Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भारती पुष्प-51 उत्तराध्ययन-चयनिका सम्पादक : डॉ. कमलचन्द सोगाणी सेवानिवृत्त प्रोफेसर, दर्शन-विभाग मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर (राजस्थान) प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर जैन श्वे. नाकोडा पार्श्वनाथ तीर्थ, मेवानगर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: देवेन्द्रराज मेहता सचिव, प्राकृत भारती अकादमी, 3826, यति श्यामलालजी का उपाश्रय, मोतीसिंह भोमियों का रास्ता, जयपुर-302 003 (राज.) पारसमल भंसाली अध्यक्ष, श्री जैन श्वे. नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ पो. मेवानगर, स्टे. बालोतरा, पि. को. 344025, जिला बाड़मेर (राज.) - द्वितीय संस्करण : 1994 तृतीय संस्करण : 1996 चतुर्थ संस्करण : 1998 © सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन - मूल्य: 25.00 पच्चीस रूपये D मुद्रका अनिता प्रिन्टर्स 13, मीरा मार्ग, गोविन्द नगर (पूर्व), आमेर रोड़, जयपुर-302002 फोन: 631133,635357 - UTTARADHAYAYAN-CHAYANIKA/PHILOSOPHY KAMAL CHAND SOGANI, 1989 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. पं. सुखलालजी सिंघवी एवं स्व. पं. चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ सादर सर्पित Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका पृष्ठ v-vii viii-xii xiii-xxiv क्रमांक 1. प्रकाशकीय 2. प्राक्कथन 3. प्रस्तावना 4. उत्तराध्ययन-चयनिका की गाथाएं एवं हिन्दी अनुवाद 5. व्याकरणिक विश्लेपण 6. उत्तराध्ययन-चयनिका एवं उत्तराध्ययन सूत्र-क्रम 1-61 62-110 111-112 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय डॉ. कमलचन्दजी सोगाणी संकलित "उत्तराध्ययन-चयनिका को प्राकृत भारती अकादमी और श्री जैन श्वेताम्बर नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ के संयुक्त प्रकाशन के रूप में प्राकृत भारती का 51 वां पुष्प सुज्ञ पाठकों के कर कमलों में प्रस्तुत करते हुए हार्दिक प्रसन्नता जैनागमों में मल सूत्रों का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है और उसमें भी उत्तराध्ययन सूत्र का प्रथम स्थान है। विशेषतः भाषा, विपय और शैली की दृष्टि से भाषाविद् इसे अत्यन्त प्राचीन मानते हैं। इसका रचना/संकलन काल मी आचारांग सूत्र एव सूत्रकृताग के परवर्तीकाल का और अन्य आगमों से पूर्ववर्ती माना जाता है । इस ग्रन्थ के अनेक स्थलों की तुलना बौद्धों के सुत्तनिपात, जातक और धम्मपद प्रादि प्राचीन ग्रन्थों से की जा सकती है। इस सूत्र में 36 अध्ययन हैं । आचार्य भद्रबाहु रचित उत्तराध्ययन की नियुक्ति के अनुसार इसके 36 अध्ययनों में कुछ अंग सूत्रों में से लिये गये हैं, कुछ जिनभाषित हैं, कुछ प्रत्येकबुद्धों द्वारा प्रपित हैं और कुछ संवाद रूप में लिखे गये हैं। चयनिका ] Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन में संयममय जीवन जीने की कला की सूक्ष्म अभिव्यक्ति सर्वत्र परिलक्षित होती है । साधनामय जीवन को प्ररणा का स्रांत, अनुशासित जीवन श्रोर श्राचारप्रधान होने के कारण इस ग्रन्थ का अत्यन्त प्रचार-प्रसार रहा है । मूर्धन्य मनीषियोंवादिवेताल शान्तिसूरि, नेमिचन्द्रसूरि ज्ञानसागरसूरि, विनयहंस, कोर्तिवन्लभ गणि, कमल संयमोपाध्याय, तपोरत्न माणिक्यशेखरसूरि, गुणशेखर. लक्ष्मीवल्लभोपाध्याय, भावविजयगग्गि, वादी हर्पनन्दन, घर्ममन्दिर, जयकीति, कमललाभ ग्रादि अनेकों ने संस्कृत में टीकायें, भाषा में बालावत्रीच यादि लिखे हैं । ग्राज भी अंग्रेजी, हिन्दी, गुजरानी आदि भाषाओं में इसके अनेकों अनुवाद प्रकाशित हो चुके है। ऐसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ से जन-साधारण भी परिचित हो जाये और अनुशासित जीवन को अपनाकर अनासक्ति पूर्ण श्रात्मसाधना की और अग्रसर हो सके इस दृष्टि से श्री सोगाणी जी ने यह चयनिका तैयार की है। --- श्री सोगाणी जी ने अपनी विशिष्ट शैली में ही उत्तराध्ययन की 152 गाथाओं का हिन्दी अनुवाद, व्याकरणिक विश्लेषण और विस्तृत प्रस्तावना के साथ इसका सम्पादन कर प्रकाशनार्थं प्राकृत भारती को प्रदान की एतदर्थं हम उनके हृदय से आभारी हैं । हमारे अनुरोध को स्वीकार कर श्री रणजीत सिहजी कूमट, ग्राई. ए. एस. ने इसका प्राक्कथन लिखा, अतः हम उनके प्रति भी आभार व्यक्त करते हैं । हमें पूर्ण विश्वास है कि प्राकृत भाषा के विज्ञ पाठक गीता सदृशं इस चयनिका के माध्यम से उत्तराध्ययन सूत्र का हार्द समझकर उत्तराध्ययन ] vi ] Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाति-पांति और साम्प्रदाधिकता रहित विशुद्ध विनय-प्रधान अनुशासित जीवन को अवश्य अपनायेंगे तथा भगवान महावीर की वाणी को हृदय में प्रतिक्षण अनुगु जित करते रहेंगे। "समयं गोयम ! मा पमायए" हे गोतम ! समय /अवसर को समझ और क्षण मात्र भी प्रमाद मतकर । पारसमल भंसाली म. विनयसागर निदेशक देवेन्द्रराज मेहता सचिव अध्यक्ष श्री जैन श्वे नाकोड़ा प्राकृत भारती प्रकादमी प्राकृत भारती पार्श्वनाथ तीर्थ अकादमी मेवानगर जयपुर जयपुर चयनिका ] viin Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन उत्तराध्ययन सूत्र जन भागमों में प्रथम मूल सूत्र है और यदि इसे जैन धर्म की “गीता' कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जैन शास्त्रों व दर्शन के प्रति जिज्ञासु व्यक्ति यह मांग करते हैं कि किसी एक पुस्तक का नाम बतायें जिससे जैन दर्शन की संपूर्ण जानकारी मिल सके तो सहज ही उत्तराध्ययन सूत्र ध्यान में आता है जो जैन दर्शन का सार प्रस्तुत करता है। वैसे तो दशवकालिक सूत्र और उमास्वाति रचित तत्त्वार्यसूत्र भी जैन दर्शन का परिचय देते हैं लेकिन उत्तराध्ययन सूत्र की तुलना नहीं कर सकते। वैसे भी व्यवहार, वाचन व उद्धरण को दृष्टि से उत्तराध्ययन का जितना प्रचलन है उतना किसी आगम का नहीं है। कुछ श्वेताम्बर परम्पराओं में दीपावली के दूसरे दिन उत्तराध्ययन सूत्र का संपूर्ण वाचन मुनिगण खड़े होकर करते हैं। इसके पीछे विश्वास एवं मान्यता है कि इस सूत्र में जो भी गाथाएं हैं, वे सब भगवान महावीर के अंतिम उपदेश हैं जो उन्होंने निर्वाण से पूर्व दिये थे। अतः इनका वाचन निर्वाण के दूसरे दिन किया जाता है। उत्तराध्ययन सूत्र का नाम उत्तराध्ययन क्यों रखा? इस पर भी कई टिप्पणियां हैं। यह मूल में भगवान महावीर द्वारा रचित चयनिका ] viii] Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है या संकलित है ? इस पर मतभेद है, परन्तु इसमें कोई मतभेद नहीं कि जो सूत्र इसमें दिये हैं वे जैन दर्शन का संपूर्ण सार प्रस्तुत करते हैं। वे हर महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर देते हैं। और, किसी ने कहा कि भगवान महावीर ने छत्तीस प्रश्नों के उत्तर बिना पूछे छत्तीस अध्यायों में दिये हैं। इन दोनों दृष्टिकोण से "उत्तर" का अध्ययन करने से उत्तराध्ययन कहा जाता है । यह शास्त्र "विनय" के अध्याय से प्रारंभ होता है। विनय का साधारण अर्थ नम्रता या प्राजापालन से लिया जाता है। परन्तु विनय का अर्थ इससे कहीं अधिक व्यापक और गहरा है। विनय व्यक्ति का शील और आचार है। यह धर्म और जीवन का मूल है। जहाँ अहं है वहां विनय नहीं। जहां विनय नहीं वहां धर्म नहीं। जहाँ धर्म नहीं वहाँ जीवन नहीं। इस तरह विनय धर्म और जीवन का मूल है, परन्तु इसके ऊपरी अध्ययन से लगता है कि केवल गुरुमाज्ञा को मानने में ही विनय है और यह गुरु-पद्धति का पोषक है। परन्तु, गहराई से देखें तो गुरु-विनय के साथ वाणी और शरीर का संयम व अपनी कामनाओं को वश में करना यह सब विनय के भाग हैं। अतः ऊपरी रूप से गुरु आज्ञा का मानना ही विनय न होकर पूरे शील और सयम के आचरण को विनय मानना चाहिये। इसी प्रकार परिषह. श्रद्धा, प्रमाद, सकाम मरण, आदि विषयों पर मार्मिक विवेचन है और इनके अनुसरण से व्यक्ति आत्म-कल्याण के मार्ग पर आसानी से बढ़ सकता है। इस शास्त्र में संवाद की शैली से कई गूढ विषयों को प्रतिपादित किया गया है। राजा नमि और इन्द्र, इक्षुकार नगर में दो बालक और उनके पुरोहित ब्राह्मण मातापिता, चित्त और संभूत भाईयों में संवाद वैराग्य और संसार की चयनिका ] Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नश्वरता पर प्रकाश डालते हैं । इनको पढ़कर धन के पीछे लग रही अंधी दौड़ पर मनुष्य विचार करे कि क्या यह दौड़-धूप सार्थक है ? डषुकारीय नगरी का पूरा पुरोहित परिवार दीक्षा लेता है और उसका अपार धन राज खजाने में श्राता है तो उस नगरी के राजा से रानी सहज ही प्रश्न पूछती है कि 'यह घन कहाँ से आ रहा है ! जब उसको पता लगता है कि 'धुरोहित परिवार के दीक्षा लेने पर धन स्वामित्व विहीन होने से राज खजाने में आ रहा है' तो तुरन्त रानी राजा से कहती है, "कोई वमन किये भोजन को ग्रहण करना पसन्द नहीं करता और श्राप ब्राह्मण द्वारा त्यागे धन को ग्रहण कर रहे हैं तो यह अच्छा नहीं । घन की पिपासा अनन्त है और समस्त जगत का धन भी दे दें तो यह शान्त न होगी । यह घन मृत्युपरान्त काम नहीं आयेगा | श्राप काम भोगों का त्याग कर धर्म का मार्ग लो वह साथ चलेगा ।" इस उपदेश से राजा भी प्रभावित हुआ श्रीर पुरोहित परिवार के साथ राजा भोर रानी भी संसार भोगों को त्याग कर संयम मार्ग पर चल पड़े। इस प्रकार के प्राख्यान, संवाद और सरल उदाहरण से प्रेरित करने वाले सूत्र उत्तराध्ययन में प्रचुर मात्रा में हैं और इनका सतत अध्ययन एवं स्वाध्याय, जीवन को सही मार्ग पर चलाने में व श्रात्म-कल्याण में मदद करता है । चांडालकुल उत्पन्न हरिकेश मुनि और ब्राह्मणों में हुए संवाद से यह पुष्टि होती है कि जैन धमं वर्ण व्यवस्था में विश्वास नहीं करता श्रीर प्रत्येक व्यक्ति को धर्म-यज्ञ का अधिकार है और किसी वर्ग विशेष की थाती नहीं है । ब्राह्मण कौन है और यज्ञ किसे कहते हैं ? इसका प्रतिपादन इस अध्याय में बहुत ही सुन्दर रूप से हुआ है । ब्राह्मण जन्म से नहीं कर्म से होता है । यज्ञ और स्थान बाहरी न होकर आन्तरिक होने चाहिये । तप वास्तविक अग्नि है, जीव अग्नि स्थान है, योग कलछी है, शरीर अग्नि का प्रदीप्त करने वाला x ] उत्तराध्ययन Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन है, कर्म ईधन है, और संयम शांति मन्त्र है। इन साधनों से यज्ञ करना हो प्रशस्त यज्ञ है । एक युवा मुनि ने महा वैभवशाली राजा श्रेणिक को भी यह अनुभव करा दिया कि वह अनाथ है। राजा ने तरुण मुनि से पूछा "इस भोग भोगने की वय में प्राप मुनि बने हैं तो क्या दुःख है, वतायें।" तब मुनि ने कहा कि वे अनार्थ हैं ।' राजा ने कहा "मैं सब अनाथों का नाथ हूँ", तव मुनि ने कहा कि 'पाप स्वयं 'अनाथ" हैं।' राजा अवाक रह गया, तब अनाथ की परिभाषा से राजा को अवगत कराया कि जब पीड़ा, बुढापा और काल पाता है तो कोई किसी की सहायता नहीं कर सकता। केशी-गौतम संवाद से भगवान पार्श्वनाथ के समय के साधुओं और भगवान महावीर के साधुओं के बीच वेप व समाचारी के भेद से जो शंकाएं थी उनको दूर किया और धर्म की समय-समय पर प्रज्ञा मे समीक्षा करना यथेष्ट बताया। देश, काल और भाव से व्यवहार में परिवर्तन पाता है, परन्तु प्रज्ञा से समीक्षा कर परिवर्तन होता है तो मुलभूत सिद्धान्त अपरिवर्तित रहते हुए भी व्यवहार में यथेष्ट परिवर्तन किया जा सकता है। वैराग्य, धन व भोगों की नश्वरता पर जितने मार्मिक उदाहरण व सूत्र इस शास्त्र में हैं वे सब आत्म-कल्यारण के साधन स्वरूप हैं। वाणी-विलास से कर्म-मीमांसा और जगत् स्वरूप के विशद विवेचन किये जा सकते ह लेकिन धर्म और भात्मकल्याण का एक ही सूक्ष्म और सरल मार्ग है जिस पर चलने से ही कल्याण होता है और वह है वैराग्य या अनासक्ति । जब तक आसक्ति है तब तक दुःख है और यह संसार का भव-भ्रमण है। मासक्ति को समाप्त करते ही चयनिका [xi Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार-चक्र भी समाप्त हो जाता है। इस बात को विभिन्न उदाहरणों मे इस शास्त्र में समझाया है। उत्तराध्ययन इसीलिये "गीता" है कि इसमें धर्म के मूल मन्त्र को प्रतिपादित किया है और उसे रोचक ढंग से प्रस्तुत कर आत्म-कन्यांण के मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित किया है। डॉ. कमलचन्द सोगांणी ने विभिन्न शास्त्रों और ग्रंथों की चयनिकाएं रचित की हैं। प्राचारांग की चयनिका सर्व प्रथम पढ़ी और बहुत ही प्रेरणादायक व उपयोगी लगी। इससे जैनागमों के प्रथम आगम आचारांग से परिचय हुआ। इसके बाद दशवकालिक, समणसुत्तं व गीता की चयनिका भी प्रकाशित हुई । अब उत्तराध्ययन की चयनिका प्रस्तुत की है। यह जन-साधारण के लिये बहुत ही हतकारी पुस्तक है। संक्षेप में पूरे शास्त्र का सार कुछ चुनी हुई गाथाओं से पहुंचाने का प्रयास है। इसके साथ प्राकृत के शब्दों का अर्थ और व्याकरणात्मक विश्लेषण भी प्राकृत से अनजान व्यक्तियों को प्राकृत भाषा से परिचय भी कराता है। यह डॉ. सोगाणी की प्रशंसनीय कृति है और सभी मुमुक्षु व्यक्ति इसका लाभ उठायेंगे यह पाशा की जा सकती है। प्राकृत भारती ने कई दुर्लभ पुस्तकों का प्रकाशन किया है। साथ ही इस प्रकार की चयनिका व अन्य ग्रन्थों से जैन व प्राकृत के बारे में जन साधारण में प्रचार प्रसार करने का श्लाघनीय प्रयास किया है । इसके लिये इस संस्था के मूल प्रेरणा स्रोत श्री देवेन्द्रराज मेहता व मुख्य कार्यकर्ता व निदेशक महोपाध्याय श्री विनयसागरजी को साघुवाद है जिनके प्रयासों से यह साहित्य जन साधारण तक पहुंच रहा है। इस चयनिका को पढ़कर मूल सूत्र उत्तराध्ययन सूत्र को संपूर्ण रूप से पढने की जिज्ञासा जागेगी ऐसी आशा करता हूँ। रणजीतसिंह क मट [उत्तराध्ययन . Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना यह सर्वविदित है कि मनुष्य अपनी प्रारम्भिक अवस्था से ही रंगों को देखता है, ध्वनियों को सुनता है, स्पर्शो का अनुभव करता है, स्वादों को चखता है तथा गंधों को ग्रहण करता है । इस तरह उसकी सभी इन्द्रियां सक्रिय होती है । वह जानता है कि उसके चारों ओर पहाड़ हैं, तालाब हैं, वृक्ष हैं, मकान हैं मिट्टी केटोले हैं, पत्थर हैं इत्यादि । श्राकाश में वह सूर्य, चन्द्रमा श्रोर तारों को देखता है । ये सभी वस्तुएँ उसके तथ्यात्मक जगत का निर्माण करती हैं । इस प्रकार वह विविध वस्तुनों के बीच अपने को पाता है । उन्हीं वस्तुनों से वह भोजन, पानी, हवा आदि प्राप्त कर ग्रपना जीवन चलाता है । उन वस्तुओं का उपयोग अपने लिये करने के कारण वह वस्तु जगत का एक प्रकार से सम्राट बन जाता है | अपनी विविध इच्छाओं को तृप्ति भी बहुत सीमा तक वह वस्तुजगत से ही कर लेता है । यह मनुष्य की चेतना का एक श्रायाम है | धीरे-धीरे मनुष्य की चेतना एक नया मोड़ लेती है । मनुष्य समझने लगता है कि इस जगत में उसके जैमे दूसरे मनुष्य भी है, जो उसकी तरह हँसते हैं, रोते हैं, सुखी-दुःखी होते हैं । वे उसकी तरह विचारों, भावनाओं और क्रियाश्री की अभिव्यक्ति करते हैं । चूंकि [xiii चयनिका ] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य अपने चारों ओर की वस्तुओं का उपयोग अपने लिये करने का अभ्यस्त होता है, अतः वह अपनी इस प्रवृत्ति के वशीभूत होकर मनुष्यों का उपयोग भी अपनी आकांक्षाओं और पाशाओं की पूर्ति के लिए हां करता है। वह चाहने लगता है कि सभी उसी के लिये जीएं। उसकी निगाह में दूसरे मनुष्य वस्तुओं ग अधिक कुछ नहीं हाते हैं। किन्तु, उसकी यह प्रवृत्ति बहुत संमय तक चल नहीं पाती हैं। इसका कारण स्पष्ट है। दूसरे मनुष्य भी इसी प्रकार को प्रवृत्ति में रत होते हैं। इसके फलस्वरूप उन शक्ति वृद्धि की मह. त्वाकांक्षा का उदय होता है। जो मनुष्य शक्ति-वृद्धि में सफल होता है, वह दूसरे मनुष्यों का वस्तुत्रों की तरह उपयोग करने में समर्थ हो जाता है । पर मनुष्य की यह स्थिति घोर तनाव की स्थिति होतो है। अधिकांश मनुष्य जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में इस तनाव की स्थिनि में से गुजर चुके होते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह तनाव लम्बे समय तक मनुष्य के लिए असहनीय होता है। इस असहनोय तनाव के साथ-साथ मनुष्य कभी न कभी दूसरे मनुष्यों का वस्तुओं की तरह उपयोग करने में असफल हो जाता है। ये क्षण उसके पुनर्विचार के क्षण होते हैं। वह गहराई से मनुष्य-प्रकृति के विषय में सोचना प्रारम्भ करता है, जिसके फलस्वरूप उसमें सहसा प्रत्येक मनुष्य के लिए सम्मान-भाव का उदय होता है। वह अब मनुष्य-मनुष्य को समानता और उसकी स्वतन्त्रता का पोषक बनने लगता है। वह अव उनका अपने लिए उपयोग करने के बजाय अपना उपयोग उनके लिये करना चाहता है। वह उनका शोपण करने के स्थान पर उनके विकास के लिये चिन्तन प्रारम्भ करता है। वह स्व-उदय के बजाय सर्वोदय का इच्छुक हो जाता है। वह सेवा लेने के स्थान पर सेवा करने को महत्व देने लगता है। उसकी यह प्रवृत्ति उसे तनाव-पुक कर देतो है और वह एक प्रकार से विशिष्ट xiv ] उत्तराध्ययन Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति वन जाता है । उसमें एक असाधारण अनुभूति का जन्म होता है । इस अनुभूति को ही हम मूल्यों की अनुभूति कहते हैं । वह अब वस्तु-जगत में जीते हुए भी मूल्य-जगत में जीने लगता है । उसका मूल्यजगत में जीना धीरे-धीरे गहराइ की ओर बढ़ता जाता है । वह अब मानव मूल्यों की खोज में संलग्न हो जाता है । वह मूल्यों के लिए हो जीता है और समाज में उसकी अनुभूति बढ़े इसके लिये अपना जीवन समर्पित कर देता है । यह मनुष्य की चेतना का एक दूसरा प्रायाम है | उत्तराध्ययन में चेतना के दूसरे आयाम की सबल अभिव्यक्ति हुई है । इसका मुख्य उद्देश्य एक ऐसे समाज की रचना करना है जिसमें इन्द्रिय-भोगों की इच्छाओं पर अंकुश लगे और संयममय जीवन के प्रति आकर्षण बढ़ें। यह सर्व मनुभूत तथ्य है कि इन्द्रिय-भोगों में रमण करने से इन्द्रिय-भोगों में रमण करने की इच्छा बारबार उत्पन्न होती है । इच्छा से मानसिक तनाव उत्पन्न होता है जो दुःस का कारण बन जाता है । उत्तराध्ययन का कहना है कि इन्द्रिय-भोग निश्चय ही अनर्थो को खान होते हैं, क्षण भर के लिए सुखमय तथा बहुत समय के लिए दुःखमय होते हैं / अति दुःखमय तथा अल्प सुखमय हैं वे संसार सुख और मोक्ष-सुख दोनों के विरोधी बने हुए रहते हैं (57)। यह ध्यान देने योग्य है कि जिसकी इच्छा बिदा नहीं हुई है, ऐसा मनुष्य रात-दिन मानसिक तनाव से दुःखी रहता है ( 58 ) । सच है वे मनुष्य दुर्बुद्धि हैं जो भोगों में अत्यन्त लालायित होते हैं । इस कारण से वे भोगों से चिपके रहते हैं, जैसे मिट्टी का गोला गोला दिवार पर चिपक जाता है (72, 73 ) । ऐसा विलासी व्यक्ति : प्रशान्त रहता है और मानसिक तनाव में हो. भटकता रहता है (71) : इस तरह से मूर्ख मनुष्य भोगों में मूच्छित होकर इच्छारूपी अग्नि के : द्वारा जलाए जाते हैं (66) | चयनिका [ XV Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो मनुष्य इन्द्रिय-मोगों की लालसा में डूबे रहते हैं, वे भोगसामग्री को एकत्रित करने में लगे रहते हैं। उनका धन इसी कार्य में खर्च होता रहता है। धन की कमी होने पर वे पाप-कर्मों द्वारा धन को ग्रहण करने लगते हैं (20) । वे इस बात को समझ नहीं पाते हैं कि दुष्कर्मों के फल से छुटकारा संगव नहीं है (21)। उत्तराध्ययन का शिक्षण है कि दुष्कर्मों में फंसे हुए व्यक्ति की रात्रियां व्यर्थ जाती हैं (60)।