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जो मनुष्य इन्द्रिय-मोगों की लालसा में डूबे रहते हैं, वे भोगसामग्री को एकत्रित करने में लगे रहते हैं। उनका धन इसी कार्य में खर्च होता रहता है। धन की कमी होने पर वे पाप-कर्मों द्वारा धन को ग्रहण करने लगते हैं (20) । वे इस बात को समझ नहीं पाते हैं कि दुष्कर्मों के फल से छुटकारा संगव नहीं है (21)। उत्तराध्ययन का शिक्षण है कि दुष्कर्मों में फंसे हुए व्यक्ति की रात्रियां व्यर्थ जाती हैं (60)।ऐसा व्यक्ति मृत्यु के निकट आने पर गोक करता है, जैसे ऊबड़खाबह मार्ग पर उतरा हुआ गाड़ीवान धुरी के पण्डित होने पर शोक करता है (26, 27)। जमे हारा जुआरी भय से अत्यन्त कांपता है, वैसे ही दुष्कर्मी मनुष्य मरण की निकटता में भय से अत्यन्त कांपता है और वह मूच्छित अवस्था में ही मरण को प्राप्त होता है (28)।
यहां पर ध्यान देने योग्य है कि इन्द्रिय-भोगों में लीन व्यक्ति लोम का शिकार होता है। लोम मनुष्य में ऐसी वृत्ति को जन्म देता है, जिसके कारण वह धन आदि प्राप्त करने को इच्छाओं को बढ़ाता चलता है। उत्तराध्ययन का कहना है कि लोभी मनुष्य सोने, चांदी के असंख्य पर्वत भी प्राप्त कर ले तो भी उसकी तृप्ति असंभव है, क्योंकि इच्छा आकाश के समान अन्तरहित होती है । (38) इन व्यक्तियों में स्वार्थपूर्ण वृत्ति इतनी प्रवल होती है कि वे दूसरे मनुष्यों को भी इन्द्रिय-मोगों में ही जोतते हैं। इन्हें स्व-पर कल्याण का कोई मान ही नहीं होता है (32)। इस तरह से ये व्यक्ति पाशविक वृत्तियों के दास बने हुए जीते हैं (19)। ये व्यक्ति सोए हुए कहे जा सकते हैं 241एसे व्यक्ति मूच्छित होते हैं और मानसिक तनावों से ग्रसित रहते हैं। सम्पूर्ण लोक की प्राप्ति भी उन्हे संतुष्ट नहीं कर सकती है (34)। इन्हें इस बात की समझ नहीं होती है कि इन्द्रिय-भोग परिणाम में किंपाक-फल से मिलते-जुलते होते हैं। किपाक (प्राण नाशकवृक्ष)
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[ उत्तराध्ययन