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व्यक्ति वन जाता है । उसमें एक असाधारण अनुभूति का जन्म होता है । इस अनुभूति को ही हम मूल्यों की अनुभूति कहते हैं । वह अब वस्तु-जगत में जीते हुए भी मूल्य-जगत में जीने लगता है । उसका मूल्यजगत में जीना धीरे-धीरे गहराइ की ओर बढ़ता जाता है । वह अब मानव मूल्यों की खोज में संलग्न हो जाता है । वह मूल्यों के लिए हो जीता है और समाज में उसकी अनुभूति बढ़े इसके लिये अपना जीवन समर्पित कर देता है । यह मनुष्य की चेतना का एक दूसरा प्रायाम है |
उत्तराध्ययन में चेतना के दूसरे आयाम की सबल अभिव्यक्ति हुई है । इसका मुख्य उद्देश्य एक ऐसे समाज की रचना करना है जिसमें इन्द्रिय-भोगों की इच्छाओं पर अंकुश लगे और संयममय जीवन के प्रति आकर्षण बढ़ें। यह सर्व मनुभूत तथ्य है कि इन्द्रिय-भोगों में रमण करने से इन्द्रिय-भोगों में रमण करने की इच्छा बारबार उत्पन्न होती है । इच्छा से मानसिक तनाव उत्पन्न होता है जो दुःस का कारण बन जाता है । उत्तराध्ययन का कहना है कि इन्द्रिय-भोग निश्चय ही अनर्थो को खान होते हैं, क्षण भर के लिए सुखमय तथा बहुत समय के लिए दुःखमय होते हैं / अति दुःखमय तथा अल्प सुखमय हैं वे संसार सुख और मोक्ष-सुख दोनों के विरोधी बने हुए रहते हैं (57)। यह ध्यान देने योग्य है कि जिसकी इच्छा बिदा नहीं हुई है, ऐसा मनुष्य रात-दिन मानसिक तनाव से दुःखी रहता है ( 58 ) । सच है वे मनुष्य दुर्बुद्धि हैं जो भोगों में अत्यन्त लालायित होते हैं । इस कारण से वे भोगों से चिपके रहते हैं, जैसे मिट्टी का गोला गोला दिवार पर चिपक जाता है (72, 73 ) । ऐसा विलासी व्यक्ति : प्रशान्त रहता है और मानसिक तनाव में हो. भटकता रहता है (71) : इस तरह से मूर्ख मनुष्य भोगों में मूच्छित होकर इच्छारूपी अग्नि के : द्वारा जलाए जाते हैं (66) |
चयनिका
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