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जाहिर उद्घोषणा. ..... सोथूक मुखका मैलहै और अशुचि पदार्थ भीहै यह वात सर्वजगत प्रसिद्ध प्रत्यक्ष अनुभव सिद्ध है इस लिये थूक में जीवों की उत्पत्ति होती है तथा १४ स्थानों के अन्दर ही है तिस पर भी डूंढिये लोग यूँक को १४ स्थानों में और अशुचि प्रदार्थ में नहीं मानते यह बडी भूल है, सूत्र विरुद्ध है और जगत विरुद्ध भी है।
१८. फिर भी देखिये- बडे तपस्वी लब्धिवाले मुवि का थूक लगाने से कुष्टादि रोग चले जाते हैं, यह बात जैन समाज में प्रसिद्ध है तथा " उववाई" आदि मूल आगमों में "खेलोसही पत्ताणं" इस पाठ की व्याख्या में प्रकटपने कही है और जैसे नाककी लाल, नाक का जल, व नाक का श्लेषम (सेडा) यह सब नाक के मैल के अंतरगत अशुचि में गिने जाते हैं, उन में जीवों की उत्पत्ति मानी है वैसे ही मुखकी लाल, मुख का जल, मुख का थूक, मुख का झाग व कफ यह सब मुख के मैल के अंतरगत अशुचि में गिने जाते हैं इस लिये थूक में असंख्य समूछिम पंचेंद्रीय मनुष्यों की उत्पत्ति अवश्य होती है और उस की हिंसा का दोष थूक की गलिी भुहपत्ति को मुंहपर बांधी रखने वाले सर्व ढूंढियों को जरूर लगता है. चाहे जितनी कुयुक्तिये करें तो भी इस हिंसा का बचाव किसी तरह से कभी नहीं हो सकता. इसलिये जिस आत्मार्थी भव्य जीव को इस हिंसा का बचाव करने की इच्छा होवे तो हमेशा मुंह पत्ति बांधी रखने का झूठा ढोंग छोडना ही हितकारी है। . (संवेगियोंकी बेदरकारी और ढूंढियोंका झूठा प्रपंच.)
१९. "सम्यक्त्वमूल बारह व्रतकी टीप" नामा पुस्तक में मुंह पत्ति बांधने का लिखाहै ऐसा ढूंढियों का कहना प्रत्यक्ष झूठ है क्यों कि "सम्यक्त्वमूल बारहव्रतकी टीप" प्रथमावृत्ति संवत् १९२८ में मुंबई ग्रंथसागर छापाखाना में छपी है उस में सामायिक व्रत के अधिकार में श्रावक को शास्त्र वांचते समय “त्रीजोचल दृष्टि दोष ते सामायक लिधां पछे दृष्टि नासिका ऊपर राखने मनमा सुद्ध उपयोग राखे मौनपणे ध्यान करे अने सामायकमां शास्त्र अभ्यास करवू होयतो जयणा युक्त मुख्ने मुंहपत्ती देई दृष्टि पुस्तक ऊपर राखीने भणे तथासांभले" इसलेखमें मुंहपत्ति हाथमें रखना लिखाहै सो पुस्तक पढने के समय मुंहपत्ति मुंहके आगे रखकर पढे, ऐसा स्पष्ट लेख होनेपरभी गुजराती भाषांतर करके संवत् १९३६ में केशवजी रामजी ने छपवाया उसमें