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जाहिर उद्घोषणा नं० २.
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१५. " मुहणंतगेण” पाठका मुख स्त्रिका अर्थ है, जिसपर भी मुंपत्ति में दोरा डालने का झूठा अर्थ करते हैं यहभी उत्सूत्र प्ररूपणाका दोष लगताहै । १६. धूपके दिनोंमें पसीनासे मुंहपत्तिके उपर मैलके दाग पडजाते हैं, कभी २ दिनभरम नयी नयी २-३ मुंहपत्ति बदलनी पडती हैं नहींतो बास आने लगती है ।
१७. कभी छींक करते समय या श्लेषमके समय नाकका मैल मुंहपत्ति के उपर लग जाता है तो बहुत बुरा लगता है, यहभी विटंबना ही है।
१८. होठोंके उपर मुंहपत्ति बांधी रहनेसे जोरसे बोलने पर भी बहुत साधुओंकी आवाज रुक जाती है, मुंगेक जैसा स्वर भंग हो जाताह, जिससे धर्मका उपदेश सुनने वालोंको साफ २ समझमें नहीं आता है ।
१९. बेरुपियों की तरह मुंहका रूप बिगडता है इसलिये अन्य दर्शनीय लोग मुंहबंधे मुंहबंधे कहकर जैन साधुकी हंसी करते हैं, जिससे जगत् मान्य सर्वज्ञ शासनकी अवज्ञा होता, उससे उन लोगोके कर्म बंधन होते हैं और हमेशा मुंह बांधकर शासनकी अवज्ञा करवाने वाले दुर्लभ बोधी होते हैं।
२०. दशवैकालिकमें 'जयं भुंजतो भासतो' इसपाठमें मुंहकीयता करके बोलनेका कहा है, सो हाथ में मुंहपत्ति रखकर मुंहकी यक्षा करके बोलने वालोंको जब १-२ घंटे तक बोलनेका कामपडे तब हाथको बडा कष्ट होता है, उससे उपयोगभी विशेष शुद्ध रहता है परंतु हमेशा बांधी रखने वालो को मुंहकी यत्ना करने की जरूरत नहीं रहती, जिससे हाथको कुछभी कष्ठ नहीं होता, उपयोग भी शुद्ध नहीं रहता है इसालय दशवका. लंक सूत्रकी आज्ञा उत्थापन होती है तथा उपयोग शुन्य बोलने का दोष आता है !
२१. शास्त्रों में त्रस और स्थावर दोनों प्रकारक जीवोंकी रक्षा करनेके लिये मुंहपत्ति रखनेका कहा है ताभा ढूंढिये एक वायुकाय की रक्षा करने केलिये मुंहपत्ति रखने का कहते हैं सोभी शास्त्र विरुद्ध बालतद्द । २२. मुंहपत्तिसे नाक और मुंह दोनोंकी यत्नाकरनेका सूत्रोंमें क है, तोभी ढूंढिये मुंहपत्तिसे नाककी यत्ना नहीं करनेका कहते हैं और नाकक श्वासोश्वाससे जीवोंकी हानि नहीं होती, ऐसा कहते हैं यह भी सूत्र विरुद्ध होकर प्रत्यक्ष झूठ बोलते हैं ।
२३. बीमार साधुको मौर संत्धारा किये हुये साधु श्रावकको