Book Title: Agamanusar Muhpatti Ka Nirnay
Author(s): Manisagar
Publisher: Kota Jain Shwetambar Sangh

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Page 37
________________ • जाहिर उद्घोषणा नं० २. लेतेहैं और खातेहैं यहभी त्याग करने योग्यहै। १३. आषाढ चौमासेसे कार्तिक चौमासे तक हरिपत्तिके शाक वगैरह में तीन इन्द्री वाले छोटे २ कुंथुये आदि त्रस जीवोंकी उत्पत्ति होतीहै, जिससे शास्त्रकारोंने चौमासेमें श्रावकोंकोभी हरिपत्ति खानेका त्याग करनेका बतलायाहै, इसलिये संवेगी साधु हरिपत्तिके शाक, चटनी आदि नहीं लेते। ढूंढियोंको इस बातकाभी ज्ञान नहींहै, ढूंढिये श्रावक हरिपत्तिके शाक आदि बनाते हैं और उनके साधु लेतेहैं यहभी असंख्य त्रस जीवोंकी हिंसाका हेतु होनेसे त्याग करना योग्यहै । १४. बहुत रोजका आचार, मुरब्बा आदिमें उसी वर्णवाली अनंतकाय निगोद (फुलण) उत्पन्न होतीहै. प्रत्यक्ष स्वाद बदल जाता है, बास आतीहै, उससे सुक्ष्म त्रसजीवोंकीभी उत्पत्ति होतीहै । ढूंढियों को इस बातका भी ज्ञान नहीं है, जिससे ढूंढिये साधु ऐसे आचार, मुरब्बे आदि लेते हैं यहभी त्याग करने योग्य है। १५. वासी शीरा, लापसी, खीचडी, चावल, रोटी वगैरहमेंभी प्रस जीवोंकी उत्पत्ति होतीहै, जैसे अग्निमें उष्ण कायके व बरफमें शीत कायके जीवोंकी उत्पत्ति होतीहै, वैसेही ओसर मोसर आदिके जीमण में पहिले रोज रात्रिको बनाये हुए सीरा लापसी आदि यदि दूसरे दिन फजर तक गरम २ रहें तोभी उसमें उष्ण कायके जीव उत्पन्न होतेहैं तथा शरदीमें रोटी आदि बहुत ठंढे रहते हैं तोभी उसमें शीत काय के जीव उत्पन्न होतेहैं और कभी २ रोटी स्वीचडी आदि में तारबंध जाते हैं, स्वाद फिर जाताहै, यह प्रत्यक्ष प्रमाणहै, संवेगी साधु ऐसी वस्तु कभी नहीं लेते। ढूंढियोंको इस बातका भी ज्ञान नहींहै, इसलिये जीमण वारके तथा शीतला पूजनके व गृहस्थोंके घरमें शामको बचे हुए शीरा, लापसी, बडे, गुलगुले, मालपुवे, नरमपुडी, रोटी, स्त्रीचडी आदि वासी आहार लेकर खातेहैं यहभी असंख्य त्रस जीवोंकी हिंसाका हेतु होनेसे त्याग करने योग्यहै। . १६. कई ढूंढिये कहतेहैं कि आचारांग सूत्रमें महावीरस्वामी भगवान्ने वासी ठंढा आहार लियाथा, इसीतरह हमकोभी ठंढा आहार लेनेमें कोई दोषनहींहै, ऐसा कहकर वासी रोटी खीचडी आदि खाने का ठहरातेहैं, यहभी अनसमझकी बातहै क्योंकि जब भगवान् छद्मस्थ अवस्थामें विचरतेथे तब “गीला या सूखा, ठंढा या ऊना, उस रोजका

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