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79.
हे पूज्य ! ज्ञान की आराधना से मनुष्य क्या उत्पन्न करता है ? (वह) ज्ञान की आराधना से (अपने तथा दूसरों के) अज्ञान को दूर हटाता है और कभी दुःखी नहीं होता है ।
80. हे पूज्य! एक लक्ष्य पर मन को ठहराने से मनुष्य क्या उत्पन्न
करता है ? एक लक्ष्य पर मन को ठहराने से (वह) चित्त का निरोध (नियंत्रण) करता है।
81. हे पूज्य ! अनासक्ति से मनुष्य क्या उत्पन्न करता है ?
अनासक्ति से (वह) (अपने में) निलिप्तता उत्पन्न करता है । निलिप्तता से मनुष्य (दूसरे की) सहायता (की आवश्यकता से) रहित (तथा) दिन में और रात में एकाग्र चित्त (वाला) (होता है)। और (वस्तुओं में) आसक्ति न करता हुआ (वह)
न बंधा हुआ (स्वतन्त्र) (ही) विहार करता है। 82. हे पूज्य ! वोतरागता से मनुष्य क्या उत्पन्न करता है ?
(वह) वीतरागता से राग-संवधों को तथा तृप्णा-बन्धनों को .
तोड़ देता है। (और) मनोहर शब्द, स्पर्श, रस, रूप (तथा) • गन्ध से भी निलिप्त हो जाता है।
83. हे पूज्य ! आर्जवता (निष्कपटता) से मनुष्य क्या उत्पन्न
करता है ? आर्जवता से (वह) काया की सरलता, मन का खरापन, भाषा की मृदुता (और) (व्यवहार में) अधूर्तता को उत्पन्न करता है। अधूर्तता की प्राप्ति से जीव धर्म (नैतिकता) का साधक होता है ।
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