ऐसा व्यक्ति मृत्यु के निकट आने पर गोक करता है, जैसे ऊबड़खाबह मार्ग पर उतरा हुआ गाड़ीवान धुरी के पण्डित होने पर शोक करता है (26, 27)। जमे हारा जुआरी भय से अत्यन्त कांपता है, वैसे ही दुष्कर्मी मनुष्य मरण की निकटता में भय से अत्यन्त कांपता है और वह मूच्छित अवस्था में ही मरण को प्राप्त होता है (28)। यहां पर ध्यान देने योग्य है कि इन्द्रिय-भोगों में लीन व्यक्ति लोम का शिकार होता है। लोम मनुष्य में ऐसी वृत्ति को जन्म देता है, जिसके कारण वह धन आदि प्राप्त करने को इच्छाओं को बढ़ाता चलता है। उत्तराध्ययन का कहना है कि लोभी मनुष्य सोने, चांदी के असंख्य पर्वत भी प्राप्त कर ले तो भी उसकी तृप्ति असंभव है, क्योंकि इच्छा आकाश के समान अन्तरहित होती है । (38) इन व्यक्तियों में स्वार्थपूर्ण वृत्ति इतनी प्रवल होती है कि वे दूसरे मनुष्यों को भी इन्द्रिय-मोगों में ही जोतते हैं। इन्हें स्व-पर कल्याण का कोई मान ही नहीं होता है (32)। इस तरह से ये व्यक्ति पाशविक वृत्तियों के दास बने हुए जीते हैं (19)। ये व्यक्ति सोए हुए कहे जा सकते हैं 241एसे व्यक्ति मूच्छित होते हैं और मानसिक तनावों से ग्रसित रहते हैं। सम्पूर्ण लोक की प्राप्ति भी उन्हे संतुष्ट नहीं कर सकती है (34)। इन्हें इस बात की समझ नहीं होती है कि इन्द्रिय-भोग परिणाम में किंपाक-फल से मिलते-जुलते होते हैं। किपाक (प्राण नाशकवृक्ष) xvi] [ उत्तराध्ययन Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के फल रस और वर्ण में तो मनोहर होते हैं, किन्तु वे खाने पर जीवन को समाप्त कर देते हैं (92) | सदियों के मानव अनुभव ने हमें सिखाया है कि भोगमय जीवन जीने से मनुष्य तनाद - मुक्त नही हो सकता है । भोगेच्छात्रों से उत्पन्न मानसिक तनाव को मिटाने के लिए मनुष्य जितना - जितना भोगों का सहारा लेगा, उतना उतना मानसिक तनाव गहरी जड़ें पकडता जायेगा | मानसिक तनाव की उपस्थिति में मनुष्य जीवन की गहराईयों की भोर नहीं मुड सकेगा और छिछला जीवन जीने को ही सब कुछ समझता रहेगा । उत्तराध्ययन का कहना है कि जो मनुष्य शरीर में, कीर्ति में तथा रूप में श्रासक्त होते है, वे दुःखों से घिरे रहते हैं (31) | मनुष्यों का जो कुछ भी कायिक और मानसिक दुःख है, वह विषयों में प्रत्यन्त प्रासक्ति से उत्पन्न होता है (91) । जो रूपों (भोगों) में तीव्र आसक्ति रखता है, वह विनाश को प्राप्त होता है (94) ! इस तरह इन्द्रियों के विषय और मन के विषय श्रासक्त मनुष्य के लिए दुःख का कारण होते हैं (96) | यह दुःख मानसिक तनाव के कारण उत्पन्न होता है । भांगेच्छाओं से उत्पन्न मानसिक तनावात्मक दुःखों को मिटाने के लिए भोगेच्छात्रों को मिटाना जरूरी है । इसके लिए संयममय जीवन श्रावश्यक है । उत्तराध्ययन का शिक्षण है कि व्यक्ति चाहे ग्राम अथवा नगर में रहे, किन्तु वहाँ उसे सयत श्रवस्था में ही रहना चाहिए ( 44 ) । जैसे उज्जड़ बैल वाहन को तोड़ देते हैं, वैसे ही संयम में दुर्बल व्यक्ति जीवन-यान को छिन्न-भिन्न कर देते हैं (74) । जो विषयों से नहीं चिपकते हैं, वे अविलासी व्यक्ति मानसिक तनावरूपी मलिनता से छुटकारा पा जाते हैं (73,71) | जैसे सूखा गोला दिवार चयनिका ] [xvii Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से नहीं चिपकता है, वैसे ही सयमी व्यक्ति विषयों से नहीं चिपकते हैं ( 72, 73 ) । यह यहा समझना चाहिए कि नये मानसिक तनावों की रोकने से, पुराने सस्कारात्मक मानसिक तनाव प्रयास से धीर-धीरे समाप्त किये जा सकते हैं । उत्तराध्ययन का कहना है कि यदि बड़े तालाब मे जल का श्राना पूर्ण रूप से रोक दिया जाए, तो एकत्रित जल को बाहर निकालने से तालाब खाली किया जा सकता है । उसी प्रकार संयमी मनुष्य में प्रशुभ कर्मों (मानसिक तनावों) का आगमन नहीं होने के कारण करोड़ो जम्मों के सचित कर्म ( मानसिक तनाव ] तप [ संयम साधना ] के द्वारा नष्ट किये जा सकते है ( 84, 85) । उत्तराध्ययन का कथन है कि कर्म [ मानसिक तनाव ] विषयों में मूर्च्छा से उत्पन्न होता है, जो दुःखों का जनक है ( 88 ) । जिसके मन में तृष्णा नहीं है उसके द्वारा मूच्छी दूर की गई है। जिसके मन में लोभ नहीं है उसके द्वारा तृष्णा दूर की गई है तथा जिसके मन में कोई वस्तु नहीं है उसके द्वारा लोभ दूर किया गया है (89) | इन्द्रिय-भोगों से दूर हटने की प्रेरणा उसे | व्यक्ति को ] इस जगत से ही प्राप्त हो सकती है । यह जगत मनुष्य को ऐसे श्रनुभव प्रदान करने के लिए सक्षम है, जिनके द्वारा वह सयम के लिए प्रेरणा प्राप्त कर सकता है । मनुष्य कितना ही इन्द्रिय-भोगों में लीन रहे फिर भी मृत्यु की अनिवार्यता, भोगों की नश्वरता, मानवीय सम्बन्धों की सीमा, शारीरिक कष्ट की अनुभूति, मनुष्य जीवन की प्राप्ति और उसमें सही मार्ग मिलने की दुर्लभता उसको एक बार "जगन के रहस्य को समझने के लिए बाध्य कर ही देते हैं । यह सच है कि अधिकांश मनष्यों के लिए यह जगत इन्द्रिय-तृप्ति का ही माध्यम बना रहता है, किन्तु कुछ मनुष्य ऐसे संवेदनशील होते हैं कि यह जगत उनको संयम ग्रहण करने के लिए प्रेरित कर देता है । xviii] [ उत्तराध्ययन Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु को अनिवार्यता को समझाने के लिए उत्तराध्ययन का कहना है कि जैसे सिंह हरिण को पकड़ कर ले जाता है, वैसे ही मृत्यु अन्तिम समय में मनुष्य को निस्संदेह पकड़कर ले जाती है(53)। वह खेत, धन-धान्य और म. को छोड़कर अकेला मृत्यु को प्राप्त कर दूसरे जन्म के लिए प्रस्थान करता है। 155.64) । वह यह बात बोलता ही रहता है कि "यह वस्तु मरी और यह वस्तु मेरी नहीं है" और काल उसे निगल जाता है (59) । यहाँ यह समझना चाहिए कि मृत्यु के मुख में पहुंचने पर वह व्यक्ति अत्यन्त दु:खी होता है जिसने इस जीवन में शुभ कार्यों को नहीं किया है (52)। इस तरह से मृत्यु की अनिवार्यता संयम ग्रहण करने के लिए प्रेरणा दे सकती है । कुछ मनुष्य इससे प्रेरणा प्राप्त करके संयम की साधना में लग जाते हैं। जिन इन्द्रिय-भागों में लीन होने के लिए मनुष्य प्राकर्षित होता है वे भी नशवर हैं (56) । कभी वे धनाभाव के कारण प्राप्त नहीं किए जा सकते हैं तो कभी वे शारीरिक क्षीणता के कारण भोगे नहीं जा सकते हैं : मृत्यु की अनिवार्यता और इन्द्रिय भोगों की नश्वरता के साथसाथ यदि मनुष्य को सम्बन्धों की सीमा का ज्ञान हो जाए तो भी वह संयम की ओर झुक सकता है। जिन सम्बन्धों के लिए वह लोक में अशुभ कर्म करता है, उनका फल-भोग उसी को करना पड़ता है (22), क्योंकि दुखात्मक कर्म कर्ता का ही अनुसरण करते हैं (54)। सम्बन्धों की कमी का ज्ञान मनुष्य को उस समय बहुत ही स्पष्ट होता है जब व्यक्ति किसी शारीरिक कष्ट में फंस जाता है । चयनिका [ xix Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे घने सम्बन्धी उसकी मदद करने के लिए दौड़ते हैं, फिर भी यदि उसका कष्ट न मिटे तो वह असहाय अनुभव करता है। इसमें सन्देह नहीं कि व्यक्तियों का सहारा उसके लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होता है किन्तु यदि सभी प्रकार के उपचार से उसका शारीरिक दुख न मिटे तो उसका भोग व्यक्ति को स्वयं को ही करना पड़ता है। इस तरह से वह अनाथ की कोटि में आ जाता है (104 से 125) । श्रना. थता की यह वास्तविक अनुभूति उसको अनासक्ति का पाठ पढ़ा सकती है। वे लोग जो शारीरिक कष्ट की इस अनभूति के प्रति सवेदनशील हो जाते हैं, वे संयम ग्रहण करने की प्रेरणा प्राप्त कर लेते हैं। उत्तराध्ययन का कहना है कि मनुष्य जीवन की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। वह यदि प्राप्त भी हो भी जाये तो सही मार्ग का मिलना दुलंभ रहता है। सयम के महत्व का श्रवण, उसमें श्रद्धा तपा सयम में सामर्थ्य ये तीनो भी कठिन ही रहते है (11 से 16) । इसलिए उत्तरााध्ययन का कथन है कि जिसने मनुप्यत्व को प्राप्त किया है तथा जो संयम रूपी धर्म को सुनकर उममें श्रद्धा करता है, वह संयम में सामर्थ्य प्राप्त करके मानसिक तनाव से मुक्त हो जाता है (17) । इस तरह से जब मनुष्य को इन्द्रिय-भोगों की निस्सारता का भान होने लगता है, तो वह संयम मार्ग की भोर चल पड़ता है। मृत्यु की अनिवार्यता, भोगों की नश्वरता, मानवीय सम्बन्धों की सीमा शारीरिक कष्ट की अनुभूति, मनुष्य जीवन की प्राप्ति और उसमें सही मार्ग मिलने की दुर्लभता-ये सब मनुष्य को संयम के लिए प्रेरणा देकर उसे तनावात्मक दुःख से मुक्त कर सकते हैं । xx ] [ उत्तराध्ययन Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि इस जगत में संयम धारण करने के लिए प्रेरणाएं उपलब्ध हैं। उनसे प्रेरित होकर व्यक्ति संयम की ओर मुड़ता है। उस व्यक्ति के लिए उत्तराध्ययन का शिक्षण है कि स्व को जीतना ही परम विजय है (36) । इसलिए यह कहा गया है कि अंतरंग राग-द्वेष से ही युद्ध किया जाना चाहिए, क्योंकि अपनी राग-द्वेषात्मक वृत्ति को जीतकर ही व्यक्ति मानसिक तनावात्मक दुःख से मुक्त हो सकता है (37)। वस्तुओं और व्यक्तियों में आसक्ति का त्याग इस जीत के लिए आवश्यक शर्त है (43)। उत्तराध्ययन का शिक्षण है कि इन्द्रियों के विषय प्रासक्त मन प्य के लिए दुःख का कारण होते हैं। अतः मनुष्यों के लिए संयम रूपी धम आश्रय गृह है, सहारा है, रक्षा स्थल है तथा उत्तम शरण है (69)। सयम की कला सीखने के लिए ब्यक्ति को विनयवान होना अत्यन्त आवश्यक है। उत्तराध्ययन का कहना है कि जो गुरु की सेवा करने वाला है, जो उसकी प्राज्ञा और उसके उपदेश का पालन करने वाला है, जो शरीर के विभिन्न अंगों की चेष्टा से तथा चेहरे के रंग-ढंग से उसके आन्तरिक विचार को समझ लेता है, वह विनीत कहा जाता है। विनयवान व्यक्ति गुरु के कठोर अनुशासन को भी हितकारी मानते हैं (8)। ___ संयम धारण करने के लिए हिंसा का त्याग किया जाना चाहिए । प्रत्येक जीव के प्राणों को अपने समान प्रिय जानकर उसका घात नहीं करना चाहिए (30)। जो प्राणियों का रक्षक होता है, वह सम्यक् प्रवृत्ति वाला कहा जाता है (33) । सामायिक, प्रायश्चित्त, मैत्रीभाव, प्रार्जवता, वीतरागता का अभ्यास, चित्त-निरोध तथा चयनिका ] [axi Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म कथा-ये सब संयममय जीवन जीने के लिए महत्वपूर्ण हैं। सामायिक के द्वारा अगुभ प्रवृत्ति से निवृत्ति होती है (75)। प्रायश्चित्त से आचरण में निर्दोपता आती है और साधन निमंल बनते हैं (76) । मैत्री भाव से निर्भयता उत्पन्न होती है (77)| प्रार्जवता (निष्कपटता) से काया की सरलता, मन का खरापन, भापा की मृदुता और व्यवहार में अधूर्तता उत्पन्न होती है (83) । वीतरागता के अभ्यास से व्यक्ति राग-गम्बन्धों को तोड़ देता है और इन्द्रिय विषयों से निलिप्त होकर अनासक्त होता है (82.81) । चंचल चिन का निरोध करने से व्यक्ति संयमरूपी लक्ष्य के प्रति समर्पित होना है (80)। धर्मकथा करने से व्यक्ति संयममय जीवन में प्रास्थावान बनता है और सयम को प्रभाव-युक्त करता है (78) । उत्तराध्ययन में कहा गया है कि ऐसे व्यक्ति की रात्रियाँ सफल कही जा सकती हैं (61) । और वह संसार समुद्र को (मानसिक तनावरूपी दुःखों को) पार कर जाता है (70) । उन लोगों को संयम मार्ग पर चलने में कठिनाई होती है जो अहंकारी, क्रोधी, रोगी और आलसी होते हैं (46)। संयम की पूर्णता होने पर व्यक्ति लाभ-हानि, मान-अपमान, निन्दा-प्रशंसा आदि द्वन्द्वों में तटस्थ हो जाता है (68) । वह अचल सुख तथा स्वतन्त्रता प्राप्त करता है (86)। उसके चित्त पर प्रासक्तिरूपी शत्रु आक्रमण नहीं करते हैं (90) । ऐसा व्यक्ति संसार के मध्य रहता हमा भी दुःख-रहित होता है (953 । इन्द्रिय-विपय उसमें आकर्षण और विकर्षण उत्पन्न नहीं करते है (98)। उत्तराध्ययन चयनिका के उपर्युक्त विषय-विवेचन.से स्पष्ट है कि उत्तराध्ययन में संयममय जीवन जीने की कला की सूक्ष्म अभिव्यक्ति हुई है । इसी विशेषता से प्रभावित होकर यह चयन xxii] [ उत्तराध्ययन Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है। गाथाओं के हिन्दी अनुवाद कोमूलानुगामी बनाने का प्रयास किया गया है । यह दृष्टि रही है कि अनुवाद पढ़ने से हो शब्दों को विभक्तियां एवं उनके अर्थ समझ में श्रा जाएं। अनुवाद को प्रवाहमय बनाने की भी इन्छा रही है। कहाँ तक सफलता मिली है इमको तो पाठक हो बता सकेंगे। अनुवाद के अतिरिक्त गाथानों का व्याकरणिक विश्ले-. पण भी प्रस्तुत किया गया है। इस विश्लेषण में जिन संकेतों का प्रयोग किया गया है, उनको संकेत सूची में देखकर समझा जा सकता है। यह प्राशा की जाती है कि चयनिका के अध्ययन से प्राकृत को व्यवस्थित रूप से सीखने में सहायता मिलेगी तथा व्याकरण के विभिन्न नियम सहज में ही सीखे जा सकेंगे। यह सर्वविदित है कि किसी भी भाषा को सीखने के लिए व्याकरण का ज्ञान अत्यावश्यक है। प्रस्तुत गाथाएं एवं उनके व्याकरणिक विश्लेषण से व्याकरण के साथ-साथ शब्दों के प्रयोग भी सीखने में मदद मिलेगी। शब्दों का व्याकरण और उनका प्रथपूर्ण प्रयोग दोनों ही भाषा सीखने के आधार होते हैं। अनुवाद एवं व्याकरणिक विश्लेषण जैसा भी बन पाया है पाठकों के समक्ष है । पाठकों के सुझाव मेरे लिए बहुत ही काम के होंगे। प्राभार : उत्तराध्ययन-चर्यानका के लिए श्री पुण्यविजयजी एव श्री अमृतलाल मोहनलाल भोजक द्वारा संपादित उत्तराध्ययन के संस्करण का उपयोग किया गया है। इसके लिए श्री पुण्यविजयजी एवं श्री अमृतलाल जी भोजक के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। उत्तराध्ययन का यह संस्करण श्री महावीर विद्यालय से सन् 1977 में प्रकाशित हुआ है। चयनिका ] ( xxiii Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान के आराधक श्री रणजीतसिंह जी कूमट ने इस पुस्तक का प्राक्कथन लिखने की स्वीकृति प्रदान की, इसके लिए में उनका हृदय से कृतज्ञ हूँ। मेरे विद्यार्थी डॉ श्यामराव व्यास. सहायक प्रोफेसर, दर्शनविभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर का आभारी हूँ, जिन्होंने इस पुस्तक के अनुवाद को पढ़कर उपयोगी सुझाव दिये । डॉ. हकम चन्द जैन (जैन विद्या एव प्राकृत विभाग, सुग्वाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर), डॉ. सुभाष कोठारी तथा श्री सुरंश सिसोदिया (पागम, महिंसा-समता एवं प्राकृत सस्थान, उदयपुर) ने प्रूफ संशोधन में जो .सहयोग दिया है उसके लिए प्राभारी हूँ। मेरो धर्म पत्नी श्रीमती कमला देवी सोगाणी ने इस पुस्तक को गाथाओं का मूल ग्रन्थ से सहपं मिलान किया है तथा प्रफ-संशोधन का कार्य रुचि पूर्वक किया है, अतः मैं अपना प्राभार प्रकट करता हूँ। इस पुस्तक को प्रकाशित करने के लिए प्राकृत भारती । अकारमो जयपुर के सचिव श्री देवेन्द्रराज जी मेहता तथा संयुक्त सचिव एवं निर्देशक महोपाध्याय श्री विनयसागर जी ने जी व्यवस्था की है, उसके लिए उनका हृदय से प्राभार प्रकट करता हूं। एच-7, चितरंजन मार्ग "सी" स्कीम, जयपुर-302001 कमलचन्द सोगाणी . xxiv) [ उत्तराध्ययन Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन-चयनिका Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन- चयनिका 1 मारणानिद्देसफरे गुरूरणमुववायकारए इंगियाकारसंपन्ने से विपीए ति वच्चई ॥ 2 मा गलिमस्से व फसं वयणमिच्छे पुणो पुणो । कसं व दठ्ठमाइन्ने पावगं परिवज्जए ।। 3 नापुट्ठो वागरे किंचि पुट्ठो वा नालियं वए । कोहं प्रसच्चं कुवेज्जा धारेज्जा पियमप्पियं ॥ 4 अप्पा चेव दमेयम्वो अप्पा हु खलु दुद्दमो । अप्पा वंतो सुही होइ असि लोए परत्थ य ॥ उत्तराध्ययन Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन - चयनिका 1. (जो) गम की सेवा करनेवाला (है), (जो) (उसकी) अाजा (योग) (उसके) उपदेश का पालन करनेवाला (है), (जी) शरीर के विभिन्न अंगों की चप्टा से (तथा) चहरे के रंग-ढंग से (उसके) प्रातरिक विचार (की समझ) से युक्त (है), वह विनीत (विनम्र) कहा जाता है। 2. (शिप्य) (गर के) प्रादेश को बार-बार न चाहे, जैसे कि दुदंम घोड़ा चाबुक को (वार-चार चाहता है) । (शिप्य) (गुरु के मादेश से) पापमय (कर्म) को छोड़े जैसे कि कुलीन घोडा चावुक को देखकर (उपद्रवकारी प्रवृत्ति को छोड़ देता है)। 3. (यदि) (गुरु के द्वाग) पूछा नहीं गया (है), (तो) कुछ न वोल और (यदि) (गुम के द्वारा) पूछा गया है, (तो) झूठ न बोले । क्रोध को मिथ्या (अस्तित्वहीन) करें । (तथा) (गुरु के) प्रिय (ौर) अप्रिय वचन को धारण करे । +. आत्मा ही सचगव कठिनाई से वश में किया जानेवाला (होता है).(तो भी) प्रात्मा ही वश में किया जाना चाहिए। (कारण कि) वश में किया हुया प्रात्मा (ही) इस लोक और पर-लोक में मुखी होता है। चयनिका Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 वरं मे अप्पा दंतो संजमेण तवेण य । मा हं परेहि दम्मतो बंधणेहिं वहेहि य ॥ 6 पडरगोयं च बुद्धाणं वाया अदुव कम्मुरणा । आवी वा जइ वा रहस्से नेव कुज्जा कयाइ वि ॥ 1 न लवेज्ज पुट्ठो सावज्जं न निरत्यं न मम्मयं । अप्परगट्ठा परट्ठा वा उभयस्संतरेण. वा ॥ 8 हियं विगयभया बुद्धा फरसं पि अणुसासणं । वेस्सं तं होई मूढाणं खंति-सोहिकरं पयं ॥ १ रमए पंरिए सासं हयं . भई व बाहए । बालं सम्पति सासंतो गलिपस्सं व वाहए ॥ उत्तराध्ययन Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. समय और नप में मेरे द्वारा वश में किया हुआ (मेरा) आत्मा अधिक अच्छा (है); किन्तु) बंधन और प्रहार से दूसरों के द्वारा वश में किया जाता हुआ मैं (अधिक अच्छा) नहीं (ह।। 6. वचन से अथवा कम से, खल रूप में या भले ही गुप्त (स्थान) में (काई भी मनुष्य) जागरूक (व्यक्तियों) का विरोध किसी समय भी कभी न करे । 7. यदि) (किसी के द्वारा कुछ) पूछा गया (हो) (तो भी) स्वकीय (निज के) प्रयोजन से या दूसरों के प्रयोजन से या दोनों के प्रयोजन से (व्यक्ति) पाप-युक्त न बोले, अनावश्यक न (बोले! (नथा) रहस्य-वाचक (भी) न (बोल) । 8. निर्भय (आर) जागरूक (शिष्य) (गुरु के) कठोर भी अनु शासन को हितकारी मानते हैं)। मूच्छितों के लिए सहनशीलता (प्रदशित) करनेवाला (नथा) (उनको) शुद्धि करनेवाला वह अवसर अप्रीतिकर होता है। 9. बुद्धिमान (व्यक्ति) (विनीत का निर्देश देते हुए) खुश होना है, जैसे कि घुड़सवार उत्तम घोड को वशीभूत करते हुए (खुश होता है।। (किन्तु) (बुद्धिमान व्यक्ति) अविनीत की निर्देश देते हुए दुःखी होता है, जैसे कि घुड़-सवार दुर्दम घाई को (वणीभूत करते हुए) (दुःखो होता है) । चयनिका [ 5 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 खड्ड्गा मे चवेग मे अक्कोसा प वहा य मे । कल्माणमणुसासंतं 'पावदिट्टि' ति मन्नह ।। 11 चत्तारि परमंगाणि दुल्लहारिणह जंतुणो । माणुसतं .सुई सद्धा संजमम्मि य वीरियं ॥ 12 फम्मसंगेहि सम्मूढा दुक्खिया बहुवेयणा । प्रमाणुसासु जोजोसु विरिणहम्मति पाणिणो ॥ 13 कम्मारणं तु पहारणाए प्राणुपुवी कयाइ उ । जोवो सोहिमणुप्पत्ता प्राययंति मणुस्सयं ॥ 14 माणुस्सं विग्गहं लद्ध, सुई धम्मस्स दुल्लहा । जं सोच्चा परिवज्जति तवं खंतिमहिसयं ॥ 15 माहच्च सवरणं लद्ध सदा परमदुल्लहा । सोच्चा याउयं मग्गं बहवे परिभस्सई ॥ उत्तराध्ययन Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. खोटी निगाहवाला (व्यक्ति) (गुरु के) मंगलप्रद (तथा) शिक्षण प्रदान करनेवाले (आदेश) को इस प्रकार मानता है (कि) (वह) मेरे लिए ठोकर (है), (वह) मेरे लिए थप्पड़ (है) तथा (वह) मेरे लिए कटु वचन और प्रहार (है) । 11. इस संसार में व्यक्ति के लिए चार उत्कृष्ट अंग (साधना) दुर्लभ (हैं) : मनुष्यत्व, (अध्यात्म का)श्रवण, श्रद्धा तथा संयम में सामर्थ्य । 12. (जो) जीव कर्म-संग से मोहित (और) दुःखी (होते हैं), (जिनकी) पीडाएं अत्यधिक (होती हैं), (वे) अमनुष्य संबंधी (मनुष्येतर) योनियों में हटा (चला) दिए जाते हैं । 13. किन्तु कर्मों के विनाश के लिए किसी समय भी (जब) सिलसिला शुरु होता है), (तो) शुद्धि को प्राप्त जीव - मनुष्यत्व ग्रहण करते हैं। 14. मनुष्य-संबंधी शरीर को प्राप्त करके (उस) धर्म (अध्यात्म) का श्रवण दुर्लभ (होता हैजिसको सुनकर (मनुष्य) तप, क्षमा (ओर) अहिंसत्व को स्वीकार करते हैं। 15. कभी (अध्यात्म के) श्रवण को प्राप्त करके (भी) (उसमें) श्रद्धा अत्यधिक दुर्तभ (होती है)। (अध्यात्म को भोर) ले जानेवाले मार्ग को सुनकर (भी) बहुत (मनु-समूह) विचलित हो जाता है। चयनिका 7 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 16 सुदं च लद्ध सद्धं च वीरियं पुरण दुल्लहं बहवे रोयमारणा वि नो य णं परिवज्जई ॥ 17 माणुसत्तम्मि प्रायाम्रो जो धम्मं सोच्च सद्दहे तमस्सी वोरियं लद्ध, संबुद्धं निद्धणे रयं ॥ 18 सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई निव्वारणं परमं जाइ घयसितं व पावए 19 स्वयं जीविय मा पमायए जरोवरणीयस्स हु नत्थि ताणं 1 एवं वियारणाहि जगे पमत्ते हिन्दु विहिंसा प्रजया गहिति ॥ 20 के पावकम्मेहि धरणं मगुस्सा समाययंती श्रमई गहाय 1 महाय ते पास पर्यट्टिए नरे राणुबद्धा नरगं उवेति 8 } 11 1 1 11 उत्तराध्ययन Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ iv. (अध्यात्म के) श्रवण श्रर (उसमें) श्रद्धा को प्राप्त करके भी दुर्लभ ( है ) । तथा यद्यपि (संयम मनुष्य ) (होते हैं) (तथापि ) मनुष्य - समूह उस ( सयम ) को फिर (संयम में) सामथ्यं को) चाहते हुए ( बहुत ( सामर्थ्य के प्रभाव में ) ( वह) स्वीकार नहीं कर पाता है । धर्म 17. ( जिसने ) मनुष्यत्व की प्राप्त किया ( है ) (तथा) जो (अध्यात्म) को सुनकर ( उसमें ) श्रद्धा करता है, ( वह) सावध (पाप - युक्त) प्रवृत्ति से रहित तपस्वी ( संयम में) सामथ्यं प्राप्त करके (कर्म) - रज को नष्ट कर देता है । 18. सीधे मनुष्य की शुद्धि ( होती है ) । शुद्ध (व्यक्ति) में धर्मं ( श्राध्यात्म) ठहता है । (प्रोर) (वह) घी से भिगोई गई अग्नि की तरह परम दिव्यता प्राप्त करता है । 19. ( मिला हुम्रा यह) जीवन अपरिमार्जित (पाशविक वृत्तियों सहित ) ( है ) | ( अतः जीवन के परिमार्जन के लिए) प्रमाद मत करो, क्योंकि बुढ़ापे के समीप में लाए हुए (व्यक्ति) का (कोई ) सहारा नहीं ( है ) । प्रमादी जन, हिंसक (और) नियम - रहित (व्यक्ति) किसका (सहारा) लेंगे ? इस प्रकार तुम समझो । 