________________
30. पूर्णतः प्रत्येक जीव को जानकर (व्यक्ति उसके) प्राणों को
(अपने समान) प्रिय रूप में ग्रहण करे। (वह) भय (और) वैर से विरत (हो) (तथा) जीवों के प्राणों का घात न करे।
31. जो कोई मन से, वचन से (तथा) काय से शरीर में, कोति
में और रूप में पूर्णतः आसक्त (होते हैं), वे समस्त दुःखों के स्रोत (हैं)।
32. प्रज्ञानी, मन्द और मूढ़ (व्यक्ति) (जो) भोग को लालसा
के दोप में डूबा हुमा (ह), (जिसकी) (स्व-पर) कल्याण तथा मम्युदय में विपरीत बुद्धि (है), (वह) अशुभ कर्मों के द्वारा) बांधा जाता है, जैस कफ के द्वारा मक्खी (वांधी जाती है।
33. (जो) प्राधियों को विल्कुल नहीं मारता है, वह (प्राणियों)
(का) रक्षक (होता है।। इस प्रकार (वह) सम्यक् प्रवृत्तिवाला कहा जाता है। उस कारण (सम्यक् प्रवृत्ति के कारण) उसके अशुभ-कर्म विदा हो जाते हैं, जैसे कि सूखी जमीन
से पानी (विदा हो जाता है। 34. जो (कोई) इस सकल लोक को किसी के लिए पूर्णरूप
से दे मी दे, (तो) वह उसके द्वारा भी तृप्त नहीं होगा। इस प्रकार यह गनुप्य कठिनाई से तृप्त होनेवाला (होता है।।
पनिका
[ 15