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109. (आप जैसे) पूज्यों के लिए (मैं) नाथ होता हूँ। हे संयत !
मित्रों और स्वजनों द्वारा घिरे हुए (रहकर) (आप) भोगों को भोगो, चूकि मचमुच मनुष्यत्व (मनुष्य-जन्म) अत्यधिक दुर्लभ (होता है)।
110. हे मगध के शासक ! हे श्रेणिक ! (तू) स्वयं ही मनाय है।
स्वयं अनाथ होते हुए (तू) किसका नाथ होगा?
III. साधु के द्वारा (जब) इस प्रकार कहा गया (तब) पहिले ।
कभी न सुने गए (उसके ऐसे) वचन को (सुनकर) आश्चर्य युक्त वह राजा (श्रेणिक) अत्यधिक हडबड़ाया तथा बहुत अधिक चकित हुआ।
112. मेरे (अधिकार में) हाथी, घोडे (और) मनुष्य (हैं), मेरे
(राज्य में) नगर और राजभवन (है) । (मैं) मनुष्यसंबंधी भोगो को (सुखपूर्वक) भोगता हूँ, प्राज्ञा और प्रभुता मेरी (ही चलती है)।
113. वैभव के ऐसे आधिक्य में (जहाँ) समस्त प्रभीष्ट पदार्थ
(किसी के) समर्पित हैं, (वह) अनाथ कैसे होगा? हे पूज्य ! इसलिए (अपने) कथन में झूठ मत (बोलो)।
114. (साधु ने कहा) (मैं) समझता हूँ (कि) हे नरेश ! तुम
अनाथ के अर्थ और (उसकी) मूलोत्पति को नहीं (जानते हो)। (प्रतः) हे राजा! जैसे अनाथ या सनाथ होता है, . (वैसे तुम्हे समझाऊँगा)
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