20. जो मनुष्य कुबुद्धि को ग्रहण करके पाप कर्मों द्वारा धन को स्वीकार करते हैं, (तुम) ( इस प्रकार ) प्रवर्तित मनुष्यों को देखों, वे (धन को छोड़कर वैर से बंधे हुए नरक को प्राप्त करते हैं । चयनिका [ 9 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 तेणे जहा संधिमुहे गहीए सकम्मुणा कच्चा पावकारी । एवं पया! पेच्च इहं च लोए कडाग कम्माण न मोक्ख अत्यि ॥ 22 संसारमावन्न परस्स अट्ठा साहारणं जं च फरेइ कम्मं । कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले . न दवा बंचवयं उर्वति ॥ 23 वित्तण तारणं न लमे पमत्ते इमम्मि लोए अदुवा परत्मा । दीवप्पण? व अरणंतमोहे नेपाउयं दमदटठमेव ।। 24 सुत्सु यावी पडिबुद्धजीवी न वोससे पंडिय मासुपन्ने घोरा मुहत्ता प्रवलं सरोरं भारंपती व चरसप्पमत्तो।। 10 ] उत्तराध्ययन Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21. जैसे सेंध द्वार पर पकड़ा गया दुराचारी चोर स्वकर्म से (ही) छेदा जाता है, इसी प्रकार हे मनुष्यं ] (तू) इस लोक में और परलोक में (अपने दुष्कर्म से ही छेदा जायेगा), चूंकि लोक में किए हुए दुष्कर्मों के फल से छुटकारा नहीं होता है। 22. संसार को प्राप्त (व्यक्ति) दूसरे (रिश्तेदारों) के प्रायोजन से जिस भी लौकिक कर्म को करता है, उस कर्म के (फल) -भोग का में वे ही रिश्तेदार रिश्तेदारी स्वीकार नहीं करते हैं। 23. प्रमादी (मूर्छा-युक्त मनुष्य) धन से इस लोक में अपवा परलोक में शरण प्राप्त नहीं करता है । (वह) अनन्त मूर्छा के कारण (शान्ति की ओर) ले जाने वाले (मार्ग) को देखकर (भो) नहीं देखकर ही (चलता है), जैसे बुझे हए दीपक के होने पर (कोई अंधकार में चलता हो)। 24. कुशल-बुद्धि विद्वान तथा जागा हुआ (आध्यात्मिक) (जीवन) जीनेवाला (व्यक्ति)- सोए हुमों (अध्यात्म को भूले हुए व्यक्तियों) पर भरोसा न करें, समय के क्षण निर्दयी (होते हैं), शरीर निवंल (है), (अतः) (तू मप्रमादी (जागत) भारण्ड पक्षी की तरह विचरण कर। ___ 1. वह छेद जो चोर दीवार तोड़कर बनानं है। चयनिका [ 11 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 स पुत्वमेवं न लभेज्ज पच्छा एसोवमा सासयवाइयारणं । विसीयई सिढिले आउम्मि फालोवणीए सरीरस्स भेए । 26 जहा सागडिओ जाणं समं हेच्चा महापहं । विसमं मग्गमोइण्णो अक्खे भगम्मि सोयई ॥ 27 एवं धम्म विउक्काम अहम्म पडिज्जिया । वाले मच्चमुहं पत्ते प्रक्खे भग्गे व सोयई ॥ 28 तओ से मरणंतम्मि बाले संतसई भया । अकाममरणं मरइ धुत्ते वा कलिणा मिए । 29 जावंतऽविज्जापुरिसा सवे ते दुक्खसभवा । लुप्पंति बहुसो मूढा संसारम्मि अरणंतए ॥ 12 ] उत्तराध्ययन Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25. (जो) प्रारभ में ही (अप्रमत्त) नहीं (होता है), वह वाद में (अप्रमत्त अवस्था को) प्राप्त कर लेगा, यह विचार शाश्वतवादियों (अमरतावादियों) का (है)। (एसा व्यक्ति) प्रायु के शिथिल होने पर, मृत्यु के समीप में लाया हुआ होने पर (तथा) शरीर के वियोजन के (अवसर) पर खेद करता है। 26. जैसे (कोई) गाड़ीवान जानता हुआ (भी) उपयुक्त मुख्य सड़क को छोड़कर ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर (दि) उतग (हुमा) (), (तो) (वह) धुरी के खण्डित होने पर शाक करता है: 27. इसी तरह धर्म को छोडकर, अधर्म को अगीकार करके, मृत्यु के मुख में गया हुया मूढ़ (मनुष्य) शोक करता है, जैसे धुरी के खण्डित होने पर (गाडीवान गोक करता है) 28. जैसे कि एक पास में (ही) मात दिया हुमा जुपारी भय में अत्यन्त कांपता है, वैसे ही) वह मूढ़ (मनुष्य) वाद में मरण की निकटता में (भय से अत्यन्त कांपता है) और (वह) प्रकाम (मूछित) मरण (की अवस्था) में (ही) मरता 29. जितने (भी) अज्ञानी मनुष्य (है), व सभी दुःखां के मान (है) । (और) (वे) मूढ़ बार-बार अन्नत संसार में दुका किए जाते है। चयनिका Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 अज्झत्यं सत्यमो सव्व दिस्स पाणे पियायए । न हरणे पाणिणो पारणे भयःवेरामो उवरए । 31 जे केइ सरीरे सत्ता वन्ने य सवसो । मणसा काय-वपकेणं सन्वे ते दुक्खसंभवा ॥ 32 भोगामिसदोसविसणे हियनिस्सेसवुद्धिवोच्चत्थे । बाले य मंदिए मूढे वज्झई मच्छिया व खेलम्मि ॥ 33 पारणे य नाइवाएज्जा से समिए त्ति वुच्चई ताई । तमो से पावगं कम्मं निज्जाइ उदगं व थलायो । 34 कसिणं पि जो इमं लोयं पडिपुन्नं दलेज्ज एक्कस्स । तेणावि से ण सतुस्से इइ दुप्पूरए इमे आया ॥ 14 ] उत्तराध्ययन Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30. पूर्णतः प्रत्येक जीव को जानकर (व्यक्ति उसके) प्राणों को (अपने समान) प्रिय रूप में ग्रहण करे। (वह) भय (और) वैर से विरत (हो) (तथा) जीवों के प्राणों का घात न करे। 31. जो कोई मन से, वचन से (तथा) काय से शरीर में, कोति में और रूप में पूर्णतः आसक्त (होते हैं), वे समस्त दुःखों के स्रोत (हैं)। 32. प्रज्ञानी, मन्द और मूढ़ (व्यक्ति) (जो) भोग को लालसा के दोप में डूबा हुमा (ह), (जिसकी) (स्व-पर) कल्याण तथा मम्युदय में विपरीत बुद्धि (है), (वह) अशुभ कर्मों के द्वारा) बांधा जाता है, जैस कफ के द्वारा मक्खी (वांधी जाती है। 33. (जो) प्राधियों को विल्कुल नहीं मारता है, वह (प्राणियों) (का) रक्षक (होता है।। इस प्रकार (वह) सम्यक् प्रवृत्तिवाला कहा जाता है। उस कारण (सम्यक् प्रवृत्ति के कारण) उसके अशुभ-कर्म विदा हो जाते हैं, जैसे कि सूखी जमीन से पानी (विदा हो जाता है। 34. जो (कोई) इस सकल लोक को किसी के लिए पूर्णरूप से दे मी दे, (तो) वह उसके द्वारा भी तृप्त नहीं होगा। इस प्रकार यह गनुप्य कठिनाई से तृप्त होनेवाला (होता है।। पनिका [ 15 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 35 जहा लाभो तहा लोभो लाभा लोभो पवडढई दोमासकयं कज्जं कोडीए वि न निट्टियं ॥ 36 जो सहस्सं सहस्सारणं संगामे दुज्जए नि एवं जिज्ज अप्पारणं एस से परमो जओ 38 सुवण्ण-रुप्पस्स उ पव्वया भवे सिया हु केलाससमा असखया 1 नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि इच्छा हु आगाससमा अरांतिया || 37 अप्पाणमेव जुज्झाहि कि ते जुज्भेण बज्झप्रो 1 प्रप्पाणमेव अप्पा जड़त्ता सुहमेहए || 39 दुमपत्तए पंडुयए जहा निवडइ राइगणाण अच्चए 1 जीविय एव मण पाण समयं गोयम ! मा पमायए 16 1 । ॥ ॥ उत्तराध्ययन Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35. जैसे लाभ होता जाता है), वैसे ही लोभ (होता जाता है । लाभ के कारण लोभ बढ़ता है। दो माशा (सोने) से किया गया कार्य करोड़ (माशा सोने) से भी निष्पन्न नहीं (होता है)। 36. जो (व्यक्ति) कठिनाई से जीते जानेवाले संग्राम में हजारों के द्वारा हजारों को जीते (और) (जो) एक स्व को जोते (इन दोनों में) उसकी यह (स्व पर जीत) परम विजय है)। 37. (तू) अपने में (अंतरंग राग-द्वेष से) हो युद्ध कर, (जगत में) बहिरंग (व्यक्तियों) से युद्ध करने से तेरे लिए क्या लाभ ? (सच यह है कि) अपने में ही अपने (राग-द्वेष) को जीत कर सुख बढ़ता है। 38. लोभी मनुष्य के लिए कदाचित् कैलाश (पर्वत) के समान सोने-चांदी के असंख्य पर्वत भी हो जाएं, किन्तु उनके द्वारा (उसकी) कुछ (भी) (तृप्ति) नहीं (होती है), क्योंकि इच्छा आकाश के समान अन्तरहित (होती है)। 39. जैसे पेड़ का पीला पत्ता रात्रि को सख्याओं अर्थात् रात्रियों के बीत जाने पर नीचे गिर जाता है, इसी प्रकार मनुष्यों का जीवन (भी समाप्त हो जाता है) । (प्रतः) हे गौतम ! अवसर को (समझ) (मोर) (तू) प्रमाद मत कर । चयनिका [ 17 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 कुसो भोवं जह चिट्ठह एवं समयं गोयम ! मण्यारण 41 दुल्लमे खलु माणुसे भवे चिरकाले वि सव्वपाणिनं । गाठा य विवाग कम्मुखो समयं गोयम ! मा पमायए ॥ भोसबिए संगमार ए बोबियं मा पमायए ॥ 1 42 परिजूरद्द ते सरीरयं केसा पंडुरया भवंति ते से सव्वबले य हायई समयं गोयम ! मा पमायए 18 ] #1 43 वोच्छिव सिणेहमप्परणो कुमुयं सारइयं व पालिय 1 से सम्वसिणेहवज्जिए समयं गोयम ! मा पमायए ॥ 1 44 बुद्धे परिनिम्बुए चरे गाम गए नगरे व संजए संतिमग्गं च वहए समयं गोयम ! मा पमायए ॥ उत्तराध्ययन Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40. जैसे कुशघास के पत्ते के तेज किनारे पर लटकता हुआ मोस-बिन्दु थोड़ी (देर तक) ठहरता है, इसी प्रकार मनुष्य का जीवन (थोड़ी देर तक रहता है) । (प्रतः) हे गौतम ! अवसर को (समझ) और (तू) प्रमाद मत कर । 41. वास्तव में सब प्राणियों के लिए मनुष्य-संबंधी जन्म बहुत समय पश्चात् भी दुर्लभ (है), और कर्म के परिणाम बलवान् (होते हैं)। (मतः) हे गौतम ! अवसर को (समझ) (और) तू प्रमाद मत कर। 42. तेरा शरीर क्षीण हो रहा है। तेरे बाल सफेद हो रहे हैं। और (तेरा) प्रत्येक बल क्षीण किया जाता है (अतः) हे गौतम ! अवसर को (समझ) (और) (तू) प्रमाद मत कर । 43. स्वयं की आसक्ति को (तू) छोड़, जैसे कि शरत्कालीन लाल कमल पानी को (छोड़ देता है), (और) (इस तरह से) वह (लाल कमल) समस्त आर्द्रता (पोलेपन) से. रहित (होता है) । (प्रतः) हे गौतम ! अवसर को (समझ), (और) (तू) प्रमाद मत कर। 44. (तू चाहे) ग्राम अथवा नगर में स्थित (हो), (किन्तु तू वहाँ) संयत (अवस्था में), जागृत (दशा में) (तथा) शान्त (स्थिति में) रह। इसके अतिरिक्त (तू) शांति-पथ को पुष्ट कर। (अतः) हे गौतम ! अवसर को (समझ), (और) प्रमाद मत कर। • चयनिका [ 19 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रनिग्महे । 45 जे यावि होइ निव्विज्जे पद्धे लुद्धे अभिक्खणं उल्लवई प्रविणीए अबहुस्सुए ॥ 46 ग्रह पंचह ठाहि जेहि सिक्खा न लब्भई 1 थंभा १ कोहार पमाएणं ३ रोगेणऽऽलस्सएल ८४-५ ॥ 47 अह अहि ठारह सिक्खासीले त्ति वुच्चई 1 श्रहस्सिरे १ सया दते २ न य मम्ममुयाहरे ॥ 1 48 नासोले ४ रग विसीले ५ न सिया प्रइलोलुए ६ अकोहरणे ७ सच्चरए - सिक्खासोले त्ति वुच्चद ॥ 49 जहा से तिमिरविद्धसे उत्तिट्ठते दिवाकरे 1 जलते इव तेएणं एवं तेएणं एवं भवइ बहुस्सुए ॥ 50 जहा से सामाइयाणं कोट्ठागारे सुरक्खिए नाराधन्नपडिपुन्ने एवं भवइ बहुस्सुए ॥ 20 ] उत्तराध्ययन Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45. जो (व्यक्ति) मूख, अभिमानी, इन्द्रिय-संयम-रहित तथा लोभी होता है, (जो) बारंबार अप शब्द बोलता है, (जो) अविनीत (है), (वह) अ-विद्वान (होता है) । 46. अच्छा तो, जिन (इन) पांच कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं की जाती है : अहंकार से, क्रोध से, प्रमाद से, रोग से तथा आलस्य से। 47. और इस प्रकार माठ कारणों (बातों) से (व्यक्ति) ज्ञान का अभ्यासी कहा जाता है : 1) (जो) हंसी करनेवाला नहीं है 2) (जो) इन्द्रियों को वंश में करनेवाला (है) 3) (जो) (किसो को) दुर्वलता को नहीं कहता है। 48. (जो) चरित्र-हीन नहीं (है), (जो) व्यभिचारी नहीं (है), (जो) प्रति रस-लोलुप नहीं (है), (जो) अक्रोधी (है), (तथा) (नो) सत्य में संलग्न (है)-इस विवरणवाला(वह व्यक्ति)ज्ञान का अभ्यासी कहा जाता है। 49. जैसे अंधकार को समाप्त करनेवाला उदित होता हुआ सूर्य मानो तेजस्विता से चमकता हुआ (दिखाई देता है), इसी प्रकार विद्वान (ज्ञान की तेजस्विता से चमकता हुमा) होता है। 50. जंस सामानित (समूह से संबंध रखनेवालों का) का भण्डार सुरक्षित (और) तरह-तरह के अनाजों से भरा हुमा (होता है), इसी प्रकार विद्वान (तरह-तरह के ज्ञान से भरा हुमा) होता है। चयनिका [ 21 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51 महा से सयंभुरमने उरही प्रासमोरए । नासारयणपरिपुणे एवं भवइ बहस्सुए ॥ 52 इह जीविए राय ! प्रसासयम्मि परिणयं तु पुन्नाई भकुब्वमाणो । से सोयई मन्चमुहोवरणोए धम्म प्रकामण परम्मि लोए । 53 बहेह सोहो व मियं गहाय मम्बू नरं नेइ हु मंतकाले । न तस्स माया व पिया व भाया कालम्मि तम्मंसहारा भवंति ॥ 54 न तस्स दुक्खं विभयंति नायमो न मितवग्गा न सुया न बंषवा । एगो सयं पच्चनुहोई दुक्खं . कतारमेवा मनुजाइ कम्मं ॥ 55 बेचा दुपयं च चउप्पयं च खेतं गिहं षण पन्नं च सव्वं । सकम्मविहमो अवसो पयाइ परं बंभ सुंबर पावगं वा ॥ 22 ] उत्तराध्ययन Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51. जैसे स्वयं भूरमण ( नामक ) समुद्र तरह-तरह के रत्नों से भरा हुआ (होता है), (और) (उसका ) जल ( भी ) अक्षय (होता है), इसी प्रकार विद्वान (तरह तरह के ज्ञान - रत्नों से भरा हुमा) होता है (तथा) ( उसका ज्ञान भी अक्षय होता है) । 52. हे राजा ! (जो ) इस अनित्य जीवन में अतिशयरूप से शुभ कार्यों को न करता हुआ ( जीता है), वह मृत्यु के मुख में ले जाए जाने पर (इसी जीवन में शोक करता है (और) (यहाँ किमी भो) शुभ कार्य को न करके परलोक में ( भी ) (शोक करता है) । 53. जैसे यहाँ सिंह हिरण को पकड़ कर ले जाता है, (वैसे ही) मृत्यु अन्तिम समय में मनुष्य को निस्संदेह ले जाती है । उसके माता और पिता और भाई उस मृत्यु के समय में भागीदार नहीं होते हैं । 54. उसके (व्यक्ति के) दुःख को सगोत्री (जन) नहीं बाँटते हैं, न मित्र-वर्ग, सुत (और) न बंघु (बांटते हैं) । ( वह) स्वयं अकेला (ही) दुःख का अनुभव करता है । (ठीक ही है) कर्म कर्ता का ही अनुसरण करता है । 55. व्यक्ति द्विपद धीर चतुष्पद को, खेत, घर, धन-धान्य और सभी को छोड़कर कर्मों सहित प्रकेला शक्ति-हीन (बना हुमा) अनिष्टकर अथवा इष्टकर दूसरे जन्म को प्रस्थान करता है । चयनिका [ 23 · Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 मोइ कालो तुरंति राइनो न यावि भोगा पुरिसाण निचा । उवेच्च भोगा पुरिसं चयंति दुमं नहा सोरणफलं व परसी ।। 57 सरगमेससोक्सा बहकालदुस्खा पकामदुक्खा मनिकामसोक्खा । संसारमोक्खस्स विपाखभूया सारणी प्रणत्पारण उ. कामभोगा ॥ 58 परिव्ययंते अनियत्तकामे महो य रामो परितप्पमाणे । अण्णप्पमत्ते पणमेसमारणे पप्पोति मन्चुं पुरिसे जरं च ॥ 59 इमंच मे मस्मि इमं च नत्पि इमं च मे किच्च इमं प्रकिच्चं । तं एवमेवं लालप्पमारणं हरा हरंति त्ति कहं पमामो? ॥ 60 मा मा बग्घा रयणी न सा परिनियतई । प्रयम्मं कुरणमारणस्स प्रफला अंति राइमो ॥ 24 ] उत्तराध्ययन Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56. समय व्यतीत होता है, रात्रियाँ वेग से जाती हैं, और मनुष्यों के भोग भी नित्य नहीं हैं । भोग मनुष्यों को प्राप्त करके (उनको त्याग देते हैं, जैसे पक्षी फल-रहित वृक्ष को (त्याग देते हैं) । 57. इन्द्रिय-भोग निश्चय ही अनर्थों को खान (होते हैं), क्षण भर के लिए सुखमय (तथा) बहुत समय के लिए दुःखमय (होते हैं), प्रति दुःखमय (तथा) अल्प सुखमय (होते हैं) (वे) संसार (सुख) और मोक्ष - (सुख) (दोनो) के विरोधी बने हुए ( हैं ) । - 58. ( जिसकी ) इच्छा विदा नहीं हुई ( है ), ( ऐसा ) (मनुष्य) (जन्म-जन्मों में ) परिभ्रमण करता हुआ (तथा) दिन में और रात में दुःखी होता हुआ ( रहता है) । (खेद है कि ) दूसरों के लिए मूर्च्छा-युक्त (मनुष्य) घन की खोज करता हुआ (ही) वुढापे और मृत्यु को प्राप्त करता है । 59. यह (वस्तु) मेरी है और यह (वस्तु) मेरी नहीं ( है ), यह मेरे द्वारा करने योग्य ( है ) और यह (मेरे द्वारा) करने योग्य नहीं (है), इस प्रकार ही बारंबार बोलते हुए उस (व्यक्ति) को काल ले जाता है, अत: कैसे प्रमाद (किया जाए ) ? 60. जो-जो रात वीतती है, वह वापिस नहीं भाती है। प्रघमं करते हुए (व्यक्ति) की रात्रियाँ व्यर्थ होती हैं । चयनिका [ 25 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61 मा जा वच्चइ रयणो न सा पडिनियत्तई । धम्मं च कुरणमारणस्स सफला जंति राइनो ॥ 62 जस्सऽस्थि मच्चुरणा सक्खं जस्स चऽत्यि पलायणं जो जारणइ न मरिस्सामि सो हु कले सुए सिया ।। 63 सन्वं जगं जइ तुहं सव्वं वा वि घणं भवे । सव्वं पि ते अपज्जत्तं नेव तारणाए तं तव ॥ 64 मरिहिसि रायं ! जया तया वा - . मणोग्मे कामगुणे पहाय । एक्को हु धम्मो नरदेव ! ताणं न विज्जए अन्नमिहेह किंचि ॥ 65 दवग्गिणा जहाऽरन्ने डज्झमाणेसु जंतुसु । अन्ने सत्ता पमोयंति राग-दोसवसं गया । 66 एवमेव वयं मूढा कामभोगेसु मुच्छिया । डज्झमाणं न बुज्झामो राग-दोसरिंगणा जयं ।। 26 1 उत्तराध्ययन Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61. जो जो रात बीतती है, वह वापिस नहीं प्राती है। धर्म करते हुए (व्यक्ति) की ही रात्रियाँ सफल होती हैं । 62. जिसकी मृत्यु के साथ मित्रता है, जिसके लिए ( मृत्यु से ) भागना सभव (है), जो जानता है 'मैं नहीं मरूंगा' वह ही माशा करता है ( कि) आनेवाला कल है । 63. यदि सारा जगत तुम्हारा हो जाए अथवा सारा धन भो (तुम्हारा ) (हो जाए), तो भी ( वह) सब तुम्हारे लिए अपर्याप्त ( है ) | ( याद रखो ) वह तुम्हारे सहारे के लिए कभी (उपयुक्त) नहीं ( है ) । 64. हे राजा ! (तू) सुन्दर विषयों को छोड़कर किसी भी समय निस्संदेह मरेगा । हे नरदेव ! (तू समझ कि) एक धर्म ही शरण ( है ) । यहाँ इस लोक में कुछ दूसरी (वस्तु ) ( शरण) नही होती है । " 65. जैसे जंगल में दवाग्नि द्वारा जन्तुओं के जलाए जाते हुए होने पर दूसरे (वे) जीव (जी) राग-द्वेप की अधीनता को प्राप्त (हैं) प्रसन्न होते हैं (और यह समझ नहीं पाते कि दवाग्नि उनको भी जला देगी) । 1 66. विल्कुल ऐसे ही हम मूर्ख (मनुष्य) विषय भोगों में मूच्छित होकर राग-द्व ेषरूपी अग्नि के द्वारा जलाए जाते हुए जगत् को नहीं समझ पाते हैं । चयनिका L 27 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 67 भोगे भोच्या वमिता य लहसूयविहारिणो । ग्रामोयमारणा गच्छति दिया कामकमा इव ॥ 68 लाभालाभे सुहे दुक्खे जोविए मरणे तहा । समो निवा-पसंसासु तहा मारणायमाणमो ॥ . वुज्झमारणारण पाणिणं । धम्मो दोवो पट्टा य गई सरणमुत्तमं ॥ 69 बरा - मररणवेगेणं 70 सरीरमाह नाव त्ति जोवो बुच्चइ नाविनो । संसारो प्रणवो वृत्तो जं तरंति महेसिणो ॥ 71 उवलेवो होइ भोगेसु, प्रभोगी नोवलिप्पई । भोगी भमइ संसारे, प्रभोगी विप्पमुच्चई | 72 उल्लो सुक्को य दो छूढा गोलया मट्टियामया । बो वि श्रावडिया कुड्डु जो उल्लो सोत्थ लग्गई ॥ : 73 : एवं लग्गंति दुम्मेहा जे नरा कामलालसा 1 विरत्ता उ न लग्गंति जहा से सुक्कगोलए ॥ 28 } उत्तराध्ययन Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P 67. (जो व्यक्ति) भोगों को भोग कर और (उन्हें छोड़ कर हलके हुए विहार करनेवाले ( है ), ( वे) प्रसन्न होते हुए गमन करते हैं, जैसे कि पक्षी इच्छा क्रम (स्वतन्त्रता) के कारण (गमन करते हैं) । 68. (अनासक्त व्यक्ति) लाभ-हानि, सुख-दुःख तथा जीवन मरण में, निन्दा - प्रशंसा तथा मान-अपमान में तटस्थ (होता है) । 69. जरा-मरण के प्रवाह के द्वारा बहा कर लिए जाते हुए प्राणियों के लिए धर्म (अध्यात्म) टापू (आश्रय गृह ) ( है ) सहारा ( है ) रक्षा-स्थल ( है ) तथा उत्तम शरण (है) । 70. चूंकि शरीर को नाव कहा, (इसलिए ) जीव नाविक कहा जाता है । संसार समुद्र कहा गया ( है ), जिसको श्रेष्ठ की खोज करने वाले (मनुष्य) पार कर जाते हैं । 71 भोगों के कारण कर्म-बन्ध होता है । अविलासी (कर्मों के · द्वारा) मलिन नहीं किया जाता है। विलासी (कर्मों के कारण) संसार में भटकता है। अविलासी ( मलिनता से) छुटकारा पा जाता है । 72. गीला और सूखा, दो मिट्टीमय गोले फेंके गए। दोनों ही दीवार पर पड़े, (किन्तु ) जो गीला ( था), वह यहाँ पर ( दिवार पर चिपका । 73. इसी प्रकार जो मनुष्य दुर्बुद्धि ( हैं ), ( और विषयों से प्रत्यन्त लालायित (होते हैं), (वे) (विषयों से) चिपट जाते हैं, किन्तु जो विरक्त (हैं), (वे) (विषयों से) नहीं चिपकते हैं, जैसे वह सूखा गोला ( दिवार से नहीं चिपकता है) । चयनिका [ 29 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 खलुका वारिसा नोमा दुस्सीसा विह तारिसा । जोया धम्मजामि भजति पिम्बसा ॥ 75 सामाइएणे भंते ! जोवे कि जणयह? सामाइएण सावज्ज जोगविरजणयह। 76 पायन्छित्तकरणेणं भंत ! जीवे कि जरण्यइ ? पार्याच्छ तकरणेणं पायकम्मविसोहि जणयइ, निरइयारे यावि भवइ । सम्मं च पं पायच्छित्तं परिवज्जमाणे मग्गं च मगफलं च विसोहेइ, मायारं च मायारफलं च पाराहेइ । 77 खमावरणयाए णं भंते ! जोवे कि जरगयइ ? खमावण्याए नं पल्हायरणभावं जरण्यइ । पल्हायरणभावमुवगए य सव्यपाण -भूय-जीव-सत्तेसु मेतीभावं उप्पाएइ । मेत्तीभावामुवगए यावि जीवे भावविसोहि कारण निम्भए भवइ । 78 पम्मकहाए णं भंते ! जीये किं मरणयइ ? घम्मकहाए णं पवयणं पभावेह, पवयणपभाषए णं जोवे भागमेसस्सभहत्ताए कम्मं निबंध। 30 ] उत्तराध्ययन Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसे जोते जाने योग्य उज्जड़ बैल (वाहन को) (तोड़ देते हैं,) वैसे ही धर्मरूपी यान में जोते हुए प्रात्म-संयम में दुर्बल तथा प्रविनीत शिष्य भी निस्संदेह (धर्म-यान को) छिन्न-भिन्न कर देते हैं। 75. हे पूज्य! सामायिक से जीव (मनुष्य) क्या उत्पन्न करता है? सामायिक से (जीव) अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्ति उत्पन्न करता है। 