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103. और उसके रूप को देखकर राजा के (मन में) उस साधु
के सौदर्य के प्रति अत्यधिक, परम तथा बेजोड़ आश्चर्य
घटित हुआ। 104. (परम) आश्चर्य! (देखो) (साधु का (मनोहारी) रंग
(और) आश्चर्य ! (देखो) (साधु का) (आकर्षक) सौन्दर्य । (अत्यधिक) आश्चर्य ! (देखो) आर्य की सौम्यता; (अत्यन्त) पाश्चर्य ! (देखो) (आर्य का) धैर्य; आश्चर्य ! (देखो) (साघु का) संतोष (और) (अतुलनीय) आश्चर्य ! (देखो) (सुकुमार) (साधु की। भोग में अनासक्तता।
105. और उसके चरणों में प्रणाम करके तथा उसकी प्रदक्षिणा
करके (राजा श्रेणिक) (उससे) न अत्यधिक दूरी पर (और) न समीप में (ठहरा) (और) (वह) विनम्रता और सम्मान
के साथ जोड़े हुए हाथ सहित (रहा) (और) (उसने) पूछा । 106. हे आय ! (आप) तरुण हो। हे संयत ! (आप) भोग
(भोगने) के समय में माधु बने हुए हो। (आश्चर्य !) (ग्राप) साधुपन में स्थिर (भी) हो। तो इसके प्रयोजन को
(चाहता हूँ कि) मैं सुनूं। 107. (साधु ने कहा) हे राजाधिराज ! (मैं) अनाथ हूँ। मेरा
(कोई) नाथ नही है । किसी अनुकम्पा करनेवाला (व्यक्ति) या मित्र को भी मैं नहीं जानता हूँ।
108. तब वह मगध का शासक, राजा श्रेणिक हँस पड़ा। (और
बोला) आप जैसे समृद्धिशाली के लिए (कोई) नाथ कैसे नहीं है ?
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