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जाहिर उद्घोषणा. जीवडा मांडे निजखट कर्म ॥ साधुजन मुख मुमती बांधी कहे ? जिन धर्म ॥१॥" ऐसा लेख है इसका भावार्थ यह है कि फजर में उठकर श्रद्धावान् भव्यजीव जिनमन्दिर में जिनराजकी पूजा करें, गुरुकी सेवा करें, स्वाध्यायादि ६ धर्मकार्य करें. अब विचार करना चाहिये कि जैसे पर्युषणापर्व में अमारी घोषणाकी व्याख्या करनेके प्रसंगमें बकरीदकी व पशुबलिकी रौद्र हिंसाकी पुष्टि कभी नहीं होसकती वैसेही जिन मंदिरमें पूजा करनेके प्रसंगकी व्याख्या करने में प्रत्यक्ष मिथ्यात्वका हेतु रूप हमेशा मुंहपत्ति बांधी रखनेका लेख कभी नहीं लिखा जासकता परंतु विपरीत बातका अतिशयोक्ति से प्रसंगवश उपहास कर सकते हैं. वैसेही हरिबलमच्छी के रास बनाने वालेने जिनपूजा, गुरुसेवा के प्रसंगसे अतिशयोक्ति में “साधुजन मुख मुमती बांधी कहे ? जिन धर्म" यह वाक्य कहेहैं याने-ढूंढियेलोग मुंहपर मुंहपत्ति हमेशा बांधी रखने का कहतेहैं सो जैनधर्म विरुद्ध है ऐसा गंभीराशयसे मीठे वाक्य से उपहास कियाहै और लिखीत प्रतोंमें (कहे ? ) यह शब्द वक्रोक्तिवाचक था परंतु रास छपवानेके समय (क ) अक्षर भूलसे रहगया होगा या “सम्यक्त्वमूल बाहर व्रतकी टीपकी" तरह किसी ढूंढक अनुयाई लेखकने जानबूझ कर 'क' अक्षर निकाल दिया होगा और 'हे' की जगह 'है' करके गुजराती भाषा बिगाड कर हिंदी भाषा बनाडाली, भूल से वैसा ही छपकर प्रकट हो गया उसको देखकर सब दंढिये भ्रममें पड़गये हैं । इस लिये हरिबल मच्छी के रासके नामसे हमेशा मुंहपात्त बांधने का ठहराना सर्वथा झूठहै। .
२४. ढूंढिये कहतेहैं कि हितशिक्षाके रासमें हमेशा मुंहपत्ति बांधनेका लिखाहै यहभी झूठहै क्योंकि देखो ढूंढिये साधु कभी दवाई लेनेके लिये, जल पीने के लिये या कफ आदि थूकने के लिये नाटक के परदेकी तरह मुंहपत्तिको किसी समय नीचेके होठपर हटालेतेहैं, कभी डाढीपर खींच लेतेहैं, कभी एक कानपर से दोरेको हटा लेतेहैं उससे दूसरे कानपर ध्वजकी तरह मुंहपत्ति लटकने लगतीहै और कभी गाडी के बैलके जोतर (झूसर) की तरह गले में खींच लेते हैं इस लिये हित शिक्षा के रासके लेखकन ढूंढियोंको मुंहपत्ति की ऐसी विटंबना न कर नेकेलिये "मुखे बांधीते मुंहपत्ति, हेठे पाटो धारी ॥ अति हेठी दाढीई