76. हे पूज्य! प्रायश्चित करने से जीव (मनुष्य) क्या उत्पन्न करता है ? प्रायश्चित करने से जीव अशुभ कर्मों की शुद्धि को उत्पन्न करता है और (वह) (माचरण में) निर्दोष रहता है। और शुद्धिपूर्वक प्रायश्चित को अंगोकार करता हुप्रा (वह) साधन और माघन के फल को निर्मल बनाता है तथा चरित्र और चरित्र के फल को आराधना करता है। 77. हे पूज्य! खमाने (क्षमा मांगने) मे मनुष्य क्या उत्पन्न करता है ? खमाने से (वह) आनन्ददायक भाव उत्पन्न करता है। और आनन्ददायक भाव को पहुँचा हुमा (मनुष्य) सब प्राणियों, जन्तुओं, जीवों (और) प्राणवानों के प्रति मंत्री-भाव उत्पन्न करता है । और मैत्री-भाव को पहुंचा हुआ मनुष्य भावों को शुद्धि करके निर्भय हो जाता है। हे पूज्य! धर्म-कथा से मनुष्य क्या उत्पन्न करता है ? धर्म-कथा से (वह) प्रवचन (अध्यात्म) को गौरवित (प्रभावयुक्त) करता है, (तथा) प्रवचन (अध्यात्म) को प्रभाव-युक्त करने से मनुष्य निःस्वार्थ कल्याण के लिए कर्मों का उपार्जन करता है। चयनिका [ 31 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 79 सुयस्स माराहरणयाए णं भंते ! जोवे कि जणयह? सुयस्स पाराहरणयाए अन्नाणं खवेद, न य संकिलिस्सइ । 80 एगग्गमणसन्निवेसणयाए णं भंते ! जीवे कि जणयह ? एगग्गमणसन्निवेसण्याए रणं चित्तनिरोहं करे । 81 अप्पडिबद्धयाए णं भंते ! जोवे कि जणयइ ? अप्पडियद्धयाए गं निस्संगतं जणयइ। निस्संगत्तेणं जीवे एगे एगग्गचित्ते दिया वा राम्रो वा असज्जमारणे अप्पडिवद्ध यावि विहरह। 82 वोयरागयाए णं भंते ! जोवे कि जयइ ? बीयरागगयाए णं नेहाणुबंधणाणि तण्हाणुबंधणाणि य वोच्छिदइ, मगुन्नेसु सह-फरिस-रस-हव-गधेसु चेव विरज्जइ । 83 प्रज्जवयाए णं भंते ! जोवे कि जणयइ ? प्रज्जवयाए णं काउन्जुययं भावुज्जुययं भासुज्जुययं प्रविसंवायणं जणयइ । प्रविसंवायण-संपन्नयाए णं जीवे धम्मस्स माराहए भवइ । 32. ] उत्तराध्ययन Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 79. हे पूज्य ! ज्ञान की आराधना से मनुष्य क्या उत्पन्न करता है ? (वह) ज्ञान की आराधना से (अपने तथा दूसरों के) अज्ञान को दूर हटाता है और कभी दुःखी नहीं होता है । 80. हे पूज्य! एक लक्ष्य पर मन को ठहराने से मनुष्य क्या उत्पन्न करता है ? एक लक्ष्य पर मन को ठहराने से (वह) चित्त का निरोध (नियंत्रण) करता है। 81. हे पूज्य ! अनासक्ति से मनुष्य क्या उत्पन्न करता है ? अनासक्ति से (वह) (अपने में) निलिप्तता उत्पन्न करता है । निलिप्तता से मनुष्य (दूसरे की) सहायता (की आवश्यकता से) रहित (तथा) दिन में और रात में एकाग्र चित्त (वाला) (होता है)। और (वस्तुओं में) आसक्ति न करता हुआ (वह) न बंधा हुआ (स्वतन्त्र) (ही) विहार करता है। 82. हे पूज्य ! वोतरागता से मनुष्य क्या उत्पन्न करता है ? (वह) वीतरागता से राग-संवधों को तथा तृप्णा-बन्धनों को . तोड़ देता है। (और) मनोहर शब्द, स्पर्श, रस, रूप (तथा) • गन्ध से भी निलिप्त हो जाता है। 83. हे पूज्य ! आर्जवता (निष्कपटता) से मनुष्य क्या उत्पन्न करता है ? आर्जवता से (वह) काया की सरलता, मन का खरापन, भाषा की मृदुता (और) (व्यवहार में) अधूर्तता को उत्पन्न करता है। अधूर्तता की प्राप्ति से जीव धर्म (नैतिकता) का साधक होता है । चयनिका [ 33 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 जहा महातलागस्स सन्निरखे जलागमे । उस्सिचणाए तवरणाए कमेणं सोसणा भवे ॥ 85 एवं तु संजयस्सावि पावफम्मनिरासवे । भवफोडीसंचियं फम्मं तवसा निज्जरिज्जई ।। 86 नाणस्स सम्वस्स पगासणाए अन्नाण-मोहस्स विवज्जणाए । रागस्स दोसस्स य संखएणं एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥ 87 तस्सेस मग्गो गुरु-विद्धसेवा विवज्जणा बालजणस्स दूरा । सज्झायएगंतनिसेवणा य सुत्तत्थसंचितण्या धिती य ॥ 88 रागो य दोसो वि य कम्मवीयं कम्मं च मोहप्पभवं वदति । कम्म च जाई-मरणस्स मूलं दुक्खं च जाई-मरणं वयंति ॥ 343 उत्तराध्ययन Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84. यदि बड़े तालाब में जल का आना पूर्णरूप से रोक दिया । गया (है), (तो) (जल)- खींचने के द्वारा (तथा) (सूर्य की) गर्मी के द्वारा (जल का) सूखना धीरे-धीरे हो जाता है। 85. इस प्रकार ही संयत (मनुष्य) में अशुभ कर्मों का प्रागमन नहीं होने के कारण करोड़ों भवों के संचित कर्म तप के द्वारा नष्ट कर दिए जाते हैं। 86. सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकटीकरण से, प्रज्ञान और मूर्छा के वहिष्करण से (तथा) राग-द्वेष के विनाश से (मनुष्य) अचल सुख (तथा) स्वतन्त्रता को प्राप्त करता है। 87. गुरु और विद्वान् की सेवा, अज्ञानी मनुष्य का दूर से ही त्याग, स्वाध्याय, एकान्त में (भीड़ से दूर) वसना, सूत्र (आध्यात्मिक वचन) (और) (उसके) अर्थ का चिन्तन तथा धर्य-यह उसका (आध्यात्मिकता का) पथ (है) । 88. (सभी अहंत्) कहते हैं (कि) कर्म का बीज (कारण) राग और द्वेष (है)। और (वे ही संक्षेप में पुन: कहते हैं कि) कर्म मूर्छा से उत्पन्न (होता है)। (पुनः) (वे) कहते हैं (कि) कर्म ही जन्म-मरण का मूल (है) (तथा) जन्म-मरण ही दुःख (है)। चयनिका [ 35 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89 दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो मोहो हो जस्स न होइ तण्हा । तण्हा या जस्स न होइ लोहो लोहो हो जस्स न किंचरणाई ॥ 90 विवित्तसेज्जासरगतियाणं प्रोमासणाणं वंमिइंदियाणं । न रागसत्तू घरिसेइ चित्तं पराइप्रो वाहिरिवोसहेहि ॥ 91 कामाणुगिद्धिप्पभवं ख दुक्खं सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स । जं काइयं मारसियं च किंचि तस्संतगं गच्छद वीयरागो ॥ 92 जहा व किंपागफला मणोरमा रसेण वण्णेण य भुज्जमाणा । ते खुद्दए जीविए पच्चमाणा एप्रोवमा कामगुणा विवागे ॥ 36 ] उत्तराध्ययन Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89. जिसके (मन में) मूर्छा नहीं है, (उसके द्वारा) दुःख दूर किया गया (है), जिसके (मन में) तृष्णा नहीं है, (उसके द्वारा) मूर्छा दूर को गई (है), जिसके (मन मैं) लोम नहीं है. (उसके द्वारा) तृष्णा दूर की गई है), (तया) जिसके (मन में) (कोई) वस्तु नहीं है, (उसके द्वारा) लोम दूर किया गया (है)। 90. विवेक-युक्त सोने (और) बैठने में नियंत्रित (व्यक्तियों) के चित्त पर, न्यून भोजन करनेवालों के (चित्त पर) (तथा) जितेन्द्रियों के (चित्त पर) आसक्तिरूपी शत्रु प्राक्रमण नहीं करते हैं, जैसे औषधियों द्वारा पराजित रोगरूपी शत्रु (शरीर पर प्राक्रमण नहीं करते हैं) । 91. देव (समूह) सहित समस्त मनुष्य (जाति) का जो कुछ भी कायिक और मानसिक दुःख (हे), (वह) विषयों में अत्यन्त आसक्ति से उत्पन्न (होता) है। उस (दुःख) की समाप्ति पर वीतराग पहुंच जाता है। 92. जैसे किंपाक (प्राण-नाशक वृक्ष) के फल खाए जाते हुए (तो) रस और वर्ण में मनोहर होते हैं, (किन्तु) पचाए जाते हुए वे (फल) लघु जीवन को (ही) (समाप्त कर देते हैं), (वैसे ही) इन्द्रिय-विषय परिणाम में इससे (किंपाकफल से) मिलते:जुलते (होते है)। चयनिका [ 37 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 93 चक्खुस्स ส तं दोस समो उ जो तेसु स रूवं गहणं वयंति तु रामहेउं 94 रूवेसु जो गेहिमुवेद पावइ से कालियं रागाउरे से जह प्रालोगलोले F 96 एविदियत्था दुक्खस्स हेडं 38 ] मणन्नमाह । श्रमणन्नमाहु वोयरागो ॥ समुवेद 95 भावे विरत्तो मणुश्रो विसोगो एएल न जलेण 97 न ส जे तप्पदोसी सो तेसु मोहा तिब्वं विणासं । था पयंगे म ॥ लिप्पई भवमज्भे वि संतो दुक्खोधपरंपरेण । वा पुक्लरिणोपला || य मरणस्स प्रत्या मनुयस्स रागियो । ते चैव थोवं पि कयाइ दुक्खं न वीरागस करेंति किचि ॥ कामभोगा समयं यावि भोगा विगई उर्वेति उयति । य परिग्गही य विगहूं उवेति ॥ उत्तराध्ययन Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 93. (उन्होंने) कहा (कि) (जो) रूप (है। (उसका) ज्ञान चक्षु इन्द्रिय द्वारा (होता है) । (सामान्य रूप से) (उन्होंने) मनोहर (रूप) को राग का निमित्त कहा (तथा) अमनोहर (रूप) को द्वेष का निमित्त कहा, किन्तु जो उन में तटस्थ (होता है) वह वीतराग (कहा.गया है)। 94. जो रूपों में तीव्र आसक्ति को प्राप्त करता है, वह असामयिक विनाश को पाता है। जैसे रूप से प्रभावित तथा प्रकाश में आसक्त वह पतंगा (असामयिक) मृत्यु को प्राप्त करता है। 95. वस्तु-जगत् से विरक्त मनुष्य दुःख रहित (होता है), संसार के मध्य में विद्यमान भी (वह) दुःख-समूह की इस अविच्छिन्न धारा से मलिन नहीं किया जाता है, जैसे कि कमलिनी का पत्ता जल से (मलिन नहीं किया जाता है)। 96. वास्तव में इन्द्रियों के विपय और मन के विषय आसक्त मनुष्य के लिए दुःख का कारण (होते हैं)। वे (विफ्य) भो कभी वीतराग के लिए कुछ थोड़े से भी दुःख को उत्पन्न नहीं करते हैं। 97. (व्यक्ति) विषयों के कारण न अविकार (अवस्था) को प्राप्त करते हैं और न विषयों के कारण विकार को प्राप्त करते हैं । जो उनमें द्वेषी और रागी (होता है), वह उनमें मूर्छा के कारण (ही) विकार को प्राप्त करता है। चयनिका [ 39 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 विरज्जमारपस्स य इंदियत्था सद्दाइया तावइयप्पयारा । न तस्स सव्ये वि मणन्नयं वा निव्वत्तयंती प्रमण न्नयं वा ॥ 99 सिद्धारण नमो किच्चा सजयारणं च भावो । प्रत्थधम्मगई तच्चं प्रण सटुि सुह मे ॥ 100 पभूयरयणो राया विहारजत्तं निज्जानो सेमिनो मगहाहिवो । मंडिकुच्छिसि चेहए ।। 101 नाणादुम - लयाइण्णं नाणाकुसुमसंछन्नं उज्जाणं नारणापक्खिनिसेवियं । नंदणीवमं ॥ 102 तत्थ निसन्नं सो पासई साई संजयं सुसमाहियं । रुक्खमूलम्मि सुकुमालं सुहोइयं ॥ 40 ] उत्तराध्ययन Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98. शब्द आदि सब ही इन्द्रिय-विषय ( हैं ) और (उनके) उतने ( ही ) प्रकार ( हैं ) | ( किन्तु ) निर्लिप्त होते हुए उस (मनुष्य) के लिए (वे विषय) (मन में) मनोज्ञता ( आकर्षण ) या प्रमोनशता ( विकर्षण) उत्पन्न नहीं करते हैं । 99. सिद्धों को और साधुओं को भावपूर्वक नमस्कार करके (मैं) ( जीवन के ) प्रयोजन (और) ( उसके अनुरूप ) आचरण के वास्तविक ज्ञान का (जो अनुभव) मेरे द्वारा (किया गया है) ( उसके ) शिक्षण को ( प्रदान करने के लिए उद्यत हूँ ) | (तुम सब ) ( उसको ) (ध्यानपूर्वक) सुनो। 100. मगध के शासक, राजा श्रेणिक (जो ) सम्पन्न ( कहे जाते थे) हवाखोरी को निकले (और) ( वे) मण्डिकुक्षो ( नामके) बगीचे में ( गए) 1 101. ( वह ) बगीचा तरह-तरह के वृक्षों और बेलों से भरा हुआ (था ), तरह-तरह के पक्षियों द्वारा उपभोग किया हुआ (था), तरह-तरह के फूलों से पूर्णत: ढका हुआ (था) और इन्द्र के बगीचे के समान ( था) । 102. वहाँ उन्होंने (राजा ने) आत्म-नियन्त्रित, सौन्दर्य - युक्त, पूरी तरह से ध्यान में लीन, पेड़ के पास बैठे हुए तथा (सांसारिक सुखों के लिए उपयुक्त (उम्रवाले) साघु को देखा । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 103 तस्स रुवं तु पासिता राइणो तम्मि संजए । प्रच्चंतपरमो पासी अतुलो स्वविम्हसो ॥ 10 महो ! वष्णो महो ! रुवं महो! प्रज्जस्स सोमया । महो ! खंती महो । मुत्ती महो ! भोगे प्रसंगया ।। 105 तस्स पाए उ वंदित्ता काऊण य पयाहिणं । नाइदूरमणासन्ने पंजली परिपुच्छई ॥ 106 तरुणो सि प्रज्जो! पम्बइम्रो भोगकालम्लि संजया । उपट्ठिमो सि सामण्णे एयम8 सुणेमु ता ॥ 107 प्रणाहो मि महारायं ! नाहो मझ न विग्नई । अणुकंपगं सुहि वा वि कंचो नाभिसमेमऽहं ।। 1108 रामो सो पहसिमो राधा सेणियो मगहाहियो । एवं ते इढिमतस्स कहं नाही न विज्जई ।। 12 ] उत्तराध्ययन Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 103. और उसके रूप को देखकर राजा के (मन में) उस साधु के सौदर्य के प्रति अत्यधिक, परम तथा बेजोड़ आश्चर्य घटित हुआ। 104. (परम) आश्चर्य! (देखो) (साधु का (मनोहारी) रंग (और) आश्चर्य ! (देखो) (साधु का) (आकर्षक) सौन्दर्य । (अत्यधिक) आश्चर्य ! (देखो) आर्य की सौम्यता; (अत्यन्त) पाश्चर्य ! (देखो) (आर्य का) धैर्य; आश्चर्य ! (देखो) (साघु का) संतोष (और) (अतुलनीय) आश्चर्य ! (देखो) (सुकुमार) (साधु की। भोग में अनासक्तता। 105. और उसके चरणों में प्रणाम करके तथा उसकी प्रदक्षिणा करके (राजा श्रेणिक) (उससे) न अत्यधिक दूरी पर (और) न समीप में (ठहरा) (और) (वह) विनम्रता और सम्मान के साथ जोड़े हुए हाथ सहित (रहा) (और) (उसने) पूछा । 106. हे आय ! (आप) तरुण हो। हे संयत ! (आप) भोग (भोगने) के समय में माधु बने हुए हो। (आश्चर्य !) (ग्राप) साधुपन में स्थिर (भी) हो। तो इसके प्रयोजन को (चाहता हूँ कि) मैं सुनूं। 107. (साधु ने कहा) हे राजाधिराज ! (मैं) अनाथ हूँ। मेरा (कोई) नाथ नही है । किसी अनुकम्पा करनेवाला (व्यक्ति) या मित्र को भी मैं नहीं जानता हूँ। 108. तब वह मगध का शासक, राजा श्रेणिक हँस पड़ा। (और बोला) आप जैसे समृद्धिशाली के लिए (कोई) नाथ कैसे नहीं है ? चयनिका [ 43 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 109 होमि नाही भयंताणं भोगे मुंजाहि संजया । मित्त-नाईपरिवरो माणस्सं तु सुदुल्लहं ॥ 110 अप्पणा वि प्रणाहो सि सेणिया ! मगहाहिवा ! । अप्पणा मलाहो संतो कस्य नाहो भविस्ससि ? ॥ 111 एवं वृत्तो नरिंदो वयरणं असुयपुव्वं सो सुसंभंतो सुविहिमो । साहुणा विम्हयन्नितो ।। 112 प्रस्सा हत्थी मणस्सा मे पुरं अंतेउरं मे । भुमामि माणुसे भोए प्राणा इस्सरियं च मे ।। 113 एरिसे __ कहं प्रणाही संपयग्गम्मि सव्वकामसमप्पिए । भवद मा हु भंते ! मुसं वए । 114 न तुम बाणे मरणाहस्स प्रत्यं पोत्यं न पत्पिवा ! । महा प्रणाहो भवद सणाहो वा नराहिवा ! ॥ 44 ] उत्तराध्ययन Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 109. (आप जैसे) पूज्यों के लिए (मैं) नाथ होता हूँ। हे संयत ! मित्रों और स्वजनों द्वारा घिरे हुए (रहकर) (आप) भोगों को भोगो, चूकि मचमुच मनुष्यत्व (मनुष्य-जन्म) अत्यधिक दुर्लभ (होता है)। 110. हे मगध के शासक ! हे श्रेणिक ! (तू) स्वयं ही मनाय है। स्वयं अनाथ होते हुए (तू) किसका नाथ होगा? III. साधु के द्वारा (जब) इस प्रकार कहा गया (तब) पहिले । कभी न सुने गए (उसके ऐसे) वचन को (सुनकर) आश्चर्य युक्त वह राजा (श्रेणिक) अत्यधिक हडबड़ाया तथा बहुत अधिक चकित हुआ। 112. मेरे (अधिकार में) हाथी, घोडे (और) मनुष्य (हैं), मेरे (राज्य में) नगर और राजभवन (है) । (मैं) मनुष्यसंबंधी भोगो को (सुखपूर्वक) भोगता हूँ, प्राज्ञा और प्रभुता मेरी (ही चलती है)। 113. वैभव के ऐसे आधिक्य में (जहाँ) समस्त प्रभीष्ट पदार्थ (किसी के) समर्पित हैं, (वह) अनाथ कैसे होगा? हे पूज्य ! इसलिए (अपने) कथन में झूठ मत (बोलो)। 114. (साधु ने कहा) (मैं) समझता हूँ (कि) हे नरेश ! तुम अनाथ के अर्थ और (उसकी) मूलोत्पति को नहीं (जानते हो)। (प्रतः) हे राजा! जैसे अनाथ या सनाथ होता है, . (वैसे तुम्हे समझाऊँगा) चयनिका । 45 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 115 सुणेह मे महारायं ! अव्वविखत्तेण घेयसा । __ जहा प्रणाहो भवति अहा मे य पवत्तियं ।। 116 कोसंबो नाम तत्थ मासो पिया नयरी मज्झं पुराणपुरभेयरणी । पभूयधरणसंचयो ।। 117 पढमे वए महारायं ! अतुला मे अच्छिवेयणा । महोत्था विउलो दाहो सत्वगत्तेसु पत्यिवा ।। 118 सत्यं जहा परमतिक्खं पविसेज्ज प्ररी कुद्धो एवं मे सरीरवियरतरे । अच्छि वेयणा ।। 119 तियं मे इंदासरिणसमा अंतरिच्छं च उत्तमंग घोरा वेयरणा च पीडई । परमदारुणा ।। 120 उवट्टिया मे पायरिया विज्जा-मंतचिगिच्छगा । प्रवीया सत्थकुसला मंत-मूलविसारया ॥ 46 ] उत्तराध्ययन Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 115. जैसे (कोई व्यक्ति) अनाथ होता है और जैसे मेरे द्वारा उसका (अनाथ शब्द का अर्थ संस्थापित ( है ). ( वैसे) हे राजाधिराज ! मेरे द्वारा ( किए गए ) ( प्रतिपादन को ) एकाग्र चित्त से सुनो। 116. प्राचीन नगरों से अन्तर करनेवाली कौशाम्बी नामक ( मनोहारी) नगरी थी । वहाँ मेरे पिता रहते थे । (उनके). (पास) प्रचुर धन का संग्रह था । 117. हे राजाधिराज ! ( एक बार ) प्रथम उम्र में अर्थात् तरुणावस्था में मेरी आँखों में असीम पीड़ा (हुई) (जो) प्राश्चर्यजनकरूप से (श्राँखों में) टिकी रहनेवाली (थी) | (और) हे नरेश ! शरीर के सभी अंगो में बहुत जलन (होती रही) । 118. जैसे क्रोध-युक्त दुश्मन प्रत्यधिक तीखे शस्त्र को शरीर के छिद्रों के अन्दर घुसाता है ( और उससे जो पीड़ा होती है। उसी प्रकार मेरी आँखों में पीड़ा (बनी हुई थी ) । 119. इन्द्र के वज्ञ ( शस्त्र) के द्वारा ( किए गए श्राघात से उत्पन्न पीड़ा के) समान मेरी कमर और (मेरे) हृदय तथा मस्तिष्क में अत्यन्त तीव्र (और) भयंकर पीड़ा (थो) । ने मुझे ) (प्रत्यधिक) परेशान किया । ( उस पीडा 120. अलौकिक विद्याओं और मंत्रों के द्वारा इलाज करनेवाले, (चिकित्सा) - शास्त्र में योग्य, मंत्रों के आधार में प्रवीर, अद्वितीय (चिकित्सा) - आचार्य मेरा ( इलाज करने के लिए) पहुँचे । चयनिका | 47 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 121 ते मे तिगिन्धं कुवंति चाउप्पायं जहाहियं । न य दुरसा विमोयंति एसा मभ प्रयाहया ।। 122 पिया मे सव्वसारं पि वेज्जाहि मम कारणा । ___ म य दुक्ला विमोयंति एसा मज्झ प्रणाहया ।। 123 माया वि मे महाराय ! पुत्तसोगदुहऽट्टिया । न य दुक्खा विमोयंति एसा मझ मरणाहया ।। 124 भायरो मे महाराय ! सगा जेट्ठ-कगिट्टगा । न य दुक्खा विमोयंति एसा मज्झ प्रगाया ।। 125 भइगोमो मे महारय ! सगा जेट्ठ-करिणटुगा । न य दुक्खा विभोयंति एसा मज्झ प्रणाया ॥ 126 भारिया मे महाराय ! अणुरता अगुव्वया । मंसुपुणेहि नयणेहिं उरं मे परिसिचई ।। 127 मन्नं पाणं च पहाणं च गंध-मल्लविलेवणं । मए पायमणायं वा सा बाला नोव नई ॥ 48 ] उत्तराध्ययन Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 121. जैसे हितकारी हो (वैसे) उन्होंने मेरी चार प्रकार की चिकित्सा की, किन्तु (इसके बावजूद भी) (उन्होंने) (मुझे) दुःख से नहीं छुड़ाया। यह मेरी अनाथता (है)। 122. (हे राजाधिराज !) (जैसे) (तुम्हें) देना चाहिए (वसे) मेरे पिता ने मेरो चिकित्सा के) प्रयोजन से (चिकित्सकों को) सभी प्रकार को धन-दौलत भी (दो), फिर भी (पिता ने) (मुझे) दुःख से नहीं छुड़ाया । यह मेरी प्रनाथता (है)। 123. हे राजाधिराज ! मेरी माता भी पुत्र के कष्ट के दुःख से पीडित (थो), फिर भी (मेरी माता ने) (मुझे) दुःख से नहीं छड़ाया। यह मेरी अनाथता है। 124. हे महाराज ! मेरे भाई ने (चाहे वह) छोटा (हो) (चाहे) बड़ा (और) मेरे मित्रों ने भी (मुझे) (भरसक प्रयत्ल करने पर भी) दुःख में नहीं छुड़ाया। यह मेरी अनाथता (है) । 125. हे राजाधिराज ! मेरी निजी छोटो-बड़ी बहनों ने भी (भरसक प्रयत्न किया) (किन्तु) (उन्होंने) (भी) मुझे दुःख से नहीं छुड़ाया। यह मेरी अनाथता है । 126. हे राजाधिराज! पतिव्रता (और) मुझ से संतुष्ट .मेरी पत्नी ने प्राँसू भरे हुए नेत्रों से मेरी छाती को भिगोया। 127. मेरे द्वारा जाना गया (हो) अथवा न जाना गया .(हो), (तो भी) वह (मेरी पत्नी),(जो) तरुणी (थी), (कभी भी) भोजन और पेय पदार्थ का तथा स्नान, सुगन्धित द्रव्य, फूल (और) (किसी प्रकार के) खुशबूदार लेप का उपयोग नहीं . करती (थी)। चयनिका [ 49 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 सपि मे महाराय ! पासाग्रो बि न फिट्टई । न य दुक्खा विमोएड एसा मज्भ अरणाया ॥ 129 तो हं एवमाहंसु दुक्खमा हु पुरणो पुरणो । प्रणुभविडं जे वेयरणा संसारम्मि श्रतए || 130 स च ज मुन्चिज्जा वेयणा दिउला इयो । दंतो निरारंभी पव्वए संतो रणगारियं ॥ 131 एवं च चितइत्ताणं पासुत्तो मि परियत्तंतीए राईए वेयणा मे नराहिया ! स्वयं 132 तम्रो कल्ले पभायम्मि प्रापुच्छित्ताण संतो दंतो निरारंभी. पठवइश्रो 50 ] 1 गया || बंषवे । धरणगारियं ॥ 133 तो हं नाही जानो श्रप्रणो य परस्स थ । देव माणं तसाणं सव्वेसि थावराण थ ॥ उत्तराध्ययन Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128. हे राजाधिराज ! मेरी (पत्नी) एक क्षण के लिए भी (मेरे) पास से ही नहीं जाती (थी), फिर भी (उसने) (मुझे) दुःख से नहीं छुड़ाया। 129. तब मैंने (अपने मन में) इस प्रकार कहा (कि) (इस) अनन्त संसार में (व्यक्ति को) निश्चय ही असह्य पीडा बार-बार (होती) (है), जिसको अनुभव करके (व्यक्ति अवश्य ही दुःखी होता है)। 130. यदि (मैं) इस घोर पीड़ा से तुरन्त ही छुटकारा पा जाऊं, (तो) (मैं) साधु-संबंधी दीक्षा में (प्रवेश करुंगा) (जिससे) (मैं) क्षमा-युक्त, जितेन्द्रिय और हिंसा-रहित (हो जाऊंगा)। 131. हे राजा! इस प्रकार विचार करके ही (मैं) सोया था। (आश्चर्य !) क्षीण होती हुई रात्रि में मेरी पीडा (भी) विनाश को प्राप्त हुई। 