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जाहिर उद्घोषणा.
तबभी विकथा करने लगे. जब साध्वीजी ने रोहिणी को विकथा छोड़कर स्वाध्यायादि धर्म कार्य करनेका उपदेश दिया तब रोहिणी साध्वी के ऊपर नाराज होकर क्रोधसे कहने लगी कि "मुंह मरड़ी तव ते कहेरे, साध्वीजी सुनो वात ॥ साधु जनने पण सर्वथारे, विकथा न वरजी जात ॥ १ ॥ गुरुणीजी मलि मलि म करो मांड ॥ न गमे मुजने पाखंड ॥ गुरुणीजी ॥ न तजाये अनर्थ दंड, जो जीभ थाय शतखंड || गुरुणीजी ॥ २ ॥ मुंहपत्तिए मुख बांधीनेरे, तुमे बेशोछो जेम ॥ गुरुणीजी ॥ तीम मुखेडुचो देहीनेरे, बीजे बेसाय केम ॥ गुरुणीजी ॥ ३ ॥” ऐसे २ वक्रोक्तिके वाक्योंमें यहां मुंहपत्ति बांधने का अर्थ नहीं है किंतु मौन रखने का अर्थ होता है. देखो मूलचरित्र में ऐसा पाठ है " बद्ध मुखमत्र तिष्ठ॑तं न कंचित्पश्यामः” तथा ३०० । ४०० वर्ष की पुराणी भाषा में भी "कोई मुंह बांधी बइसी रह्यउ न देखां" ऐसा लेखहै इसका भावार्थ यही है कि यहां पर मुंह बांधकर कोई नहीं बैठे, अर्थात् सब लोग यहां बातें करते हैं कोई मौन होकर नहीं बैठा और जिसतरह से तुम दूसरोंकी निंदा विकथा करने में मौन हो वैसेही ( तिम मुखे डुचो देहीनेरे, बीजे बेसाय केम) हमारे से मौन नहीं रहाजाता ऐसा आशय है इस लिये रास बनानेवाले का पूरा पाठ छोडकर थोडे से अधूरे वाक्य भोले लोगों को बतला कर उलटा अर्थ का अनर्थ करके 'भुवनभानु केवलिकेरास' के नामसे हमेशा मुंहपत्ति बांधनेका ठहरानेवाले मायाचारी की प्रपंच बाजीसे व्यर्थ अपने कर्म बांधते हैं और दूसरोंको बंधवाते हैं।
२२. हरिबल मच्छी के रासमें हमेशा मुंहपत्ति बांधनेका लिखा है यहभी ढूंढियों का कहना झूठ है क्योंकि यह रास छपवानेवाले भीमसिंह माणेकने बंबई से मेरेको पत्र भेजा है उसमें लिखा है कि "सुलभ बोधी जीवडा, मांडे निज खट कर्म ॥ साधुजन मुख मुमती, बांधी है जिन धर्म ॥ १ ॥” यह वाक्य भूलसे उलटा छपगयाहै सो दूसरी आवृत्ति में सुधा• रनेमें आवेगा. इस लिये भूलसे छपेहुए वाक्य को आगे करके हमेशा
पत्ति बांधने का आग्रह करना बडी भूल है ।
२३. सुरतमें श्रीमान् मोहनलालजीके ज्ञानभंडार में तथा बडोदे में प्रवर्तक श्रीमान् कांतिविजयजी संग्रहीत ज्ञानभंडार में हरिबलमच्छी के रासकी लिखी हुई ५ - ६ प्रतियें मौजूद हैं उन्होंमें "सुलभ बोधी