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138. जिस (व्यक्ति) के ईर्या (चलने) में , भाषा (बोलने) में
मोर एषणा (भोजन) में, आदान-निक्षेपण (वस्तुओं को उठाने-रखने) में, (शारीरिक) गन्दगी को व्यवस्था में कुछ
भो सावधानी (महिंसात्मक दृष्टि) नहीं है, (वह) वीरों द्वारा • चले हुए मार्ग का अनुसरण नहीं करता है।
139. (जो) दीर्घ काल तक (बाह्य) दृष्टि से साधु-अवस्था में
संलग्न रहकर भी (महिंसात्मक) चरित्र में डावा-डोल (होता है), (तथा) तप और नियमों से विचलित होता रहता है), वह दीर्घ काल तक निज को दुःख देकर भी संसार (परतत्रता) में ही (डूबा हुआ रहता है) भोर (उसको) पार करने की योग्यता रखनेवाला नहीं होता है।
140. वह (कथित साधु-अवस्था) खाली मुट्ठी की तरह ही निरर्थक
होती है; खोटे सिक्के की तरह अनादरणीय (होती है); (वह) काँच-मरिण (के समान बनी रहती हैं) (जो) वैडूर्य रत्न की (केवल बाह्य) चमकवाली (होती है)। (अतः) (वह) ज्ञानियों में मूल्यरहित होती है।
141. वह (कथित प्रकार का साघु) दुराचरण-पूर्ण वेश को धारण
करके इस लोक में (रहता है) (तथा) साघु-चिन्ह को बनाए रखकर (भी) माजीविका में (मन लगाता है)। (इस तरह से) (अपने) असंयत (जीवन) को संयत (जीवन) कहते हुए (वह) दोर्घ काल तक भी संसार (परतंत्रता) को प्राप्त करता है।
चयनिका
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