132. तब (मैं) प्रभात में (अचानक) निरोग (हो गया)। (मतः) वन्धुओं को पूछकर साधु-संबंधी (भवस्था) में प्रवेश कर गया। (जिसके फलस्वरूप) (मैं) क्षमा-युक्त, जितेन्द्रिय तथा हिंसा-रहित (बना) । 133. इसीलिए मैं निज का और दूसरे का भी तथा अस और स्थावर सब ही प्राणियों का नाथ बन गया। चयनिका [ 1 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 अप्पा नदी वेयरणी अप्पा कामदुहा पण अप्पा मे कूरसामली । प्रप्पा मे नंदणं परणं ।। 135 अप्पा कत्ता विकत्ता य दुक्खाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्टियसुपट्टिभो ।। 136 इमा है अन्ना वि प्रणाहया निवा ! तमेगचित्तो निहुमो सुरणेहि मे । नियंठषम्म लभियाण वो जहा सोयंति एगे. बहकायरा नरा॥ 137 बे पपत्ताण महत्वयाई सम्मं नो फासयतो पमाया । भनिग्गहप्पा य .रसेसु गिद्धे न भूलो छिवह बंधणं से। 52 . ) . उत्तराध्ययन Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134. (हे राजन् !) मेरी आत्मा (ही) वैतरणी (नामक) नदी (है) अर्थात् नारकोय कष्ट देने वाली नदी है; (मेरी) आत्मा (ही) तेज काँटों से युक्त वृक्ष है (नरक में स्थित वृक्ष विशेष है); मेरो प्रात्मा (ही) अभीष्ट पदार्थों को देने वाली गाय (है) (स्वर्ग की गाय जो सब कामनाओं की पूर्ति करने वाली होती है); (तथा) (मेरी) आत्मा (ही) सुहावना आवासस्थल (है) (नन्दन नाम का इन्द्र का उद्यान है)। 135. आत्मा सुखों और दुःखों का कर्ता (है) तथा (उनका अकर्ताः भी (है) । शुभ में स्थित प्रात्मा मित्र (है) और अशुभ में स्थित (आत्मा) शत्रु (है)। 136. हे नरेश ! यह (आगे कही जाने वाली) भी दूसरो अनाथता ही (है)। तुम मेरे द्वारा (प्रतिपादित अर्थ को) स्थिर (और) शान्त चित्त (होकर) सुनो। चूंकि साधु-चारित्र को भी प्राप्त करके कुछ मनुष्य (प्रसन्न होने के बजाय) दुःखी होते हैं, (अतः) (वे) बहुत कायर (बन जाते है)। 137. जो (व्यक्ति) साधु होकर (भी) महाव्रतों का प्रमाद (मूर्छा) के कारण उचित रूप से पालन नहीं करता है, जिसका) मन नियंत्रण-रहित (होता है) भोर जो स्वादों में भासक्त (होता है),वह परतंत्रता को पूर्णरूप से नष्ट नहीं करता है। - 1. केवमान अवस्था में पारमा मुध-दु.ख का कर्जा नहीं होता है। चयनिका [ 53 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! 138 प्राउतया इरियाए प्रायारण- निक्खेव वीरजायं 140 पोल्लेव प्रयंतीए राढमरणी श्रमहग्घए जस्स य भासाए 139 चिरं पि से मुंबई प्रथिरव्बए तव - नियमह चिरं पि प्रप्पाण न पारए होइ 54 1 मुट्ठी जह प्रजाइ होइ 141 कुसीलालगं इसिन्झयं प्रसंजए विरिधायमागच्छद कूड कहावर ह इह जोविय संजय नत्थि काई से ह से तहेसणाए । दुगु छनाए भगं ॥ भवित्ता भट्ठे किलेसइत्ता संपराए । प्रसारे चिरं वा । वेदयिप्पका से जाणएसु || धारइता विहरत्ता । लप्पमाणे पि ॥ उत्तराध्ययन Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138. जिस (व्यक्ति) के ईर्या (चलने) में , भाषा (बोलने) में मोर एषणा (भोजन) में, आदान-निक्षेपण (वस्तुओं को उठाने-रखने) में, (शारीरिक) गन्दगी को व्यवस्था में कुछ भो सावधानी (महिंसात्मक दृष्टि) नहीं है, (वह) वीरों द्वारा • चले हुए मार्ग का अनुसरण नहीं करता है। 139. (जो) दीर्घ काल तक (बाह्य) दृष्टि से साधु-अवस्था में संलग्न रहकर भी (महिंसात्मक) चरित्र में डावा-डोल (होता है), (तथा) तप और नियमों से विचलित होता रहता है), वह दीर्घ काल तक निज को दुःख देकर भी संसार (परतत्रता) में ही (डूबा हुआ रहता है) भोर (उसको) पार करने की योग्यता रखनेवाला नहीं होता है। 140. वह (कथित साधु-अवस्था) खाली मुट्ठी की तरह ही निरर्थक होती है; खोटे सिक्के की तरह अनादरणीय (होती है); (वह) काँच-मरिण (के समान बनी रहती हैं) (जो) वैडूर्य रत्न की (केवल बाह्य) चमकवाली (होती है)। (अतः) (वह) ज्ञानियों में मूल्यरहित होती है। 141. वह (कथित प्रकार का साघु) दुराचरण-पूर्ण वेश को धारण करके इस लोक में (रहता है) (तथा) साघु-चिन्ह को बनाए रखकर (भी) माजीविका में (मन लगाता है)। (इस तरह से) (अपने) असंयत (जीवन) को संयत (जीवन) कहते हुए (वह) दोर्घ काल तक भी संसार (परतंत्रता) को प्राप्त करता है। चयनिका [ 55 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तु 142 विसं हगाह पीयं सत्पं धम्मो वेयाल बह कालकर मह कुग्गिहीयं । विसम्रोवबन्नो इवाविवन्नो ।। एसेव हरगाह 143 1 लसणं सुविणं पउंजमारणे निमित्त - कोमहलसंपगारे कुहे बिजासबदारजीवी न गन्बई सरनं तम्मि काले। 144 तमं तमेणेव उ में प्रसोले सया दुही विप्परियासुवेई । संपावई नरग - तिरिक्खजोरिंग मोनं विराहेत्तु प्रसाहरुवे ॥ 145 न त मरी कंठछेत्ता करे। बं से करे अप्पणिया बुरप्पा । से पाहिई मच्चमुहं तु पत्ते पन्छाणतावेण दयाविहूगे। 56 ] • उत्तराध्ययन Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142. जैसे कि पिया हुमा हलाहल विप, जैसे कि गलत ढग से पकड़ा हुआ शस्त्र और जैसे.कि शक्तिशाली पिशाच..(व्यक्ति को) नष्ट कर देता है, वैसे ही विपयों से युक्त आचरण (भी) (व्यक्ति को) नष्ट कर देता है। 143. जो (साघु) (शुभ-अशुभ फल बतलाने क लिए) शरीर-चिन्ह को तथा स्वप्न को काम में लेता हुआ (समाज में रहता है), (जो) भविष्यसूचक शकुनों तथा उत्सुकता को. उत्तेजित करने वाले कार्यों में अत्यन्त आसक्त (होता है), (जो) मंत्रतंत्र आदि के ज्ञान के द्वारा, ऐन्द्रजालिक कुशलता के द्वारा तथा हिंसादि के माध्यम से जीनेवाला (होता है), वह उस . ' समय में (कर्म-फल भोगने के समय से) (किसी के) आसरे .... को प्राप्त नहीं करता है। 144. जो आचरणरहित (साधु) (है) (वह) अंधकार (मूल्यों के मभाव) में (ही) (रहता है), (वह) (उस) अंधकार के द्वारा . ही विपरीतता (अध्यात्मरहित) को प्राप्त करता है और ... (इसलिये) सदा दु:खी होता (रहता है)। (फलतः) नरक और तिर्यच योनि की ओर तेजी से दौड़ता है। 145. जिस (खराबी) को अपनी दुष्ट मानसिकताएँ उत्पन्न करती हैं, उस (खराबी) को गला काटनेवाला दुश्मन (भी) उत्पन्न नहीं करता है। (इस बात को) (जीवनभर जीवों की) करुणा से रहित (मनुष्य) (जो) मृत्यु के द्वार पर पहुँचा हुआ (है), वह पश्चाताप के साथ समझंगा। .. 1. शकुन-विशिष्ट पशु. पक्षी, व्यक्ति, वस्तु व्यापार के देखने, सुनने, होने मारि से मिलने वाली शुभ.पशुभ की पूर्व सूचना । पनिका . [ 57 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 तुट्ठो य: सेलिमो राया इलमुबाहु कथंबली । महाभूयं सुट्ठ मे उबसियं ॥ प्रवाह 147 तुझं लामा तुम्भे जं सुलत मस्समम्मं सुलता भ तुमे महेसो ! । सरणाहा य सपना म मे ठिया मग्गे त्तिमा || . 148 तं सि नाही अलाहाणं सामेमि. ते महाभाग ! इच्छामि सम्बभूपाल 149 पुग्छि निमंतिया 58 ] 150 एवं बुलिताख स परमाए सपरिजनो बिमलेग अनगारसीहं सोरोहो धम्मारतो मए तुम्भं झालविग्धो उ जो कम्रो । भोगेहि तं सब्बं मरिसेहि मे 11 संजया ! 1 सासितं ॥ रायसीहो भत्तिए । य बेसा || उत्तराध्ययन Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 146. राजा श्रेणिक बिल्कुल संतुष्ट हुआ (मौर) (प्रणाम के लिए) हाथों को (ऊँचा) किए हुए यह (वाक्य) बोला, " (भापके द्वारा). समझाई हुई अनायता मेरे द्वारा अच्छी तरह से (समझ ली गई है) । 147. हे महर्षि ! सचसुच श्रापके द्वारा मनुष्य जन्म ठीक तरह से लिया गया है तथा आपके द्वारा (उसके ) लाभ ठीक तरह से प्राप्त किए गए हैं। श्राप सनाथ ( हैं ) और बन्धुनों सहित (हैं), चूँकि श्राप जितेन्द्रियों द्वारा ( प्रतिपादित) श्रेष्ठ मार्ग पर स्थित ( हैं ) । 148. हे संयत ! प्राप अनाथों के नाथ हो, (श्राप) सब प्राणियों के (नाथ) (हो) । हे पूज्य ! मैं ( प्राप से) क्षमा चाहता हूँ (और) प्रापके द्वारा शिक्षण प्रदान किए जाने की इच्छा करता हूँ । • 149. तो प्रश्न करके मेरे द्वारा जो श्रापके ध्यान में बाधा दी गई. श्रीर भोगों मे (रमने के लिए) मेरे द्वारा (जो) (श्रापको ) निमन्त्रण दिया गया (है), उस सबको (श्राप) क्षमा करे । 150. इस प्रकार वह राजप्रमुख परम भक्ति के साथ साधुप्रमुख की स्तुति करके रानियों सहित तथा अनुयायी वर्ग-सहित शुद्ध मन से अध्यात्म में अनुराग-युक्त हुआ । चयनिका [ 59 • Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 151 उससियरोमकवो काऊग . या पयाहिन । . अभिगविऊण सिरसा प्रतियानो नराहियो । 152 इयरो वि गुणसमिद्धो तिगुत्तिगुतो तिरविरो य । विहग इव विप्पमुक्को विहरइ वसुहं विगयमोहो ।। 60 ] उत्तराध्ययन Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 151. (अध्यात्म में अनुराग-युक्त होने से) (राजा का) रोम-रोम प्रसन्न था । राजा (माधु की) प्रदक्षिणा करके और सिर से प्रणाम करके (वहाँ से) चला गया। 152. (जिसका) मोह नष्ट हुआ (है), (जो) गुणों से भरपूर (है), (जो) मन-वचन-काय के संयम से युक्त (है), (और) (जो) मन-वचन-काय को हिंसा से. दूर-(है), ऐसा दूसरा (व्यक्ति) अथात् साधु भी स्वतन्त्र हुए पक्षी की तरह पृथ्वी पर विचरा। चयनिका Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण 1. प्रागानिसकरे[(पाणा)-(निद्देसकर)1/1 वि]गुम्णमुदवायकारए [ (गुरुणं)+ (उववाय) + (कारए)] [(गुरु) -(उववाय)(कारम) I/1 वि] इंगियाकारसंपन्ने [(इंगिय+ (प्राकार) + (संपने)] [(इंगिय)-(प्राकार)--(संपन्न) मूक ।/। अनि]. से (त) 11 सवि विपीए (विगीय) 1/1 वि ति (प्र) पादस्वरूपद्योतक बुबाई (वुच्चई) व कम 3/1 सक अनि. 2. मा (अ)=नहीं गलिपस्से [(गनिम)+ (प्रस्से)] [(गलिन) वि (मस्स) 1/1] ब ()=जैसे कि कसं (कस) 2/1 वयमिच्छे [(वयणं) + (इन्छे)] वयणं (वयण) 2/1 इच्छे (इच्छ) विषि 3/1 सक पुगो पुगो (म)बार बार कसं (कस)2/14 (प)= जैसे कि बठ्ठमाइन्ने [(दुट्ठ) + (पाइन्ने)] दट्ठ(द) संक अनि पाइन्ने (माइन्न) 1/1 पावर्ग (पारग) 211 वि परिवजए (परिवज्ज) विषि 3.1 सक. 3. नापुट्ठो [(न) + (प्रपुट्ठो)] न (म)=नहीं अपृट्ठो (पुट्ठ) भूक 1/। अनि. वागरे (वागर) विषि 3/1 सक किधि (प्र)-कुछ 1. पूरी या माघी गावा के अन्त में मानेवासी ''का कियारों में बहुधा हो पाता है (पिशल : प्राकृत भाषापों का म्याकरण, पृष्ठ 138) । 62 ] . उत्तराध्ययन Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरो (पुढ) भूक || पनि वा (4)=और नासिय [ (न)* (मानियं)] न (म)=नहीं प्रालियं (पालिय) 211 गए () विर्षि 3/1 सक कोहं (कोह) 211 प्रसव (प्रसन्च) 211 कम्बेरजा (ब) विधि 3/1सक पारम्बामार) विधि || सक पियमप्पि [(पियं + (पपि)] पियं (पिप) 2/1 विप्रप्पियं (मपिय) 2/1 वि. 4. प्रणा (पप्प) व (अ)=ही रमेयम्बो (दम) विति ।। ह(प्र) ही सतु (प)-सचमुच उद्दमो (दम) II विरंतो (दंत) 11 वि सुही (मुहि) | नि होइ (हो) 43|| प्रक • अस्ति (इम) 7|| मोए (लोप) 711 परत्व (4)परलोक में . (म)=और. . . 5. बरं (4)=अधिक बच्चा में (प्रम्ह) 31 अप्पा (मप्प) II रतो (दंत) | वि संजमेस (संजम) 3|| तबेल (तव) 311 य (म)=पौर मा (म) नहीं हं (पम्ह) || स परेहि (पर) 312 रम्मतो (धम्मंत) व पनि पहि (वंबरण) 312 बहेहि (वह) 312 य (4)=और 6. पालीयं (पहरणीय) 2/10 (4)=पादपूरक गाणं (बुद्ध)612 बाया (वाय) 5/1 भदुद (4) अथवा कम्मुगा (पम्प) 311 भावी (4)-खुले स में बा (म)=या मावा (4)मते ही रहस्से (रहस्स) 7/1 वि नेब (4)कमी न कुम्ना () विधि 3/1 सक कयादि (4)किसी समय भी. 7. न (अ)-नहीं समेग्म (लब) विधि 3/1 सक पुट्टो (ढ) भूक 11 भनि सावध (सावन) 2/1 विनिरत्वं (निरस्त) 21 दि चयनिका [ 63 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • मम्मयं (मम्मय) 2/1'विप्रपा [ (मप्पण) (अट्ठा) । " (पप्पण) विट्ठ)1:5/परद्वार ) । (पट्ठा)][(पर) -(8) 311] वा. (4) पा उभयस्संतरेण [(उभयस्स) + (मंतरण)] [(उभयस्स) (अंतर) 13/1पा(अ) =या 8. हिमं (हिय) 1/1 वि विगपभमा (विगयभय) 1/2 वि दुता (बुट) 1/2 वि फरसं (फरस) 211 वि पि (4) भी पण सासणं (मगुसासरण)2/1 वेस (वेस्स) II वितं (त) 11 सवि होइ (हो) 43/4 प्रक मूढारणं (मूढ) 412 वि वंतिसोहिकरं (खंति)-(सोहिकर) I|| वियं (पय) ||| रमए (रम) व 3/1 पक परिए (परिम) 111 वि सासं (सासं) वक I|| पनि हयं (हय) 2/1 भदं (भद्द) 2/1 वि (म) -: जैसे कि बाहए. (वाहनावि बालं (बान) 2/1 वि सम्मति :: (सम्म) :43/1 प्रक सासंतो (सास) व 1|| गलिपस्स . [(गलिम) + (मस्स)] [(गलिष) वि-(प्रस) 211] व (4)= __ . जैसे कि बाहए (वाहम) 1/1 वि. 10. सहगा (खड्डुगा) 1/1 मे (अम्ह) 411 स पवेग (चवेडा) 11 प्राकोसा (प्रक्कोसा) य (म)= तथा वहा (वहा) 1/य (म)और कल्लापमरण सासंतं [(कल्लाणं) + (अणुसासंत)] कल्लाणं (कस्लाण) 211 वि प्रणुमासंतं (अणुसास) व 2/1 पारिदिः (पावदिट्टि) मूलशब्द 1/1 वि ति (म)-इस प्रकार मन्ना (मन्न) व 3/1 सक 1. कारण' पर्ष में तृतीया या पंचमी का प्रयोग होता है। - 2. कतकिारक स्थान में केवल मूल संशा सन्द भी काम में लाया जा सकता है (पिशन : प्राकृत भाषामों का पाकरण, पृष्ठ 518)। 64 ] समयसार Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. बतारि (ठ) 1/2 वि परमंगालि [ ( परम) + (अंगारिण) ] [ ( परम) वि- (भंग) 1 / 2] बुल्लहाहि [ ( दुल्लहारिण) + (इह )] दुल्लहारिण ( दुल्लह) 1/2 वि इह (प्र) इस संसार में अंतुरगो (जंतु) 4 / 1 मारण सत्तं ( माणुसत ) 1 / 1 सुई ( सुद्द) 1/1 सद्धा 1/1 संजमम्मि (संजम ) 7/1 य (म) =और वोरियं (alfa) 1/1 12. कम्मसंगेहि [ ( कम्म ) - (संग) 3/2] सम्मूढा ( सम्मूढ ) 1/2 वि सिमा (दुक्खिय) 1/2 वि बहुवेपणा [ (बहू) वि- ( वेयण) 1/2 ] स्त्री ; प्रमाणसासु ( धमाणुस प्रमाणुसा) 7 / 2 वि जोगीसु ( जोणि) 712 विहिम्मति (विणिहम्मति) व कर्म 3/2 सक पनि पाणिणो (पाणि) 1/2. 13. कम्मागं (कम्म) 6 / 2 तु (भ) = किन्तु पहाणाए (पहारा) 4/1 प्राणपुब्बी (प्राणुपुब्वी) 1 / 1 कमाइ ( प्र ) == किसी समय उ (घ) = भी जीबा (जीव ) 1/2 सोहिमरणपत्ता [ ( सोहि ) + (प्रणुष्पत्ता ) ] सोहि ( सोहि ) 2 / 1 प्रणुष्पत्ता (प्रणुप्पत्त ) 1/2 वि भाययंति (प्राय) व 3 / 2 सक मरण स्वयं ( मणुस्सय ) 2/1 14 मारणस्तं ( माणुस ) 2 // विविहं (विग्गह) 2/1 तनुं (लर्द्ध) संकृ अनि सुई ( सुइ ) 1/1 धम्मस्स ( धम्म ) 6 / 1 डुल्लहा स्त्री ( दुल्लह+ दुल्लहा ) 1/1 वि जं (ज) 2 / 1 स सोच्छा ( सोच्या) संकृ भनि पडिवज्जंति (परिवज्ज) व 3 / 2 सक तवं (तव) 2 / 1 तिमहिस [ ( खति) + (हिस) ] खंति (खंति) 2 / 1 ग्रहिसयं (afgu4) 2/1. चयनिका [ 65 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. श्रहच्च ( प ) == कभी सणं ( सवग्गु ) 211 तद (नद) संकृ प्रनि स्त्री सद्धा (मढा) 11 परमदुल्हा [ (परम ) वि- (ह दुल्हा ) 1/1 वि] सोच्चा ( सोच्ना) मंकू पनि पाउयं (गोयालय) 2 / 1 त्रि मां (मग्ग) 211 बहवे (बहन) 1/1 वि परिभस्सई (परि-भस्म ) व 3 / 1 प्रक. 16. सुई ( सुइ) 2 / 1 (प्र) = प्रोर युं (लड़) संकृ प्रनि सद्धं (सद्धा) 2/1 च (प्र) भी वोरियं (वीग्यि) 1 / 1 बुग (प्र) - फिर दुल्लहं (दुल्लड़) 1/1 वि बहवे ( बहव ) 1/1नि संयमाचा (रोप) वक्र 1/2 वि (प्र) = यद्यपि नो (प्र) नहीं ( ) - = तथा गं (त) 2 / 1 म पडिवाई' (गडिवज्ज) व 3/1 मक. 17. माणुसत्तम्मि2 ( माणुसत्त) 71 प्रायाम्रो ( श्राया) भूहः ॥॥ जो (ज) 1/1 मवि धम्मं (धम्म) 2 / 1 सोच्च' (सांच्च) संकृ अनि सद्दहे (मह) व 3 / 1 मक् तवस्सी (तवस्सि ) 11 त्रि वोरियं (वीरिय) 2/1 लढ़ (नद) मं ग्रनि संबुडी (संधुर) 1/1 विनिदुणे (निसं) व 311 मक रयं (श्य ) 21 t 1. देखे गाथा | 2. कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है ( न प्राकृत-व्याकरण 3-135) 3. यहाँ 'भावापी भूक तूं वाच्य में प्रयुक्त है । 4. 'सोच्चा' का 'मोन्च' द्वन्द को पूर्ति हेतु किया गया है (पिल : प्राकृत का व्याकरण, पृष्ठ, 831 ) 1 66 1. भाषामो उत्तराध्ययन Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. सोही (सोहि) | रम्जुयभूयस्त [(उग्य) वि-(य) 61] धम्मो (धम्म) in सुरस्स. (भुढ) 611 वि चि (चिट्ठ) 3/1पक निम्बार्ग (निम्बाण) 211 परमं (परम) 21 दि बाइ (जा) व 3|| सक धसित [(चय)-सित) || भनि] (प)=की तरह पावए (पावम) 11 19. प्रसंलयं (असंखयं) भूक 11 प्रनि गोविस (जीनिय) मूलगन्द 11 मा (प्र)-मन. पमायए (पमाय) विषि 2/1 भक नरोवरणीयस्स [(जरा+(उवरणीयस्स)] [(जग)-(उवरणीय) भूक 411 पनि हु (प)=योंकि नरिप () नहीं तान (तारा) I|| एवं (प्र)=इस प्रकार वियागाहि' (वियाण) विधि 2/1 मक अगे (जण) 1 पमते (पमत्त) 1 वि किन्नु (4) किसका विहिंसा (विहिस) 1/2 विजया (अजय) 112 दि गहितिः (मह) भवि 312 सक 20. 2 () F12 पावसहि .[(पाद)-(कंम्म) 3/2] बर्ग (पए) 2|| मस्सा (मणुस्म) 12 समाययती (ममापर) व 3/2 मक मई (प्रमई) 211 गहाय (मह) मंक महार (पहा) संक 1. कमी की सप्तमो जिक्ति के सान पर नकी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है हिम-प्राकृत-व्याकरण : 3-134) 2. देणं गाया। 3. कभी कभी प्रकारान्त पातु के अन्नपस्न 'प' के स्थान पर भासाप-विध्यर्षक प्रत्पयों का मनाव होने पर 'पा' होता है (देम-प्राकृत-पाकरण : 3-158)। 4. 'गह का भविष्यत् कास होगा 'गहिहिति' इनमें 'हि' का वैकल्पिक रूप से मोष होता है पत: गिहिति' म्प पना (हेम-प्राकृत-व्याकरण : 3-172)। 5. पन्द की माता की पूर्ति हेतु 'ति' को 'a' किया गया है। चयनिका [ 67 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते (त) 1/2 सवि पास (पास) विधि 2/1 सक पर्याट्टए (पयट्टम) 2/2 वि नरे (नर) 2/2 बेरारण बडा [ (वेर) + (प्रणुवटा) ] [ ( वेर) - (अणुबद्ध) 1/2 वि] नरगं (नरम ) 2 / 1 उति (उमे) न 3/2 सक. 21. तेणे (तरण) 1 / 1 जहा (प्र) = जैसे संधिमुहे [ ( संधि) - (मुह) 7/1] होए (गहीए) भूकृ 1 / 1 अनि सकम्मुणा [ ( स ) - (कम्म) 3 / 1] evas ( कच्चs) व कर्म 3 / 1 सक भनि पावकारी (पात्रकारि ) 1 / 1 वि. एवं (प्र) = इसी प्रकार पया (पया) 8 / 1 पेन्च (प्र) = परलोक में इहं (म) = इस लोक में प • (लोम) 7/1 ( प्र ) = प्रोर लोए · कडा' (कड) भूकृ 6/2 मनि कम्माण' (कम्म) 6 / 2 न ( प ) = नहीं मोक्स (मोक्ख) 1 / 1 ग्रपभ्रंश प्रत्थि (श्रस ) व 3/1 प्रक. 22. संसारमावन्न [ ( संसारं ) + ( प्रावन्न ) ] संसारं 2 / 1 श्रावन्न (प्रावन्न ) मूल शब्द भूकृ 1 / 1 प्रनि परस्स (पर) 6/1 बि अट्ठा (भट्ट) 5/1 साहारणं (साहारण ) 2 / 1 वि जं (ज) 2 / 1 सवि (प्र) = भी करेइ (कर) व 3 / 1 कम्मं (कम्म) 2/1 कम्मस्स _ (कम्म) 6/1 ते ( 3 ) 1/2 सवि तस्स (त) 6/1 स उ ( प ) = हो बेकाले [ ( वेय) - (काल) 7/1] न ( प्र ) = नहीं बंधना (बंधव ) 1/2 बंभवयं ( बंधव-य) 2 / 1 ( भावार्थ में 'य' प्रत्यय) उदेति (उवे) व 3/2 सक / 1. कभी कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पचमी विभक्ति के स्थान पर पाया जाता है (हेम-प्राकृत-व्याकरण: 3-134 ) । 2. किसी भी कारक के लिए मूल सज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है । (पिशल : प्राकृत भाषामों का व्याकरण : पृष्ठ 517) ( यह नियम भूक वि के लिए भी काम लिया जा सकता है) 68 1 उत्तराध्ययन Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23. वितण (वित) 311 ताणे (ताण) 1 (म)=नहीं समे (लभ) व 3/1 सक पमते (पमत्त) 11 वि इमम्मि (इम) 7/1 सवि लोए (लोम) 7/1 भतुवा (म)मपवा पररथा' (म)= परलोक में रोवप्पपळे [(दीव-(प्पण?) 711 वि] - (म)= जैसे प्रगतमोहे [(प्रणंत)-(मोह) 711] नेयाउयं (नेयाय) 2/1 वि दमदमेव [(ट्ठ) (प्रदु४) + (एव)] दठ्ठ (दछु) संकृ पनि पद(पदट्ठ) सक मनि एव (प्र)=ही. 24. सुत्तेपुर (सुत्त) 712 वि यावी (म) तथा पग्नुिटनोवो [(पटिनुद) भूक भनि--(जीवि) 111 वि ] न (म)=नहीं वोससे (वीसस) विधि 3/1 सक परिय' (वडिय) भूत शन्द 1/1 मासुपन्ने (मासुपन्न) 11 वि घोरा (धोर) 1/2 वि मुहत्ता (मुहत्त) 1/2 प्रबतं (प्रबल) 1 वि सरीरं (सरीर) 1|| भारपालो [(भा)-(पनिस) 1/1] 4 (प्र)की तरह परम्पमतो [(चर) + (मपमत्तो)] चर (पर) विधि 2/1 अक मप्पमतो (मप्पमत्त) 111 वि. 25. स (त) 11 सवि पुग्धमेवं [(पुत्र) (एवं)] पुग्वं (4)=प्रारंभ में एवं (प)=ही न (3नहीं समेन्ज (लभ) भवि 3/1 सक - - 1. यहाँ परत्व' का 'परस्पा' है, '' का 'पा' विकल्प से हुमा है, से 'पुरा 'पुण होता है। 2. कभी कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हेम-प्राकृत-व्याकरण: 3-135) । 3. 'विश्वास' मषं को बनाने वाले शब्दों के योग में प्रायः स पर विश्वास किया जाता है उसमें) सप्तमी शिभक्ति का प्रयोग होता है। 4. कर्माकारक के स्थान में केवन मून संज्ञा सन्द भी काम में लाया जा सकता है (पिचन :प्राकृत भाषामों का व्याकरण, पृष्ठ 518)। चयनिका 69 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पंच्या (प)बाद में एसोवमा [(एसा) । (उवमा)] एसा (एसा) 11 सवि.उवमा (उवमा) I|| सासयवाइयाणे [(सासय)(वाइ) स्वापिक 'य' 612] विसीयई (विमीय) व 3/1 प्रक. सिढिले (सिढिल)- 7/1 वि पाठयम्मि (पाउय) 7/1 कालोवगीए [(काल) + (उवणीए)] [(काल)-(उवणीअ) 7/1वि] सरोरस्स (मंगेर) 6/1 मेए (भप्र) 7/1. 