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128. हे राजाधिराज ! मेरी (पत्नी) एक क्षण के लिए भी (मेरे)
पास से ही नहीं जाती (थी), फिर भी (उसने) (मुझे) दुःख से नहीं छुड़ाया।
129. तब मैंने (अपने मन में) इस प्रकार कहा (कि) (इस)
अनन्त संसार में (व्यक्ति को) निश्चय ही असह्य पीडा बार-बार (होती) (है), जिसको अनुभव करके (व्यक्ति अवश्य ही दुःखी होता है)।
130. यदि (मैं) इस घोर पीड़ा से तुरन्त ही छुटकारा पा जाऊं,
(तो) (मैं) साधु-संबंधी दीक्षा में (प्रवेश करुंगा) (जिससे) (मैं) क्षमा-युक्त, जितेन्द्रिय और हिंसा-रहित (हो जाऊंगा)।
131. हे राजा! इस प्रकार विचार करके ही (मैं) सोया था।
(आश्चर्य !) क्षीण होती हुई रात्रि में मेरी पीडा (भी) विनाश को प्राप्त हुई।
132. तब (मैं) प्रभात में (अचानक) निरोग (हो गया)। (मतः)
वन्धुओं को पूछकर साधु-संबंधी (भवस्था) में प्रवेश कर गया। (जिसके फलस्वरूप) (मैं) क्षमा-युक्त, जितेन्द्रिय तथा हिंसा-रहित (बना) ।
133. इसीलिए मैं निज का और दूसरे का भी तथा अस और
स्थावर सब ही प्राणियों का नाथ बन गया।
चयनिका
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