हैं यहभी त्रस व स्थावर अनंत जीवोंकी हिंसाका हेतु होनेसे सर्वथा सूत्र विरुद्धहै।
१०. कई ढूंढिये धोवणमें जीव उत्पत्ति की शंका मिटानेके लिये दुरबीन से या जाडाकाँचसे धोवणमें जीव देखतेहैं परंतु देखने में नहीं आते उससे निर्दोष समझ लेतेहैं, यहभी अनसमझहै क्योंकि अंगुल के असंख्य भाग छोटे शरीर वाले व निगोदीये जीव ज्ञानी के सिवाय किसी भी साधन से चर्म चक्षुवाले मनुष्य कभी नहीं देख सकते
और कभी फुआरे आदि बडे त्रस जीव प्रत्यक्ष भी देखने में आतेहैं इसलिये झूठे वर्तनोंका व पिंडेका धोवण को निर्दोष अचित्त समझ ने वालों की बड़ी भूल है।
११. गृहस्थ लोग शामको चुल्हे पर कच्चा जल रख देते हैं, वह पूरा २ गरम होकर अचित्त नहीं होता, कदाचित् चुल्हेकी गरमीसे कुछ मिश्र होजावे तोभी रात्रिमें पीछा सचित्त होजाताहै, ढूंढिये साधु फजरमें उस जलको गरम जल समझकर लेतेहैं, यहभी कच्चे सचित्त जल लेनेका दोष लगताहै इसलिये ऐसा जल लेना योग्य नहीं है।
१२. हलवाई लोग जलेबी बनातेहैं, उसका मेदा पहिले रोज भीगोकर रखदेते हैं, उसमें रात्रिको दो इन्द्रीय असंख्य जीवोंकी उत्पत्ति होतीहै, स्वाद बदल जाताहै, बास आने लगतीहै, जब खमीर उठताहै तब फजरमें जलेबी बनातेहैं, यह प्रत्यक्ष प्रमाणहै जिससे संवेगी साधु जलेबीको अकल्पनीय समझ कर नहीं लेते, विवेक वाले धर्मी श्रावक भी नहीं खाते. ढूंढियों को इस बात का भी ज्ञान नहीं है, अतएव जलेबी