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जाहिर उद्घोषणा.
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योग रखकर चलने को ही अच्छा माना जावेगा. इसी तरह से कभी बोलते समय मुंहकी यत्ना करनेका उपयोग न रहे उससे हमेशा मुंह बांधा रखना कभी अच्छा नहीं ठहर सकता किंतु उपयोग से यत्नापूर्वक बोलनाही अच्छा माना जावेगा ।
३१. फिरभी देखो:- बोलने में मुंहकी यत्ना करनेका कभी उपयोग न रहने से हमेशा मुंहपत्ति बांधनेका ढूंढिये कहते हैं, उसी तरह कभी छींक करते समय नाक की यत्ना करनेका उपयोग न रहे तो मुंहकी तरह ढूंढियोंको नाकभी हमेशा बांधा रखना चाहिये तथा चलने में उपयोग न रहने से दोनों पैरोंके दो पूंजनी भी हमेशा बांधी रखनी चाहिये और प्रतिलेखना करनी, गौचरी जाना, उपाश्रयकी प्रमार्जना करनी, प्रतिक्रमण करने में उठ बैठ करना और जिनेश्वर भगवान्को, गुरुमहाराज को वंदन करनेको जाना इत्यादि धर्म क्रिया करनेमें कभी उपयोग न रहे तो यह धर्मकार्य करने छोड देने चाहिये। और जिस तरह श्री आदीश्वर भगवान् के समय 'मरीचि' ने अपनेसे शुद्ध संयम धर्मका पालन करना नहीं बनसका तब साधुका वेष छोडकर नया वेष बनाया. 'उसी तरह यदि ढूंढिये साधुओं से भी विवेक पूर्वक उपयोग सहित शुद्ध संयम धर्मका पालन करना नहीं बन सकता हो तो कपट छोडकर साफ २ सत्य २ कथन करें, शुद्ध साधु न कहलावें, मूलसूत्र, प्राचीन शास्त्रादिके नाम से हमेशा मुंहपत्ति बांधनेका न ठहरावें, 'जिनवरने मुंह पत्ति बांधने का फरमाया है' ऐसी २ झूठी २ बातें बनाकर तीर्थंकर परमात्माके ऊपर झूठा आरोप न लगावें, जैन साधु कहलाना छोडदें और नाक पर भी हमेशा वस्त्र बंधारक्खे तथा दोनों पैरोंके दो पूंजनी बांधकर 'मरीचि' की तरह एक नया अजब वेष बना कर पूरे २ दयालु बनने का जगत्को दिखलादे तबतो मुंहकी यत्ना करनेका उपयोग न रहने से मुंह बांधनेका ढूंढियोंका कथन सत्य समझा जावे नहींतो भोले जीवों को बहकाने के लिये उपयोग न रहने के नामसे सर्वज्ञ शासनमै माया प्रपंच रचनेका कलयुगी झूठा ढोंगही समझना चाहिये ।
( ढूंढियों की विचित्र लीला का नमूना देखो )
३२.
ढूंढिये एक जगह लिखते हैं कि भगवान्ने भगवती आदि आगमोंमें हमेशा मुंहपत्ति बांधना कहाहै । दूसरी जगह लिखते हैं भगवान्ने आगमोंमें बांधना नहीं कहा परंतु संवेगियोंके आचार दिनकर, ओघनि