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134. (हे राजन् !) मेरी आत्मा (ही) वैतरणी (नामक) नदी
(है) अर्थात् नारकोय कष्ट देने वाली नदी है; (मेरी) आत्मा (ही) तेज काँटों से युक्त वृक्ष है (नरक में स्थित वृक्ष विशेष है); मेरो प्रात्मा (ही) अभीष्ट पदार्थों को देने वाली गाय (है) (स्वर्ग की गाय जो सब कामनाओं की पूर्ति करने वाली होती है); (तथा) (मेरी) आत्मा (ही) सुहावना आवासस्थल (है) (नन्दन नाम का इन्द्र का उद्यान है)।
135. आत्मा सुखों और दुःखों का कर्ता (है) तथा (उनका अकर्ताः
भी (है) । शुभ में स्थित प्रात्मा मित्र (है) और अशुभ में स्थित (आत्मा) शत्रु (है)।
136. हे नरेश ! यह (आगे कही जाने वाली) भी दूसरो अनाथता
ही (है)। तुम मेरे द्वारा (प्रतिपादित अर्थ को) स्थिर (और) शान्त चित्त (होकर) सुनो। चूंकि साधु-चारित्र को भी प्राप्त करके कुछ मनुष्य (प्रसन्न होने के बजाय) दुःखी होते हैं, (अतः) (वे) बहुत कायर (बन जाते है)।
137. जो (व्यक्ति) साधु होकर (भी) महाव्रतों का प्रमाद (मूर्छा)
के कारण उचित रूप से पालन नहीं करता है, जिसका) मन नियंत्रण-रहित (होता है) भोर जो स्वादों में भासक्त (होता है),वह परतंत्रता को पूर्णरूप से नष्ट नहीं करता है।
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1. केवमान अवस्था में पारमा मुध-दु.ख का कर्जा नहीं होता है।
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