26. जहा (प्र)-जैसे सागरियो (सागडिग्र) 1/1 वि जाणं (जाण) वकृ 1/1 अनि समं (सम) 2/1 वि हेच्चा (हेच्चा) संकृ अनि महापहं (महापह) 2/1 विमम (विसम) 211 मग्गमोइयो [(मग्गं)+ (प्रोइण्णो)] मर्ग (मग्ग) 21 प्रोइण्णो (प्रोडण्ण) भृक 1/1 अनि अखे (प्राय) 7/1 भंग्गम्मि (भग्ग) भूक 7/1 सोयई (सोय) व 3/1 प्रक. 27. एवं (प)-इसी तरह धम्म (अम्म) 2/1 विउक्कम्म (विउक्कम्म) , संकृ अनि प्रहम्मं (अहम्म) 2/1 डिवज्जिया (पडिवज्ज) संकृ पनि बाले (बाल) I|| वि मच्चमुहं [(मच्चु)-(मुह)4 211] पत्ते (पत्त) भूक 1/। अनि प्रक्खे (अक्ख) 7/1 भग्गे (भग्ग) भूक • 711 अनि व (म)=जैसे सोयई (सोय) व 3/1 अक. 1. छन्द की माता की पूर्ति हेतु 'इ' की 'द किया गया है। 2. 'गमन' अयं की धातुपों के साथ द्वितीया होती है। 3. देखें गापा 1 . 4. 'गमन' मयं की धातुओं के साप द्वितीया होती है। 70 ] उत्तराध्ययन Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28. तो (प) =बाद में से (न) 1|| सवि मरतम्मि [(मरण) । (अंम्मि )] [(भरण)-(अंत) 711] बाले (बाल) 1/1 वि संतसई। (सं-तम) व 3/1 प्रक भया (भय) 5/1 अकाममरणं [(काम) वि-(मरण)- 2/1] मरइ (मर) व 3/1 पक धुत्ते • (धुत्त) : वि वा (प्र). जैसे कि कलिणा' (कलि) 3/1 • बिए (जिम) भूकृ 111 अनि. 29. नावंतविन्जापुरिसा [ (जावन) + (मविज्जा) + (पुरिसा) ] [(जावंत) वि-(अविज्ज) 112 वि पुरिमा (पुगिस) 1/2 सन्वे (सन्व) 112 वि ते (त) 1/2 सवि दुरखसंभवा [(दुक्ख)-(संभव) 1/2] तुप्पति (नुप्पनि) व कर्म:3/1 मक भनि बहुसो (प्र) = बार-बार मूढा (मूढ) 1/2 वि संसार मि (मसार) 711 अगंतए (भरणन) 711 स्वायिक 'प्र' 30. अन्नत्यं (प्रज्मन्य) 211 सन्वानो (अ)- पूर्णतः सन्वं (सन्व) 2/1 वि दिस्स (दिस्स) संकृ पनि पाणे (पाण) 212 पियायए [(पिय) + (माया)] प्रिय' (अ)=प्रिय रूप में आयए (प्रायम) विधि, 3/1 सक' न (अ)-नही हगे (हण) विधि 3/1 सक पारिणरणों (पारिण) 6/I पाणे (पाण) 2/2 भय-वेरामो [(भय) --(वर) 5/1] उवरए (उवरण) 111 वि 1. छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'इ' को किया गया है। 2. कभी कभी सप्तमी विक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है हिम-प्राव-व्याकरण :3-137) । 3. कभी कमी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हेम-प्राकृत-व्याकरण : 3-137) , 4 यहाँ पियरे मनुस्वार को लोप हुमा है (हेम-प्राकृत-व्याकरण :1-29) चयनिका [ 71 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31. " (अ) 1 / 2. सवि केद्र (म) = कोई सरीरे ( सरीर) 7/1 सत्ता (सत) 1/2 बि बन्ने (बन्न) 7/1 बजे (स्व) 7/1 य (प्र) = मीर सम्बसी (प्र) = पूर्णत: मलसा ( मरण) 3 / 1 काम-वबर्ण - [ (काय) - (वक्क) 3 / 1] सम्बे (सन्न ) 1/2 वि ते (त) 1 / 2सवि · मुक्तसंभवा [ ( दुक्ख ) - ( संभव ) 1/2 ] 32. भोगामिसबोसविसणे [ ( भोग) + ( प्रामिस) + (दोस ) + (विसण्णे ) ] [ (भोग) - ( प्रामिस) - ( दोस ) - ( विसण्ण) 1/1 वि] हिपनिस्सेसबुद्धिवोच्चत्मे [ ( हिय) - ( निस्सेस) - (बुद्धि) - (वोच्चत्य ) 1 / 1 वि] बाले (बाल ) 1 / 1 वि य ( प्र ) = मोर मंदिए ( मंदि) 1 / 1 वि मूढे ( मूढं) 1/1 वि बजभई ( बज्झर) 1 व कर्म 3 / 1 प्रनि मच्छिमा ( मन्द्रिया) 1 / 1 व (प्र) = जैसे सम्मि2 (सेल) 7/1 33. पाणे (पारण) 2/2. य. ( प्र ) = बिल्कुल नाहबाएज्जा [ (न) + प्रेरक ( भइवाएज्जा ) ] न ( a ) = नहीं प्रइवाएज्जा (प्रध्वस+श्रइवान) व 3 / 1 सक से (त) 1 / 1 सवि समिए ( समि) 1 / 1 वित्ति (प्र) == इस प्रकार बुच्चई (बुच्चइ) व कर्म 3 / 1 सक प्रनि ताई (ताई) 1 / 1 वितम्रो (प्र) = उस कारण से (त) 6/1 स पावगं ( पावग ) 1 / 1 स्वाधिक 'ग' कम्मं (कम्म) 1 / 1 निज्जाइ (निज्जा) व 3/1 अक उबगं (उदग) 1/1 व (प्र) = जैसे कि पलानो (चल) 5/1. 1. छन्द जी मात्रा की पूर्ति हेतु 'ह' को 'ई' किया गया है। 2. कभी कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हैम-प्राकृत-व्याकरण: 3-135 ) 1 3. खन्द को मात्रा की पूर्ति हेतु 'द' को '६' किया गया है। 72 ] उत्तराध्ययन Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34. कसिणं (कमिण) 2/1 वि पि (म) = भी जो (ब) 111 सवि इमं (इम) 211 मवि लोयं (लोय) 2/1 परिपुन्न। (क्रिविन) = पूर्णरूप से इलेज्ज (दल) विधि 3/1 सक एमकस्स (एक्क) 4/1 वि तेगावि [(तेरण)+ (मवि)] तेण (त) 3/1 स पवि (म)-- भी से (त) 1|| सवि ग (अ)नहीं संतुस्से (संतुस्स) व 3/1 प्रक इइ (प्र)= इस प्रकार दुप्पूरए (दु-प्पूर) 111 वि 'म' स्वार्षिक इमे (इम) 1/1 सवि पाया (प्राय) 1/1 35. जहा (प्र)-जैसे लाभो (लाभ) 1|| तहा (म)-वैसे ही लोभो (लोम) 1/1 लामा (लाभ) 5/1 पवई (पवळ) व 3/1प्रक बोमासकयं [(दो)-(मास)-(कय) भूक || पनि] फज्ज (कज्ज) कोडीए (कोडि) 311 वि (प्र)=भी न (प्र): नहीं निट्ठियं (निट्ठिय) 111 वि 36. जो (ज) || स सहस्स (सहस्स) 2/1 वि सहस्सा (सहस्स) 612 वि संगामे (संगाम) 711 दुज्जए (दुज्जम) 7|| वि निणे (जिण) विधि 3/1 सक एग (ग) 211 वि अप्पाणं (अप्पारण) 2/1 जिज्न (जिरण) विधि 3/1 सक एस (एत) 1/1 स से (त) 6/1 स परमो (परम).1 वि जो (जन) 1/1. - 1. 'पुन्न' (पूर्ण) नपुसकलिग संज्ञा भी होता(English : Monier-Williams P-642) इसी से प्रपमा एक वचन बना कर क्रिया-विशेषण अव्यय बनाया गया है (पहि-पुग्न)। 2. यहाँ वर्तमान का प्रयोग भविष्यत्काल के लिए हुमा है। 3. किसी कार्य का कारण व्यक्त करने के लिए तृतीया या पंचमी का प्रयोग किया 4. देखें गाया। 5. कभी कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर पळी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हम-प्राकृत-व्याकरण: 1-134)। चयनिका [ 73 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37. अप्पागमेव [(पप्पागं) + (एव)] प्रप्पाणं। (अप्पाण) 211 एव (4)=ही सुगमाहि (जुन्झ) विपि 2/1 पक कि (कि) सवि ते (तुम्ह) 4/1 स जुग्झेग (जुन) 3|| बम्ममो (प)रहिरंग से प्रप्पा (पप्पाए) 211 जइसा (अम) संह मुहमेहए [[मुह) +(एहए)] सुहं (सुह) I|| एहए (एह) व 3/1 पक 38. सुवना-अप्पस [(सुवण)-(रुप) 6/1] उ (4)=किन्तु पम्पया (पम्वय) 1/2 भये (भव) विधि 312 मक सिया ():-कामित् हु (प)=भी केलाससमा [ (केनास)-(सम) 1/2 वि] प्रसंक्षया (पसंखय) 112 वि नरस्स (नर) 4/1 तुस्स (लुर) 4/1 वि न (प) =नहीं तेहि (त) 312 सवि किचि (प)-कुछ इच्या (इया) 1/1ह (प)-क्योकि मागाससमा [(मागास) स्त्री सम-समा) 111 रि] प्रतिया [ (प्रण) + (प्रतिया)] अणंतिया (प्रतिय--प्रणतिया) 1/1 वि 39. दुमपत्तए [(दुम)-(पत्तम) 1/1] पंडयए (पंडुय-प्र) स्वार्षिक 'म' 1/1 वि बहा (म) जैसे निवरद (निवड) व 3/1 प्रक राइगरपाण [(गइ)-(गण) 6/2] अम्बए (प्रच्चन) 711 एवं (म)==इसी प्रकार मण याण (मणुय) 612 जीवियं (नोविय) 1/1 समयंक (समय) 2|| गोयम (गोयम) 8/1 मा (म)=मत पमायए (पमाय) विधि 21 प्रक. 1. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है (हेम-प्राकृत-पाकरण: 3-137)। 2. समयवाचक शन्दों में द्वितीया होती है इसका पनुवाद क्षण भर' भी ठीक है पर हमने इसका अनुवाद 'अवसर' किया है, क्योंकि गौतम महावीर के सामने है पौर इससे पन्या 'भवसर मोर क्या हो सकता? - - 74 - उत्तराध्ययन Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40. कुसग्गे [(स) + (मग्गे)] [ (कुस)-(मग्ग)7/1] जह (1) =जैसे प्रोसविदुए [ (प्रोस)-(बिंदु-म) 1|| स्वाधिक 'म'] थोवं (घोव) 211 वि चिट्ठइ (चिट्ठ) व 3/1 लम्बमारपए (लम्बमारण +सम्ब) व 1/1 ग्वाधिक 'अ' एवं (अ)=इसी प्रकार मए पारण (मणुय) 612 गोवियं (जीविय) 1/1 समयं (समय) 2/1 गोयम (गोयम) 8/1 मा (म)=मत पमायए (पमाय) विधि 2/1 प्रक. 41. दुल्लमे (दुल्लभ) 111 वि बलु (म-वास्तव में मारए से (माणुस) 1/1 वि भवे (भव) 1/1 चिरकालेण (म)=बहुत समय के पश्चात् वि (म)== भी सम्वपाणिणं [(सव्व)-(पाणि) 4/2] गाढा (गाढ) 1/2 वि य (अ)=ोर विवाग (विवाग) मूल शब्द 1/2 कम्मुरणो (कम्मु) 6/1 समयं (समय) 2/1 गोयम (गोयम) 8/1 मा (म)-मन पमायए (पयाय) विधि 21 अक. 42. परिजूरइ (परिजूर) व 3/1 ते (तुम्ह) 6/1 सरीरयं (संरीर) स्वाधिक 'य' 1/1 केसा (केस) 1/2 पंडरया (पंडुरय) स्वाधिक 'य' 1/2 वि. भवंति (भव) व 312 अक से (अ)-वाक्य की शोभा सम्बनले [(मन्व) वि-(बैल) 11] य (म)ौर हाई (हायइ) व कम 3/1 मक अनि. समयं (समय) 2|| गोयम (गीयम) 8/1 मा (प्र)- मत पमायए (पमाय) विधि 2/1 अक 1. कुणयास के पत्ते का तेज किनारा (माप्टं : संस्कृत-हिन्दी कोस) । 2. कालवाचक मन्दों में रितीया होती है। 3. गापा 39 देखें। 4. कभी कभी विभक्ति जुड़ते समत दोघंवर कविता में हस्व हो जाते हैं (पिशल, प्रा-मा-व्याकरण : पृष्ठ 182) 5. एन्द की माता की पूर्ति हेतु ''को किया गया है। चयनिका [ 15 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43. बोदि (वोच्छिद) पाना 2 / 1 सक सिनेमप्पलो [ (सिणेह) + (प्रणो ) ] सिगेहं (सिणेह) 2/1 (कुमुय ) 1/1 सारइयं (मारइय) पारिणयं ( पारिणय) 2/1 से (त) [ ( सम्ब) - (सिणेह ) - (जिम) 2/1 गोयम (गोयत्र ) 8 / 1 मा विधि 2/1 प्रक. प्रप्पणी (भ्रप्प) 6 / 1 कुमुयं 1 / 1 वि व (प्र) = जैसे कि 1 / 1 सवि सम्बसिणेहवज्जिए भूक 1 / 1 पनि ] समयं (समय) ( प ) मत पमायए ( पमाय ) 44. मुझे (बुद्ध) 7/1 वि परिनिष्वए (परिनिभ्युम)7 / 1 वि घरे (चर) विधि 2/1 प्रक. गाम' (गाम) मूल दाब्द 7/1 गए (गम) भूकृ 1 / 1 प्रनि नगरे (नगर) 7/1 व (प्र) = मथवा संजए (मंजप्र ) 7 / 1 वि संतिमगं [ ( संति) - ( मग्ग) 2 / 1] (प्र) - इसके प्रतिरिक्त वहए = वूहए ( बुह = वूह ) विधि 2 / 1 मक समय (समय) 2/1 गोयम (गोयम) 8 / 1 मा ( प्र ) == मन पमायए ( पमाय) विधि 2 / 1 प्रक. 45. जे (ज) 1 / 1 सवि यावि ( प्र ) - तपा होइ (हो) व 3 / 1 अक निब्विज्जे (निव्विज्ज) 1 / 1 वि पढे (पद्ध) 1/1 वि तुद्धे (लुद्ध) 1 / 1 विप्रनिग्गहे ( प्रनिग्गह) 1 / 1 वि भिक्खणं ( प्र ) = वारंवार उल्लवई (उल्लव) व 3 / 1 सक प्रविरोए ( प्रविणो ) 1 / 1 वि बस्स (बहुस्सम) 1 / 1 वि. 1. किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है (पिशल: प्राकृत भाषार्थी का व्याकरण : पृष्ठ 517 ) गाया 39 देखें | छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'इ' को 'ई' किया गया है । 2. 3. 76 ] उत्तराध्ययन Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46. ग्रह (म) अच्छा तो पंचह (पंच) 32 वि ठाणेहि (ठाण) 3/2 जेहि (ज) 3/2 सवि सिमला ( सिक्खा ) 1 / 1 न ( प्र ) = नहीं भई' (लम्भद्द ) व कर्म 3 / 1सक पनि थंभा ( थंभ ) 5 / 1 कोहा (कोह 5 / 1 पमाए (पमाम्र ) 3/1 रोगेखा लस्सएण [ (रोगेण) रोगेण (रोग) 3 / 1 प्रालस्सएण ( बालस्स - प्र ) (प्र) = तथा I + (मालस्सएर ) ] 3 / 1 स्वाधिक 'म' 1 47. ग्रह (ध) = मोर भट्ठह (भ्रट्ठ) 3/2 वि ठाणेह (ठाण) 3/2 सिमखासीले (सिक्खासोल) 1 / 1 वित्ति (म) = इस प्रकार वुच्चई (वुच्चर) व 3 / 1 सक अनि ग्रहस्सिरे ( प्र हस्सिर ) 1 / 1 विसया (अ) = सदा दंते (दंत) 1 / 1 विन (म) = नहीं य (म) = श्रीर मम्ममुयाहरे [ ( मम्मं ) + (उयाहरे ) ] मम्मं (मम्म) 2 / 1 उयाहरे ( उयाहर) व 3 / 1 सक 48. नासोले [ (न) + (असील ) ] न ( अ ) = नही प्रसीले 1 / 1वि विसीले ( विसील) 1 / 1 वि सिपा (प्र) = है [ ( प्रइ ) -- ( लोलुप्र ) 1/1 वि ] अकोहरणे (मकोहरा) 1/1 वि सच्चरए [ ( सच्च) (रम) 1 / 1 वि] सिक्सासोले (सिक्खासील) 1 / 1 ति ( प्र ) = इस विवरणवाला वृच्चह (दुबई) व 3 / 1 सक अनि. . 49. जहा (प्र) = जैसे से ( प्र ) = वाक्य को गोभा तिमिरविद्धसे [ ( तिमिर (विद्वंस) 1/1 वि] उत्ति ते. ( उतिट्ठ) व 1/1 'दिवाकरे (दिवाकर) 1/1 जलते (जल) वक्र 1 / 1-इव (भ) मानो एवं (प्र) इसी प्रकार भवइ ( भव) व 3 / 1 प्रक बहुस्सुए (बहुस्सुम ) 1 / 1 वि = - 1. छन्द की मात्रा को पूर्ति इ' को 'ई' किया गया है । 2. किसी कार्य का कारण व्यक्त करने वाली (स्त्रीलिंग भिन्न) संज्ञा में तृतीया या पंचमी विभक्ति का प्रयोग होता है ।- 3. देखें गाया 1 चयनिका (प्रसोल ) प्रइलोलुए · :-l: 77 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50. महा (प्र) = जैसे से (प्र) : वाक्य की शोभा समाइयाणं ( सामादय) 6/2 कोट्ठागारे (कोट्ठागार) 1/1 सुर मिलाए (सुरविम) वि नालापन्नपरिपुन्ने | (नाएगा - ( धन्न ) – (परिपुन्न) 1 / 1 वि ] एवं (प्र) = इसी प्रकार भवइ ( भन ) व 3 / 1 मक बहुस्सुए ( बहुस्सुम ) 1/1 वि 1 / 1 - 51. जहां (घ) जैसे से (प्र) = वाक्य की शोभा संयभुरमले ( संपमुरमण ) 1/1 उबही (उर्दाह) 1/1 write [aran) + (उदर)] [(मक्स ) - ( उदग्र ) 1/1] नाणारमा परिपु [ ( नारणा ) - ( स्मरण ) - (परिपुष्ण) 1/1 वि] एवं (प्र) = इसी प्रकार oes (भव) व 3 / 1 ग्रक बहुस्सुए ( बहुस्सुप्र ) 1 / 1 वि 52. इह (इम) 7/1 जोविए (जीविप्र ) 7/1 राय (राय) 8/1 प्रसासय मि ( भसासम) 7/1 बलियं (क्रिविद्र ) प्रतिशयरूप से तु (म ) : पादपूरक पुन्नाई (पुन्न) 2/2 प्रकुम्बमालो ( प्रकुब्व) बकु 1/1 से (त) 1 / 1 सवि सोयई (सोम) व 3 / 1 प्रक मन्चुमुहोबरणीए [ ( मच्चु ) + (मुह) + (उपरणीए ) ] [ ( मध्चु ) - (मुह ) - ( उवरणी) 7 / 1बि] धम्मं (धम्म) 2/1 प्रकाकरण (मका) संक परम्मि (पर) 7 / 1 लोए (लोभ) 7/1 53. बहेह [(जह) + (इह ) ] वह ( प्र ) == जैसे वह (अ) = यहाँ सोहो (सोह) 1/1 व (ध) = पादपूरक मियं (मिय) 2/1 गहाम (गह ) संकुम (मच्छु) 1/1 नरं (नर) 2 / 1 नेव (नो) व 3/1 सक हु (भ) = निस्संदेह अंतकाले [ ( अंत ) - (काल) 7/1] न (भ) = नहीं तस्स (त) 6 / 1 स माया (माठ) 1/1 व (प्र) र पिमा (पिठ ) 1 / 1.व (प) = मोर भाषा ( भाउ) 1/1 कालम्मि (काल) 7/1 तम्मंसहरा [ (तम्मि) + (सहरा ) ] तम्मि (त) 7 / 1 स (हरा) 1/2 वि भवंति ( भव) व 3 / 2 प्रक. 78 ] उत्तराध्ययन Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54. न (म)नहीं तस्स (त) 6/1 म दुखें (दुख) 211 विभयंति (विभय) 4312 सक नायमो (नाय-अ) स्वापिक 'म' 11 दि मितवग्गा [(मित्त)-(बग्ग)) 1/2] सुधा (सुय) 1/2 भवा (बंधक) 1/2 एगो (एग) 1/1 वि सपं (घ)स्वयं पाहोह (पञ्चगुहो) 23/1 सक दुरु (दुक्स)2/1 कत्तारमेवा[(कतार) +(एवा)] कत्तारं (कतार) 2/1 एका (प)-ही प्रणमाइ (अणुजा) 3/1 सक कम्मं (कम्म] 111 55. देवा (रेन्या) संह पनि दुपयं (दुपय) 241 . (म)-पौर पउपयं (उपय) 21 सेतं (सेत) 21 गिहं (गिह) 21 परब (षण) मूलगन्द 2|| पन्नं (पन्न) 21 (म) और सम् (सन्ब) 21 दि सकम्मविमो [ (स) + (कम्म) + (अविइमो)] [(स)वि--(कम्म)-(मविहम) I E] अवसो (अवस) / वि पयाई (पया) व 3/1 सक परं (पर) 211 वि भवं (भव) 211 मुंबर (सुदर) (मून शन्द) 2/1 वि पावगं (पावम) 211 वा (म)-प्रथवा 56. अन्नेह (अच्चेद) व 3/1 प्रक अनि कालो (काल) 1 रंति (तूर) 3/2 अक राइमोस (राई) 112 न (प)-नहीं यावि [() + (प्रावि] य (प)-और प्रावि (प्र) भी भोगा (भोग) 112 पुरिसारण (पुरिस) 6/2 निमा (निच्च) 1/2 वि - 1. मावानिए दो। 2. किसी भी कारक के लिए मूल सना र काम में माया मा.सकता है (पिस : प्राकृत-भाषापों का भ्याकरण, पृष्ठ 517) । 3. कभी को 'पौर प्रर्ष की प्रर करने के लिए दो बार 'क' का प्रयोग किया .4. सन्द की मात्रा के लिए ' को किया गया। भयानका [ 79 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उबेच (उवेच) संक भोगा (भोग) 1/2 पुरिसं (पुरिस) 2/1 पति (चय) व 3/2 सक दुमं (दुम) 2/1 जहा (अ)=जैसे खोए फत (सोणफल) 2/1 वि व (म) =जैसे पक्खो (पक्खि) 1/2 57. गणमेत्तसोक्खा [(खणमेत-(सोक्स) 1/2 वि] बहुकालदुस्ता [(बह) वि-(काल)-दुक्स) 1/2 वि] पकामदुक्खा [(पकाम) वि-(दुक्स)1/2 वि] पनिकामसोक्खा[(अनिकाम)-(सोरख) 1/2 वि] संसारमोक्लस्स [ (संसार)-(मोक्ख) 6/1] विपक्खनूया [(विपंक्स)-(भूय) 112 वि खाणी (सारिण) 1/1 भणत्पाए (मरणत्य) 612 उ(अ)=निश्चय ही कामभोगा [(काम)-(भोग) 1/2] 58. परिग्वयंते (परिम्बय) व 1/1 प्रनियतकामे [(म-नियत्त) भूक मनि-(काम) 111] महो (म)=दिन में य (प्र)=पौर रामो (अ)-रात में परितप्पमारणे (परितप्प) व 1/1 प्राणप्पमत्ते [(मण्ण)- (प्पमत्त) 1/1 वि] पणमेसमारणे [(घणं) + (एसमाणे)] पणं (घण) 2/1 एसमारणे (एसमारण) वकृ 1/1 पप्पोति (पप्पोति) व 3/1 सक भनि मच्चु (मच्चु) 2/1 पुरिसे (पुरिस) 1/1 परं (जरा) 2/14 (म)=ौर 59. इमं (हम) 1|| सवि च (म)=पौर मे (मम्ह) 6/1 स प्रत्मि (म)-है नरिप (म)=नहीं च (प)-पौर मे (पम्ह) 3/1 से 1. दो वाक्यों मपा शन्दों को जोड़ने के लिए कभी-कभी दो 'ब' का प्रयोग 'भोर' प्रर्ष में किया जाता है। , . -80 ] उत्तराध्ययन Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किच्च। (किच्च) मूल शब्द 1/1 वि प्रकिण्वं (प्रकिच्च) 111 वि तं (त) 211 मवि एवमेव (एवं) + (एवं)] एवं (प्र)-इस प्रकार एवं (4) ही लालप्पमागं (लामप्प) व 2/1 हरा (हर) 1/2 हरंति (हर) व 3/2 सक ति (प)-प्रतः कहं (म)-से पमाए (पमाम) 11 60. जा (अ) 1/1 सवि बच्चा (बच्च) व 3/1 रयणी (रयणी)1/1 न (म)=नही सा (ता) 111 सवि परिनियतई (पहिनियात) व 3/1 प्रक प्रधम्म (अधम्म) 2/1 कुणमास्स (कुण) व 6/1 प्रफता (प्रफल) 112 वि अंति: (जा) व 3/1 पक राइमो (राइ) 112 61. ना (ज) 11 सवि बच्चा (बच्च) व 3/1 मक रयणी (रयणी) 1/1 न (प्र)नहीं सा(ता) / सवि परिनियत्तई (पडिनियत्त) व 3/1 अक पम्मं (धम्म) 211 - (म)=ही कुरामाणस्स (कुरण) व 6/1 सफला (सफल) 1/2 विनंति (जा) व 3/1 मक राइमो (राइ) 1/2 1. किसी भी कारक के लिए मूल संशा-शन्द काम में साया वा सकता है। (पिसः प्राहत मापापो का म्याकरण- पृष्ठ 517) मेरे विचार से पह नियम विपण गन्दों पर भी लागू किया जा सकता है। . 2. कमी-कमो बहुवचन का प्रयोग सम्मान प्रदक्षित करने के लिए किया जाता है। (हरमृत्यु का देवता-काल। 3. देगाथा 1 4. बा+जाति--ति (दो स्वर के मागे संयुक्त प्रसार होने पर दो सर का हस्थ पर हो जाता है) (हेम-प्राकृत-म्याकरणः 1-84) - 5. • गाया 60 देखें 6. दोघं का हस्त मात्रा के लिए। यनिका [ 81 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62. अस्सस्थि [ ( जस्स) + (प्रत्थि ) ] जस्स ( ज ) 6 / 1 स. प्रत्थि ( प्र ) च = है मन्बुरगा ( मच्चु ) 3 / 1 समलं स चत्थि [(च) + (प्रत्थि ) ] करता हैं प्रत्थि 1 / 1 सवि जाप (मर) भवि 1 / 1 व 3/1 सक सुए (सक्ख ) 1/1 जस्स (ज) 4/1 (म) = संभव प्रयं को व्यक्त (म) = है पलायणं ( पलायण) 1 / 1 जो (ब) (जाण) व 31 सक न ( प्र ) = नहीं मरिस्सामि प्रक सो (त) 1/1 सवि हू (प्र) = हो कंसे ( कंख) सुवे (प्र) = श्रानेवाला कल सिया (प्र) = है - - 63. सब्बं ( सभ्व) 1 / 1 सवि अगं (जग) 1 / I जह ( प्र ) यदि तुहं (तुम्ह) 6/1 स बा (प्र): | = श्रथवा वि (घ) = भीषणं (धरण) 1/1 भवे (भव) विधि 3 / 1 कपि (अ) = तो भी ते (तुम्ह) 4/1 स अपज्जर्स (प्रपज्जत) 1 / 1 बि नेव (अ) = कभी नहीं तालाए (ताण) 4 / 1 तं (त) 1/1 सवि तब (तुम्ह) 6/1 स अनि 64. मरिहिति (मर) भवि 2 / 1 मक रायं (गयं) 8/1 अनि जया तया (x) = किसी भी समय वा (प्र) = निस्संदेह मरणोरमे (मणोरम) 212 वि कामगुणे (कामगुण) 2/2 पहाय (पहा ) संकृ एक्को (एक्क) 1 / 1 विहु (प्र) = ही धम्मो (धम्म) 1/1 नरबेब 8 / 1 ता (ताल) 1/1 न ( प्र ) ==नही विज्जए (बिज्ज) व 3/1 क अन्नमिह [(अन्नं) + (इह) + (इह ) ] किचि (प्र) = कुछ 65. दवग्गणा ( दवग्गि) 3 / 1 जहा (प्र) जैसे रखले (रण) 7/1 उज्झमाणे (उज्झमाण ) बक्र कर्म 7 / 2 अनि जंतुसु (जंतु) 7/2 अनि अन्ने (अन्न) 1 / 2 सत्ता (खस) 1/2 पमोयंति (पमोय) ब3 / 2 प्रक रागदोसवसं [गन) - दोस ) - ( बस ) 2 / 1] गया (गय) भूकृ 1/2 प्रति 1 'साथ' के योग में तृतीय विभक्ति होती है । 2 जया तथा ( यदा तदा) = किसी भी समय (Eng Dictionary : Monier williams. P 434 col III) -82 ] उत्तराध्ययन 1 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66. एवमेवं (म)=बिल्कुल ऐसे ही वयं (अम्ह) 1/2 स मूढा (मूढ) 1/2 वि कामभोगेसु (कामभोग) 7/2 मुच्छिया (मुच्छ) संक झमारणं (डझमाण) व कर्म 2/1 प्रनि न (अ) नहीं बुन्झामो (बुज्झ) व 112 सक राग-दोसग्गिा [(राग)+ (दोस) + (मग्गिणा)] [(राम)-(दोस)-(प्रग्गि) 3/1] जयं (जय) 211 67. भोगे (मोग) 2/2 भोच्चा (मोच्चा) सक अनि वमित्ता (वम) संकृ य (म)-और लहुमूविहारिणो [(लहु)-(भूय)-(विहारि) 1/2 वि] प्रामोयमारणा (आमोय) वकृ 1/2 गछति (गच्छ) व 312 सक दिया (दिय) 112. कामकमा [(काम)- (कम)-511] इव (म)=जैसे कि 68. लामालामे. (लाभ) + (अलाभे)] [लाम)--(अलाम) TI] सुहे (मुह) 7/1 दुले (दुक्स) T4 जीविए जीविन) TI मरगणे (मरण) ! तहा (म) तथा समो (सम) In निदरा-पसामु [(स्दिा)-संसा) 7/27 तहा (अ) तथा मारणाबमाराओं [ (मारा) + (अवमापभो)] [ (मए) (अक्पासमो) संग्कृत सप्तमी के दिवचन का प्राकृतीकरण] 69. जरा-मरणवेनेणं (चरा)-(मरण)-(वेग) 3/1] वुझमारणाण (कुन्क) व कर्म 412 अनि पारिगर्ग (पारिण)4/2 धम्मो(धम्म) 1/1 रोबो (दीव) || पहा (१इट्ठा) 1/14 (घ) और गई (गइ) III सरसमुत्तमं (सरपं) + (उत्तम)] सरणं (सरण) 11 उत्तमं (उत्तम) I|| वि 1. किसी कार्य का कारण म्यक्त करने वामी (स्त्रीसिम भिन्न) संशा में तृतीया या पंचमी विवक्ति का प्रयोग किया जाता है। 