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जाहिर उद्घोषणा. . अधिकारमें भगवती सूत्रमें मुहआगे वस्त्र रखकर बोलेतो निर्वद्य भाषाबोले ऐसा अधिकारहै इसबातको ढूंढिये बहुत दृढता के साथ स्वीकार करते हैं और अपनी पुस्तकों में छपवातेहैं इसबात मुजब जब साधु हाथ में मुंहपत्ति रखेगा तभी बोलने के समय मुंहआगे रखकर बोल सकेगा इसलिये ढूंढियोंके माने हुए इस पाठके अनुसार भगवतीसूत्रके मूलपाठ मुजब हाथमें मुंहपत्ति रखना सिद्ध होता है।
१३. फिरभी देखो आचारांग सूत्र में साधु को खांसी, उबासी, छींक करते समय अपना मुखढांक लेने का कहा है इसी से भी मुंहपत्ति हाथमें रखना ठहरताहै इसलिये जब छींकादि आवें तब नाक और मुंह दोनोंकी ( मुंहपत्ति से ) यता हो सकतीहै यदि मुंहपत्ति बांधी हुई होवे तो खांसी-छींकादि करते समय मुखढकनेका सूत्रकार कभी नहीं कहते इसलिये हमेशा मुंहपत्ति बंधी रखना सर्वथा सूत्र विरुद्धहै और भगवती, आवश्यक,निशीथ,विपाक,आचारांगादि आगमानुसार मुंहपत्ति हाथमें रखकर कामपडे तब मुखकी यत्ना करना यह बात प्रत्यक्ष सिद्धहै जिस परभी हाथमें मुंडपत्ति रखना नहीं लिखा ऐसा कहनेवाले मायासहित झूठ बोलकर भोलेजीवोंको व्यर्थ भ्रममें डालतेहैं। .
१४. फिरभी देखिये विवेक बुद्धिसे विचार करिये, रजोहरण और मुंहपत्ति यह दोनों उपकरण जीवोकी रक्षा करनेके लिये ही साधु रखते हैं इस बातसेही हाथ में रखना स्वयं सिद्धहै तोभी उसको 'हाथमें रखना नहीं लिखा' ऐसी कुतर्क करनेवालोको अज्ञानी समझना चाहिये क्योंकि जब २ कार्य होवे तब तब रजोहरण और मुंहपत्ति हाथमें लिये बिनातो जीवोंकी रक्षा ही नहीं होसकती इसलिये ऐसी २ कुतर्क करके जिनाज्ञाको उत्थापन करना योग्य नहीं है।
१५. फिरभी देखो-हमेशा मुंहपत्ति बांधी रखने से सर्वज्ञ शासन में अधूरीक्रिया करनेका दोषआताहै क्योंकि जब साधुको छींकादि आवे तब मुंह आगे मुंहपत्ति रख कर नाक मुंह दोनोंकी यत्ना करनी पडतीहै तथा नाक कान आंख आदि छोटे २ स्थानोंके उपर सचित्त रज वगैरह गिरजा तो मुंहपत्ति से उसका प्रमार्जन करनेमें आता है और कभी दुर्गधीकी जगह होकर जाना पडेतो मुंहपत्तिसे नाकमुंह दोनों ढक सकते हैं या बांधभी सकतेहैं इसलिये मुंहपत्ति हाथमें होवेतो जैसे बोलते समय मुंहकी यना होतीहै वैसेही छींकादि करते समय या दुर्गधी की जगह