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93. (उन्होंने) कहा (कि) (जो) रूप (है। (उसका) ज्ञान चक्षु
इन्द्रिय द्वारा (होता है) । (सामान्य रूप से) (उन्होंने) मनोहर (रूप) को राग का निमित्त कहा (तथा) अमनोहर (रूप) को द्वेष का निमित्त कहा, किन्तु जो उन में तटस्थ (होता है) वह वीतराग (कहा.गया है)।
94. जो रूपों में तीव्र आसक्ति को प्राप्त करता है, वह असामयिक
विनाश को पाता है। जैसे रूप से प्रभावित तथा प्रकाश में आसक्त वह पतंगा (असामयिक) मृत्यु को प्राप्त करता है।
95. वस्तु-जगत् से विरक्त मनुष्य दुःख रहित (होता है), संसार
के मध्य में विद्यमान भी (वह) दुःख-समूह की इस अविच्छिन्न धारा से मलिन नहीं किया जाता है, जैसे कि कमलिनी का पत्ता जल से (मलिन नहीं किया जाता है)।
96. वास्तव में इन्द्रियों के विपय और मन के विषय आसक्त
मनुष्य के लिए दुःख का कारण (होते हैं)। वे (विफ्य) भो कभी वीतराग के लिए कुछ थोड़े से भी दुःख को उत्पन्न नहीं करते हैं।
97. (व्यक्ति) विषयों के कारण न अविकार (अवस्था) को प्राप्त
करते हैं और न विषयों के कारण विकार को प्राप्त करते हैं । जो उनमें द्वेषी और रागी (होता है), वह उनमें मूर्छा के कारण (ही) विकार को प्राप्त करता है।
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