2. चन्द की.माता की पूर्ति हेतु पापी' को 'पापित किया गया है। प्रयनिका [ 83 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70. सरीरमाह [(सरीरं) + (माह)] सरीरं (सरीर) 211 माहुर (माह) भू 3/1 सक पनि नाव (नाबा) 2/1 अपभ्रंश ति (म)=चूकि जोबो (जीव) 1/1 दुग्बा (बुन्चइ) व कम 3/1 सक पनि नाविमो (नाविप) 1/1 संसारो (संसार) 1/1 मणको (मण्णव) 1/1 वृत्तो (वुत्तो) भूक 1/1 पनि (ज) 2/1 स तरंति (तर) व 3/2 सक महेसिपो [(मह) + (एसियो) ] [(मह)-(एसि) 1/2 वि] 71. उबनेको (नवलेव) 1/1 होइ (हो) व 3/1 प्रक भोगेसु (भोग) 712 प्रभोगी (मभोगि) 111 वि नोबलिप्पा [(न । (उवलिप्पई)] न (म)-नही उवलिप्पई (नबलिप्पदा व कर्म 3/1 सक पनि भोग्गे (भोगि) 1/1 नि भमा (भम) व 3/1 सक संसारे (ससार) 7/1 विप्पमुन्नई (विप्पमुच्चइ) व कर्म 3/1 सक मनि. 72. उल्लो (उल्ल) 1/1 वि सुरको (सुक्क) 1/1 वि य (म) -पोर दो (दो) 1/2 वि छटा (छुढा) भूक 1/2 अनि गोलया (गोलय) 1/2 मट्टियामया [(मट्टिया)-(मय) 1/2 वि] दो (दो) 1/2 1. पिशल : प्राकृत भाषामो का पाकरण, पृष्ठ 755 2. कभी कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-माकरण : 3-135) 3. दे गावा 1. 4. कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया पाया है। (हेम-प्राव-माकरण : 3-135) उत्तराध्ययन Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि ( प ) हो प्रावडिया' ( भावड) भूक 1/2 कुडे (कुड्डु) 7/1 1 जो (ज) 1/1 सवि सोहत्य [ (सो) + (प्रत्य) ] सो (त) 1 / 1 सवि प्रत्थ ( अ ) = = यहां पर लग्गई' (लग्ग) व 3 / 1 प्रक लग्गंति (लग्ग) व (ज) 1/2 सवि 3 / 2 प्रक कुम्मेहा नरा (नर) 1/2 73. एवं (प्र) = इसी प्रकार (दुम्मेह) 1/2 वि जे कामलालसा [ ( काम ) - ( लालसा ) 1/2 वि] विरता (विरत ) 1/2 विउ ( ) किन्तु न (म ) = नहीं जहा (प्र) = जैसे से (त) 1/1 सवि सुक्कगोलए [ ( सुक्क) - ( गोलम) 1 / 1 ] 74. तु का ( खलुक) 112 मारिसा ( जारिस) 1/2 जोज्जा ( जोज्जा) 112 विधिक प्रनि बुस्सीसा ( दुस्सीस) 1/2 वि (म) = भी हु (अ ) == निस्संदेह तारिसा (तारिस) 1/2 वि जोइया (जोन) भूकृ 1/2 धम्मभारणम्मि [ ( धम्म ) - ( जाएंग) 7/1] भज्जती (भज्ज) व 3 / 2 सक बिड्म्बला [ ( घिइ ) - ( दुब्बल) 1/2 बि] 75. समाइएर्ण ( समाइम) 3 / 1 भंते (मंत) 811 वि जोबे (जीव ) 1 / 1 कि ( कि) 2 / 1 सवि जर यह (जरगड ) प्रेरक व 3 / 1 सक अनि सावग्गजोगविर ( ( सावज्ज) - ( जोग) - (विरह) 2/1] 76. पायच्छित्तकरणं [ ( पायच्छित ) - (करण) 3 / 1] भंते (भंत) 8/1 वि जोबे (जोन) 1/1 कि ( कि) 2 / 1 वि जलय ( जरगयइ ) प्रेरक व 3/1 सक अनि पावकम्पबिसोहि [ (पाव) वि- (कम्म) - 1. यहाँ भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग कर्तृवाच्य में हुआ है । 2. वहां वर्तमानकाल का प्रयोग भूतकाम अर्थ में हुआ है । 3. छन्द की माता की पूर्ति हेतु 'ति' को 'तो' किया गया है । चयनिका [ 85 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (विसोहि) 2/1] निरइयारे (निरइयार) 1/1 यावि (अ) भवा (भव) 3/1 प्रक सम्म (म) =शुदिपूर्वक च (म) = मोर एं (म) वाक्यालंकार पायन्छितं (पायच्छित्तं)2/1 परिवज्जमारणे (परिवज्ज) बक़ 1/! मग्गं (मरग)2/1 मग्गफलं[(मग्ग)-(फल) 211] च (म) = भोर विसोहेइ (विसोह) व 3/1 सक मायारं (मायार) 2/10 (म)= और प्रायारफलं [(आयार)-(फल) 2/1] पाराहेड (प्राराह) व 3/1 सक 77. समावणयाए (खमावणया) 3/10 (म) = वाक्यालंकार भंते (मंत) 8/1 वि नोवे (जीव) 1/1 कि (कि) 2/1 वि जण्यइ (जण्यइ) प्रेरक व 3/1 सक अनि पल्हायरणभावं [(पल्हायण) वि-(भाव) 211] पल्हापरणभावमुवगए [(पल्हायण) - (भाव) + (उवगए)] [(पल्हायण)-(भाव) 2/1] उवगए (उवगप्र) भूह 111 अनि य (म) और सम्वपारण-भूप-जीव-सत्तेसु [(सव्व)-(पारण)-(भूय)-(जीव)-(सत्त) 712] मेत्तीभावं [(मेत्ती)-(भाव) 2/1] उप्पाएइ (उप्पाम) व 3/1 सक मेतीभावमुवगए [(मेत्ती)+ (भाव) +उवगए)] [मेत्ती)-(भाव) 211] उवगए (उवगय) भूक 11 मनि यादि (म)=और जीवे (जीव) 1/1 भावविसोहि [(भाव)--(विसोहि) 2/1] काऊण (का) संकृ निन्भए (निन्भम) 1/1 वि भवइ (भव) व 3/1 प्रक 78. धम्मकहाए [(धम्म)-(कहा) 3/1] Q (म)=वाक्यालंकार भंते (मंत) 8/1 वि जीवे (जीव) 1/1 किं (कि) 2/1 वि जणयह (जणयइ) प्रेरक व 3/1 सक अनि पवयणं (पवयण) 2/1 पभावेद (पभाव) व 3/1 सक पवयणपभावए [(पवयण) 1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमो विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राक्त-व्याकरण : 3-135) 86 ] उत्तराध्ययन Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( प्रभाव - प्र ) 1 स्वाधिक 'म' 7/1 ] भागमे तस्सभद्दताए [ ( प्रागमेस ) + (प्रस्स) + (भद्दताए ) ] [ ( भागमेस) वि - ( प्र . स्स) वि - ( भद्दत ) 4/1] कम्मं (कम्म) 2/1 निबंध (निबंध) व 3/1 सक स्वाधिक 'य 79. सुपस्स (सुग्र) 6/1 भाराहलयाए (भाराह श्राराहरणया) 3 / 1 स्त्री-लिंग (घ) वाक्यालंकार मंते (मंत) 8/1 वि जीवे (जीव) 1/1 कि ( कि) 2 / 1 वि जरणय (जरणय६ ) प्रेरक व 3 / 1 मक पनि. अन्नार्ण (पन्ना) 2 / 1 सवेह (सव) व 3 / 1 सक न ( प्र ) = नहीं व (प्र) = पीर संकिलिस्सह ( संकिलिस्स) व 3 / 1 प्रक · --: 80. एगग्गमरणसन्निवे सखयाए [ (एग ) + (भरग) + (मण) + 'य' स्वामिक (मन्निवेसण पाए ) ] [ (एग ) - (भग्ग ) - ( मरण) - ( सन्निवेमरण -+ स्त्री-लिंग सन्निवेसरया) 3 / 1] वर्ग (प्र) वाक्यालंकार भंते ( मंत) 8 / 1 वि बोबे (जीव) 1/1 कि ( कि) 2/1 वि जायद ( जरणयइ) प्रेरक ब 3 / 1 सक अनि चित्तनिरोहं [ (चित्त) - (निरोह) 2/1] करेद्र (कर) व 3/1 सक - न ( प्र ) = वाक्यालंकार भंते कि ( कि) 2 / 1 वि जयद निस्संगतं ( निस्संगत ) 2 / 1 (एग ) 1 / 1 सवि एगग्गचि [ ( एगरन ) - (बिस) 1 / 1] बिया ( प्र ) = दिन मे बा (भ) = [ 87 81. अपविद्धयाए (पपरिबद्धया) 3 / 1 ( मंत) 8 / 1 वि जोवे (जोन) 1 / 1 ( जय) प्रेरक व 3 / 1 सक भनि निस्संगसंग (निस्संगत ) 3 / 1 एगे चयनिका Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोर रामो (म) = रात में प्रसज्जमाणे (प्र-सज्ज) वकृ I/1 अप्परिबडे (म-परिवद) भूक 1/I भनि यादि (प्र)=ोर बिहरह (विहर) व 3/1 प्रक 82. बोयरागयाए (वीयरागया) 3/1 (म)==वाक्यालंकार भंते (मंत) 8/1 वि जोवे (जीव) 1/1 कि (किं) 2/1 वि जरणमा (जरणयइ) प्रेरक व 3/1 सक पनि नेहाण बंधणारिण [(नेह) + (मणुबंधणाणि)] [(नेह)-(अणुवंषण)2/2] तण्हाण बंपणागि [(तण्हा) + (अणुबंधणारिण)] [(तण्हा)-(अणुबंधण) 2/2] य (म)=ौर वोज्छिवह (वोच्छिद) व 3/1 सक मण न्नेसु। (मगुन्न) 7/2 सद्द-फरिस-रस-स्व-गंषसु' [(सद्द)-(फरिस)(रस)-इव -(गंध) 7/2] घेव (प्र)=भी विरज्जइ (विरज्ज) व 3/1 प्रक 83. परजवयाए (मज्जवया) 3/11 () =वाक्यालंकार भंते (मंत) 3/1 वि जीवे (जीव) 1/1कि (कि) 211 वि जणयह (जणयइ) प्रेरक व 3/1 सक पनि काउग्जुययं [(काम) + (उज्जुययं)] [ (काम) - (उज्जुयया) 2/1] भावज्जुपयं [ (भाव) + (उज्जुययं)] [(भाव)—(उज्जुयया) 211] भासुज्जुययं [(भास) + (उज्जुययं)]' [(भास)- (उन्जुयया) 2/1] भविसंवायणं (म-विसंवायए) 211 प्रविसंवायसंपन्नयाए [(मविसंवायण)(संपन्नया) 3/1] पम्मस्स (धम्म) 6/1 प्राराहए (भाराहम) 1/1 वि भवइ (भव) व 3/1 प्रक 1. कमी-कमी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता । (हेम-प्राकृत-म्याकरण : 3-136) 88 ] उत्तराध्ययन Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84. जहा (अ) यदि महातलागस्सा [ (महा)-(तलाग) 611] सन्निरुद्ध (स'-निरुद्ध) भूकृ 1/! अनि जलागमे [(जल) + (प्रागमे)] [ (जल) - (भागम) 1/1] उस्सिचरणाए (उस्सिचणा) 3/1 तवरणाए (तवरणा) 3/1 कमेणं (म)-धीरेधीरे सोसणा (सोसणा) 1|| भवे (भव) व 3/1 प्रक 85. एवं (अ)= इस प्रकार तु (प्र)=ही संजयस्सावि [(संजयस्स)+ (प्रवि)] संजयस्स (जय) 6/1 प्रवि (म) = पादपूरक पावकम्मनिरासवे[(पाव)-(कम्म)-(निरासव)711 भवको संघियं [(भव)- (कोही)- (संचिय) 111 वि] फम्मं (कम्म) 1) | तवसा (तव) 3/1 निजरिज्जई (निज्जर) व कर्म 3/1 सक 86. नास्स (नाण) 611 सम्वस्स (सव्व) 611 पगासगाए स्त्री (पगासण+पगासणा) 3/1 अन्नाण-मोहस्स [अन्नाण)-(मोह) 6/1] विवग्जरगाए (विवज्जणा) 3/1 रागरस (राग) 611 दोसस्स (दोस) 6/1 य (अ)=और संखएणं (संखम) 3/1 एगंतसोक्खं [एगंत) वि-(सोक्ख) 2/1] समुवेड (समुवे) व 3/1 सक मोक्खं (मोक्ख) 2/1 - - 1. कभी-कभी सप्तमो विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरण : 3-134) 2. स (म)-पूर्णरूप से 3. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर पष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। हेम-प्राकृत व्याकरण : 3-134) 4. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत व्याकरण : 3-135) 5. देखें मापा । चयनिका [ 89 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87. तस्सेस [(नस्स) + (एस)] तस्स (त) 6/1 म. एस (एत) 1/1 सवि मग्गो (मग्ग) 1/1 गुरु-विवसेवा [(गुरु)-(विट) वि(सेवा) 1/1] विवरमा (विवज्जणा) 11 बालजस्स [(वाल)-(जण) 6/1] रा (प्र)-दूर गे सम्झायएगंतनिसेवणा [(मझाय)-(एरांत)- (निसेवाणा) 1/1] य (प) = पोर सुत्तरपसंचितरपया [ (मुत्त) - (प्रत्प) + (संचितणया) ) [(सुत्त)-(प्रत्य)-(संचितणया) 1[1] पित्ती (धिति) 111 य (म)=ोर 88. रागो (राग) 1/1 या (म) = पोर दोसो (दोस) 111 दिया (म) मोर कम्मदीयं [(कम्म) - (बीय) 1/1] कम्मं (कम्म) 1/10 (म)= पोर मोहपभवं [(पोह)-(भ) I|| वि] पति (वद) व 3/2 मक कम्म (कम्म) 1|| च (भ)=ही जाई-मरणस्स [(जाई)-(मरण) 6/1] मूलं (मूल)1/1 दुक्खं (दुक्ख) 1/1 च (प्र):- ही जाई-मरण [(जाई)-(मरण) 1/1] वयंति (वय) व 312 सक 89. तुमसं (दुक्ख) 1/1 हयं (हय) भूक 1/1 अनि जस्स (ज) 6/1 स न (म)=नहीं होइ (हो) व 3/1 प्रक मोहो (मोह) 1/1 हमो (हप्र) भूक 1/1 अनि तम्हा (तोहा) 1/1 हया (हया) भूक 1/1 प्रनि लोहो (लोह) 1/1 किंघरगाई (किंचण) 112 1. नाक्यांश को जोड़ने के मिए 'मोर' सूचक सम्पयों का प्रयोग दो बार कर दिया जाता है। 2. अब 'प्पभव' का प्रयोग समास के अन्त में किया जाता है तो इसका मपं होता है, 'उत्पन्न' (वि) 3. समासगत सम्बों में रहे हए सर हब के स्थान पर वीर्ष पौर दो के स्थान पर हस्व प्रायः हो जाते हैं। (हेम प्राकृत भ्याकरण: 1-4) बाइ+गाई 90 1 उत्तराध्ययन Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 विवित्तसेज्जासएजतियाणं [(विवित्त) + (सेज्जा) + (पासण) +(जंतियाणं)] [(विवित्त)- (सेज्जा)-(प्रासण)-(जंतिय) 6/2 वि] मोमासरणागं [(प्रोम) + (असणाणं)] प्रोमासणाणं (मोमासण) 612 वि दमिवियागं [(दमिन)+ (इंदियाणं)] दमिइंदियाणं (दमिइंदिय) 6/2 वि न (म)=नहीं रागसत [(राग)-(सत्तु) 1/1] परिसेइ (परिस) व 3/1 सक चितं (चित) 2/1 पराइयो (पराइन) भूक !!! अनि बाहिरिवोसहेहि [ (वाहि) +(रिउ) + (व) + (प्रोसहेहि) ] [(वाहि)-(रिउ) (ब) अ जैसे-(पोसह) 3/2] 91. कामारण गिरिप्पभवं [(काम) + (मणुगिदि) + (प्पभव)] [(काम) -- (मण गिति)-(प्पभव) 1/1 वि] ख (प) ही दुमचं (दुक्म) 1/1 सम्बस्स (सव) 611 वि लोगस्स (लोग) 6/1 सदेवगस्स (सदेवग) 611 वि (ज) 1/1 सविसाइयं (काइय) 1/1 वि मागसियं (माणसिय) 11 वि . (म) भी किधि (प)-कुछ तस्संतगं [(तस्स)+ (प्रतर्ग)] तस्स (त) 6/1 स मंतगं: 211 गच्छद (गच्छ) व 3/1 सक वोयरागो (वीयराग) 111 वि 92. जहा (अ)-जैसे व (4)=पादपूरक किपागफला [(किंपाग) (फल) 1/2] मगोरमा (मणोरम) 1/2 वि रसेप (रस) 3/1 बगेगवण्ण) 3/14 (म) और 1. बप्पम' का प्रयोग समास के पन्त में किया जाता है, तो इसका मर्म होता है, 'उत्पन्न' (वि). 2. 'मति' पर्व की क्रिया के सापतीया विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। 3. कभी कभी सप्तमी विमति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पापा बावा है (हेम-प्राकृत-म्याकरण :3-137), चयनिका [ 91 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुजमारणा (मुज्जमारण) व कर्म 1/2 पनि ते (त) 1/2 सवि दएं (खुद्दम)। स्वार्षिक 'म' 711 वि जीविए। (जीविम) 7/1 पण्यमारपा (पच्चमारण) व कर्म 1/2 मनि एपोवमा [(एम) + (उवमा)] [(एम) - (उवमा) 111] कामगुणा [(फाम)-(गुण) 1/2] विवागे (वियाग) 711 93. धबलस्स' (चवस्तु) 6/1 स्वं (स्व) 1/1 गहगं (गहण) 111 पयंति: (वय) व 3/2 सक तं (अ) वाक्य की शोभा रागहे [(राग)-(हेउ) 2/1] तु (प) = पादपूरक मण न्नमाहु [(मन्नं) + (माहु)] मण न्नं (मणुन्न) 2/1 वि पाहु (पाह)] भू 312 सक पनि तं (प) वाक्य को शोभा दोसहेलं [(दोस)(हेउ) 211] प्रमरण न्नमाहु [(पमणुन्न) । (माह)] प्रमए न्नं (प्रमणन्न) 2/1 माह' (पाह)भू 312 सक पनि समो(सम)1/1 यि उ (म)=किन्तु जो (न) 1/1 सवि तेसु (त) 712 स स (त) 1/1 सवि वीयरागो (वीयराग) 1/1 दि 94. क्वेसु (ब) 712 जो (ज) 1/1 सवि गेहिमुवेइ [(गेहि)+ (उवेइ)] गेहि (गेहि) 2/1 ग्वेद (उवे) व 3/1 सक तिव्वं (तिव्वं) 2/1 वि अकालियं (मकालिय) 2/1 वि पावह (पाय) व 3/1 सक से (त) 1/1 सवि विणासं (विणास) 2/1 रागाउरे [(राग)+ (माउरे)] [(राग)-(प्राउर) 1/1 वि] जह (म) -जैसे वा (म) तथा पयंगे (पयंग) 1/1मलोगलोले [(मलोग) 1. कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी रिमक्ति का प्रयोग पाया बावा है। (हेम प्राकृत व्याकरण :3-133) 2. कभी कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर पष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया बाता । (हेम प्राकृत माकरण : 3-135) 3, यहाँ बवंमान काम का प्रयोग भूतकाम पर्व में हुमा है। 4. पिसमः प्राकृत भाषापों का व्याकरण, पृष, 755 92 ] उत्तराध्ययन Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (लोल) 1/1 वि] समुबेइ (समुबे) व 3 / 1 सक म ( मच्चु ) 2 / 1 95. भावे 1 (भाव) 7/1 बिरतो ( विरस ) 1 / 1 वि मणुभो ( मणुम ) 1/1 fæaint (fareita) 1/1 fa ggu (ga) 3/1 afa लोधपरंपरेण [ ( दुक्स) + (मोघ) + (परंपरेण ) ] [ ( दुक्ख ) - (घ) - ( परंपर) 3 / 1] न ( प्र ) = नहीं लिप्पई (लिप्पइ) व कर्म 3/1 तक प्रति भवमज्भे [ ( भव) - (मज्झ) 7/1] वि (प्र) = भी संतो (संत) 1 / 1 वि जलेग (जल) 3 / 1 बा (प्र) = जैसे कि रिलीपलासं [ ( पुक्खरिणी) - ( पलास ) 1 / 1 ] 1 (हउ) 1/1 96. एविदित्था [ (एव) + (इंदिय) + (प्रत्या ) ] एव ( प्र ) = वास्तव [ (इन्दिय) - ( प ) 1/2] य (अ) श्रौर मणस्स (मण ) 6 / 1 अत्था ( प्रत्य ) 1/2 दुक्खस्स ( दुक्ख ) 6 / 1 हे म यस ( मरण. य) 4 / 1 रागिणो ( रागि) 4 / 1 सवि चैव (प्र) भी पोवं (थोव) 2 / 1 वि पि (प्र) = कभी तुमखं ( दुक्ख ) 2 / 1 न ( प्र ) = नहीं बीयरागस्स ( वीयराग ) 4 / 1 करेंति (कर) व 3 / 2 सक किंचि (प्र) = कुछ. ते (त) 1/2 : (प्र) भी कयाइ = 97. न ( प्र ) = नहीं कामभोगा [ (काम) - (भोग) 8 5/1] समयं (समय) 2/1 उति ( उवे) व 3 / 2 सक यावि (प्र) = मोर भोगा (भोग* ) 5 / 1 विगई ( विगs) 2 / 1 जे (ज) 1 / 1 सवि तप्पदोसी [ ( त ) - 1. कभी कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-136) 2. धन्य को मात्रा की पूर्ति हेतु 'इ' को 'ई' किया गया है। 3. किसी कार्य का कारण व्यक्त करने के लिए संज्ञा को तृतीया या पंचमी में - सबा जाता है। चयनिका 93 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (प्पदोसि) 1/1 वि] ' (म) =ोर परिग्गही (परिह) 11 वि य (4)=ोर सो (त) 1/1 सवि तेसु (त) 7:2 म मोहा (मोह) 5/1 उवेति (उये) व 3/1 सक 98. विराजमारपस्स (विरज्ज) व 4/1 प (म)= पोर इंदियरमा [(इन्दिय) + (प्रत्या)] [(इन्दिय)-(प्रत्य) 1/21 सद्दाइया [(सद्द) + (माइया)] [(सद्द)-(पाइय) 112 स्वार्षिक 'य'] सावइयप्पपारा [(तावइय) वि-(प्पयार) 1/2] न (म)=नही सस्स (त) 4/1 स सम्वे (सम्व) 1/2 वि वि (म)=ही मण न्नयं (मण न्नया) 2/1 पा ()-या निव्वतयंती (निम्वतयंती) व 3/2 सक पनि प्रमण लयं (प्रमण नया) 211 वा (प्र)या. 99. सिवान (सिट) 412 नमो (4)=नमस्कार किया (किच्चा) संक पनि संबयाग (संजय) 4/2 वि ब (म)==ोर भावमो (भाव) पंचमी मयंक 'सो' प्रत्यय प्रस्पषम्मगई [(पत्य)-(धम्म) -(गइ) 2/1] तच्चं (तच्च-स्त्री + तच्चा) 2|| वि मग सहि (पण सट्ठि) 2/1 सुमेह (सुण) विधि 212 सक मे(भम्ह) 3/1स 100. पपरयणो(पभूयरयण)1/1रािया (गय)1/1 सेरिगप्रो(सेणिम) 1/1 मगहाहियो [(मगह) + (पहिवो)] [(मगह)-(महिव) 1. वाक्यांश को बोड़ने के लिए 'मोर' सूपक मध्यमों का प्रयोग दो बार कर दिया बाता है। 2. धन्द की माता की पूर्ति हेतु "fe' को 'यो' किया गया है। 3. 'नमो के योग में चतुपी होती है। 94 ] उत्तराध्ययन Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11J विहारस्तं (विहारजस) 211 निजामो (निज्जाम) भूक 111 पनि मंसिकुच्छिसि (मण्डिकुच्छ) 7/1 चेहए (चइ24)7/i. 101. माणादुमलयाइएणं [(नारणा)-(दुम)-(लया)-(इण्ण) भूक 1/1 भनि] नागापक्षिनिसेवियं [(नाणा)-(पक्खि)-(निसेविय) भूक 1/1 पनि] नाणाकुसुमसंपन्न [(नारणा)-(कुसुम)-(सं-छन्न) भूक 1/1 प्रनि] उज्जाणं (उज्जा) 11 नंबणोषम (नन्दण)* (उपमं)] [नन्दरा)- (उवम) I|| वि] 102. तत्य (प्र):- यहां सो (त) 1/1 सवि पासई (पास) व 3/1 सक साहुं (साहु) 211 संगयं (संजय) भूकृ 2/1 अनि सुसमाहियं (सु-समाहिय) भूक 1/1 प्रनि निसन्नं (निसन्न) भूक 1/1 भनि सरखमूलम्मि [(रुख)-(मूल) 711) सुकुमाल (सुकुमाल) 21 वि. सुहोर (मुह) + (उदय)] [(मुह)-(उदय) भूक 2/1 अनि] 103. तस्स (न) 6/1 स स्वं (व) 2/1 तु (म)= और पासिता (पास) संकृ राइणो (राप)6/1 सम्मि (त) 7/1 स पश्चंतपरमो [(पच्चंत) वि-(पस्म) 111 वि] प्रासी (प्रस) भू 3/1 प्रतुलो (प्रतुन) 11 दिल्यविम्हमो [(स्य)-(विम्हप्र)1/1] 1. 'गमन भयं में भूतकालिक फुदन्त कवाय में प्रयुक्त हुमा है। 2. कमी-कमी सप्तमी का प्रयोग द्वितीया के स्थान पर पाया जाता है (हेम-प्राकृत व्याकरण: 3-135) । 3. समास के प्रारम्भ में विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है (पाप्टे : संत हिन्दो-प्रोय) 4. समान अन्त में इसका पपं होता के समान' (पाप्टे : संस्कृत हिन्दी को)। 5. छन्द की माता के लिए को ''या गया। वर्तमान का प्रयोग भूतकास पर्व में हमा है। चयनिका [ 95 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104. महो (म)-माश्चर्य वाणो (वण्ण) 1|| स्वं (रूव) 11 प्रज्जस्स (पज्ज) 6/1 सोमया (सोमया) 1/1 खंती (खंति) 11 मुत्तो (मुत्ति) 1/1 भोगे (भोग) 7/1 प्रसंगया (प्रसंगमा) 1/1 105. तस्स (त) 6/1 स पाए (पान) 7/13 (म)=ोर वंदित्ता (वंद) संकृ कामरण (काऊप) संक पनि य (म) तथा पयाहिणं (पयाहिणा) 2/1 नाइदूरमणासन्ने [(नाइदूरं) + (पणासन्ने)] नाइदूरं (भ) =न भत्यधिक दूरी पर प्रणासन्ने (मरणासन्न) 7/1 पंजली (पंजलि) 1/1 वि परिपुच्छई' (पडिपुच्छ) व 3/! सक. 106. तो (तरुण) 1/1 सि (प्रस) व 2/1 प्रक प्रज्जो (प्रज्ज) 8/1] पश्याप्रो (पध्वइम) भूक 1/1 प्रनि भोगकाल म्मि [(भोग) -(काल) 7/1] संजया (संजय) 8/1 उटिनो (उद्धिष) भूक 1/1 पनि सामाणे (सामण्ण) 711 एपम? [(एय) 4 (8)] एवं (एय) 2/1 सवि अट्ठ (मट्ट) 2/1 सुरोमु (सुण) व II सक ता (म)-तो 107. प्रणाहो (प्रणाह) 1/1 वि मि (अस) R 1/! अक महारायं (माराय) 8/1 नाहो (नाह) 11 वि मज्झ (अम्ह) 6/1 स न (भ)नहीं विज्जई (विज्ज) व 3/1 प्रक प्रण कंपगं (पण कंपग) I/I वि मुहि (मुहि) 2/1 वा (प्र)=या वि (प्र) =भी कंचो (क) 2|| नाभिसमेमऽहं (न) + (अभिसमेम) + (मह)] न (प)==नहीं अभिसमेम (मभिसमे) व 112 सक महं (प्रम्ह) 1/1स - 1. पूरी गापा के अन्त में पाने वालो का क्रियामों में बहुपा हो जाता है (पिशन : प्रारत भाषामो का म्याकरण. पृष्ठं 138) 2. किम् +चित-कचित्{2/1)-कवि-कंची (माता के लिए दोपं) 96 ] उत्तराध्ययन Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 तम्रो (प्र) तत्र सी (न) 1/1 मनि पहसिप्रो (नहस ) भूक 1/1 राया (राय) 1 / 1 सेणिश्रो ( संशिम) 1 / 1 मगहाहियो [ ( मगह) + (हिवो ) ] [ ( मगह ) - ( अहिव) 1 / 1] एवं == एव (भ) = जैसे ते ( तुम्ह ) 4 / 1 स इडिटमंतस्स (इनिमंत) 4 / 1 वि कहं (भ) = = कैसे नाही (नाह) 1 / 1 न ( प्र ) :- नहीं विज्जई (विज्ज) व 31 अक.. 109. होमि (हो) व 1/1 अक नाहो (नाह) 1 / 1 भयंताणं (भयत ) 4/2 वि भोगे (भोगे) 2/2 भुजाहि (भुंज) विधि 2 / 1 सक संजया (संजया) 8 / 1 मित्त-नाईपरिवुड [ ( मित्त) - (नाई ) 2 - ( परिवुड) भूकृ 1 || प्रनि] मारणस्तं ( माणुस्स ) 1 / 1 खु (प्र) = सचमुच सुदुल्लाह [ ( सु- (दुल्लह) 1/1 दि] 110. प्रप्परगा (प्र) = स्वयं वि सि (प्रस) व 2 / 1 [ ( मगह ) + (ग्रहिया ) | | ( मगह ) (संत) वकृ 1 / 1 अनि क्जस (क ) भविसामि (भव 2 / 1 प्रक प्रणाही ( अ ) == ही ग्रक सेलिया (सेगिम) ( मरणाह ) 1/1 8 / 1 मगहाहियो ( प्रहित) 8 / 1 ] संतो 611 नाहो ( नाह) 1/1 111. एवं (अ) इस प्रकार वृत्तो (वृत्त) मूह 1 / 1 ग्रनि नरिबो (नरिख) 1 / 1सो (त) 1 / 1 सवि सुसंभंतो [(सु) (प्र) - (संभत) भूकृ 1/1 fr] सुविहो [ (सु) ( ) - ( विहिम) भूकृ 1 / 1 अनि ] वयर 1. मनुस्वार का भागम (हेम-प्राकृत-व्याकरण, 1-26) 1 2. समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर परस्पर में दोध के स्थान पर रहस्य हो जाया करते है (हेम-प्राकृत व्याकरण : 1-4) | 3. (प्रस्वकृ + सत्स+संत चयनिका संतो ) । [ 97 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वयण) 2/1 असुयपुष्वं (पसुयपुथ्व) 2/1 वि साहुणा (साहु) 3/1 विम्हयान्नितो [(विम्हय) + (प्रन्नितो)] [(विम्हय(अन्नित) भूक 111 पनि] 112. अस्सा (मस्स) 112 हत्पी (हरिय) 1/2 मण स्सा (मणुस्स) 112 मे (पम्ह) 6/1 स पुरं (पुर) 1/1 प्रतेउरं (प्रतेउर) 1/1 प (म)=मोर जामि (मज) व 1/1 सक (मापसे) (माणुस) 212 वि भोए (भोम) 212 प्राणा (पाणा) 11 इस्सरियं (इस्सरिम) 11 113. एरिसे (एरिस)7/1 वि संपयग्गम्मि [(संपया) + (प्ररगम्मि)] [(संपया)-(पग्ग) 711] सव्वकामसमप्पिए [(सम्ब)-(काम) -(समप्प) भूक 1/1] कहं (म)=कैसे प्रगाहो (प्रणाह) 1/1 भबई (भव) व 3/1पक मा (प्र)=मत ह (प्र)=पादपूरक भंते (मंत) 5/1 वि मुसं (मुसा) 211 वए (व म) 7/1 114. न (म)-नहीं तुम (तुम्ह) 111 स जाणे। (जाग) व 1/1 सक परगाहस्स (मणाह) 6/1 भत्यं (प्रत्य) 2/1 पोत्यं (पोत्य) 2/1 व (म)=ोर पस्थिवा (पत्यिव) 8/1 जहा (प्र) जैसे प्रणाहो (पणाह) 1/1 भवइ (भव) व 3/1 भक सपाहो (सणाह) 1/1 पा (म)=या नराहिया (नराहिव) 8/1 115. पुणेह (सुण) विधि 212 सक मे (अम्ह) 3/1 स महाराज (महाराय) 3/1 अवस्मितेरण (मन्वक्खित्त) 3/1 वि चेयसा 1. पिराम, प्राकृत भाषामों का व्याकरण, पृष्ठ, 676. 