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89. जिसके (मन में) मूर्छा नहीं है, (उसके द्वारा) दुःख दूर
किया गया (है), जिसके (मन में) तृष्णा नहीं है, (उसके द्वारा) मूर्छा दूर को गई (है), जिसके (मन मैं) लोम नहीं है. (उसके द्वारा) तृष्णा दूर की गई है), (तया) जिसके (मन में) (कोई) वस्तु नहीं है, (उसके द्वारा) लोम दूर किया गया (है)।
90. विवेक-युक्त सोने (और) बैठने में नियंत्रित (व्यक्तियों) के
चित्त पर, न्यून भोजन करनेवालों के (चित्त पर) (तथा) जितेन्द्रियों के (चित्त पर) आसक्तिरूपी शत्रु प्राक्रमण नहीं करते हैं, जैसे औषधियों द्वारा पराजित रोगरूपी शत्रु (शरीर पर प्राक्रमण नहीं करते हैं) ।
91. देव (समूह) सहित समस्त मनुष्य (जाति) का जो कुछ भी
कायिक और मानसिक दुःख (हे), (वह) विषयों में अत्यन्त आसक्ति से उत्पन्न (होता) है। उस (दुःख) की समाप्ति पर वीतराग पहुंच जाता है।
92. जैसे किंपाक (प्राण-नाशक वृक्ष) के फल खाए जाते हुए
(तो) रस और वर्ण में मनोहर होते हैं, (किन्तु) पचाए जाते हुए वे (फल) लघु जीवन को (ही) (समाप्त कर देते हैं), (वैसे ही) इन्द्रिय-विषय परिणाम में इससे (किंपाकफल से) मिलते:जुलते (होते है)।
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