2. पावर सूचक में बहुवचन होता है। 3. मनुस्वार का मागम हुमा है (हेम-पात भ्याकरण, 1-26)। 98 ] उत्तराध्ययन Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (चेय) 3/1 महा (म)=जैसे प्रणाहो (मरणाह) 1.! भवति (भव) व 3/1 प्रक मे (प्रम्ह) 3/1 स य (अ)= पादपूरक पवत्तिर्ग (पवत्तिय) भूक / अनि 116. कोसंबी (कोसंबी) 1/1 नाम (म)= नामक नयरी (नयरी) 1/1 पुराणपुरमेयणी [(पुराण)-(पुर)-(भेयण स्त्री-भयणी) 1/1] तत्य (प)--वहां प्रासी (प्रस) भू 3/1 अक पिया (पिउ) 1/1 मझ (मम्ह) 6/1 स पभूयमणसममो [(पभूय) वि-(घण)(संचन) 1/1] 117. परमे (पढम) 7/1 वि वए (वन) 7/1 महाराय (महाराय) 81 अतुला (अतुल स्त्री- अतुला) 111 वि मे (अम्ह) 6/1 स पच्छिवेयरणा [(च्छि)-(वेयणा) 1/1] महोत्या (महोत्थ स्त्री-महोत्था) 1/1 वि विठलो (विउल) 1/1 वि हो (दाह) 111 सम्वगतेसु [(सम्व) वि- (गत) 712] परिपवा (पस्थिव) 8/1 118. सत्यं (सत्य) 2/1 नहा (म)-जैसे परमतिम [(परम) वि (तिक्स) 2/1 वि सरीरवियरंतरे (सरीर) + (वियर) + (मन्तरे)] [(सरीर)-(वियर)-(प्रन्तर) 7/1] पविसेज्जा (पविस) व 3/1 सक (यहाँ पाठ होना चाहिए पवेसेज्ज (पविस प्रे-पवेस)व प्रे3/1 सक) परी (अरि)1/1 कुटो (कुल)1/1वि एवं (म)=उसी प्रकार मे (अम्ह) 6/1 स भन्टिवेयपा [(पच्छि )-(वेयणा) 1/1] 1. अनुसार का पागम हुमाई (प्राव म्याकरण, 1-2601 पयनिका [ 99 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. तियं (तियं) ।।। मे (अम्ह) 611 स अंतरिच्छं (अंतरिच्छ) 2/1 व (य)-और उत्तमंग (उत्तमंग) 2/17 (य)-नया पोरई (पीड) 4 3/1 मक इंदासविसमा [(इंद)+(असणि) + (समा)] [(इंद)-(प्रसारिण)-(सम स्त्री--समा) 111 वि] घोरा (घोर-घोरा) !!! वि वेपला (वेयणा) 1|| परमवारसा [(परम) वि-दारुण+दारुण) 111 वि] 120. उवटिपा (उवट्टिय) भूक 1/2 अनि मे (अम्ह) 6/1 स प्रारिया (प्रायरिया) 1/2 विग्जामंतचिगिन्छगा [(विज्जा)- (मंत)(चिगिच्छग) 1/2] अबीया (प्र-योय) 1/2 वि सरथकुसला [(सत्य) -(कुसल) 1/2 वि] मंत-मूलविसारया [(मंत)- (मूल)(विसारय) 1/2 वि] 121. ते (स) 1/2 म मे (अम्ह) 6/1 स तिगिच्छं (तिगिच्छा) 2/1 कुव्यवंति (कुम्व) व 312 सक चाउप्पायं (चाउप्पाय) 211 वि जहाहियं (जहाहिय) 2/1 वि न नहीं य (प्र) = किन्तु दुक्खा (दुक्ख)511 विमोयंति (विमोय) व 3/2 सर एसा (एत) 111 सवि मज्झ (पम्ह) 6/1 प्रणाहया (अपाहया) 1/1. 1. तिय (विक)-कमर [Monier Williams: Sana. Eng Dict.] 2. 'पाकार मोर पृथ्वी के बीच का मध्यवर्ती प्रदेन (कटि और मस्तिष्क के बीच का हिस्सा) . 3. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया का प्रयोग पाया जाता है (हेम-प्राकृत- याकरण, 3-137)। 4.पूरी या मापी के गाया के अन्त में पाने वाली 'इ' का क्रियामों में वहुधा 'ई' ही - जाता है (पिशल प्राकृत भाषामों का व्याकरण, पृष्ठ, 138) । 100 ] उत्तराध्ययन Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122. पिया ( पिउ) 1 / 1 मे (प्रभु) 6 / 1 म सम्वसारं [ ( सव्व) वि(सार) 2/1] पि ( प्र ) == भी बेज्जाहि' (दा) विधि 2 / 1 मम ( ग्रम्ह ) 6/1 स काररणा ( कारण ) 5 / 1 शेष के लिए देखें 121 सक 123. माया (माया) 1/1 वि (प्र) = भी मे (मम्ह ) 6/1 स महाराय ( महाराय ) 8 / 1 पुत्तसोगबुहऽट्टिया [ ( पुत्त ) - (सोग ) - (दुह ) ट्टिया ) 1 / 1 वि] शेष के लिए देखें 121. 124. भायरो (भार) 1/1 मे (ग्रह) 6/1 म महाराय (महाराय ) 8 / 1 सगा (सग ) 1/2 जेटु-करिणट्टगा ( (जेडु) - (करिणट्टग ) 1/2 वि 'ग' स्वार्थिक] शेष के लिए देखें 121. 125. भहणोश्रो (भाइणी ) 1/2 मे (ब्रम्ह ) 6 / 1 स महाराय (महाराय ) 8/1 सगा (सग ) 1/2 वि जेटू-फलिहूगा [ ( जेट्ट- (करिणट्ठग) 1/2 वि 'ग' स्वार्थिक] शेप के लिए देखें 121 1 126. भारिया (भारिया ) 1 / 1 मे (भ्रम्ह ) 6 / 1 स महाराय (महाराय ) 8/1 अरण रता (प्रणुरत स्त्री सुरता ) 1/1 वि भरव्यया (श्रणुव्वया) 11 सुपुण्ोहि [ (अंसु )- (पुण्ण) भूकृ 3 / 2 मनि ] नमोह (नया) 312 वरं (तर) परिसिचाई 3 (परिसिंच) व 3 / 1 सर 1. (हेम-प्राकृत व्याकरण: 3-178) sen 2. सगा (स्वका ) = मित्र या परिवार के लोग (Mon English Dictionary) 3. पूरी गाथा के ग्रग्न में माने वाली '६' का क्रियाशी (पिशन प्राकृत भाषामों का व्याकरण, पृष्ठ 138, चयनिका [ 101 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 127. मन्नं (मन्न) 2/1 पाएं (पारण) 2/10 (म)=ोर हाणं (व्हाण) 211 गंप-मल्लविलेवएं [(गंध)-(मल्ल)-(विलवण) 21 मए (पम्ह) 3/1 स पापमणापं [(गाय) + (मरणापं)] रणायं (णाय मूक 1/1 मनि मणायं (प्रणाय) मूक 1/1 पनि वा (म)प्रपया सा (सा) 1/I सवि बाला (बाला) 1/1 नोवमुंबई [(न) + (उपमुंजई)] न (म) सबमुंजई 1 (उवमुंज) व 3/1 128. वरणं (4)-एक क्षण के लिए पि (4)= भी मे (पम्ह) 6/1 स महाराय (महाराय) 8/1 पासापो (पास) 5/1 वि (म)=ही न (म)=नहीं पिट्टई । (फिट्ट) व 3/1 क य (म)=फिर भी दुक्ला (दुक्ख) 5/1 विमोएइ (विमोम) व 3/1 सक एसा (एता) 1/1 सवि मग्म (मम्ह) 6/1 स प्रणाहया (मरणाहया) 1/1 129. समो (म)=तब हं (भम्ह) 1/1 स एवमाहंसु [(एवं)+ (पासु)] एवं (म)-इस प्रकार मासु (माह) भू 1/1 सक सुक्समा (दुक्समा) 1/1 वि ह (म)=निश्चय ही पुरणो पुरणो (म)-बार बार बेपणा (वयपा) 1/1 मरण भवितं (मण भव) संक (म)-पादपूर्ति संसारम्मि ( ) संसार 711 मगन्तए (पणंतप) 11 दि 130. सई (प)-तुरन्त प (म)=ही ना यदि मुहिम्ना (मुश्चिज्जा) विषि कर्म 1/1 सक मनि वेयरणा (वेयण) 511 विउला (विउल) 511 वि इमो (म)= इससे संतो (खंत) 111 वि बंतो (दंत) 1/1 वि निरारंभो. (निरारंभ) 1/1 वि पम्बए (पम्वम) 7/1 मणगारियं(परणगारिय) 2/1 वि 1. देगाषा 126 2. (पिसलः प्राकृत भाषामों का भ्याकरण- पृष्ठ 157) - . कभी कभी सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है हिम-प्राकृत व्याकरण: 3-137) 102 ] उत्तराध्ययन Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 131. एवं (अ) इस प्रकार च (प्र) ही चितइत्ताणं (चित) संकु पासुतो ( पासुत) मूक 1 / 1 अनि मि (प्रस) व 1 / 1 अक नराहिबा ( नराहिव ) 8 / 1 परियततीए (परित+वक परियतत स्त्री परियतती) व 7/1 राईए (राई) 7/1 बेला (वेयरणा ) 1 / 1 मे (ग्रह) 6 / 1 स खयं (वय) 2 / 1 गया ( गय+ गया) भूक 1 / 1 अनि 132. तो ( प्र ) == तब कल्ले ( कल्ल) 1 / 1 वि पभायम्मि (पशाय) 7/1 प्रापुच्छितारण ( प्रापुच्छ) संकृ बंधवे (बंभवे ) 2/2 संतो ( खंत) 1 / 1 वि दंतो ( दत) 1 / 1 बि निरारंभी (निरारंभ ) 1/1 वि पव्वइम्रो ( पव्वइन) भूकू 1 / 1 अनि अरणगारियं (अरणगारिय) 2/1 fa 133. तो (प्र) = इसलिए हं (प्रम्ह ) 1 / 1 स नाही (नाह) (जाम) भूकृ 1 / 1 अनि अप्पणी (ग्रप्प) 6 / 1 वि य परस्स ( पर) 6/1 विम ( अ ) भी सव्वेंस ( सन्न) चैव (प्र) ही भूधारणं (भूय) 6 / तसारणं ( तस ) 6 / 2 थावराण ( पावर) 6/2 य (भ) =भोर 1 1/1 जामो (x) भीर 6 / 2 वि 134. अप्पा 1 / 1 नवी (नदी) 1/1 वेयरणी (वेयरणी ) मे (प्रम्ह ) 4 / 1 स कूडसामली (कूडसामलि) 1 / 1 कामदुहा (कामदुहा) 1 / 1 घे (घेण.) 1/1 नंदणं (नंदा) 1 / 1 वर (वण) 1/1 वि • 1. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-137) aafoet [ 103 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 135. प्रप्पा ( मप्प ) 1/1 कता (कसु) 1/1 वि विकता ( विकत ) 1 / 1 विय (प्र) = भी दुक्खाण ( दुक्ख ) 6/2 य (प्र) श्र सुहारण ( सुह) 6/2 य (प्र) तथा मितममितं [ ( मित्त) : (प्रमितं )] मितं (मित) 1 / 1 प्रमितं ( प्रमिस ) 1/1 ( अ ) मौर तुम्पट्ठियप्पाट्ठियो [ ( दुष्पट्टिय) - (मुपट्टिद्म ) 11 वि ) ] 136. इमा (इमा ) 1 / 1 मवि ह (भ) =भी अन्ना (अन्न) 1 / 1 विवि (घ) = ही भरगाहया ( मरणाहया ) 1/1 निवा ( निवा) 8:1 समेगवितो [ ( तं) + (एम) + चित्तो) तं (त) 211 [ (एम) - (चित्त) ] 1 / 1 निहुम्रो ( निहुम) 1 / 1 वि सुरोह (सुग) विधि 2 / 1 सक मे (प्रम्ह ) 3 / 1 स नियंठधम्मं (नियंठधम्म, 2/1 समिया (लभ) संकृ वी (प) =भी जहा (प्र) = चू ंकि सीमंति ( सीय) व 3 / 2 एक एगे (एग ) 1/2 सवि बहुकायरा [ ( बहु ) - (फायर) 1/2 वि] नरा (नर) 1/2 C 137. जे (ज) 1/1 सवि - पहम्बइत्ताणं ( पव्वम) संकृ महम्वयाई ( महल्वय) 2/2 सम्मं ( प ) = उचितरूप से नो ( प्र ) = नही कासमती 1 (फासमती) व 3 / 1 सक अनि पमाया : ( पमाय) 5/1 निगहया [ (प्रनिग्गह) + (प्रप्पा ) ] [ ( मनिग्गह - ( मप्प ) 1 / 1] य (भ) = मोर रसेसु (रस) 7/2 गिद्धे (गिद्ध ) भूकृ 1 / 1 अनि न (म) नहीं मूलग्रो (मूल) पंचमी मर्थक 'प्रो' प्रत्यय विह (छिद) व 3/1 सक बंधणं (बंधरण) 2/1 से (त) 1 / 1 सवि 1. अब की मात्रा की पूर्ति हेतु दोघं किया गया है। 2. किसी कार्य का कारण व्यक्त करने के लिए संज्ञा को तृतीया या पंचमी में रक्खा जाता है। 104 ] उत्तराध्ययन Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138. पाउत्तया (माउत्तया) 1|| जस्स (ज) 611 स य (श्र) ... भी नस्थि (म)=नहीं काई (का) 111 मवि इरियाए (रिया) 7|| भासाए (भासा) 1|| तहेसगाए नहेसणाए [(तह)+ ((एसणाए)] तह (म) = तथा एसणाए (एसरणा) 711 मायारणनिक्लेव [(प्रायाण)-(निक्खेत्र) मूलशन्द 7/1] दुगुंथणाए (दुगुचणा) 711 न (म)= नही वीरजायं [(वीर)-(जाय) भूक 2/1 पनि] प्रण जाइ (प्रण जा) 3/1 सक मग्गं (मग्ग) 211 139. चिरं (ऋविन)= दीर्घ काल तक पि (म)=से (त) I/I सवि. मुंगकर्म [(मुंड)-(इ) 1/1 वि] भविता (भव) संकृ पपिरग्बए [(पथिर) वि-(वन) 7/19 तव-नियमेहि [(तब)(नियम) 312] भट्ट (भट्ट) भूक ||| अनि प्रपाण (अप्पाण) मूल शब्द 2|| किसइत्ता (किलेस) संकृ न (म)=नहीं पारए (पारम) 111 वि होई (हो) व 3/1 क ह (म)=पादपूरक संपराए (मप गय) 7/1 140. पोल्लेब [(पोल्ल) + (एव)] पोल्ल (पोल्ल) मूल मन्द 111 वि मुट्ठी (मुट्टि) ।। जह (प्र) की तरह से (त) 1/! सवि अंसारे (मसार) 1/1 वि अयंतीए (अयंतीम) 1/1 वि कूरकहावणे [(कूड)-(कहा वरण) 1/1] वा (म)=की नरह राढामणी 1. कभी कभी 'दीर्घ कर दिया जाता है। 2. समास के मन्त में इसका अर्थ होता है 'संमग्न' (माप्टे : संस्कृत हिन्दी कोज) । 3. कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रमोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरण :3-136) चयनिका [ 105 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (राठामणि) । बेलिपप्पकासे [(बंगलिय)-(प्पगास) 11 वि] प्रमहम्पए (प्र-महाघम) 1/1 वि स्वाधिक 'प्र' होइ (हो) 3/1 प्रकह (म)= पादपूरक जाणएमु (जाणम) 712 141. कुसोलिगं [ (कुसील)-(लिंग) 211 ह (म)= इस लोक में पारदत्ता (धार) संकृ. इसिग्भय [(मि)-(झप) 2|| जीविय (जीविय) मूल शब्द ?Iबिहाता-बिहात्ता (बिह) संक प्रसंजए 1 प्रसंजप) भूक)। अनि संजय (संजय) मन शन्द कृ2/1 पनि सप्पमाणे (लप्प ) वक्र II विरिणघायमागण्या [(विणिधायं+ (पागन्छा), विणियार्य (विणिपाय) 21 प्रागण्या (प्रागच्छ) व 3/1 सक से (त) 1|| मवि घिरं (प्र) दीर्घ काल तक पि (प) = भी 142. विसं (विस) 1|| तु (अ):- और पीयं (पीय) भूक ||| अनि जह (प्र) जैसे कि कासकर (कालकूड) 111 हवाइ (हरण) व 3/1 सक सरपं (सत्थं) 1|| मह (प्र)- जैसे कि कुग्गिहीयं (कुग्गिहीय) भूक I|| एसेब [(एस) + (a)] एस (त) 1/1 सवि एक (म)-वैसे ही पम्मो (धम्म) I|| विसमोववन्नो [(विसम) + (उववन्नो)] [(विसम)-(उववन्न) भूक 1/1 अनि] बेपाल (वयाल) मूल शब्द 1/1 इवाविवन्नो,(इव) + (अविवन्नो) इब (प)-जैसे कि प्रविवन्नो (म-विवन्न) मूक 1/1 पनि 1. कमी कमी रितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी बिभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-म्याकरण: 3-135) 2. कभी कभी मकारान्त पातु के मन्यस्प' के स्थान पर 'मा' की प्राप्ति पाई बाती है हिम-प्राकृत-व्याकरण, 3-158)। 106) उत्तराध्ययन Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 143. जे (म) 1/1 मवि लक्खरणं (लक्खरण) 2/1 सुविणं (विरण) 211 पजमारणे (पउंज) वकृ. 1/1 निमित्त-कोहलसंपगाढे [(निमित्त-(कोउहल) - (संपगाढ) 1/1 वि कुहेरविरजासबदार जोबो (कुहेड)+ विज्जा) + (मासव) + (दार) + (जीवी)] [(कुहेड-(विज्जा)-(प्रासव-(दार)- (जीवि) 11 वि] न (म)= नहीं गई । (गच्छ) व 3/1 सक सरणं (मरण) 2|| तम्मि (त) 711 म काले (काल) 711 144 तमं । (नम) तमेणेव [(तमेण) + (एव)] तमेण (तम) 3/1 एव (अ)= ही उ (4)= मोर जे (ज) 1|| सवि प्रसोले (मसील) वि सपा (अ) =सदा दुही (दुहि) I|| वि विपरियासुवेई [(विप्परियास)+ (वेई) विपरियास (विप्परियास) मूल शब्द 2|| उवई ३ (वे) व 3/1 सक संघावई । (म-धाव) व 311 सक नरग-तिरिक्खजोरिण [(नगर)-(तिरिक्ख)-(जोणि) 2/1 मोरणं (मोए) 211 विराहेत (विगह) म प्रसाहवे। [(प्रसाह)(स्व) 111 वि] 1. बन्द की मात्रा के लिए ' को किया गया है। 2. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हेम-प्राकृत-भ्याकरण : 3-137)। 3. पूरी या माषी गाया के अन्त में माने बालो '' का क्रियामों में बहया '' हो जाता है (पिलम, प्राकृत भाषामों का व्याकरण, पृष्ठ, 138) । 4. सन्द की मात्रा को पूर्ति हेतु 'द' को किया गया है। 5. समास के अन्त के रूप-रूव का अर्थ होता है 'बना हुआ' (माप्टे संस्कृत-हिन्दी कोश)। चयनिका [ 107 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 145. न (प्र)नही तं (न) 211 मवि प्रगे (प्रति || कंठयेता [(कंठ-छेत्त.) 111 वि] करे (कर) व 3/16 (1) 11 सवि से (प्र-वाक्य की गांभा करे (कर) व 3/2 मक प्रप्पणिया (पणिय) 1/2 विदुरप्पा (दुग्ण) 1/2 से (त) 1/1 मवि पाहि: । (सा) भवि 3/1 मम मन्चमुह [(मच्चु)- (मह) 211 तु (प्र) : पादपति पत्ते (पत्त) ना || अनि पन्यारए तावरण (पच्छारण ताव) 311 दयाविहगो (दया-(विहण) ।।। वि] 146. तुट्ठो (न) भूक 111 अनि य (म) - बिल्कुल सैणिपो (सेरिणम) 1|| राया (राम) 1 इणमुदाह [(इग) + (उदाहु)] इस (इम) 1/2 मवि उदाहु (उदाहु) भू 3/1 सक भनि कपंनती किय) : (पंजली]] [ (कय) भूक प्रनि-(अंजलि 2/2] प्रणाहतं (प्रणाहत्त) ।/। जहाभूयं (म) = यथार्थतः सुठ्ठ (प)-प्रच्छी . नरह से मे (प्रम्ह) 311 म उवदंसियं । उवदंम) मूक 11 . 147. तुझ2 (तुम्ह) 612 म मुलवं (मु-लद) मूह 111 अनि ख (अ) - मचमुन मरण स्सजम्मं [(मण स्म)-(जम्म) 111] लाभा भाभ) । सुलढा (सु-लद) मूक 112 मनि य (म) तथा तुमे (तुम्ड) 3/1 म महेसी (महेसि) 8/1 तुम्ने (तुम्हे) 112 म सणाहा (मणाह) 112 य (मा). =ोर सबन्धवा (म-बन्धव) 1/2 वि जं (प)---चूकि मे (तुम्ह) ठिया (ठिय) मूक 112 अनि मरगे (मरग) 7/1 जिए तमाणं [(मिण)-(उत्तम) 3612 - 1. छन्द को माता की पूति हेतु '' को '६ किया गया है। 2. कभी कभी तृतीया के स्थान पर पप्ठी को प्रयोग पाया जाता है । (हमा. प्राकृत-कारण, 3-134) 3. कभी कमी पष्ठी का प्रयोग मप्तमो के स्पान पर पाया जाता है। (हेमा प्राकुन-कारण, 3-134)। 108 ] उत्तराध्ययन Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148. तं (तुम्ह) । । मसि (प्रम) 211 प्रक नाहो (नाह) 111 भरणाहाणं (पहाण) 612 सध्यमूयाण [(सम्व) वि-(भूय) 612] मंजया (संजय) 8/1 खाममि (खाम) व 111 सक ते (तुम्ह) 3/1 स महाभाग (महाभाग) 8/1 दि इयमि (इच्छा) 1/1 सक पण मामि । (प्रण सास) हक (कर्मवाच्य) 149. पुच्छिकरण (पृच्च) संक मए (पम्ह) 3/1 म तुम्भं (तुम्ह) 611 म झारणविग्यो [(झाण)-(विग्ध1/1] उ (प्र)=तो जो (ज) 111 गांव कमो (कम) भूक 1/1 पनि निमंतिया (निमंत) भूक 1/14 (4) और भोगेहि २(भोग)3/26 (त) 211 सनि. सम्ब (मन्व) 2/1 वि मरिसेहि (मरिस). विषि 21 अक मे (पम्ह) 311 स 150. एवं (अ) = इस प्रकार युणिताण (ण) संकृ स (त) 111 सवि गयसीहो (राय)-(मोह) 1/1] प्रणगारसीहं [(मरणगार) स्त्री (मोह) 211] परमाए (परम-+परमा) 3/1 भत्तिए - (भत्ति) 3/1 सपोरोहो (स-पोरोह) F/1 सपरिजपो (स-परिजरण)1/1 य (अ) और थम्मा रतो [ (धम्म) + (प्रणरतो)] [(धम्म) 1. 'इच्छा' के योग में का प्रयोग होता है । हेरु.काबाध्य पार माय का एक ही रूप होता है। 2. कभी-कभी मप्तमी विमति स्थान पर तृतीया रिभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हम-प्राक म्याकरण : 3-137) : .. 3. ममाम के अन्त में 'सोह' का प्रपं- होता है प्रमुख (पाट : संसात-हिन्दी कोल) 4. प्राकृत में fain. 'जुड़ते समय दीर्घ स्वर बहुपा कविता में हम हो जाते हैं (पिशन प्रानि भाषानी की व्याकरण, पृष्ठ 182) 1", "... चयनिका | 109 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( मरण. रत) 1 / 1 वि] बिमलेल (विमल) 311 चेयसा (चेय) 3/1. .. 151. ऊससियरोमको [ ( ऊससिय) वि (रामकूव ) 1/1] काऊण (काऊण) संकृ प्रनि. य (म) पादपूरक पाहिन (पर्यााहिए ) 2/1 प्रभिवंदिकण (प्रभिबंद) संकृ सिरसा (सिर) 3 / 1 प्रतिपाश्र ( प्रति - याम) भूक 1/1 धनि नराहिबो ( नराहिव ) 1/1 152. इसरो (इयर) 1 / 1 दिवि (प्र) = भी गुणसमिद्धो [(गुण) -- ( समिद्ध) भूक 1 / 1 प्रनि ] तिगुतिगुतो [ ( तिगुति ) - (गुत्त ) 1 / 1 वि] तियंडबिरनो [ (तिदंड) - (विरम) 1 / 1 वि] य (प्र) = मोर बिहग (बिहग ) मूलशब्द 1 / 1 इब (भ) = को तरह विपक्को (विप्पक्क) भूकृ 1 / 1 मनि विहरs (विहर) 3 / 1 सक बसु (वसुहा) 2/1 विग्यमोहो [ (विजय) भूकु प्रनि - ( मोह) 1/1] 1. अर्धमामषो में 'सा' प्ररमम जोड़ दिया जाता है । 110 ] उत्तराध्ययन Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन चयनिका एवं उत्तराध्ययन सूत्र क्रम उत्तराध्ययन सूत्र क्रम क्रम 2 पनिका उत्तराध्ययन क्रम सूत्र क्रम 19 117 20 118 21 119 चयनिका उराराध्ययन क्रम सूत्र क्रम 3 7 263 3 8 276 291 37 12 212 3 14 39 15 22 120 40 292 16 23 121 41 294 17 24 122 42 316 318 25 25 125 29 143 44 326 37 27 144 45 329 38 28 145 46 330 97 29 162 331 102 २७ 103 31 104 32 15 105 105 33 167 332 17249 351 21350 353 217 357 224 427 22553428 26254429 51 16 106 34 17 18 , 107 108 35 36 उत्तरल्झयगाई (उत्तराध्ययन सूत्र) (श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई) 1977 संपादक : मुनि श्री पृण्यविजयजी एवं श्री अमृतलाल मोहनलाल भोजक चयनिका Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमनिका उत्तराध्ययन क्रम सू कम 55 56. 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 112 1 430 437 454 455 456 465 466 468 480 481 483 494 485 695 904 909 991 992 993 1055 1110 चयनिका उत्तराध्ययन सूत्र क्रम क्रम 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 1118 1119 1125 1126 1127 1132 1147 1150 1181 1182 1236 1237 1241 1242 1246 1253 1254 1256 1258 1333 1334 aafter उत्तराध्यवन TH सूथ क्रम 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 1335 1340 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 उत्तराध्ययन Page #137 -------------------------------------------------------------------------- _